Book Title: Tattva Bindu
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बलविन्छ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद बुद्धिसागरजी ग्रन्थमाळा ग्रन्थांक १० योगनिष्ठ मुनिराज श्री बुद्धिसागरजी कृत. श्री तत्त्वबिन्दुः अमदावादना प्रसिद्ध शेठ. मणिभाइ दलपतभाइ. तथा शेठ जगाभाइ दलपतभाइ बी, ए, तथा सरस्वतिबनना धन व्ययथी. छपावी प्रसिद्ध करनार, * श्रीअध्यात्मज्ञानप्रसारकममल. श्री “ लक्ष्मी" प्रिन्टिंग प्रेस-अमदावाद. वीर सं. २४३६ सने १९१० किम्मत ०-४-0 260000000000000000000000000060 appapa 2000000000000000000000000000000 For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्ध ग्रन्थः किंचिल्लेख्योद्देश. आर्यावर्तमां आजथी २४३६ वर्ष उपर चोवीशमा तीर्थकर श्री वर्धमानप्रभु ( महावीरप्रभु) विचरता हता. तत्समयमा अनेक भन्यजीवो सर्वज्ञ प्रभुनां वचनो सांभळी कृतार्थ थता हता. हालमा श्रीवीरमभुना वचनोनो समावेश मोटा भागे पिस्तालीश आगममा तथा पूर्वाचार्योरचित ग्रंथोमां थायछे.श्रीवीरप्रभुना समयमा पदार्थो स्वरूप जेवु उपदेशातुं हतुं तेवु स्वरूप हाल पण तेमना सिद्धान्तो वांचतां समजायचे. हालमा विद्यमान जिनागमोने यांचतां वस्तुनुं यथार्थ भान थायछे. सिद्धांतोर्नु मनन, स्मरण करतां ज्ञानावरणीय कर्मनी क्षयोपशम थायछे. प्रभुनी वाणीनु अगाध स्वरूपछे. जेम जेम वा. चीए छीए. मनन करीए छीए, तेम तेम तेमांथी कंडक नईं स्वरूप समजायछे. जिनागमोठे वाचन करतां कोइ कोइ विषय संबंधी नोटबुक करी सर्व विषय संग्रही तेनो आ विचार बिंदुग्रंथ बनाव्योछे, सिद्धांतमा कहेला तखोना स्वरूपनी आगळ आ ग्रंथबिक समानछे माटे तत्वविकु एवं सार्थक नाम आप्युठे. आ तवबिंदुमो कोई कोई स्थळे जे जे विषयों लख्याछे, तेमाँ ग्रंथोनी साक्षीओ आपवामां आवीछे. सम्मतितर्क, विशेषावश्यक For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति, पनवणासूत्र, भगवतीसूत्र, विचारबिंदु, प्रश्नोत्तर सार्धशतक, प्रश्नचिंतामणि वगेरे ग्रंथोनी साक्षी आपवामां आवीछे. अमदावादना प्रसिद्ध श्रावकश्रोता शा. छोटालाल लक्ष्मीचंदने आ ग्रन्थना विषयो वांची संभळाव्याछे. तेथी ते आनंद पाम्याछे. + आ लखेला विषयोसंबंधी कोइने कंइ कहेवार्नु होय तो रुबरु श्री पत्रथी पुछी खुलासो करवो. आ ग्रन्थमा प्रायः छद्मस्थदृष्टिथी कोइस्थळे आगमविरूद्ध लखायु होयतो ते पंडितो सुधारशो. वामने सिद्धांतसाक्षीपूर्वक जणाववामां आवशेतो बीजी आवृत्तिमां शुद्धि करवामां आवशे. आ विषयो लखतां अमदावादमां झवेरीवाडा. आंबलीपोळना उपाश्रयमा विशेषावश्यक वंचातु हतुं. आठहजार श्लोकपूर्ण थया. तेथी तेमांथी केटलाक विषयो विशेषनः लख्याछे ते पुनः पुनः मनन करवा योग्यछे. ___ संवत १९६५ नुं चोमासु अमदावादमां कपुंछे त्यां विशेषावश्यक वाचवामां आवतुं हतुं. त्यारे व्याख्यानमां श्रोताओमा नगरशेठ. मोहनलाल लल्लुभाइ तथा प्रसिद्धश्रोता शा. छोटालाल लखमीचंद तथा शा. हीराचंद ककलभाइ तथा. शा. त्रिकमभाइ आलमचंदद तथा शा. हीराचंद सजागजी तथा शा. पालाभाइ ककलभाइ, वगेरे हता. साध्वीओमां श्रवण करनार तरीके मुख्य साध्वीश्री शिवश्रीजी तथा साधीनी श्रीसुरश्रीजी तथा श्रीहरख For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजी वगेरे तथा श्राविकाओमां शेठाणी.गंगाबेन,तथा चंचळबेन तथा शेठ. लालभाइ दलपतभाइनी पुत्री माणेकबेन तथा शेठाणी. गंगावे. ननी दीकरीनीपुत्री सरस्वतिबेन वगेरे हता.श्रोतानीमंडली सुज्ञ होवाथी विशेषावश्यक वांचतां सर्वने आनंद थतो हतो. अने ते समये उपयोगी जे विषयो जणाया हता. ते लखी लीधा हता. विशेषावश्यक काशी छपायछे तेथी विशेषतः अनुक्रमे सर्व विषयोनो उतारोको नथी.कोइ उपयोगी विषयोने ध्यानमा आवतां अत्र दाखल कर्याछे. तेमां जे कंइ जिनाज्ञा विरुद्ध होय तो सज्जनो सुधारशो. ग्रंथनी शुद्धि करशो. प्रसंग हशे तो तत्वबिंदुनो द्वितीयभाग प्रसंगे लखाशे तो छपाववामां आवशे. आ ग्रन्थ तथा अन्य ग्रन्थो छपाववामां अमदावादना श्रावक वर्गमा अग्रगण्य प्रसिद्ध शेठ दलपतभाइ भगुभाइना पुत्र शेठ मणिभाइ दलपतभाइ, तथा शेठ जगाभाइ दलपतभाइ बी. ए. ए धनथी सारी रीते स्हाय करीछे, माटे ज्ञानक्षेत्रनी उन्नति अर्थे धन व्यय करवायी तेमने धन्यवाद घटेछे. ज्ञानना रसिया श्रावक गृहस्थो धन वगेरेथी जिनशासनी उन्नति करी प्रतिदिन लक्षादि धन्यवादोने पात्र थाओ. तेममा आत्मानी उन्नति थाओ. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः मुकाम. अमदावाद झवेरी वाडो. आंबली पोळनो उपाश्रय. सं. १९६६ मागसर शुदी ५ शुक्रवार. लि. मुनि. बुद्धिसागर. For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *3. 000 For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगनिष्ठ मुनि बुद्धिसागरजी कृत ग्रन्थोनी यादी. अने ते मळवानां ठेकाणां પુસ્તકનું નામ, મળવાનું ઠેકાણું, ૧ જૈન ધર્મ અને પ્રસ્તિ ધી જે કેન્ડલી સાઈટી-મુંબઈ ધર્મને મુકાબલે. ૨-૩ શ્રી રવિસાગરજી ને વડોદરા મામાની પિળ શા કેશવલાલ અને શેકવિનાશક લાલચંદને ત્યા, ૪પદ્રવ્ય વિચાર, પાદરા, શા. મેહનલાલભાઇ હીમચંદ ૫ વચનામૃત વકીલ કે અધ્યાત્મશાંતિ-શા રતનચંદ લાધાજી કાવીઠા બેરસદ પાસે ૭ ચિંતામણિ છે જેનો દય બુદ્ધિસાગર સમાજ ૮ કન્યાવિક્રય નિષેધ. ૯ પૂજા સપ્રહ, સાણંદ ૧૦ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ-શા. મણિલાલ વાડીલાલ સાણંદ ૧૧ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ અમદાવાદ સંભવ જિનમંડલ. ભાગ બીજે, ૧૨ સમાધિશતક-શેઠ, જગાભાઈ દલપતભાઈ મુ. અમદાવાદ, જ્ઞાન પ્રસારક મંડલ. મુબાઈ ઝવેરી બજાર. ૧૪ સત્ય સ્વરૂપ છે. જે ૧૫ આત્મા પ્રા. શા. વીરચંદ કૃષ્ણાજી એ માણસ, પુના-વૈતાલપેઠ. ૧૬ ભજન સંગ્રહ ભાગ પહેલો ૧૭ ભજન સંગ્રહ ભાગ બીજે | અમદાવાદ, ૧૮ ભજન સંગ્રહ ભાગ ત્રીજે, ૧૯ ભજન સંગ્રહ ભાગ ચે. જન બેડીગ નાગરીસરાહ, ૨૦ અધ્યાત્મજ્ઞાન વ્યાખ્યાનમાળ) For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૧ આત્મપ્રદીપ ] ૨૨ અધ્યાત્મગીતા. ર૩ આત્મસ્વરૂપ, I ! અમદાવાદ જેવેતાંબર બોડીગ ૨૪ અનુભવ પચીશી, કે ૨૫ ૫રમાત્મ દશન નાગરીશાહ, ૨૬ પરમાત્મ તિ, ર૭ ગુરૂબોધ, ૨૮ પ્રાચીન ન્યાય ગ્રંથ ઉદ્ધાર ઝવેરી ભેગીલાલ તારાચંદ, સંસ્કૃત સ્યાદ્વાદ મુક્તાવલી. કે અમદાવાદ ડોશીવાડાનીપળ. ર૯ તૂર્વબિંદુ (યાને સંક્ષિપ્ત જૈન બોડીગ - સિદ્ધાંત રત્ન, નાગોરશાહ અમદાવાદ૩૦ ચેતનશક્તિ ગ્રન્થ-(ભજન સંગ્રહ ત્રીજા ભાગમાં) ૩૧ વર્તમાનકાલ સુધારે-(ભ, ત્રીજા ભાગમાં) ૩ર ઉમ્રઢ નિરાકરણ- ભજન સં, ૪ ચેથામાં) ૩૩ અધ્યાત્મ વચનામૃત અન્ય (ભજન સંગ્રહ ભાગ છે નહીં છપાવેલા ગ્રંથોની યાદી. ૩૪ તત્વ પરીક્ષા વિચાર ૩ષ ધ્યાન વિચાર ૩૬ સુખસાગર ૩૭ ગુરૂમાહાભ્ય, ૩૮ શ્રીમંત સરકાર ગાયકવાડ સયાજીરાવની આગળ આપેલું ભાષણ * पत्र सदुपदेश. For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org योगनिष्ठमुनिबुद्धिसागरेण. ॥ तत्त्वविन्दुग्रन्थः प्रारभ्यते ॥ प्रणिपत्य परात्मानं, धर्मदेव गुरुंगिरं ॥ शास्त्रोदधेः समुद्धृत्य तत्त्वबिन्दु विरच्यते ॥ १ ॥ १ पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय ए चार प्रत्येकना स्थानक ३५० जाणवतं. " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० ने पांचवर्णे गुणवा. जे सरदाळो आवे तेने बेगंधथी गणवो. फेर पांचरसथी गुणाकार करवो. फेर आठ स्पर्शथी गुणाकार करवो. अने फेर पांच संस्थानथी गणवा. ते सर्व गणतां सातलाख योनि थाय. प्रत्येक वनस्पतिना ५०० स्थानक. साधारण वनस्पतिकायनां ७०० स्थानक. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय स्थानक १०० प्रत्येकनां जाणवतं. देवता, नारकी, तिर्यचपंचेंद्रिय प्रत्येकनां स्थानक २०० जाणवां. मनुष्य योनि चउदलाखनां उत्पत्ति स्थानक ७०० जाणवां. जेनो वर्ण, गंध, रस, अने स्पर्श एक होय तेनी एक योनि जाणवी. For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३) arrange ३ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, धर्म, अधर्म, हेय, ज्ञेय, उपादेय, निश्चय, व्यवहार, उत्सर्ग, अपवाद, आश्रव, परिश्रव, अतिचार, अनाचार, अतिक्रम, व्यतिक्रम, इत्यादि, सांभळ्याविना शास्त्ररहस्य समजाय नहि. ४ सुस्थान, सुग्राम, सुजाति, सुभ्रात, सुतात, सुमाता, सुकुल, सुबल, सुखी, सुपुत्र सुपात्र, सुदान, सुमान, सुरूप, सुविधा, सुदेव, सुगुरू, सुधर्म, सुदेशा दिनीयोगवाइ, पुण्यविना प्राप्त थती नथी. ५ सुमति, शीलवंत, संतोषी, सत्संगी, स्वजनसाचाबोला, सत्पुरुष, सुलक्षणा, सुलज्जावंत, गंभीर, गुणवंत, गुणज्ञ, एवा गुणवंत पुरुषनी संगति करतां धर्म पामी शकाय. ६ चोर, छलग्राही, अधर्मी, अधम, अविनेय, अधिकबोलो, अनाचारी, अन्यायी, अधीर, अधुरा, कुलक्षणा, कुबोला, कुपात्र, कुशील, खुशामती, कुलखंपण, तुच्छमतिवाळा जीवोनी संगति करवी नहि. For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः ७ सद्गुरुना उपदेशथी, तथा अभ्यासथी, तथा वैराग्यथी जीव धर्मरत्न पामी शके. ८ सूत्राभ्यास, अर्थाभ्यास, वस्तुअभ्यास तथा अनुभवाभ्यास ए चार प्रकारनो अभ्यास करतां धर्मवस्तुनी प्राप्ति थाय. ९ हिंसाथी पाप थायछे, षट्कायने हणवाना परिणामथी वैर अने पाप ए बे प्राप्त थायछे. अने ते पाप उदयमां आवे त्यारे अशाता, आकुलता, उद्वेगता, अस्थिरता उत्पन्न थायछे. १० दर्शनमोहनीय क्षयोपशमथी धर्म थायछे, तथा चारित्रमोहनीयना उदयथी पुण्य पाप थायछे, अविरतिनो उदय मंद थाय तथा क्षयोपशम थाय त्यारे विरतिनो उदय थाय. अने विरतिनो उदय थाय त्यारे षट्काय जीव उपर दयाना परिणाम उपजे. तेथी पुण्य थाय, अने अविरतिना तीव्र उदये पाप नीपजे, तेमां एटलं विशेष के चारित्र मोहनीयनो उदय मंद होय त्यारे पुण्य, अने चारित्र मोहनीय उदय तीव्र होय त्यारे पाप नीपजे. अने दर्शनमोहनीयना क्षयोपशमथी धर्म होय. तथा तेना क्षायिक भावथी धर्म होय. For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५) तत्त्वबिन्दुः ११ ज्यां मिथ्यावनी पुष्टि न थाय. अने स्याद्वादमार्ग विरूद्ध भा षण थाय नहीं. अने आत्मस्वरूप उपादेयरूपे प्ररूपवामां आवे. अने शुभक्रियानो आदर बतावे अने शुभक्रियाना फलनी वांछा न करावे, तिरस्कार बतावे, तेम अशुभक्रियानो तिरस्कार बतावे, अशुभक्रियानां फल दुर्गति आदि वतावे, इत्यादि आगमोक्तमरूपणाने देशना समजवी, पुण्यक्रिया सेववी पण तेना फलनी वांछा न करवी. तेनुं रहस्य एम समजवु के पुण्य क्रिया शुभ व्यापारे शुभयोगथी नहि आदरे तो मार्ग विरूद्धता थाय, परंपराए पण वीतराग मार्गे जोडाय नहि, अने जो पुण्यना फलनी वांछा करे.