Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

Previous | Next

Page 405
________________ की प्रवृत्ति हो या चाहे संसार के व्यवहार की प्रवृत्ति हो दोनों क्षेत्रों में विवेकपूर्वक ही प्रवृत्ति करनी हितावह है । प्रत्येक पदार्थ - वस्तु या व्यक्ती - या प्रवृत्ति जब जो भी सामने आए तब सबसे पहले इन विवेक के तीनों पदों में से पहले हेय - त्याज्य का विचार करो । क्या यह त्याज्य है या नहीं ? यदि अंतरात्मा साक्षी देती है कि त्याज्य है- हेय है, तो उसी क्षण उसका त्याग कर देना चाहिए। अब आत्मा के लिए अहितकर वस्तु का त्याग हो जाने के बाद जो ज्ञेय पदार्थ है उन्हें जानना चाहिए। और अन्त में जो उपादेय है उसका आचरण सही करना चाहिए । यदि य को उपादेय मानकर आचरण करते हैं तो सर्वथा विपरीतं होता है और उपादेय को हेय मानकर अज्ञानवश छोड दें तो भी सर्वथा विपरीत होगा । जो आत्मा के लिए श्रेयस्कर मार्ग है उसको कभी भी छोडना नहीं चाहिए । अवश्यरूप से आचरण करना चाहिए। हाँ, दोनों ही पदार्थों को जान तो लेना ही चाहिए। दशवैकालिक आगम शास्त्र में साफ कह रहे हैं कि— सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयंपि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ हे चेतन ! कल्याणकारी— श्रेयस्कर मार्ग को अच्छी तरह पहचान लो और इसी तरह पापमार्ग—अहितकर-अकल्याणकर मार्ग को भी अच्छी तरह पहचान लो । इस तरह दोनों मार्गों को अच्छी तरह पहचानकर इन दोनों में से जो आपकी आत्मा के लिए कल्याणकारी— श्रेयस्कर मार्ग लगे उसी का आचरण करो । अन्य का त्याग अवश्य करो । पहले किसको पहचानें ? गुण और दोष दोनों मार्ग हैं, पुण्य और पाप दोनों मार्ग हैं। धर्म और अधर्म दोनों के मार्ग हैं | अब आप ही सोचिए कि इन दोनों में से पहले किसको पहचाने ? जानें ? क्या श्रेयस्कर - कल्याणकारी मार्ग को पहले पहचाने ? या अहितकर - अकल्याणकारी मार्ग को पहले पहचाने ? उदाहरण से एक बात समझिए – किसी के पिता मृत्यु के समय ५० लाख की पूंजी देकर गए हो । अब पुत्र ५० लाख की पूंजी का मालिक है । उसे पहले क्या करना चाहिए? क्या पहले व्यापार उद्योग के लिए सोचना चाहिए ? या पहले नुकसान कारक तत्त्वों से बचने के लिए सोचना चाहिए? कोई चोर आकर चोरी न कर ३४४ आध्यात्मिक विकास यात्रा

Loading...

Page Navigation
1 ... 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496