Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 391
________________ आत्मा की भी ऐसी स्थिति हो गयी तो हमारे जैसे सामान्य मानवी की क्या शक्ती? कि हम ऐसी गुणस्तुति गुणप्रशंसा के अवसर पर अपने आप को बचा सकेंगे। अतः स्वगुणस्तुति–प्रशंसा स्वयं करने में, तथा दूसरे भी करें तब बहुत ही ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए। आज भी संसार में ९०% फीसदी लोग अपनी गुणस्तुति–प्रशंसा चाहते हैं। और पराए की निंदा करना चाहते हैं । यह कहाँ तक उचित है ? इसीलिए आज के संसार में आप देखेंगे कि.... अधिकांश लोग नीच गोत्र में पैदा होते हैं । हल्के घराने में जन्म लेते हैं। अरे बंधुओं ! आप अपनी प्रशंसा भले ही चाहते हो, कोई आपत्ती नहीं है इसमें ... लेकिन परगुण को क्यों नहीं सहन कर पाते हो? जब सहन नहीं होता है तब उसकी प्रतिक्रिया के रूप में ईर्ष्या-द्वेष होता है । अतः निंदा ईर्ष्या, द्वेष और मत्सरवृत्ति में से जन्मती है । इससे बचना ही चाहिए। जिसे अपना संसार एवं भावि भव भ्रमण नहीं बढाना हो उसे इनसे अवश्य बचना ही चाहिए । बहुत सावधानी रखकर...आगे बढना चाहिए। 'प्रशमरति' में फरमा रहे हैं कि आत्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म निचैर्गोत्रम्।। प्रतिभवमनेक भव कोटिदुर्मोचम् ॥ आत्मप्रशंसा के कारण जीव ऐसा नीचगोत्र कर्म बांधते हैं कि— जो करोडों भवों में भी छूटना बडा मुश्किल होता है । गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया। . गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया।। ज्ञानसार में कहते हैं कि- यदि तुम सर्व गुणों से परिपूर्ण नहीं हो तो निरर्थक आत्मप्रशंसा क्यों करनी? और यदि तुम सर्वगुणों से परिपूर्ण हो तो फिर आत्मप्रशंसा की कोई आवश्यकता ही नहीं है । स्वप्रशंसा में परतिरस्कार की वृत्ति अंतर्निहित है और परनिंदा की वृत्ति में स्वप्रशंसा का मोह भी छिपा हुआ रहता है, जो बड़ा खतरनाक है। फिर आप कर्म के शिकार हो जाओगे। इसलिए स्पष्ट कहते हैं कि आलंबिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः। अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ।। सही बात है कि- दूसरों ने यदि आपकी गुणरूपी रस्सी पकडी है ? पकडने दो। अच्छा है । जैसे सूर्य की किरणें पकडकर गौतम स्वामीजी ऊपर चढ गए वैसे ही आपकी ३३० . आध्यात्मिक विकास यात्रा

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