तो निदानरूप मिथ्यात्व प्रणमे, माटे पुण्य फल वांछा रहित शुभ क्रिया करवी. १२ जीवने यतो खेद निवारवा अर्थे पूर्वबंधकर्म संभारीए ते आ प्रमाणे-जेवां जीवे कर्म बांध्यांछे तेवां उदये आवेछे, ते मध्ये केटलांक कर्म प्रदेशे वेदीने खेरवेछे, केटलांक निकाचित कर्म बांध्याछे ते विपाके जीव वेदीने खेरवेछे, पण ज्ञानी आत्मा कर्म भोगवतां उदय निष्फल करे. आलोवे, निंदे, पश्चाताप करे. त्यारे अल्पबंध थाय, अने बहुनिर्जरा थाय, माटे ज्ञानी जीव समभावे कर्म वेदी उदय निष्फल करेछे. उपयोगे आत्मस्वरूप विचारे त्यारे अल्पकर्म बंध थाय. For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु: १३ - उववाह सूत्रमां चार प्रकारनी धर्मकथा कहीछे. १ आक्षेपिनी. २ विक्षेपिनी. ३ निर्वेदिनी . ४ संवेदिनी . १ तत्त्वमार्गमां जोडावे ते आक्षेपिनी. २ मिथ्यात्वमाथी निवर्तावे ते विक्षेपिनी. ३ मोक्षाभिलाष उपजावे ते निर्वेदिनी . ४ वैराग्यभाव उपजावे हे संवेदिनी धर्मकथा जाणवी ( ५ ) - केवलप्रभु क्षायिक नवलब्धि ते नवनिधि जाणवी, तथा पंचेन्द्रिय अने चार कषाय निवर्ताववाथी नव निधि मुनिराजने जाणवी. For Private And Personal Use Only १५ - च इन्द्रियनो विकार नष्ट थतां हृदयज्ञान चक्षु निर्मल थाय, श्रोतेंद्रियनोविकार मटे त्यारे जिनवचन श्रवणप्रीति प्रतीतिरूप थाय, जिव्हा इन्द्रियविकार नष्ट थतां आत्मिक अनुभवरस स्वाद पामे. नाशिकानो विकार मटतां आत्मगुणनी सुवासना पामे, स्पर्शन्द्रियनोविकार नष्ट थतां आत्ममदेशना स्वभावरूप स्पर्शन थाय, क्रोध नट थतां समता प्रगटे, मान नष्ट थतां मार्दवगुण प्रगटे, माया जतां आर्जवगुण प्रगटे, लोभ जतां संतोष गुण प्रगटे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (a) बिन्दुः १६ - मिथ्यात्वना चार प्रकारछे. १ प्रदेशमिथ्यात्व २ परिणाम मिथ्यात्व ३ प्ररूपणामिध्यात्व ४ प्रवर्तन मिध्यात्व तेमांथी व्यवहार समकित पामे त्यारे १ प्ररूपणामिथ्यात्व अने मवर्तन मिथ्यात्व टळे. ग्रंथिभेद थाय, उपशम तथा क्षयोपशम समकित पामे त्यारे परिणाम मिथ्यात्व टळे, तेमज क्षायिक समकित पामे त्यारे प्रदेश मिथ्यात्व टळे. १७ - चार प्रकारनी देशना जाणवी. १ धर्मदेशना २ गतिदेशना ३ बंध देशना ४ मोक्षदेशना. १८ - धर्मना चार प्रकार का छे. १ आचारधर्म २ दयाधर्म ३ क्रियाधर्म ४ वस्तुधर्म, १ आचारधर्म आदरतां जोवनो अनाचार टळे, तथा तेथी लौकिक यश, प्रतिष्ठा पामे, अन्य तीर्थवाळा पण जैनधर्मनी प्रशंसा करे. जैनधर्मना आचारनी अनुमोदना करे. २. दया धर्मथी हिंसाकर्म टळे, जीवनी सद्गति थाय. शुभकर्म उपार्जन करे, अने तेथी परंपराए मुक्तिपद प्राप्त करी शकाय. ३ क्रियाधर्म जे जिनपूजा-वंदन, सद्गुरूवैयावृत्य, पैौषध, प्रतिक्रमण आदि करतां कर्ममल नष्ट थाय, सुगति पमाय, परंपराए मुक्तिमार्गमां जोडाय. For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः ४ चोथो वस्तुधर्म. वस्तुस्वरूपे वस्तुधर्म पामतां स्वरूपाचरण स्थिरता तथा समकिन पामे, परमात्मस्वरूप थाय. ए चार भेदमाथी एक पण दुहवाय नहिं तेम प्रवर्तवु. जे भव्य क्रियाविधि आचरतो स्वस्वरूपोपयोगमां वर्ते ते शिघ्र कर्म नष्ट करी परमात्मपद पामे. १९-कर्म त्रिधाछे. अकर्मनी वर्गणा ते द्रव्यकर्म. पांच प्रकारनां शरीरते नोकर्म जाणवां, अने रागद्वेषते भावकर्म आत्माश्रित छे. तेमां द्रव्यकर्म अने नोकर्म पौद्गलिकछे. तथा शाता अने अशाता ते द्रव्यकर्माश्रितछे तथा हर्षोल्लास ते भावकर्माश्रितछे. २०-पंच परमेष्टीनुं स्मरण करवायो ओदयिककर्मनुं निवारग याय, अरिहंतादिक द्रव्यथी शरण करतो जीव पापनो उदय निफल करे. तथा विपाकवेदन पग अल्प थाय, तथा अपा अपंमिरओ-आत्मा आत्मानुं शरण करे अर्थात् स्वस्वरूपमा परिणमेतो सर्वकर्म क्षय करे. एम आत्मसरण अने निमित्तशरणनो भेद जाणवो. अरिहंतनुं नाम स्मरतां, ध्याता, रागद्वेष नष्ट थाय, सिद्धपद स्मरणा, ध्याता, आत्मा अरूपिभावने पामे. तथा आचार्यपद गणतां, स्मरतां, विचारतां, ध्यातां, पंचाचार प्रवर्तन सुलभ थाय, अने भवांतरे आचार्य गणधरादिक पद पामे. तथा उपाध्यायपदनुं स्मरण करतां तथा ध्यातां शास्त्रार्य तथा सूत्राभ्यासनी सुलभता थाय, भवांतरे अध्यापन शक्ति For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (6) तत्वबिन्दुः प्रगटे. साधुपदनुं स्मरण तथा ध्यान करतां मुक्तिमार्गनुं साधन थाय. गजसुकुमालनी पेठे तुरत मुक्तिपद पामे, दर्शनपद आराधतो समकित निर्मल करे, तथा चारित्रपद आराघतो अधा चारित्र पामे. तथा तपःपद आराधतां इच्छा निरोध थाय, ए नवपदनो संक्षेपथी भावार्थ समजवो. २१- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पामीने बांध्यां कर्म उदये आवे. जेवा रसे आवे वा प्रदेशे तथा विपाके भोगवे. भोंगवलां जेवां वेदे तेवां नवां वीजां बंधाय, वेदतां समभावे वेदे तो निर्जरा याय, रागद्वेषभावे वेदे तो नवां कर्म बंधाय, तथा रागद्वेषभावे वेदीने पश्चात् पश्चाताप करे तो कर्मबंधना रसघात करे. तथा स्थितिघात करे. अने कर्मबंधनी चिकाश टळे. अने ते कर्म उदयकाल पामीने सुखे खरी जाय, अने कर्म वेदतां मम थाय तो चीकणां कर्म बांचे ते उदयकाळे दुःखे भोगवे, अने कर्म निर्जरे पण वेदतां नवां कर्म बंधाय. २२ - क्रियाए कर्म अने उपयोगे धर्म अने परिणामे बंध जाणवो. २३ - धनबलथी दान देवाय, मनोबलथी शील पाली शकाय, तनुबलयी तप थाय, सम्यग्ज्ञानबलथी भावदृद्धि थाय, सद्गुरू For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दः AAAAAAAAAAAAAAAAAA AARN देशना श्रवण करवी, सुदेवनी सेवना करवी, सुधर्मनी आ. राधना करवी. २४-क्रोधमान बे द्वेषनां अंगछे, माया अने लोभ बे रागांगळे. नो. कषायमां स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अने नपुंसकवेद, ए त्रण वेद तथा हास्य तथा रति बे एमपंच रागनां अंगछे, तेमज अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, ए चार द्वेषनां अंग जाणवां. रागद्वेष तेज मोह जाणवो. २५-आत्मस्वभावे परिणमतां सम्यक्त्व गुण प्रगटे । २६-पांच इंन्द्रियना विषयरूप ते द्रव्यमन जाणवू. व्यक्ताव्यक्त वि कल्परूप भावमन जाणवू, अपेक्षाए आ व्याख्याछे. २७ शुद्धज्ञान उपयोगे जीव भावनिर्जरा करे, अने वैराग्यभाव उ दासिनताए द्रव्यनिर्जरा करे. For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) Tags २८ पुच्छायी अज्ञाननी पुष्टि थायछे, अने मूर्च्छाथी मिध्यात्वनी पुष्टि थाय छे. २९ आठ कर्म मध्ये मोहनीय कर्मनी अठ्ठावीश प्रकृतिछे, तेमां त्रण प्रकृति सम्यक्त्व मोहनीयनी जाणवी, चारित्र मोहनीयनी पश्री प्रकृतिछे ते मध्ये तेर प्रकृति रागना घरनी अने बार प्रकृति द्वेषना घरनी जाणत्री. ३० योगत्रि के उपाय कर्म ते तप संयमादि शुभ क्रिया व्यापारे प्रवर्ततां टळेछे, तथा शुद्ध उपयोगे आत्मस्वरूपमां परिणमतां सत्ताए कर्मछे ते मटावे. तथा मिध्यात्वथी बांध्यां कर्म समकितथी टळे, अविरतिनां बांध्यां कर्म विरतिथी टळे. कषायनां बांध्यां कर्म उपशमादि समता गुणथी टळे, प्रमादथी बांध्यां कर्म अम्माददशाए टळे. इन्द्रियविषयनां बांध्यां कर्म ते तपश्चर्याथी ढळे. ३१ सर्व संयोगोनो वियोग थशे. चेतन चेती ले. परमां इष्टबुद्धि दुःखतुं मूळछे For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Reaदुः (91) ३२ आत्मस्वभावां रम ! दुनीयादारीमां मुंझाइश नहीं. जीवन मंतिदिन वह्या करेछे. ज्यां प्रीति त्वां भीति रहीछे. स्वात्ममां प्रीति धर. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ तारु इष्ट तारा हाथमांछे, भूलीश वो भमीश. ३४ सद्गुरु आज्ञा सदा क्षणे क्षणे स्मरी स्वभावमां रमण कर. ३५ परस्वभावमां रमतां कोशंटाना जेवी अवस्था थशे. ३६ धननी केफ मदिरा समानछे, निरुपाधिमां सुख अने उपाधिमां दुःखज छे. ३७ बानी मोटाइ अन्तरनी मोटाइने रोके छे. For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) तत्त्वबिन्दु. ३८ आत्मस्वभावे जाग्या तेज जाग्याज जाणवा. ३९ जेटलो बाह्य वस्तुमां आनंद तेटलुंज पाछळथी दुःख. ४० चेतन हवे प्रमाद त्याग ? त्याग ? त्याग. ४१ मनुष्योना परिचयमां साधुओने अल्प आवq तेज हितकरछे, ४२ आत्मा तारी भूल तनेज नडशे. ४३ चेती ले, मायामां शुंम्हाली रह्योछे. ४४ सदेव सद्गुरू अने सद्धर्मनी श्रद्धा परम हितकारकछे. For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दु: ४५ स्वतंत्रजीवन आत्मस्वभावमां रमवाथीज जाणवुं. ( १३ ) ४६ पारकी आशा सदा निराशा आत्मसम्मुखताज करवा योग्यछे, ४७ कोइ जीव पाप बहु करे अने कर्म अल्प बांधे, अने कोइ जीव पाप अल्प करे अने कर्म व बांधे. कोइने पाप बहु अने कर्म पण बहु, कोइने पाप अने कर्म एके नहीं ए चौभंगी जाणवी. ४८ शुद्ध उपयोगे धर्म. क्रियाए कर्म, मिथ्यात्वमोहे भर्म, सम्यग् ef धर्माधिकारीछे. संकल्प विकल्पमां आत्मा परिणमेतो कर्म बंध करे. अने आत्मा निर्विकल्पभावे परिणमेतो धर्म प्रगटावी शके. For Private And Personal Use Only ४९ चैतमा वे प्रकारनीछे. १ ज्ञानचेतना बीजी अज्ञानचेतना. अज्ञानचेतनाना वे भेदछे, एककर्मचेतना बीजी कर्मफलचेतना. रागद्वेषपणे परिणमे ते कर्मचेतना जाणवी. अने जयमां आव्यां कर्मने वेदे ते कर्मफल चेतना जाणवी. ज्ञानचेतनामां भेद नथी. ज्ञानचेतना प्रगटतां कर्मचेतना अने कर्मफल टळे. समकित पाम्या बाद ज्ञानचेतना होय, मिथ्यात्वीने अज्ञान तनाज होय. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) बिन्दुः HAAJ ५० भूतकालनां पाप प्रतिक्रमणथी टळे. वर्तमानकालीन पापकर्म सामायिकथी टळे अने अनागतनां पापछे ते प्रत्याख्यानथी टळे. ५१ कर्मचेतना सजीवने होय. कर्मफल चेतना एकेन्द्रियादि प्रमुख ने होय. सम्यग्दृष्टिने ज्ञानचेतना होय. ५२ जीव त्रण प्रकारनाछे. १ एक भवाभिनंदी ते मिध्यादृष्टिजीव जावा. बीजा पुद्गलानंदी ते सम्यग्दृष्टिजीव जाणवा. सम्यदृष्टि जीवने शुभ कर्म पुद्गल उदय आवतां रति वेदाय पण संसारमां आनंद करी जाणे नहीं, माटे सम्यग्दृष्टि जीवने पुगलानंदी कहेवाय. केवल आत्मामांज आनंद माने अने स्वस्वभावमाज सुख माने ते मुनिराज आत्मानंदी जाणवा. ५३ शुभ उपयोगे सुगति होय. अशुभ उपयोगे कुगति होय, तथा अशुद्ध उपयोगे संसार तथा शुद्ध उपयोगे मुक्ति होय. ५४ पुण्य पाप ते योग आश्रयीछे, अने धर्म अधर्म ते उपयोग आश्रयीछे. For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः AAAAAAAA ५५ शरीर संबंधी बल अने अंतरंग आत्मपराक्रमते वीर्य जाणवू. अंतरंग आत्मानुं पराक्रम ते उदयानुसारी जाणवू. ५६ मुनि, योगसंवर आराधतां औदयिक कर्म निवारेछे. अने उप योगसंवर आराधतां सर्व कर्म नष्ट करेछे. ५७ पिस्तालीश लाख योजननो सीमंत नामनो नरकावासछे. मनु ष्यक्षेत्र पिस्तालीश लाख योजननोछे. हुडुक विमान पिस्तालीश लाख योजन प्रमाणछे. सिद्धशिला पिस्तालीश लाख योजन प्रमाणछे. ५८ सातमी नरकनो अप्रतिष्ठान पाथडो, तथा सर्वार्थसिद्धविमान, तथा जंबुद्वीप, ए त्रण पदार्थ लाख योजन प्रमाणछे. ५९ इरियावहियाना अहार लाख चोवीस हजार एकसोने वीश भेदछे ते नीचे मुजब जाणवा. पांचसोत्रेसठ जीवना भेदछे तेने For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दुः अभिहिया आदि दशपदे गुणवा. तेने राग अने द्वेषे गुणवा. तेने मनः वचन अने कायाना योगथी त्रणगुणा करवा. पुन: करवू करावq अने अनुमोदq एम त्रणे गुणीए. पुनः अतीत अनागत अने वर्तमान ए त्रणभेदे गुणी पुनः अरिहंतादिक छए गुणीए तो १८२४१२० भेद थाय. ६० धर्मक्षमा चतुर्थगुण स्थानकथी प्रगटेछे. क्षमा त्रण प्रकारनीछे. १ धर्मक्षमा २ उपकारक्षमा ३ अपकारक्षमा. ६१ उत्पातिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, त्रीजीकार्मणकीबुद्धि, चोथी पारिणामिकी बुद्धि जाणवी. ६२ प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, ए त्रण आवश्यक उपर प्रीति जाणवी. चतुर्विशतिस्तव, सामायक, अने गुरुवंदन ए त्रण आवश्यकपर भक्ति जाणवी. ६३ मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान पश्चात् अवधिज्ञान तथा मनःपर्यवज्ञान थयाविना केवलज्ञान उपजे. