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करते हुए प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सहित वस्तु के अनन्त धर्मों को प्रकट करना, कहना इस शाब्दबोध की प्रक्रिया को अनेकान्तवाद कहते हैं । “स्याद्” शब्द से युक्त प्रत्येक अंग कहा जाता है । अतः स्याद् शब्द जो कथंचित् अर्थ में है वह जिस अंग को कहता है उसी समय अन्य अंश की अपेक्षा भी साथ ही रखता है, कहता है । अपेक्षा सहित कहने की प्राधान्यता के कारण सापेक्षवाद कहा जाता है। और कथंचित् अर्थ में स्याद् शब्द के प्रयोगपूर्वक वाक्य रचना कही जाती है । इसलिए “स्याद्वाद” नामकरण भी सही है।
कहते समय एक धर्म की विवक्षा रखकर कहते हुए अन्य अंशों की अपेक्षा ग्रहित रखता है । छोडता नहीं है । ऐसी एक वस्तु में एक धर्म की अपेक्षा से विवक्षा करते हुए उसी धर्म के विरोध धर्म की विवक्षा भी अपेक्षा बुद्धि से साथ ही रखने के कारण सात भंग पडते हैं । अतः “सप्तभंगी" शब्द से संबोधित की जाती है। सप्तभंगी में प्रयुक्त सातों भंग वस्तु के एक धर्म की विरुद्ध और सिद्ध दोनों प्रकार से ७ तरीकों से विचार कर सत्य की पूर्णता को प्राप्त होता है। इसी तरह अनन्त धर्मों की विचारणा सप्तभंगी पद्धति से करके पदार्थ को शुद्ध पूर्ण सत्यात्मक स्वरूप कहा जाता है । उसे ज्ञानियों ने सम्यक् या सत्योसप्तभंगी पद्धति कही है। नयों की भंगी मिथ्या भंगी कही जाती है। इसलिए मिथ्यात्व का क्या और कैसा स्वरूप है वह नयभंगी से ख्याल आ जाता है । जब हम पदार्थ के एक ही धर्म की विवक्षा रखकर बात कहते हैं, विचारणा करते हैं, तब मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। और सत्य समाप्त हो जाता है । जब स्याद्वाद की सप्तभंगी द्वारा वस्तु के सभी धर्मों का सापेक्षभाव से बोध प्राप्त किया जाता है । तब सत्य स्वरूप प्रकट होता है । अतः पदार्थ की यथार्थ सत्यता को द्योतित करनेवाला सत्य-सम्यग् दर्शन कहलाता है। इसलिए स्याद्वाद–सापेक्षवाद-अनेकान्तवाद को ही सत्यान्वेषी-सत्य के आग्रही को स्वीकार करना चाहिए। और इसकी प्रमाण सप्तभंगी से सत्य प्रकट करना चाहिए। अन्य सभी दर्शन नयवाद की अपेक्षा से मिथ्यादर्शन___ दर्शनशास्त्र का कार्य तत्त्वज्ञान का सत्यस्वरूप प्रतिपादन करने का है। आत्मा-परमात्मा मोक्षादि तत्त्वभूत पदार्थों का यथार्थ-सत्यस्वरूप प्रकट करना यह दर्शनशास्त्रों का कार्य है। ऐसे पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विचारसरणीवाले अनेक दर्शन हैं। लेकिन वे दर्शन भी यदि प्रमाणसप्तभंगी की पद्धति से स्याद्वादपूर्वक वस्तुस्वरूप का यथार्थ वर्णन करें तो ही चरमसत्य का स्वरूप जगत के सामने रख सकते हैं। अन्यथा नयों की एकांशी दृष्टि से प्ररूपणा करनेपर संपूर्ण सत्य को प्रकट नहीं कर पाएंगे और
"मिथ्यात्व” – प्रथम गुणस्थान
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