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान पश्चात् मनःपर्यायज्ञान थया विना पण केवलज्ञान होय. मति For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः (१७) अने श्रुतज्ञान थया बाद अवधिज्ञान थया विना पण मनःपर्यवज्ञान पामी केवलज्ञान पामे. मतिज्ञान. श्रुत अवधि अने मनः पर्यव ए चार ज्ञान पामीने पण केवलज्ञान थाय. ६४ देव पंच प्रकारनाछे. १ द्रव्यदेव, २ नरदेव, ३ धर्मदेव ४ दे वाधिदेव ५ भावदेव. देवायुष्य बांध्यु ते द्रव्यदेव. चक्रवर्ति ते नरदेव जाणवा. मुनिराज धर्मदेव जाणवा. तीर्थकर ते देवाधिदेव जाणवा. देवपणे उत्पन्न थएलते भावदेव जाणवा. ६५ देवनी स्त्रीयो देवताना करतां बत्रोश घणीछे. मनुष्य स्त्रीयो पु रूप करतां सत्तावीश गणीछे. ६६ जिनकल्पी ते भवमा मुक्ति जाय नहीं, एवं श्री कल्पभाष्य तथा प्रवचनसारोद्धारत्तिमांछे. ६७ वीर्याचारना छत्रीश अतिचार निशीथभाष्य तथा चुर्णीमां कह्याछे. For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAAAAA Mnvi (10) तत्वबिन्दुः ६८ नारकी वेदनाथी एक गाउ उंचा उछळे एबुं जीवाभिगमर्मा कहांछे. ६९ ग्रहस्थावासमां रहेला तीर्थकरने साधु नमस्कार करे नहि. ७० प्रथम गुणठाणे चारगतिनुं आयुष्य बांधे. चोथे गुणठाणे देव तथा मनुष्यगतिनुं आयुष्य बांधे, पांचमे छठे तथा सातमे गुणठाणे देवायुष्य बांधे. ७१ चारगतिमां क्षायिकसमकित सद्भावछे. ७२ प्रथम गुणठाणेथी चोथे आवे. पांचमे आवे छठे आवे तथ सातमे पण आवे. ७३ अव्यवहारराशिमांथी व्यवहारराशिमां आवी पाछो अव्यव हार राशिमा जाय तो तेने उत्कृष्ट अढी पुद्गल परावर्तनकाल For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः (१) व्यवहार राशिमां धावतां लागे. बादरनिगोदमां जे जे वखते आवे ते वखते सित्तर कोडाफोडी सागरोपम अने बाकीनो सूक्ष्मनिगोदमां गाळे, ७४ जीवथी छूटी पडेली आठकर्मनी वर्गणा छूटी रहे तो जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट असंख्यात काल जाणवो. आठे व गणाओ पोतानुं वर्गणास्वरूप डोडी अन्यरूपे पण परिणमे. ७५ समकित ते जीवनी सत्ताए द्रव्यतत्वरूपेछे. तेथी पडे तोपण मिथ्यात्वपर्याय द्रव्यगुणरूपे एकत्वपणे न परिणमी शके. अने न प्रणमी शके तेथी ७० सित्तर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति बंधाती नयी, तेटला माटे मिथ्यात्वते पर्यायरूप परिणमेछे. अने त्यारे एक कोडाकोडी सागरोपमनी ओछी स्थिति बंधायछे, ते भाव पोताना क्षयोपशमथी उपजेछे. ज्ञानी कहे ते सत्य. ७६ १ नामथी नवतत्व २ गुणथी नवतत्व ३ लक्षणथी नवतत्त्व अने चोथु स्वरूप परिणामरूप नवतत्व जाणवां. जीवाजीवादिक नामथी नवतत्व जाणवां. चेतना गुणते जीवनो जाणवो. तथा वर्णादि गुणमय पंच अजीवद्रव्य जाणवा, तथा उध्वंगति इ. For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) तत्त्वविन्दुः न्द्रियसुख आपे ते पुण्यनो गुण जाणवो. तथा अधोगति संक्लेशरूपते पापनो गुण जाणवो, शुभाशुभकर्म आगमन गुण आश्रवनो जाणवो. शुभाशुभ निरोध शुद्धोपयोगगुण, संवर तत्व जाणबो, शुभाशुभकर्मनो आत्मप्रदेश साथे बंध ते बंधतत्वनो गुण जाणवो. आत्मप्रदेशथी कर्मपुद्गलोनुं खरं ते निर्जरानो गुण जाणवो. कर्मथी मुकावं ते मोक्षतत्वनो गुण जाणो. जीव ते जीवत्वपणे परिणमे, अजीव ते जीवने आहारादिहेतुपणे परिणमे छे. पुण्य ते जीवने इंद्रियसुखनी शाता रुपे परिणमेछे, एम नवतत्व स्वबुद्धिथी विचारीएतो एक जी. वने परिणमे छे. एम नवतत्व चार प्रकारे जाणवा. ७७ मिथ्यात्वी जीवने आश्रवबंधपूर्वक निर्जरा होय, सम्वग्रदृष्टि जीवने संवरपूर्वक द्रव्यभाव निर्जरा होयछे. ज्ञानशक्ति तथा वैराग्यबली समतीने द्रव्यभाव निर्जरा थायछे, रागद्वेष परिणमननुं घटाडं. ते भावनिर्जरा, अने द्रव्यनिर्जराते कर्म - वर्गणानुं घटावं. जे उदये आवे ते निर्जरे तेवां कर्म पाछां बंधा नहि. बंध अपने निर्जरा घणी समकितीने थायछे. मिथ्यात्वी निर्जरा करे पण पाछो बंधायछे. ७८ आत्माना असंख्यात प्रदेशछे. एकेक प्रदेशे अनंतिशक्ति छे, तथा एकेक प्रदेशे अनंतज्ञान छे. तथा एकेक प्रदेशे अनंता पर्यायछे. द्रव्यगुण पर्याय स्थापन स्याद्वादमार्गथी जाणवुं. For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir vvv. vorn.mor तत्त्वबिन्दुः (२) ७९ सम्यग्दर्शनथी द्रव्यशक्ति प्रगटे. सम्यग्ज्ञान गुणथी प्रकाश थाय. सम्यक्चारित्रे परिणाम स्थिरता वृद्धि पामे. ८० सम्यक्त्व पाम्यावाद शुद्धोपयोग होय, मिथ्याष्टिने अशुद्धो पयोग होय. तेमां पण मिथ्याष्टिने शुभक्रिया होय पण शुभउपयोग नहीं, शुभोपयोगतो शुद्धना घरनोछे. ते अनिच्छा ए होय- तथा मिथ्यात्वीने शुभक्रियारूप शुभोपयोग होय, पण निदान अभिलाष सहित होय. ते माटे अशुभरूप कह्या. अने सम्यग्दृष्टिने शुद्धोपयोगना घरनो जे शुभोपयोग ते अनिदानरूपे कह्यो, ते माटे सम्यग्दृष्टिने शुद्ध उपयोग ते शुभ मिश्रित होय ते माटे तरतमभेदे चतुर्थगुणस्थानकथी आरंभी बारमा गुणगणा पर्यंत मिश्र उपयोग होय. तेरमा गुणठाणाथी शुद्धोपयोग पूर्णपदे होय, मिथ्यात्वीने अशुद्धोपयोग होय. ८१ अनुभव प्रत्यक्ष आत्मस्वरूप विचारतां ध्यान करतां मन वि. श्राम पामेछे. रसास्वाद सुख उपजेते, ते वात अनुभव प्रत्यक्ष छे, यथा शर्करा आस्वादनथी. सहस्र शर्केरानो अनुभव प्रत्यक्ष थायछे, तेम जीवद्रव्य पण पोतानी सम्यग्दृष्टिथी अनुभव प्रत्यक्ष थायछे. छउमथ्थाणं दंसणं पुढं नाणं इति सूत्रे उक्तं छद्मम्थ प्रथम देखे पश्चात् जाणे. दर्शनतो सामान्याव बोधछे, झात्काररूप भासे. अल्पकाल रही पश्चात् ज्ञाममांहि भळे. ज्ञानतो विशेषावबोधरूपछे, ते घणो काल रहे. ए रीते For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु; सम्यग्दृष्टि आत्मस्वरूप देखे. पण साक्षात् अरूपी असंख्य प्रदेशरूपमय आत्मानेतो केवलदर्शनथी देखे. सम्यग्दृष्टिने प्रतीते अनुमाने, अनुभव स्वरुपे देखे. जिनवचन प्रतीतिए द्रव्य स्वरूप दीठं. अनुमाने चेतना लक्षण गुणे प्रत्यक्ष आत्मा देख्यो कहेवाय. एम आत्मस्वरूपने सम्यग्दृष्टि देखे. तत्वं ज्ञानिगम्यम. ८२ त्रण योग साधुने रत्नत्रयीरूपे परिणमेछे, ते वतावेछे. मनो योगतो दर्शनश्रद्वानरूपे परिणमेछे. ते वस्तुना निर्धारथी च. लतो नथी, वचनयोगते ज्ञान भणg तथा यथार्थ उपदेश देवो इत्यादिथकी ज्ञानरूपे परिणमेछे. काययोगते पटकायनी दयारूपे प्रवर्तेछे. जयंचरे जयंचिठे इत्यादिरूप जाणवो, ८३ सम्यगदर्शनथी जन्मभय टळे छे. सम्यग्ज्ञानथी जरा दुःख टळेछ, सम्पक्चारित्रथी मरणभय टळेछे, ८४ त्रण प्रकारनी देशना त्रग प्रकारनां कर्म टाळेछे. यथार्थ देश नाथी जीवाजीवादिकनुं सरूप धार्या प्रणम्या थकी वस्तु तत्वनो प्रकाश थायछे. तेथी भावकमरोग टळे छे. तथा विधि वाद देशनाथी महावत देशविरतिरूप आचरण शुभोपयोगे For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्त्रबिन्दुः ( २३ ) आचरतो छतो द्रव्यकर्मरोग टाळे. तथा त्रीजी चरित्रानुवाद देशनाथी शरीर संबंधी कामभोग विषय तथा कषायथी निवर्ते, जेम जंबू खामी प्रमुख मुनिराजोना चरित्र श्रवणथी वैराग्यगुण प्रगटे अने तेथी नोकर्मनो रोग मिटे. ८५ धर्मश्रवण तथा धर्मस्त्राभ्यास उद्यमनीरूचि सम्यग् दर्शनगुणनी प्राप्ति करावे. तथा तत्वातत्त्व गवेषणाबुद्धिथी सम्यग्ज्ञानगुणनी प्राप्ति थाय, तथा पंचेंद्रियना विषय तथा चार कषाय तथा पंच प्रमादनो जे त्याग तेथी चारित्रगुण प्रगटेछे. तथा आत्मस्वरूपमा लीनता तथा एक स्थिरता तथा ध्यानथी वीर्यगुण प्रगटेछे. एम चारगुण हेतु धारवा. हवे एनां शरीरमां स्थानक कहेछे. दर्शन चक्षु मध्ये. ज्ञानते हृदयमां, तथा चारित्रते चरणे, तथा वीर्यगुण उत्साहविषे होय, एम चार गुणनां स्थानक समजवां ८६ स्वरूपहिंसा, अनुबंध हिंसा, द्रव्यहिंसा, भावहिंसा, तथा योगहिंसा, आदिहिंसाना घणा भेदछे, स्वरूपहिंसाते साधु नदी उतरतां होयछे, जिनाज्ञाथी त्यां दोष नथी. नदी उतरतां अयतनाना सद्भावथी इरियावहिया आलोवे, तथा सम्यग्दृष्टिने देवपूजा गुरुवन्दना तथा आहार वहोरावतां इत्यादि कार्ये स्वरूप हिंसा जाणवी. पण तेथी अल्पबंध अने घणी निर्जरा थायछे माटे स्वरूप हिंसा For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२.) तत्त्वबिन्दुः जाणवी. तथा वळी रागद्वेषे प्रणमीने जे कोइ मंद बुद्धि प्राणी छकायना जीवने हणे. अने तेवी हिंसाना तरतम अध्यवसाये महाकर्मबंध करे, तेथी अशुभविपाक उदयमां आवे ए अनुबंध हिंसा जाणवी. वळी एना भेद मध्ये द्रव्याहिंसा आवे तेनो किं चित् अर्थ लखेछे, द्रव्यहिंसा अनुपयोगे होय, भावहिंसा परिणामे होय, बाह्यहिंसा तथा योगहिंसा एटली स्वरूप हिंसामां भळे तथा परिणामहिंसाते भावहिंसामांभळे, इत्या दिक समजी लेवु. ८७ १ इच्छायोग,२शास्त्रयोग ३सामर्थ्ययोग. एत्रण योग जाणवा. ८८ क्रोध रजपुतने घणो होय, मानक्षत्रीने घणो होय. माया. ते वेश्या तथा वणिक्ने घणी होय, भयते कायरने घणो होय. ८९ नाम जिननुं स्थानक जिव्हा इंद्रियमांछे, स्थापना जिननुं स्थानक चक्षु इंद्रियमांछे, द्रव्यजिनस्थानक मनोयोगमांछे,मनोयोगे श्रद्धानछे माटे. भावजिननुं स्थानक हृदयमां होय, ९० आहारसंज्ञाए जीव अनादिकालथी खातो रहेछे. भय सं ज्ञाथी चतुर्गतिमां कंपतो रहेछे. मैथुनसंज्ञाथी पंचेंद्रियना . विषयोनी अभिलाषा करेछे, परिग्रहसंज्ञाथी पुद्गलवस्तु For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः एकठी करेछे. ए चार संज्ञामाथी प्रथम संज्ञा वेदनीय कर्मना घरनीछे. अने बाकीनी त्रण संज्ञा मोहनीयकर्मना घरनीछे. ९१ लेश्या योग प्रत्ययीछे अने योगते नामकर्ममध्येछे. माटे लेश्या नामकर्ममां आवी तत्त्वकेवली जाणे. ९२ चक्रवर्तिन, चउद रत्नमांथी चक्र,असि, छत्र, अनेदंड ए चार रत्न आयुधशालामां उपजे. तथा मणिरत्न कांगणीरन अने चर्मरत्न निधिशिरगृहे नीपजे. तथा वळी पुरोहितरत्न, वार्धकीरत्न, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, ए चार रत्न पोताना नगरमा उपजे. स्त्रीरन राजकुले नीपजे. तथा गजरत्न अने अश्वररन ए वे रन वैताढय पर्वत उपर उत्पन्न थाय, हवे नवनिधाननी उत्पत्ति कहेछे. गंगानदीना कांठे नवनिधाननी नवपेटी प्रगटे. बारयोजननी ते पेटी लांबी अने बे योजननी पहोळी, अर्धयोजननी उंची जाणवी, ते योजन आत्मामांगुल प्रमाण जाणवा, ए नवनिधि मंजुषाना आकारेछे. वैडुर्यमणिरत्नमय कमाडछे. सर्पिका नामर्नु प्रथम तेमां स्कंधावार नगर निवेश इत्यादि.पामिक नामे बीजं निधानछे त्यां बीजनी सर्व संपत्तिछे. पांगल नामे त्रीजुंनिधान तेमां नरनारी हयगयनां आभरण जाणवां. चोथुमहापद्म तेमांचौद जातिनां रनछे, पांच मल्लिनामे तेमां विविधवस्वछे. छठं कालनामेछे तेमा त्रिकालज्ञाननां पुस्तकछे. सातमुं महाकाल तेमां सुवर्ण रूपुं मणिलोह सर्व For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) तबिन्द द्रव्य अखूटछे. आठमुं माणवक तेमां सर्व युद्धनीतिछे. नवपुं शंखनामे मां चतुर्विध काव्य तथा तुर्यना अंग नाटक बिघिनो संगीत ग्रंथछे. एकेकनिधाने एक हजार देवता अधिष्ठायकछे ते व्यंतरिक देवता जाणवा. तेनुं आयुष्य एक पल्योपमनुं जाणवुं. ९२३ चौदविद्या मोटीछे. १ नभोगामिनी २ परशरीरप्रवेशिनी ३ रूपपरावर्तिनी ४ स्तंभनी ५ मोहिनी ६ स्वर्णसिद्धि ७ रजतसिद्ध ८ रससिद्ध ९ बंधथोभिनी १० शत्रुपराजयिनी ११ वशकरणी १२ भूतादिदमनी १३ सर्वसंपत्करी १४ शिवपद प्राप्तिकारिका. ९४ अनादिमिथ्यात्वी जीवने त्रीजुंगुणठाणं चढतां न आवे ते तो प्रथमगुणठाणाथी ग्रंथी भेद करी उपशम समकित पामी चोथे आवे. तथा सादि मिथ्यात्वी समकित पामीने पडयो होय ते पाछी क्षयोपशम समकित पामे से बीजे गुणठाणे आवे तेने पडतो पण आवे. ९५ कर्मनी प्रकृति सत्ताए १४८ एकशी अडतालीश मिथ्यात्व गुणठाणाथी मांडी अन्पारमा गुणठाणा सुधी होय. पण बीजे For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तत्त्वबिन्दुः ( २७ ) त्री गुणठाणे जिननाम कर्मविना १४७ एकसो सुडतालीश प्रकृति होय. तेनुं कारण बतावेछे चीथेगुणठाणे क्षयोपशम समकितछे. ते समकितवाळो जिननामकर्म बांध ते बांधीने पाछो पडे समकित वमे तो ते पहेले गुणठाणे आवे पण बीजे तथा त्रीजे गुणठाणे नावे ते माटे मिध्यात्वगुणठाणे सत्ताए १४८ प्रकृति होय, अने शास्वादन समकित तो उपशमभाव आश्रयीछे. अने उपशम समकित छतां जिननामकर्म न बांधे. चोथे गुणठाणे ज्यां सुधी उपशम समकित होय त्यां सुधी जिननाम कर्म न बांधे. स्तोककालले माटे. क्षयोपशम तथा क्षायिक समकित छते जिननामकर्म बांधे. क्षयोपशम समकितथी पडतो जिननामकर्म बंधवाळो प्रथमगुणठाणे आवे पण बीजे बीजे गुणठाणे नावे. तथा उपशमसमकिती पडे तो बीजे आवे. उपशमभावे जिननामकर्मनो बंध नथी माटे. बीजे त्रीने गुणठाणे सत्ताए २४७ एकशतसुडतालीश प्रकृति होय. · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only - ९६ सात प्रकृति मध्ये प्रथम चारित्रमोहनीयनी चार प्रकृति तथा मिथ्यात्व तथा मिश्र ए छ प्रकृति वाघण समानछे, एक सम्यक्त्वमोहिनी कृतरी समानछे. ए सात प्रकृति सत्तामांथी क्षय करे त्यारे क्षायिक समकित होय, अने ए सात प्रकृति उपशमभावे त्यारे उपशम समकित होय. मिथ्यात्वादि त्रण प्रकृति अने अनंतानुबंधी चोकडी ए सात प्रकृतिमांहिथी जे जे प्रकृतिनां दळीयां उदये आवे ते खपावें अने बाकी रह्यां तेनो उपशम करे तेने क्षयोपशमसमकित कहेछे. क्षयोपशम समकित वाळाने मिथ्यात्वनो प्रदेश उदय होयछे पण विपा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२८) तस्वबिन्दुः कोदय नथी. उपशमसमाकितवाळाने प्रदेशोदय तथा विपाकोदय नथी. ९७ अनंतपरमाणु स्कंधन प्रतिबिंब पडी शके. ९८ गुणग्राही साह्यकारी विनयी सेवाकारी गंभीर एवा शिष्य तथा श्रावको दुर्लभछे. गुणग्राहीनुं स्वरूप बतावेछे. गुरू पासे सूत्रासिद्धांत श्रवण करी घणी प्रशंसा करे. कीर्ति करे पण गुरूना कोइक औदयिकभावना अवगुण देखी निंदा करे नहि. खेद तथा अप्रीति धारण करे नहीं. जो खेद धारण करे तो भक्ति तथा विनयगुणथी भ्रष्टथवाय. शिष्य तथा श्रावकछे ते गुरूना गुणगवेषी होय ते कहेछे. गुरूमांहि एक उपका. रनो गुण होय ते देखे पण विनय चूके नहीं. अवगुण दृष्टिमां लावे नहीं, तथा साह्यकारी एटले गुरूराजने अन्न पानादिक तथा वस्त्रपात्र आपवानी घणी चाहना होय तथा आपे. पोते गुरूनी साहाय्य करे.तेमां पोतानी फरजछे एम समजे.नमन अने बचने करी गुरूनुं वैयावच्च करे. तथा गुरूने शाता, उपजावे. एवा श्रावक तथा शिष्य पंचमकाळे मळवा घणा दुर्लभ छे. ९९ शाता' अशाता आत्माश्रितछे. अने शातावेदनीयजन्मसुख अने अशातावेदनीयजन्य दुःख ते पुद्गलाश्रितछे. For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबिन्दु: ( १९ १०० जिन वचन कारण कार्य सहितछे, तथा निमित्त उपादान सहितछे, तथा द्रव्य भाव सहितछे. तथा व्यवहार निश्चय सहित छे. १०१ बावीस परिसह मध्ये वे परिसह शीत अने वीश परिसह उष्ण छे. स्त्री परिसह अने सत्कार परिसह शीतछे. अने बाकीना उष्णछे. १०२ उदय अने सत्ता एवे पुद्गलाश्रितछे, बंध अने उदीरणा एवे आत्माश्रित अपेक्षाये होय, १०३ आठ वर्गणामधी सर्व करतां औदारिकवर्गणामां दलीक अल्प जाणवi. तेथी वैक्रियवर्गणामां अनंतगुणां तेथी आहारकवferni अनंतघणां अने तेथी श्वासोश्वास वर्गणामां अनन्तघअने तेथी मनोवर्गणानां पुद्गल अनंतघणां जाणवां तेथी aari कार्मण वर्गणामां पुद्गल जाणवां. १०४ समये समये जीव कर्मवर्गणानुं ग्रहण करेछे. ते कर्मवर्गणा आकर्मणे वचने आपे. ते मध्ये कोइने थोडी आपे अने For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwmummon तस्वबिन्दुः कोइने घणी आपे. सर्वथी अल्पकर्मदल वर्गणा आयुष्यकर्मने आपे. तेथी नाम गोत्रकर्मने विशेषाधिक आपेछे. तेथी ज्ञाना. वरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा अंतराय ए प्रण कर्मने विशेषाधिक आपे तेथी मोहनीयने कर्मदलवर्गणा अधिक आपे, तेथी वेदनीयने कर्मदलवर्गणा अधिक आपे. एम सर्व प्रकारे जोतां वेदनीयकर्मने कर्मवर्गणादलीक अधिक आपेछे, १०५ शास्त्रमा चउदगुण वक्ताना अने चउदगुण श्रोताना जाणवा. १ शोलबोलना जाण पंडित. २ शास्त्रार्थ विस्तारी जाणे. ३ वाणीमां मीठाश होय, ४ प्रसंग अवसर जाण होय, ५ सत्य वचन बोले, ६श्रवण करनारने संदेह थतो छेदे, ७ बहुशास्त्रवेत्ता गीतार्थ उपयोगी होय. ८ अर्थ विस्तारी संवरी जाणे, ९ व्याकरण रहीत कठीन भाषा अपशब्द न बोले. १० वाणीथी सभाने रीजवे. अग्यारमे तथा बारमे बोले प्रश्नार्थ. तेरमे बोले अहंकार रहीत, १४ धर्मवंत तथा संतोषवंत होय. चउद गुण श्रोताना होय. १ भक्तिवंत, २ मिष्टभाषी, ३ गवरहीत, ४ श्रवणरूचि, ५ अचंचल एटले एकाग्रचित्तथी श्रवण करे अने धारे. ६ जेवू सांभळ्यु होय तेवु कहे, ७ प्रश्ननो जाण होय. ८ सांभळेला शास्त्रोनुं रहस्य जाणे. ९ धर्मकार्य आलसु होय नहि. १० धर्म श्रवण करतां निद्रा न आवे. ११ बुद्धिवंत होय. १२ दातारगुण होय. १३ जेनी पासे धर्मकथा सांभळे तेना पाछळ घणागुण बोले, १४ निंदा रहीत होय तथा मिथ्यावाद करनार होय नहि. For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः १०६ वर्ण रस अने स्पर्श ए परमाणुपुद्गलना गुण जाणवा. १०७ योग, कषाय, ध्यान, अने लेश्या ए चार एकठा मले सारे परभवनुं आयुष्य जीव बांये. १०८ दरेक द्रव्यना द्रव्य क्षेत्र काल भाव अने गुण ए पंचभेद गणतां. षड्द्रव्यना त्रीश भेद जाणवा. १०९ १. महावेदना अने अल्प निर्जरा नारकीने होय, २ महावेदना अने महा निर्जरा साधुने होय, गजसुकुमालवत्-३ अल्पवेदना अने अल्प निर्जरा देवताने होय, ४ महानिर्जरा अने अलग वेदना शैलेशीकरणकारकने होय, ए चोभंगी जाणवी. २१. साधु स्वाध्याय करेछे. तथा शुभयोगे व्रतादिकनी शुभक्रिया करेछ. तथा शुद्धोपयोगे शुद्धस्वभाव अप्पाणं भावेमणे विहरइ एम आत्मध्यान करेछे. For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) तत्वबिन्दुः १११ जिनवाणी श्रवण करतां दर्शनावरणीयकर्मनो क्षयोपशम थाय तथा ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमे वाणी कानमांहि समज्यामा आवे, त्यारवाद वाणी ते दर्शनमोहनीय कर्मना क्षयोपशमयी यथार्थ आत्मस्वरूप ज्ञानमां आवे. तथा जिनवाणी ध्यानमाहि आवे, ते केम तो ते कहेछे के-धर्मातराय कर्मनो क्षयोपशम थाय त्यारे एकाग्रतारूप ध्यानमां सिद्धि वरे, ११२ बकुश, कुशील, पुलाक, निग्रंथ, स्नातक ए पंच पकामना नि ग्रंथ जाणवा. हाल वकुश अने कुशील एम बे नियछे. ११३ सम्यग्दृष्टिजीव मिथ्यावना उदये समकित वमीने पाछो मिथ्या वगुणठाणे जाय तोपण आयुष्य वर्जीने सातकर्मनी पल्योपमना असंख्यातमे भागे उगी एक कोडोकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध उत्कृष्ट करे. तथा मुनिपणो पामीने पडे अने पाछो मिथ्यात्वे जाय तोपण आयुष्य वर्जी सातकर्म स्थिति बंध सागरे उणी एक कोडाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्ट करे. तथा उपशमश्रेणिथी पडीने मिथ्यात्वे जाय तोपण आयुवर्जीने सातकर्मनी उत्कृष्टि स्थिति बांधे तो नवहजार सागरोपमे उणी एककोडाकोडी सागरोपमनो उत्कृष्टस्थिति बंध करे. ११४ विभंगज्ञानते अवधिदर्शनना पेटामांछे. For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwrow तस्वविन्दुः ११५ जीव त्रण प्रकारनाछे. १ भव्य, २ अभव्य. ३ भव्याभम्य ते भव्यजीव त्रण प्रकारनाछे. १ आसन्नभव्य. २ मध्यमभव्य. ३ दुर्भव्य. तेमा आसमभव्यते सौभाग्यवंत स्वीनी पेठे जाणवो. जेम सौभाग्यवंती स्त्री परणीने षट्मासमां गर्भ धारण करी पुत्ररूप फल पामे. तेम केटलाक जीव मोक्षरूप फल अल्पकालमां प्राप्त करे. केटलाकजीव मध्यम भव्यछे. जेम कोइ परणेली स्त्री वर्षे पण नजीक पुत्र प्रसवे. तेम मध्यमभव्य पण थोडा भवमा सिद्धि वरे. मेघकुमारनी पेठे, जेम परणेली स्त्रीने बहु वर्षे पुत्र प्राप्ति थाय तेम गोशालानी पेठे केटलाक जीव अभंत पडवाइनी पेरे घणाकाले सिद्धि वरशे. जेम वंध्यास्त्री घणाकाले पण गर्भ धारण करे नहीं, तेम अभव्यजीव पण व्यवहारथी चारि. प्रक्रिया आदरे. नवमात्रैवेयक सुधी जाय पण सिद्धि वरे नहीं. श्रीजा भव्याभव्य जीव छे ते भव्य सरखा पण व्यवहारराशिमा उंचा आवे नहीं. बालविधवा स्त्रीनी पेठे जेम बालविधवामा पुत्र थवानी शक्तिछे पण भारना अभावे पुत्रप्राप्ति थाय नहीं तेम भव्याभव्यमां जाणवू. ११६ भवाभिनंदी ते मिथ्यादृष्टि जीव जाणषा. बीजा पुद्रलानंदी ते चोथा पांचमा गुणठाणाना जीव जाणवा. आत्मानंहि ते मुनि जाणवा. For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) तस्वबिन्दुः २१७ जीव चार प्रकारना कह्याछे. प्रथम सघनरात्रि समान ते भवा भिनंदी मिथ्यात्व गुणस्थानकवतों जीव जाणवा. जेमा जरा मात्र प्रकाश नथी. बीजा मार्गाभिमुखी मार्गानुसारी जीव ते अधनरात्रि समान जाणवा. त्रीमा, चोथा गुणठाणाथी ते बारमा गुणठाणा पर्यंतना जीव ते सघनदिन समान जाणवा. चोथा अघनदिन समान ते केवलि भगवान् जाणवा. १९८ चार प्रकारमा सामायक जाणवां. १ श्रुतसामायक, २ समकित सामायक, ३ देशविरति सामायक, ४ सर्वविरति सामायक. तेमां श्रुतसामायकनो लाभ भव्यमिथ्यात्वीने होय अभव्यने पण द्रव्यथी श्रुतनो लाभ थाय. तथा समकित सामायक ते सम्यग्दृष्टि जीवने होय. पंचम गुणठोणे देशविरति सामायक नो लाभ होय. सर्व विरति सामायकनो लाभ छठे गुणठाणे होय. ११९ दर्शननी क्षपकश्रेणि चोथागुणठाणाथी होय. अने चारित्रनी क्षपकणि आठमागुणठाणाथी आरंभी होय. १२० कार्मण शरीर ते नामकर्मनी प्रकृति जाणवी. नामकर्मनी वर्गणा रूपे कार्मण शरीर जाणवू. बाकी बीजा सातकर्मनी वर्गणी ते एमां जाणवी. एम तेमनो आधाराधेय भावछे. जेम दाणानी गांउडीमा दाणा ते आधेयरूपछे अने गांठडी ते आधाररूपछे. For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः तेम सातकर्मनी वर्गणा ते आधेयछे. अने कार्मण शरीर भाधारछे, वीजा कर्मनी वर्गणा भिन्न केवी रीते जाणवी होते कहेछ.. जेम केवलीभगवंतने ज्ञानादिक चारकर्मनी वर्गणा मूलथी गइ तोपणकार्मण शरीरछे. तेथी अनुमाने जणाय के के अन्य कर्मनी वर्गणा भिन्नछे अने कार्मण शरीर भिनछे. सत्य केवली भगवंत जाणे. १२१ कषायपणे ज्यारे आत्मा परिणमे त्यारे स्थितिबंध अने रसबंध करे अने ज्यारे केवलयोगपरिणमने आत्मा परिममे स्पारे प्रदेश बंध अने प्रकृतिबंध होय. १२२ उदेगता ते अज्ञान मिथ्यात्वना घरथी नीपजे. अशाता ते वेद नीय कर्मना उदयथी नीपजे. भविरतिना घरनी आकुलता चारित्रमोहनीयकर्मना उदयथी नीपजेछे. १२३ प्रण प्रकारे पुद्गल परिणमेछे. १ विश्रसा. २ प्रयोगसा ३ मिश्रसा. तेमा प्रथम विश्रसा ते कोइ निमित्त पामी तदाकार थाय जेम इन्द्रधनुष्य तथा वादळां विगेरे तथा बीजा प्रयोगसा ते जीव व्यापार उद्यमथी बनावेल घट, पट, गृह, विगेरे जाणवा, त्रीजा मिश्रसाते किंचित् प्रयोग तथा किंचित् स्खमा For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmmmmmmmmmmy तत्त्वविन्दुः थी जाणवा. जेम बद्धः पटो जीर्णः बांधलो पट जूनो, तेमां बांधवू ते जीवमयोगणी अने पर्नु जूनुं थQ स्वभावथी छे. १२४ पंचास्तिकायसमयसार नामना दिगंबरीय ग्रंथमा पुद्गलना छभेद बताव्या छे, १ वादर. २ बादर बादर. ३ बादरसूक्ष्म ४ सूक्ष्मवादर ५ सूक्ष्म ६ सूक्ष्मसूक्ष्म ए छ प्रकारना पुद्गल संसारमा व्यापी रह्याछे. १२५ ज्ञानावरणीयकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय. दर्शना वरणीयकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय, वेदनीय कमनो बंध तेरमा गुणठाणा सुधी होय, मोहनीयकर्मनो बंध नवमा गुणठाणा सुधी होय, आयुष्य कर्मनो बंध सातमा गु'गठाणा सुधी होय, नामकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय, गोत्रकर्मनो बंध दशमा गुणठाणा सुधी होय. अंतराय कर्मनो बंध दशमा गुगठाणा सुधी होय. ज्ञानादरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा अंतरायकर्म ए त्रग कर्मनो उदय बारमा गुणठाणा सुधी होय. वेदनीय कर्मनो उदय चउदमा गुणठाणा मुभी होय, मोहनीयकर्मनो उदय दशमा गुणठाणा सुधी होय, आयुष्येकर्मनो उदय चउदमा गुणठाणा सुधी होय. नामकर्मनो उदय चउदमा गुगठाणा सुधी होय, गोत्रकर्मनो उदय चउदमा गुणठाणा सुधी होय. अंतरायकर्मनो उदय बारमा सणगणा मुधी होय, ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय तथा मुधी होय, मोहन चउदमा गुणठाणा, गोत्रकर्मनो उदय For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः wmwwwm अंतरायकर्मनी उदीरणा बारमा गुणठाणा सुधी होय. वेदनीय कर्मनी उदीरणा छठा गुणठाणा सुधी होय, मोहनीयकर्मनी उदीरणा दशमा गुणठाणा सुधी होय, अंतरायकर्मनी उदीरणा बारमा गुणठाणा सुधी होय, आयुष्यकर्मनी उदीरणा छठा गुणठाणा सुधी होय, नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी उदीरणा तेरमा गुणठाणा सुधी होय. मोहनीयकर्मनी सत्ता अगीयारमा गुणठाणा सुधी होय. आयुष्यनी सत्ता चउदमा गुणठाणा सुधी होय. नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी सत्ता चउदमा गुणठाणा सुधी होय. अंतराय कर्मनी सत्ता बारमा गुणठाणा सुधी होय. ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीयकर्मनी सत्ता बारमा गुणठाणा सुधी होय, वेदनीयकर्मनी सत्ता चउदमा गुणाणा मुधी होय. १२६ विभंग ज्ञाननो काल जघन्यथो एक समय अने उत्कृष्ट एकत्रीश सागरोपम अधिक जाणवो. १२७ समकित शुद्ध पामे उपयोग शुद्ध समरे. उपयोग समरे जीव समरे. अने जीव समरे योग समरे अने योग समरे परिणाम समरे अने परिणाम समरे अध्यवसाय समया जाणवा. For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३८) तत्वबिन्दु; १२८ मतिज्ञाननु आंतरू जघन्यथो अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन काल मालु होय. ए प्रमाणे श्रुतज्ञान अवधिज्ञान अने मनःपर्यव ज्ञाननुं पण आंतरू जाणवू. केवलज्ञानमां आंतरू नथी. हवे मति अज्ञान अने श्रुतअज्ञाननु आंतरू जघन्यथी अंतमुहूर्त अने उत्कृष्ट छासठ सागरोपम झाझेरु होय. १२९ एकला योगे प्रदेशबंध प्रकृतिबंध नीपजे.तेथी कर्मवर्गणादलनो संचय थाय. तथा योगने लेश्या एकठां मळे त्यारे प्रकृतिने प्रदेशबंध नीपजे तथा ध्यान अने कपाय बे मळे त्यारे स्थिति बंध अने रसबंध नीपजे. तथा ज्यां कपाय अने ध्यान आवे त्यां तेवारे चारे भेळा थाय. १३० अढीद्वीपमाथी सकलकर्म खपावी जेटला एक समयमां सिद्धि वरे तेटला जीव सूक्ष्मनिगोदमांथी व्यवहारराशिमां आवे. एक समये एक बेत्रण उत्कृष्टे अढी द्वीपमाही १०८ एकसो आठ सिद्धिवरे तेटला सूक्ष्मनिगोदमांथी नीकली व्यवहारराशिपणो पामे. गाथा, काले सुपत्तदाणं, सम्मत्त विसुहि बोहिलामंच अंते समाहि मरणं, अभव्यजीवा न पावंति १ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तश्वबिन्दुः (३९) भावार्थ-काले सुपात्र दान देवू. सम्यक्त्व विशुद्धि, अने बोधिबीजनी प्राप्ति, अने अन्त्यसमाधिमरण, अभव्यजीवो पामी शकता नथी. १३२ व्यवहारराशिया जे वादरनिगोदमां अनंताछे. ते फरी कर्मनी बाहुल्यताए सूक्ष्मनिगोदगोलकमां जाय त्यां रही बळी पाछा कंदादिकसाधारण वनस्पतिमां आवे एम संबंधे सूक्ष्मनिगोदना बादरनिगोदमांआवे. वळी बादरना सूक्ष्ममां जाय, एमबे स्थानके आवागमन करतांजीव त्यां उत्कृष्ट रहेतो अढीपुद्गलपरावर्त पर्यंत रहे. पश्चात् पृथिव्यादिक स्थानक स्पर्शतो उंचो आवी मनुष्य थाय, व्यवहारराशियो भव्यजीव सामग्री पामी सिद्धिवरे तथा वली एम कपुंछे के कंदमूलसाधारणमांथी जीव सूक्ष्मगोलकर्मा जायतो अने उत्कृष्ट काल रहे तो असंख्यात काल पर्यंत सूक्ष्मनिगोदगोलकमांहि रहे त्यांथी नीकळी बादरनिगोद कंदमूलमां उत्कृष्ट सित्तर कोडाकोडी सांगरोपमपर्यंत ज्यारे ज्यारे सूक्ष्मनिगोदमांथी आवे त्यारे रहे एम संबंध छे. उत्कृष्ट अढीपुद्गल परावर्तपर्यंत व्यवहारराशियो जीव निगोदमा रहे. १३३ गाथा. चत्तारियवाराजे, चउदस पुवी करेइ आहार संसारमि वसंतो, एगभवे दुनिवारा १ For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४० ) तरवबिन्दुः www.wris चतुर्दशपूर्वी संसारमां वसतां चार वार आहारक शरीर करे अने एक भवमां बे वार करे. १३४ केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, पंचनिद्रा, बारकषाय, अने मिथ्यात्व ए वीश प्रकृति सर्वघाती जाणवी. १३५ ज्ञानावरणीय चार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अने अवधिदर्शन ए ऋण दर्शन तथा संज्वलनना चार कषाय अने नव नोकपाय तथा पंच अंतराय . समकित मोहनीय अने मिश्रमोहनीय ए सत्तावीस प्रकृति देशघातीनीछे. १३६ भावना पञ्च प्रकारछे क्षायिकभाव उपशमभाव क्षयोपशमभाव उदयिकभाव पारिणामिकभाव. मां प्रथम उपशमभावमां सम्यक्त्व अने चारित्रछे, क्षायिक भावमां ज्ञान दर्शन चारित्र तथा दान, लाभ, भोग उपभोग बीर्य अने सम्यक्त्व ए नव छे. तथा क्षयोपशमभावमां चार ज्ञान, त्रण अज्ञान, त्रण दर्शन पंचदानलब्धि तथा सम्यक्त्व, चारित्र अने संयमासंयम ए अढार भेद जाणवा औदायिकभावमां चारगति, चारकषाय, ऋणलिंग, छ लेश्या अज्ञान, मिध्यात्व, असिद्धता, अने असंयम एम एकवीश भेद For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः (*1) जाणवा. तथा पांचमा पारिणामिकभावमां जीवत्व, अभव्यत्वः तथा भव्यत्व एम त्रण भेद जाणवा. एम पंचभावना त्रेपन भेद जाणवा. १३७ मिश्रनी उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त छे. भवमां उपशमसमकित पांच वार आवे. अने क्षयोपशम असंख्यातवार आवे. १३८ सम्यक्त्व पाम्या पछी बे पल्योपमथी ते नवपल्योपममां देशविरति श्रावक थाय. १३९ क्षयोपशम समकित अने उपशमनो विशेष कहेछे. उपशम सकिती मिथ्यात्वने प्रदेशेकरी वेदतो नथी केमके जे उपशांत कर्मछे, तेने त्यांथी काढतो मथी. उदयमां लावतो नयी. परप्रकृतिमां परिणमावतो नथी, अने तेनुं उद्वर्तन पण करतो नथी. क्षयोपशम समकित कलुषजल जेवुंछे, उपशम समकित प्रशांतजल सरखंछे. अने क्षायिकसमकित निर्मल शुद्धजल समान छे. १४० पोते मिध्यात्वदृष्टिमान् छतां बीनाने बोधे तेनुं नाम दीपकसम्यक्त्व जाणवु. For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ७२ ) रविन्दुः १४२ मतिज्ञानना २८ अठावीश भेद अने प्रणसे चालीश भेद पण छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ उपशमश्रेणिवाळो अने क्षपकश्रेणिवाळो ज्यारे लोभना अणुओने वेदतो होय त्यारे ते सूक्ष्मसंपरायचारित्री कहेवायछे. १४३ भवसिद्धपणुं जीवोने स्वभावथी होयछे. १४४ नरगति, पंचेंद्रियजाति, त्रस, भव्य, संज्ञी, यथाख्यात, क्षायिक, सम्यक्त्व, अनाहार, केवलज्ञान, अने केवलदर्शननी मार्गणाए मोक्षछे. १४५ उपस्थने प्रथम दर्शनोपयोग अने पश्चात् ज्ञानोपयोग अने केवलज्ञानीओने प्रथम समये ज्ञानोपयोग अने द्वितीय समये दर्शनोपयोग होयछे. १४६ अधर्मी, अधर्मानुगत, अधर्मेष्ट अधर्म बोलनार, अधर्मथी उपजीविका चलावनार, अधर्मना जोनार अधर्मफल उपार्जन For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताबहिः करनार, अधर्मशील आचरणवाला, अने जे सदाकाल पाप करता रहेछे. तेओ मता सारा. कारण के एवा पापी जीवो मूताथका प्राणीयोने दुःख पीडा आपी शकता नथी. १४७ जे जीवो सदाकाल धर्म करे छे. सर्व जीवोनी दया प्रा . सर्व जीवोने धर्मनो उपदेश आपे छे. ते जीवो जागता सारा जाणवा. १४८ सप्तभंगीमांनो प्रथमभंग त्रण प्रकारे छे. द्वितीयभंग प्रा प्रकारे छे. तृतीयभंग तथा चतुर्थभंग दश प्रकारे छे. पंचमना एकशो त्रीश. छठाना एकशो त्रीश अने सातमाना पण एकशो श्रीम जाणवा. सर्व मळी ४१६ भेद थया. सम्मतितर्कमां. १४९ बे प्रकारना नय छे १ अर्थनय. २ शब्दनय. प्रथम अर्थनयना त्रण भेद. संग्रह, व्यवहार, रुजुसूत्र. शब्दनयना प्रण भेद. शब्द, समभिरूढ, एवंभूत. एवं सम्मतितर्कवृत्तौ द्वितीयकांड. १५० पर्यायना बे भेद छे. अर्थपर्याय अने व्यंजनपयोग भयंपायने For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (**) तस्यबिन्दु; कनारा संग्रहादि त्रण नय छे, अने व्यंजनपर्यायना शब्द, : समभिरूड, एवंभूत ए ऋण भेद छे. १५१ सप्त भंगीनो प्रथमभंग संग्रहनयमां छे. अने विशेषग्रहण करनार व्यवहारनयमां नास्तिरूप द्वितीय भंगनो अन्तर्भाव छे. खजुसूत्रमां त्रीजा अवक्तव्य भंगनो अन्तर्भाव छे. सम्मतितर्काभिप्रायथी अवक्तव्य त्रीजो भंग छे. रूजुमूत्रनो एक समय विषय छे. एक समयमां कोइ शब्द कहेवाता नथी. कारण के एक शब्द उच्चारण करतां असंख्याता समय थाय छे. तेथी रुजुसूत्रनयनी अपेक्षाए तृतीयभंग अवक्तव्य छे. चोथी भंगीस्यात् अस्ति नास्तिनो संग्रहनय तथा व्यवहारनयमां समावेश थाय छे. चोथी भंगीमां अस्ति संग्रहनो विषय छे. अने नास्ति, व्यवहारनो विषय छे. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यरूप पंचमभंगीनो संग्रहनय तथा रूजु सूत्रनयमां अन्तर्भाव छे. कारण के अस्ति संग्रहनयनो विषय छे। अने अवक्तव्य रुजु सूत्रनो विषय छे. छठ्ठी स्यात् नास्तिच अवक्तव्य भंगीनो व्यबहार तथा रुजुसूत्र नयमां अन्तर्भाव छे. कारण के नास्त्यंश, : व्यवहारनो विषय छे। अने अवक्तव्य, रुजु सूत्र नयनो विषय छे. स्यात् अस्तिनास्तिच युगपत् अवक्तव्यरूप सप्तम भंगनो संग्रह, व्यवहार, रुजु सूत्रमां अन्तर्भाव छे. आ प्रकारे सप्तभंगी अर्थनय जे संग्रह, व्यवहार, रुजु सूत्रधी भिन्न नथी. अर्थात् सप्तभंगी अर्थनय स्वरूप छे. इति सम्मति तर्क द्वितीय कांड इसी ४६ मा. पाने. For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः (४५) १५२ आ सप्त मंगीमा १ स्यात् अस्ति २ स्यात्नास्ति ३. स्यादव क्तव्य ए त्रण अविकल्परूप छे. कारण के रत्रण भंगी सामान्यद्रव्पने ग्रहण करे छे. सामान्यद्रव्यविषयकज्ञानयां विक ल्प होतो नथी. आ त्रण भंगीथी संग्रह, व्यवहार अने रूजु सूत्रनयनो अनुक्रमे अभेद छे. अने तेथी संग्रह, व्यवहार, मुजुसूत्र ए त्रणनय पण निर्विकल्प कहेवाय छे. अने आगळनी ४ स्यात्अस्तिनास्ति. ५ स्यात्अस्ति च अवक्तव्य. ६ स्यात् नास्ति च अवक्तव्य. ७ स्यात्अस्ति नास्ति च युगपत् अव.. क्तव्य ए चार भंगी सविकल्पक छे. शंका-छेल्ली चार भंगो सविकल्पक के तो तेनो निर्विकल्पकरूप संग्रह, व्यवहार, रूजु सूत्रमा केम अन्तर्भाव कर्यो. समाधान-यद्यपि संग्रहादिक, पर्यायसत्ताने बोधन करे छे तो पण पर्याय समुदाय एटले सम्पूर्ण अवयवनी सताथी मूल द्रव्यनी सत्ता भिन्न नथी. जेम कोइ कहे के मारी पासे सो रूपैया छे. बोजो कहे के तमारो पासे पांच बीशी रूपैया के. तो पांच वीशीनी पांच सत्ताथी सो रूपैयानी मूल एक सत्ता भिन्न नथी. जो भिन्न मानीए तो पांच सत्ताने मूकीने मूल एक सत्ता ठरवी जोइए. पण ते ठरती नथी. तेम अत्र पण अवयव समुदायनी सत्ताथी मूल सत्तातुं स्वरूप कथंचित् भिन्न कहेवातुं नथी. तथा जणातुं नयी. अवयव समुदायनी For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 8) ससा ते कथंचित मूल द्रव्य सचायी अभिन्न येतेनी अपेक्षाए सविकल्पक चारभंगीनो अन्तर्भाव, निर्विकल्पक संग्रहादि अण नयमां थाय छे. आ पात सम्मतितर्क द्वितीय काण्ड पाना ४७ माए छे. १५३ सप्त भंगी केम थाय छे ? आठमी यती नथी तेनुं शृं कारण छे? आठमी भंगीनी कल्पनानो अभाव छे माटे. ते बतावे छे. प्रथम अने बीजो भंगी मेळवीने आठमी भंगी बनावशो तो स्यात् अस्तिनास्तिरूप चतुर्थभंगीमां तेनो अन्तर्भाव यवायी अष्टमभंगी बनशे नही. पहेली अने त्रीजी भंगी मेळवीने जो आठमी भंगी सिद्ध करशो तो ते नहि सिद्ध थतां तेनो पांचमी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. जो बीजी अने त्रीजी भंगी मेळवीने आठमी भंगी करवा धारशो तो ते नहीं बने अने तेनो षष्ठी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. जो पहेली, बीजी अने त्रीजी भंगीने मेळवीने अष्टम भंगी करवा धारशो तो ते नहीं बने अने तेनो सातमी भंगीमां अन्तर्भाव थशे. तथा प्रथमादि त्रण भंगीनी साये चोथी आदि भंगीयो जोडीने आठमी भंगी करवाथी पुनरुक्त दोष प्राप्त थाय छे. यथा स्यात् अस्ति अस्ति नास्ति एम पहेली अने चोथी भंगी मेळवीने आठमी करवाथी पुनरूक्ति दोष प्राप्त थयो. कारण के चोथी भंगीमां अस्ति छे. तो तेनी साथे प्रथम भंगी जोडवानी जरूर नथी. माटे ए सप्तभंगी उपर अष्टमभंगी सिद्ध थती नथी. For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः (४) १५४ सप्तभंगीमा आधनी त्रण सकलादेशी होवाथी निर्विकल्पक छे. कारण के विकल्परूप अवयवने आधनी त्रणभंगी ग्रहण करती नथी. बाकीनी चार विकलादेशी होवाथी सविकल्पक कहेवाय छे. १५५ अर्थनय जे संग्रह, व्यवहार,अने रुजु सूत्रमा सप्तभंगीप्रथम कही. हवे शब्दनय जे शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनय छे तेमां स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति ए बे भंगी घटे छे. शब्द तथा समभिरूढ ए बे नयमां स्यात् अस्ति पहेली भंगी घटे छे. कारण के स्यात् अस्ति प्रथम भंगीनो मूल एक द्रव्य विषय छे. तथा शब्द अने समभिरूढनय पण संज्ञा, क्रियानो भेद छतां' पण अभिन्न अर्थने प्रतिपादन करे छे एवंभूतनयमां बीजी भंगी घटे छे. १५६ अर्थने आश्रीने वक्ताना हृदयमा रहेलो संग्रह, व्यवहार, रुजु सूत्रनय कथित अभिप्राय तेने अर्थनय कहेछे. वस्तुसंबंधथी ज्ञान थायछे माटे तेने अर्थनय कहेछे. अर्थनयमांअर्थनी प्रधानताछे. तेमां शब्दनुं उच्चारण थायछे. पण शब्दनी गौणताछे. १५७ श्रोताना ह्रदयमां शब्दश्रवणथी शब्द,समभिरूड,अने एवंभूलनय For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (6) वसविन्दु कथित अभिप्राय थायछे. तेने शब्दनय कहेछे. शन्दनयमां शब्दनयनी मुख्यताछे. अने अर्थनी गौणताछे. शब्दनयनी उत्पत्तिमा मुख्यताए निमित्तता नथी. १५८ शब्द अने समभिरुढ एबे नय सविकल्पकले. अने एवंभूत निर्विकल्पकछे. अपेक्षाए इति सम्मतितर्क द्वितीयकांडे पत्र ४७ १५९ अर्थनयमा आधनी प्रणभंगी निर्विकल्प अने द्रव्यार्थिकनय स्वरूप बतावीछे. अने आगळनी चार पर्यायार्थिकनय स्वरूप बतादीछे. शब्दनयमां सविकल्पक शब्द अने समभिरूढनयछे तेनो अन्तर्भाव प्रथमभंगीमां थायछे. तेथी अभेदपणाथी प्रथम भंगी पण सविकल्पक थइ. अने पहेला अर्थनयमां निर्विकल्पक कही हती. तेनुं शुं कारण. उत्तर. अर्थनयनी अपेक्षाए आधभंगी निर्विकल्पकछे. अने शब्दनयमां शब्द अने समभिरूढनयनी अपेक्षाए सविकल्पकछे. १६० अन्दनयमां त्रीजी भंगी घटती नथी. श्रोत्रेन्द्रियजन्यज्ञानरूप शन्दनयछे. अने शब्दनयछे ते शब्दना श्रवणथी अर्थने स्वी For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यविन्दुः (**) कारेछे. शब्दना अभवणथी शब्दनय अर्थने अंगीकार करतो नथी. अने अवक्तव्य तो शब्दाभाव विषयछे. मोन १६१ प्रत्यक्ष अने परोक्ष ए वे भेद प्रमाणना छे. अविसंवादि ज्ञानने प्रसेसज्ञान कहे छे. विवादास्पद न होय तेने अविसंवादि कछे. जेमां आ ज्ञान सत्य छे के असत्यछे एबो विवाद न उठे ते अविसंवादि कहेवायछे. अने जे ज्ञानमां स्पष्ट विषय नथी भासतो ते अविशद कहेबाय छे. दृष्टांत तरीके अनुमानथी गृह्यमाण अग्नि पर्वतमा स्पष्ट नथी देखा तो माटे पर्वतोवन्हिमान् ए ज्ञान अविशद कहेवायछे. इमौ दौ चन्द्रौ ए ज्ञानछे ते विसंवादिछे अने अविसंवादिछे. चंद्रनिष्ट द्वित्व संख्यामां भ्रांतिथी विसंवादिछे अने चंद्रज्ञानथी अविसंवादीछे. द्वौचन्द्रौ आबे प्रकारना ज्ञानमां अविसंवादिज्ञान प्रमाणछे अनेविसंवादिज्ञान अपमाणछे. १६२ मति, श्रुत, परोक्षप्रमाणछे. अवधि, मनःपर्यव, अने केवलज्ञान. प्रत्यक्ष प्रमाण छे. १६३ मुख्यव्यवहारथी मंति, परोक्षप्रमाण कहेवायछे. अने लौकिक व्यवहारथी चक्षुरादिजन्यमविज्ञान विशदछे माटे तेने For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (५०) प्रत्यक्ष कहेछे. www.kobatirth.org तस्यबिन्दु; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ प्रमाण अने प्रमेय ए बेना सामान्य अने विशेष ए वे भेद थायछे. १६५ द्रव्यास्तिकनयथी दर्शनोपयोगनुं ग्रहण थाय छे. दर्शनना बे भेद. एक छानस्थिक अने बीजुं केवलदर्शन क्षायिकले तेमां छास्थिकना चक्षु, अचक्षु अने अवधि ए त्रण भेदछे. १६६ पर्यायास्तिकनयथी सामान्याकार त्यागि अने विशेषाकार ग्राहि ज्ञान ग्रहायछे. ज्ञानना वे भेदछे, एक छाद्मस्थिक अने बीजुं क्षायिक केवलज्ञान छे. तेमां छाद्मस्थिक ज्ञानना मति, श्रुत, अवधि, अने मनःपर्याय ए चार भेद छे. चक्षुदर्शन, अच• क्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन ए चार द्रव्यार्थिकनय विषयछे माटे द्रव्यरूपछे अने पंचज्ञानछे ते पर्यायार्थिकनय विषय होवाथी पर्यायरूपछे, दर्शन अने ज्ञान एवे साथै रहेछे. १६७ आत्मा, ज्ञानथी विशेषाकारछे अने दर्शनथी आत्मा, सामान्याकारछे. सामान्य वस्तु विशेषाकारथी विकल नथी. अने For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः विशेसकारछे ते सामान्याकारथी भिन्न नथी. जेम- अनुक्रमे यथा शिवकादि विकल मृत्तिकावत् मृत्तिका विकल शिवकादिवत्। १६८ सामान्य विशेषात्मक वस्तुने ग्रहण करनार प्रमाण पण दर्शन अने ज्ञानरूप छे. छद्मस्थावस्थामां कोई वखत ज्ञानोपयोगनी मुख्यता रहेछे त्यारे दर्शननी गौणता थाय छे. अने कोइ व. खत दर्शनोपयोगनी मुख्यता होयछे. त्यारे ज्ञानोपयोगनी गौणता होय छे. १६९ सम्मतिकारना मत प्रमाणे क्षायिकभावमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन युगपत् वर्तेछे, १७० मतिज्ञानोपयोगे वर्ततां श्रुतज्ञानोपयोग नथी. अने श्रुतज्ञानो पयोगेवर्ततां मति, अवधि, अने मनःपर्यव नथी. अने अवधि ज्ञानोपयोगे वर्ततां मति, श्रुत, अने मनापर्यवनो उपयोग नथी. अने मनापर्यवज्ञानोपयोगे वर्ततां मति, श्रुत, अवधिज्ञाननो उपयोग नथी. तेम चक्षु अने अचक्षु दर्शननो उपयोग वर्तता मतिज्ञानोपयोग नथी. अने मतिज्ञानोपयोगे वर्ततां चक्षु, अ. चक्षुदर्शननो उपयोग नथी. अवधिदर्शननो उपयोग वर्तता अवधिज्ञानोपयोग नथी. अवधिज्ञानोपयोग वर्ततां अवधिदनिनो उपयोग नथी. For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५१ १७० श्रुत अने मनः पर्यवमां दर्शनोपयोगं नथी. वाक्यार्थविशेष विषयं श्रुतज्ञानं, मनोद्रव्यविशेषालंबनं च ममः पर्यायज्ञानं एतद् द्वयमपि अदर्शनस्वभावं, १७२ श्रीसिद्धसेनदिवाकरमृरिए युगवत् केवलज्ञान अने केवलदर्श ननुं स्वरूप नीचे मुजब गाथाथी प्रतिपादन कर्तुं छे. गाथा. सम्मतितर्क संतम्मि केवले दंसणंमि, णाणस्स संभवो णथ्थिः केवलणाणम्मिय दंसणस्स, तम्हा सहिणाई ॥ १ ॥ क्रमrt केवलज्ञान अने केवलदर्शननो उत्पात मानतां केवलद र्शनसमये, केवलज्ञाननो संभव नथी, अने केवलज्ञानसमये केवलदर्शननो संभव नथी. माटे केवलज्ञान अने केवलदर्शन वे संनिधाने एटले समानकालिक मानवां जोइए. १७३ अस्पष्टे अर्थरूपे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः सचक्षुदर्शनं ज्ञान - मेव सत् इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादावर्थे मनसा ज्ञानमेव सत् अचक्षुदर्शनम्. १७४ उत्पाद व्यय, अने श्रव्ययुक्त द्रव्य कद्देवायचे. वर्तमान, For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः ( ५३ ) भूत अने भविष्य भेदयी उत्पादना त्रण मेद थायछे तेमज व्ययना पण त्रिकालना भेदथी त्रण भेद थायछे, अने धौव्यना पण त्रिकालना भेदी त्रण भेद थायछे, एम सर्व मळी नव भेद थया. १७५ सम्मतितर्कना द्वितीयकाण्डम उत्पाद, व्यम, धौष्यना नबभेवनुं विशेषतः विवेचन कर्युछे.. १७६ धर्मध्याननां चार लक्षण छे. १ आज्ञारूचि २ निसर्गरूचि ३ सूत्ररूचि ४ अवगाढरूचि. १ हेय, ज्ञेय, उपादेय, उत्सर्ग, अपवाद, निश्चय, व्यवहार इत्यादिक आज्ञाओनी रुचि तेने आज्ञारूचि कहे छे. २ गुरुउपदेश विना स्वभावथी तत्त्वनी प्रत्येक बुद्धनी पेठे रूचि ते निसर्गरूचि जाणवी. ३ सूत्र सिद्धांत श्रवण करवानी रूचि ते सूत्ररूचि जाणवी. ४ दृष्टिवादप्रमुखनयनिक्षेपप्रमाणादिकथी विस्तारपणे जाणवानी रूचिने अवगाहरूचि कहेछे. १७७ धर्मध्याननां चार आलम्बन कहेते. १ वाचना २ पृच्छना ३ परावर्त्तना ४ अनुपेक्षा. For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५४ ) तव बिन्दुः १७८ धर्मध्याननी चार अनुप्रेक्षा कहे छे. १ एकानुप्रेक्षा २ अनित्यानुपेक्षा. ३ अशरणानुमेक्षा ४ संसारानुप्रेक्षा. . Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ तत्र प्रथमायां एकोsहं, द्रव्यगुणपर्याय स्वरुपोऽहं इत्यादि पर्यालोचनाने एकानुभेक्षा कहे छे. २ संसारमां सर्वभाव अनित्य इत्यादि पर्यालोचनाने अनित्यानुप्रेक्षा कहे छे. ३ संसारमा कोइ कोइ शरण नथी ते अशरणानुप्रेक्षा. ४ संसारस्वरूप विचार ते संसारानुपेक्षा जाणवी. १७९ शुक्रव्यानना वे भेदछे - १ एकशुक्ल २ परमशुक्लध्यान. प्रथम शुक्लना बे भेद - १ पृथक्त्ववितर्क समविचार २ एक त्ववितर्क अमविचार. परमशुक्लध्यानना वे भेद-सम्मक्रिया अमतिपाति, २ उच्छि नक्रिया अनुवृत्ति. १८० केवलिस मुद्धात चउद राजलोक त्रसनाडी व्यापे तेम केवल आत्माना प्रदेश विस्तारी प्रथम समयमा दंडाकार करे - अने वीजा समयमा नाडी वाहिर कपाटवत आत्मपदेशाने विस्तारे ते कपाट कहेवं. श्रीजे समये मन्थाननी पेठे सनाडी बाहिर आत्ममदेश विस्तारे ते पारसन्धान जाणवे । - वाया समये सर्व लोकाकाशने आत्मप्रदेशयी पूरे ते प्रतर पूर्ण जा For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दुः ( ५५ ) णवा, एवं दंड-१ कपाट २ प्रतरमन्थान ३. लोक पूर्ण एम चार समय.पर्यंत क्रियाकरे-पांचमे समये लोक पूर्ण संवरेछठे समये प्रतरमन्यान संवरे, सातमे समये कपाट संवरे, आठमे समये दण्ड संवरे, आयुकर्म समान नाम, गोत्र, वेदनीय करीने पश्चात् केवलिसमुद्घात क्रियाछेडे आपणा शरीरप्रमाण प्रदेशको विस्तार रावे. १८१-योगीश्वरने ध्यान, तपश्चर्याथी आठ प्रकारनी ऋद्धि प्राप्त थाय छे १ बुद्धिरुद्धि-२ क्रियारुति, ३ विक्रियारुद्धि ४ तपेाऋद्धि ५ बलऋद्धि ६ औपधऋद्धि ७ रसऋहि ८ क्षेत्रऋद्धि प्रथम बुद्धिऋद्धि-बुद्धि कहेतां ज्ञान जाणवू-तेना अष्टादश भेद जाणवा. १केवल-२ अवधि. ३ मनः पर्यव. ४ बीजबुद्धि. ५ कोष्ठबुद्धि ६ पादानुबुद्धि. ७ संमिनीतबुद्धि ८ दुरास्वादनबुद्धि ९ स्पर्शबुद्धि १० दर्शनबुद्धि ११ घ्राणबुद्धि १२ श्रवणसमर्थताबुद्धि १३ दशपूर्वबुद्धि १४ चतुर्दशपूर्वबुद्धि १५ अष्टांगमहानिमितबुद्धि १६ प्रज्ञाश्रवण बुद्धि १७ प्रत्येकबुद्धि १८ वादित्वबुद्धि केवल ज्ञान अने अवधिनुं स्वरूप स्पष्टछे. मनापर्यत्र पण स्पष्टछे. सुक्षेत्र समारेलामां कालानुयोगे ज्यारे वृष्टि थाय For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५५) तत्वविन्दुः त्यारे क्षेत्रकार बीज वावे ते अनेकघणुं नीपजे, तेम इन्द्रिय मनोविकार दमीने उपशमजलधाराथी सिंधू हृदयक्षेत्र अने सिंचक सहजानन्द आत्मा जेनाछे एवा साधुने एकपद तथा एक अक्षरने निर्मलपरिणामथी अनेक प्रकारे जाणे ते बीजबुद्धिनुं माहात्म्य छे. कोठारी अनेक प्रकारना अन्नना संग्रह करे-जेजे जातना कण मांगवामां आवे तेते जातना पाछा आपे तेम मुनिराज आपना गुरुपासेथी अनेक प्रकारना शास्त्रानो अभ्यास करे तेनो अर्थ पुच्छचामां आवे त्यारे शब्दार्थ भिन्नभिन्न कहे ते कोष्टबुद्धि जाणवी. ६ छठी पादानुसारिणी बुद्धि त्रण प्रकारेछ. १ प्रतिसारि, २ अनुसारि, ३ उभयसारि. लक्षण तथा बीजाक्षर रहीत सुणीने विवेकज्ञाने जाणे के आ सूत्रथी, आ पदथी, आ उपदेशथी आवो बीजाक्षर जोइए. एम जाणे तेने प्रतिसारि बुद्धि जाणवी. तथा बीजाक्षर पद अनुसारि बुद्धि ते, जे प्रथमपाद, श्लोक, गाथा, आलावो, मूत्रनोछे अथवा नथी. ते सूत्र अमे पोताना ज्ञानवले एम जाणे के आ सूत्रे आ पद जोइए. आ हीन अनुक्रम सूत्रनोछे एम जाणे ते पद अनुसारि बुद्धि जा. णवी. ३ सूत्र सिद्धान्तना अभिप्राय आगला नथी. अने कोइक अनुक्रमी पाछला नथी. त्या अनुक्रम जाणे, अभिप्राय जाणे. आगलो पाछलो उणो अभिप्राय रहस्य जाणे. एक पदयी सर्व ग्रन्थ जाणे तेने उभयसारिपद लब्धि कहेछे. ए अण भेद सहित पादानुसारिणि लब्धि जाणवी. For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तर बिन्दु: ( ५० ) ७ संभिन्न श्रोतबुद्धि बार योजन लंबायमान विस्तार अने नव योजन पहोळु सैन्य त्यांथी चक्रवर्तिना सैन्यनो शब्द, हस्ति, घोडा मनुष्य, गाडां, रथ, प्रमुख तेनो शब्द सर्व जाणे. राइ, सरसव हाथीना उपरथी खरेतो तेनो मूक्ष्मशब्द पण सांभळे, उत्कृष्ट कर्णेन्द्रियतुं बल तपोधनने होय तेथी एक कालमां सर्व शब्द सांभळे. तेने संभिन्नश्रोतलब्धि कहेले. ८ आठमी दुरास्वादलब्धि लक्षण कहेछे. मुनिवर्य संयमवलोत्पन्न रसनेन्द्रियक्षयोपशमभाववलथी, भोगविकार रहीत एवा नव योजन अधिकक्षेत्रे अनेक रस विकार भिन्न भिन्न जाणे, स्वाद जाणे. परिमल जाणे, स्पर्शरसरूप देखे. स्पर्शरस गंध रूप शब्दना भाव निरागपणे जाणे, तेने दुरास्वादन बुद्धि लब्धि कहेछे. ९ स्पर्शलब्धि १० स्वादलब्धि ११ घ्राणस्वादलब्धि १२ शब्द स्वादलब्धि १३ दशपूर्वधरणलब्धि, १४ चतुर्दश पूर्वधरण समर्थलब्धि एपलब्धि जेम उपजे तेम प्रकार बतावेछे जिनशासन भक्तिकारक देवांगना, गुरूसाधु भक्तचउद पूर्वनी अधिष्ठाता, आपणा गुरुनी परीक्षा करे. रोहिणी प्रमुख विद्यादेवी पञ्चशत, भक्तिथी निर्मलभाव प्रकाशती आगे रहीने नमस्कार करीने अनेक प्रकारे गुणस्तुति करे, प्रार्थना करे. दयाभण्डार, निर्ग्रन्थ, निरीहभावथी क्लेश घणो सहेछे, ते कडे के है मुनीश्वर तुमारी आज्ञा इच्छुछु, जे कार्य कहेशो ते अमो भुं. इत्यादि अनेक वचन. विद्या देवी वोले, तोपण मुनीश्वर आत्मस्वभावमां लीन रहे. सांसारिकसुखनी वाञ्छा For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) __नस्वबिन्दुः करे नहीं. ते गुणथी विद्यापवाद दशमुंपूर्व निर्विघ्नपणे भणे, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, प्रमुख देवांगना भक्ति करे पण मुनीश्वर महिमा प्रताप संपदा वांछे नहीं, चतुर्दशपूर्वधारीथाय. १५ अष्टांग महा निमित्तलब्धि-१ अन्तरिक्ष, २ भौम, ३ अंग, ४ स्वर, ५ व्यञ्जन, ६ लक्षण, ७ भिन्न, ८ स्वप्न. १ अन्तरिक्ष-निमित्त ते मूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र. तेना उदय काल विचारे अने अस्तकाल लक्षण चिन्ह देखीने शुभाशुभ फलविकार जाणे, हानि वृद्धि जाणे, जय पराजय जाणे. पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशामां अभ्रपटल देखी लाभालाभ जाणे, भविष्य हानि वृद्धि शुभाशुभ जाणे. २ भौमनिमित्तज्ञान-विरक्तस्वभावितापस, उद्यान, वाडी, पर्वत, नदी, सरोवर प्रमुख प्रपंच त्यांना भावलक्षण वि. चारीने पश्चात् शुभाशुभ विचारे अने भूमिस्थितरत्न सुवर्णादि जाणे. बाह्यनिमित्त ज्ञानथी भौमनिमित्त स्वरूप जाणवू. ३ अंगनिमित्तज्ञान-तिर्यच मनुष्य प्रमुखनां अंगदर्शनथी शु. भाशुभ ज्ञान थाय तेने अंगनिमित्तज्ञान कहेछे. ४ स्वरनिमित्तज्ञान-मनुष्य अने तिर्यंचना शुभाशुभवाणीस्व___ रथी जे ज्ञान थाय नेने स्वरनिमित्तज्ञान कहेछे. ५ व्यञ्जननिमित्तज्ञान, शरीरना अड़े तिल, मसा, व्रण, लां छन देखीने शुभाशुभनु ज्ञान थायछे तेने व्यजननिमित्त कहे छे. For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबिन्दु : ug) ६ लक्षणनिमित्तज्ञान - स्वस्तिक आदि शरीरपर पडेलां लक्ष णथी शुभाशुभज्ञान थायले तेने लक्षण निमित्त कहेले. ७ छिन्ननिमित्तज्ञान-वस्त्र, शस्त्र, शयनासन, फाडेलो, तोडेलो देखी शुभाशुभ विचारं तेने छिन्न निमित्त कहे छे. ८ स्वर्थी जे ज्ञान थाय तेने स्वम निमित्त कहे छे. १६ प्रज्ञाश्रवणबुद्धि - अतिसूक्ष्मजीवादितत्त्वनो विचार गहन जाणी शके. श्रुतज्ञानावरणीयकर्मना क्षयोपशमथी असाधारण अनुपम परमार्थज्ञाता होय. तेना चार भेदछे. उत्पातकी, परिणामकी, विनयकी, कार्मणकी. १७ प्रत्येकबुद्धिलब्धि-गुरूना उपदेश विना परभावथी मन पाहुं वाळीने संयम ग्रहण करे, तेने प्रत्येकबुद्धिलब्धि कहेले. १८ वादलब्धि इन्द्रादिक देवता जो साधुनी साथे बाद करेतो तेमां साधु जीते एवा साधुने वादलब्धि कहेवायछे. बीजी क्रियारू कहे. क्रियारुद्धिना वे भेदछे. १ चारणक्रिया, २ आकाशगामिनी क्रिया, प्रथम चारणक्रियाना अनेक भेदछे. For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सस्यबिन्दु १ जल उपर चाले पण अप्काय जीवनी विराधना न उपजे. लब्धिमहिमाथी सचिननो विरोध न थाय ते योगी जल चारण जाणवा. जेम भूमिपर चाले तेम जलपर चाले. २ बीजो जंघाचारणसाधु जाणवो. ने भूमिथी चार आंगुल अधर चाले, वायुनी पेठे आंख मीचीने उघाडीए एटलामांतो हजारयोजन जाय ए बीजो भेद जाणवो. ३ तंतुचारण तपोधन कोलीया मांकडीना तंतु उपर चाले पण ने तंतु तुटे नहि तेम नमे पण नहि. एम तंतुपर चालतो प्रसस्थावर जीवने विराधे नहि. ४ पुष्पचारणयोगि-पुष्पना उपर चाले पण त्रस थावरजीवने दुहवे नहि. ५ पत्रचारण योगी-पानपर चाले पण कोइ जीवने दुहवे नहीं. ६ बीजचारण साधु-बाजरी जव प्रमुख अनेक कण उपर चाले पण विराधना थाय नहि. ७ श्रेणि चारण संयमी-जमणी अने डाबी बाजुनी दिशाए पं खीनी पेठे चाले. For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (41) ८ आनचारण साधु-अग्निज्वाला स्पर्शीने चाले पण संयम विराधे नहि. हवे आकाशगामि क्रियानो बीजो भेद कहेछे-चारण पद्मासने वेठो होय तो तेज आसने आकाशमा चाले. काउसम्ग आसने होय तो तेज आसने चाले. जीजी वैक्रिय रूचि कहे. वैक्रियरूद्धिना अनेक भेदले. १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा, ४ गरिमा, ५ प्राप्ति, ६ प्राकाम्य, ७ इशत्व, ८ वशित्व,९ Maina अप्रतिघात, १० अन्तर्धान, ११ कामरूप. ए एकादश लब्धि साधुने तपथी उत्पन्न थाय. १ अणिमा-कमलनालना आकाशमां समाय ए, सत्मशरीर जेनाथी थाय तेने अणिमा कहेछे. २ महिमा-जेथी चक्रवर्तिनी संपदा निपजावे. ३ लघिमा-वायुनी पेठे जेथी हलकुं शरीर करे. ४ गरिमा-वनधी षण जेथी भारे शरीर करे. For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः ५ प्राप्तिरूद्धि-भूमिपर बेठोथको मेरुपर्वतनी चूलिका तथा चंद्र अने सूर्यने अंगुलीवडे स्पर्श. ६ प्राकाम्यरूद्धि-भूमि पेठे जलपर चाले. पाणिमा चुडे तेम भूमिपर पण बुडे. ७ इशत्व-तीर्थकरनी संपदा समवसरण प्रमुख ठकुराइ बनावीशके. ८ वशत्व--सर्व जीवने व्हालो लागे. ९ अप्रतिघात रूद्धि-पर्वतमा पेसी बीजी तरफ नीकळे. १० अन्तर्धान-अदृश्य थइ जाय. ११ कामरूप लब्धि-मनभावतां समकाले नाना प्रकारनां रूप करे. चोथी तपोरूहि कहे. तपोरूद्धिना सात भेदछे-उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप, घोर पराक्रमतप, घोरब्रह्मचर्यगुणतप. १ उग्रसप स्वरूपम्-तेना वे भेदछे. १ उग्रोग्रतप, बीजो अवस्थि तोग्र तप. प्रथम उग्रतप ते एक उपवास पारणे करीने अ For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दुः ( ११ ) वे उपवास करे पश्चात् पारणं करीने त्रण उपवास करे. पश्चात् पारणुं करे पश्चात् चार उपवास करे. एम चढतां उपवास करे. अनुक्रमे जावजीव लगे तप करे. त्रण गुप्तिथी धीरवीर संग्रामशुर निराशपणे जीववानी तृष्णा विना तप करे ते उग्रोग्रतपोधन जाणवो. arat अवस्थितो तपस्वी ते दीक्षानो प्रथम उपवास उच्चरीने विधिपूर्वक पार करे. पल्ले पोतानी लीलाए एकांतर उपवासे पारशुं करे तथा वे उपवासे पार करें. एम तपनुं पारणं करतां अंतराय आवे विधिथी निर्दोष भिक्षा न पामे तो एकान्तर उपवास करेछे तेम जावजीव लगे वे उपवासे पारं करे. वे उपवासे पारं करतां पण आहार न पाये तो आनन्दसन्तोषथी त्रण उपवासे पारं करे. ए रीते आयुष्यलगे निर्वाहे. २ दीप्त - अनेक उपवासथी शरीर दुर्बल करे. पण त्रण प्रकाaria अधक होय. शरीर सुगन्धि होय. कमलसदृश परिमल महके - दिनदिन शरीरनी कान्ति दीपे. ३ तप्ततपः- तप्त लोहपर पडेल जलबिंदु तत्काल विलय पामे. तेम साधुने अल्पाहार जल लेतां मूत्र पुरीषादिक न होय. परसेवो थाय नहि. तथा तप्ततपोधनने अणिमादि लब्धि होय. अक्षीण लब्धि होय. सर्वोषधीरूद्धि होय. आहार जल अमृतमय होय. देवता करतां अनंत गुणवल होय. आशीविषदृष्टिरूद्धि होय. For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) सत्वबिन्दुः ४ महातपोलब्धि-सर्वविद्यासमुद्र अवगाहे. मतिज्ञानना त्रणसे छत्रीश भेद जाणे. समस्त श्रुत जाणे. अवधिज्ञानथी त्रसनाडी मध्यस्थित पुण्य पापरूपि पुद्गलने जाणे-देखे. मनःपर्यव शानथी सूक्ष्मभाव मनना जाणे. ५ घोर तपोलब्धि-अनेक प्रकारना प्रारब्धरोगोने समभावथी सहे. शरीरनी ममता करे नहीं. मोहने मारे. तपश्चर्या न छोडे. मौनावलंबी होय. उग्रअभिग्रह धारण करे. ६ घोरपराक्रमतपोलब्धि-त्रणयोगदमीने असमानपराक्रमी होय. जगत्त्रयांने भयभ्रांत करवा समर्थ होय. एवा साधु क्रोधथी पृथ्वी उलटी करवा समर्थ थाय. तेमना क्रोधथी समुद्रनां पाणी मुके, महाशक्तिवाला होय. ७ घोरगुण ब्रह्मचारि अथवा नामांतरे अधोरगुण ब्रह्मचारि, त्रण जगतना भय दूर करे. त्रण जगत्मा शान्ति उपजावे. निरतिचारपणे शीयल पाले, भूत, प्रेत, शाकिणी, डाकिनी, मारि, कामण, मोहन, विकार, सर्व तेमना प्रतापथी नाश पामे; महा तपस्विना प्रतापथी दुर्भिक्ष, वैरभाव, वगेरे नाश पामेछे. ज्यां ज्यां घोरब्रह्मचारि तापस रहे. त्यांना लोकोने क्लेश करवानी बुद्धि उपजती नथी. मरणांत उपद्रव उपजे नहीं. कोई बन्धन पामे नहि. रोगथी कोइ पीडाय नहीं. For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्वबिन्दुः हवे पांचमी बलऋषि स्वरूप कहे. बलऋद्धिना त्रण भेदछे. मनोवलसाधु, वचनबलसाधु, कायबलसाधु, रागद्वेषविलय पाम्याछे जेना ते मनोबली साधु जाणवो. श्रुतज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशमभाव जेनछे अन्तर्मुहर्तमां द्वादशांगी भणवानी शक्ति होय. स्पष्ट प्रगटाक्षरथी द्वादशांगी भणे भणतां श्रम न उपजे. ते वागबलि साधु जाणवो. ३ कायवली साधु एक मास काउसग्ग व्याने उभो रहे. तथा चार मास काउसग्ग ध्याने उभी रहे. वर्ष पर्यंत उभी रहे. वीर्यातराय कर्मनो क्षयोपशमभाव साधुने प्रगटे, तेने कायबली साधु कहीए. ते जो बलविकार करे तो पोतानी टचली आंगुलीथी त्रण लोक उद्धरे. ही औषधऋदि कहे. औषधऋद्धिना आठ भेद जाणवा. १ आमस्पर्श, २ श्लेष्मस्पर्श, ३ जलस्पर्श, ४ मलस्पर्श, ५ विट्स्पर्श, ६ सवयवस्पर्श, ७ आशीविष, ८ दृष्टिविष. १ आमस्पर्श-साधुना हाथ पगना स्पर्शथी सर्व रोग नाश पामे. अथना साधु ज्यां वेसे त्यांनी धुळना स्पर्शथी सर्व रोग जाय. For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (**) तरयबिन्दुः तथा तेमना शरीर स्पर्श करनार वायुमा लागवाथी मरकी विगेरे सर्व रोग जाय. २ श्लेष्मस्पर्श- लेप्म, थुंक, विगेरेथी अनेक रोगनो नाश थाय. ३ जलौषधी लब्ध प्रस्वेदथी शरीरे धूळ लागीछे. ते धूळ जेने लागे तेना सर्व रोग मटे. ४ मलौषध लब्धि- कर्णमेल, दांतमेल, नासीकामेल, चक्षुमेल, जिव्हामेल, ज्यां लागे त्यांना सर्व रोग जाय. ५ विडौषधी लब्धि - विट्, उजार, शुक्र, मूत्र, साधुशरीर मेल दुःसाध्य रोगने पण क्षय करे. ६ सर्वाaraौषधी ब्धि - सर्व अंगोपांग शरीरनां ज्यां लागे त्यांना अनेक रोग नाश करे. ७ आशीर्विष लब्धि - विष सहित आहार कोई साधुने दे तो ते आहार अमृतमय होय, तथा विषधी मूच्र्छा पामेला जीवो साधुनां वचन सांभळी तत्काल निर्विष होय. ८ दृष्टिविपलब्धि - साधुनी दृष्टि ज्यां प्रसरे त्यां वेद तथा विषथी uiser जीवो निर्विष होय, तथा दृष्टिविपलब्धिना धणी साधु कोपथी देखता अन्नपाणी सर्व विष होय. अने दयापरिणा For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः मयी अन्नपाणीने देखे तो सविष आहारपाणी निर्विषपणे प. रिणमे विष महा विष देव पण दृष्टिविष लब्धिधारक साधुनुं तेज सही शके नहीं. हवे सातमी रसऋदिनुं स्वरूप कहे. रसऋद्विना छ भेद कहेछे-१ आस्यविषालब्धि, २ दृष्टिविपालब्धि, ३ क्षीरावीलब्धि, ४ मध्वाश्रवीलब्धि, ५ सर्पिराश्रवी लब्धि, ६ अमृतश्राविलब्धि. १ आस्यविषा लब्धि-प्रकृष्ट तपोवली साधु कोपथी बोले के तुं मरी जा एम बोलतांज जेम विष खाधेल मृत्यु पामे सेम साधुना कोपथी मृत्यु पामे. २ दृष्टिविषालब्धि-तपोवलि साधु क्रोधदृष्टिथी जेने देखे ते जीव तत्काल जेम विषवायुथी वृक्ष पडे तेम मरी जाय. ३ क्षीरावी लब्धि-लुखो आहार साधुने कोइ आपे पण साधुना हस्तमां क्षीररस समान आहार थाय. कोइ शरीरे क्षीण दुर्बल होय तेने साधु पुष्टिकर वचन कहे तो क्षीणता दुर्बलपणुं नाश पामे. ४ मधुश्राविणी लब्धि-कटुक कषायलो नीरस आहार साधुने दीपो होय. ज्यारे ते आहार साधु हाधमां ले त्यारे मधु For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६८ ) तबिन्दु समान सरस अने पुष्टिदायक होय. दुःखे पीडाता लोकने साधुनां वचन मधुनी पेठे मीठां लागे. आर्त, आपदा, रोग, बन्धन सर्व नाश पामे. ५ सपराव लब्धि - लुखो अन्नपाणी साधुने पुष्टिकारक अने सुरस होय. घृत मधुर पुष्टकारि आहार होय. सर्पे पीडित प्राणीने नीरोगी करे. साधुनां वचन मीठां प्यारां व्हाला लागे. ६ अमृताविणी लब्धि- अमृत समान आहार साधुने बचने थाय. विषमय आहार अमृतमय थाय. आठमी क्षेत्रऋनुं स्वरूप कहेवे. क्षेत्रऋद्धिना बे भेदछे. १ अक्षीण महानसी लब्धि, २ बीजी अक्षीण महालय लब्धि. १ अक्षीण महानसी लब्धि - लाभांतराय कर्मना क्षयोपशमे साधु भीक्षार्थ भमतो कोइना घेर आवे त्यां आहार अल्पछे. अल्पमाथी पण भक्तिथी साधुने बहोरावे. पश्चात् अल्प आहार रहे. तेना घरे चक्रवर्ति सैन्य आहे. ते सर्वने अल्प आहारमांथी अन्न काढी जमाडे पण खूटे नहीं. अने आहारनो रस For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविदुः ( ६९ ) कटुक, आम्ल, तिक्त, मधुर, विगेरे स्वादवाळी खातां लागे ते अक्षीण महानसी लब्धिनो प्रताप जाणवो. २ बीजी अक्षीण महालय - महालय कहेतां भोजनशाला - चार हाथनोविस्तार रसोइनोज्यांजमण माटेहोयछे त्यांपुण्योदयधी साधु भिक्षार्थी आवे. त्यारे भोजनशालामां सरस आहार देखाय साधुना महिमाथी सुवर्णनां, रूपानां, विगेरे सरस आहार पूर्ण भोजन देखाय चक्रवर्ति सैन्य जमे तो पण आहार खूटे नहीं. तिर्यच पण आहारथी तृप्त होय. एवं ते ऋहिवाळा साधुनुं सामर्थ्यछे तथा तेवो साधु जगत्त्रयीने पण क्षोभ माडे. इति क्षेत्रऋद्धिवर्णनम्. प्रथम बुद्धिना भेद अहार तथा बीजी क्रियाऋद्विना नव भेद. त्रीजी विक्रियाऋद्विना ११ एकादश भेद. चोथी तपोऋद्विना सात भेट. पांचमी वलऋद्धिना त्रण भेद छठी औषधऋद्विना आठ भेद. सातमी रसऋद्विना छ भेद. अने आठमी क्षेत्रऋद्विना वे भेद एम सर्व मळी अठ ऋद्विना चोसठ भेद थाय छे. १८२ स्वाद्वाद दर्शनमां सम्मतितर्फे समवाय संबंधनुं खण्डन कर्तृळे. द्वितीयsis सम्मतितर्क प. - ४६६ गाथा. कालो सहाव rिes, पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता मिच्छत्तं ते चेव, समास होंति सम्मत्तं 113 || For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७० तत्वबिन्दुः १८३ अंग दुष्टत्वे तदात्मकांगिनोऽपि दुष्टत्वापत्तेः सम्मतिद्वितीय कांड पत्र ५००० www.t सम्मतितर्क द्वितीयकाण्ड. पत्र ५००. जद जद बहुस्सु, समन्य मिस गण संपरिवुडोय अविनिच्छिय समए, तह तह सिद्धतपडिणीनं ॥ १ ॥ १८४ आय त्रण नरकमांत्रण सम्यक्त्व पमायछे-तेमां क्षायिक पारभविकछे - उपशम अने क्षयोपशम तद्भविकले. मनुष्य गतिमां त्रण समकित हावळे, वैमानिकमां त्रण प्रकार समकित छे. बाकीना देवेने बेछे, असंख्यात वर्षायुकतिर्यच पंचेन्द्रियने त्रण समकित मनुष्यवत्छे, बाकीना संख्याता वर्ष आयुष्यवाळाने वे समकित छे. तत्त्वार्थ सूत्र वृत्ति श्लोकसाकारः प्रत्ययः सर्वो, विमुक्तः संशयादिना साकारार्थपरिच्छेदात् प्रमाणं तन्मनीषिणां ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only १८५ मति, अवधि, अने वेवल साकार अने अनाकार वे भेदे छे अने श्रुत तथा मनः पर्यव साकारज छे, ? Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्दु: ( ७१ ) त्रीजेो समय अणा १८६ चार समयनी विग्रह गतिमां बीजेा अने हारी होयछे, ओजाहार, लोमाहार अने कवलाहार, पूर्वोक्त वे समयमा नथीः कार्मण वर्गणाना आहार तो ए वे समयमां पण हाय के. १८७ रुजुगति एक समयनी होय छे अने तेमां आहार है. १८८ केवली समुद्घातमां त्रीजा, चाथा अने पांचमा समयमां जीव अणाहारी छे, पहेला समयमां के वली समुद्घातकाले औदारिक, attrai औदारिक मिश्र, त्रीजामां कार्मण, चोथामां कार्पण योग, पांचमामां कार्मण योग, छठामां तथा सातमामां मिश्र, अने आमामां औरयोग. १८९ तेरमा गुणठाणे सत्य भाषायोग, तथा असत्या अमृषाभाषा योग, अने सत्यमनेायोग तथा असत्यामृषामनोयोग होय. तथा औदारिक, औद्वारिक मिश्र अने कार्मण सर्व मळी सात योग होय. १९० कोइक आचार्य शरीर कांतिने तेजसनुं कार्य गणे छे. For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः १९१ कार्मण शरीरथी कार्मण वर्गणा भिन्न छेः कथंचित् अभिन्नपण छे १९२ तेजस शरीरने कोइ आचार्य अनादि मानता नथी.तेमना मतमा तेजोलब्धिथी तेजस शरीर उत्पन्न थाय छे, अने ते कहेछे केक्रोधावेशे तेजोलब्धिथी-उष्णतेजः शरीर अने दया परिणामथी शोततेजः शरीर उत्पन्न थइ अनुक्रमे घात अने उपकार करे छे. १९३ मनुष्य अने तिर्थच आहार पयाप्ति एक समयमां पूरी करे अने बाकीनी पयाप्ति अन्तर्मुहूर्तमां करे.देवता अने नारकी आहार पयाप्तिअन्तर्मुहूर्तमांकरे.अनेवाकीनी पर्याप्तिया एकसमयमांमांकरे. १९४ एकपरमाणुन प्रतिबिंब पडतुंनथी.अनंताणुक स्कंधनपति विंबपड, १९५ औदारिक शरीर असंख्यातां अने औदारिक शरीर धारण करनारा जीव अनंत. कारण के साधारण वनस्पतिमां अनंत जीवनुं एक शरीरछे. For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः १९६ वैक्रिय शरीर असंख्याता, तेजस अनंता, कार्यण शरीर अनंतां, आहारक संख्यातां जाणवां. १९७ कार्मण शरीरनो बंध आठमा गुणठाणा मुधी होयछे. १९८ विग्रहगतिमां सातकर्मनो अव्यक्त बंध थायछे. १९९ :विग्रहगतिमां भोग प्रदेशोदयथी होय. २०० विग्रहगतिमां मनोव्यापाराभावछे. २०१ तेरमे गुणठाणेशाता अने अशातानो प्रदेशोदय तथा विपाकोदय लोहीखंडवाडानी पेठे होय. २०२ आहारकलब्धियी आहारक शरीर करे त्यारे छ पर्याप्ति अन्त मुहर्तयां करे. For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७४) तत्वबिन्दुः २०३ आहारक शरीरमा उपभोगनो संभवछे. २०४ आहारक शरीर आहारकमिश्र छठा गुणठाणे होय. आहारक शरीर सातमा गुणठाणे होय. २०५ छठा सातमा गुणठाणे शंकामोहनीय होय. २०६ चौदपूर्वधारी आहारक शरीरने पूछवा मोकले त्यां केवली न होय तो अन्यत्र जवा आहारक बंधन करे. २०७ सर्व चउद पूर्वधारीओने कई आहारक लब्धि उत्पन्न याय एवो नियम नथी. २०८ भिन्नाक्षर चतुर्दश पूर्वधरने श्रुतकेवली कहेछे तेने संशय होय नहीं. For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दुः ( ७५ ) २०९ भिन्नाक्षर अने अभिन्नाक्षर बेने आहारकलब्धि उत्पन्न याय. तेमां अभिन्नाक्षर चतुर्दश पूर्वधर आहारकलब्धि फोरवे. भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी, लब्धि फोरवे नहि. भिन्नाक्षर चउद पूर्वधारी अपमत होय. अभिन्नाक्षरवाळो प्रमत्त होय, २१० चउद पूर्वधारी कषाय कुशील होय. २११ ज्यां आत्माना पदेशो समुदायीभूत थइने रहे तेने मर्मस्थान कहेछे. तत्त्वार्थ अ. प्र. १६ मूत्र. २१२ मस्तकमां आत्माना बहु प्रदेशोछे. अने मस्तकमां वेदना पण घगीछे. मर्मस्थानोमां आयु भेदछे. भेद एटले छेद, ज्यां आत्माना प्रदेश घणा होय त्यां आयुनां दलियां विशेष होय छे. १३ तेणग्य नवसएहिं. समइकंतेहिंवद्धमाणार्ड पज्जूसवण चउथ्यी, कालग सूरिहितो ठविआ. For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७६) तस्वविन्दुः २२४ तीर्थकरना जन्म समये असंख्य चंद्र सूर्य आवे. एवं त्रिषष्ठि शलाका पुरुषचरित्रमां, शांतिनाथ चरित्रमा तथा आवश्यक चूर्णिमांछे. २१५ जद्वीपपत्रात, छठा गर्नु उपांग जाणवू, एम ठाणांगतिना चोया ठाणेछे. २१६ नीर्थकरने समुद्घात होय, निषेध नथी एम आवश्यक चूर्णिमांछे ११७ गृहस्थावासमा तीर्थकरने साधु नमस्कार करे नहीं. तेनो पाठ गृहवासस्थाः साधूनां नमस्कारानी अविरतत्वात् . भाधुने नमस्कार निषेध्यो पण श्रावकने निषेध्यो नथी. २१८ मिथ्यात्वीने अवधिदर्शन पण होय एवं भगवती सूत्रे. चोथा कर्मग्रंथनी २१ एकवीसमी गाथामा निषेध पणछे. पनवणा टीकामा पे मत के. For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः ( ७७ ) २१९ जिनकल्पी ते भवमा मुक्ति पामे नहीं. एम श्रीकल्पभाष्यमां तथा सारोद्धार वृत्तिमांछे. २२० नारकी जीव वेदनाथी एक गाउ उंचा उछ पम जीवाभि__गम सिद्धांतमां का छे. २२१ सर्व वक्ताओ काययोगवडे शब्दव्योने ग्रहण करेछे. वचन. योगथी शब्दद्रव्यर्नु निसर्जन करेछे. तनुयोग विशेष मनोयोग अने वचनयोग छे. काययोगवडे मनोद्रव्यो ग्रहण थायछे. काय योगवडे वक्ता शब्दद्रव्यनुं ग्रहण करेछे. अने जे जे संरंभथो मूकेछे ते वाचिकयोग जाणवो. तेमज मनोद्रव्यर्नु ग्रहण तो काययोगथीछे पग जेवडे मनोद्रव्यने चिंतामां व्यापारयुक्त करेछे ते मानसिकयोग जाणवो. एम तनुयोग एकछे पग पूर्वोक्त उपाधिना भेदथी जग प्रकारे विभक्तछे. आटलाज भेद मात्रथी मानसिक अने वाचिक योगने भिन्न ठराव्या तो प्रोगापानने पण चतुर्ययोग तरीके केम स्थापन कर्यो नहीं. समाधान-जेम स्वाध्याय, परबोध, निश्चय वगेरे वाचिकयोगर्नु फल मिन देखाय छे तथा धर्मध्यानादिक मनफल मित्र देखायछे ते प्रमाणे पाणापानवें भिन्न फल देखातुं नथी. तेथी तेने भिन्न कर्यो नथी. For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७८ ) तत्वबिन्दुः २२२ प्रथम समये ग्रहित भापाद्रव्यने द्वितीय समयमा मूके छे. पण तेज प्रथम समयमा मूकाती नथी.द्वितीय समय गृहीत भाषा द्रव्यने तृतीय समयमा वक्ता मूकेले. वच्चे एक समयनुं अंतर पडेछे. द्वितीय समयमां, प्रथम समयमां गृहित भाषाद्रव्य- मुंचन तथा ग्रहण थायछे. एम प्रथम अने चरम समय मूकीने मध्यना समयमा भाषाद्रव्यनुं ग्रहण अने मुंचन थायछे. चरम समयमा फक्त मुंचनज थाय छे. ग्रहण स्वतंत्रछे अने निसर्जनछे ते ग्रहण विना थतुं नथी माटे परतंत्रछे, २२३ वागद्रव्य नुं ग्रहण तथा ग्रहण करेलानो निसर्ग तथा भाषा ए त्रण पण जघन्यथी एक समयमां थायछे. ए प्रत्येक अणनो उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तनो जाणवो. २२४ एक समयमां बहु क्रियाओ थइ शकेछे. औदारिक, वैक्रिय, आहारक, त्रग कायाथी वागद्रव्यतुं प्राण जाणवू. तथा ते गथी वागद्रव्यनुं निसर्जन जाणवू. २२५ महा प्रयत्नवाळाने वाक्दव्य ग्रहण निसर्जनमा अन्तर्मुह । थाय छे. अल्प प्रयत्नवाळाने अन्तर्मुहर्तनुं प्रमाण नथी. For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तयाबिन्दुः (७९) २२६ भाषणाभिप्राय सामग्री परिणाम वक्ता वागद्रव्यने ग्रहेछे, मुके छे, नान्यथा, भाषाद्रव्य मूक्या छतां चउदराजलोकमां व्याप्त थाय छे. चार समयमां कोई संबंधी भाषावडे चउद रोजलोक व्याप्त थायछे. मंद प्रयत्नवालो पुरुष अखंडित सकल भाषाद्रव्योने मूके छे, अन्य निरोगी तीव्र प्रयत्नवालो वक्ता आदान निसर्गवडे भाषाद्रव्यने खंडखंड करी मूकेछे. तेथी तोत्र प्रयत्नवाळो वक्ता चउद राजलोकमां भाषाद्रव्य व्याप्त करेछे. मंद प्रयत्नवाळा वक्ताथी नीकलां अखंड भाषाद्रव्य संख्याता योजन जइ शब्दपरिणामनो त्याग करेछे. अने जे महा प्रयत्न वक्ताछे ते तो प्रथम भिन्न खंड करी भाषाद्रव्यने कादेछे. ते अनन्त गुण वर्धमान पददिशामा लोकांत व्याप्त थायछे. २२७ केवली समुद्घात क्रमनी पेठे चार समयवडे चउद राज लोक भाषाद्रव्यवडे व्याप्त थायछे. के.टलाक भाषाद्रव्यवडे त्रण समयमां लोक पूर्णता मानेछ. त्रसनाडीनी बहार विदिशाथी भाषक, भाषाद्रव्यने मूके तो चतुर्दश राजलोक पूरणमा पंचसमय लागे. त्रस नाडीनी बहार दिशामां स्थितवक्ता भापाद्रव्य मूके तो चार समयमां लोक पूर्णता थाय. २२८ अचित्त महा पुद्गल स्कंध होय अने ते केवल विश्रसा परि णाम वालो होय छे. तेने चउद राम लोकनी व्याप्तिमा चार For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०) तस्वविन्दुः AAAAAAAAAAAAAA) समय लागे छे. अचित्त महास्कंध अन्यपुद्गलोने स्वात्म स्वरूप करतो नथी पण ते पोताना पुद्रलो बडे लोक पूरणता करे छे, तेमां पराघात पण नथी जो अचित्त महास्कंधा पराघात होय तो ते पण त्रण समयमां लोक पूर्णता करे पण तेम नथी. २२९ इहा. अपोह. विमर्ष. मार्गणा; गवेषण, संज्ञा. स्मृति. मति. घुद्धि. प्रज्ञा. इत्यादि आभिनिवाधिक ज्ञानना पर्याय वाची शब्द छे. २३० अन्वयि व्यतिरेक पदार्थोनी पर्या लोचनाने इहा कहे थे. अपोहने ( अपाय ) निश्चय कहे छे. अपायनी पूर्वे अने इहानी उत्तरे प्रायः शिरकंड्यनादि पुरुष धर्म घटे छे. इतिसंपत्ययने विमर्ष कहेछे. अन्वयधर्मान्वेषणने मार्गणा कहे छे. व्यतिरेक धर्मालोचनने गवेषणा कहे छे, अवग्रहोत्तर कालभाषी मति विशेषने संज्ञा कहे छे. पूर्वानुभूतार्थ आलंबनप्रत्ययने स्मृति कहे छे. मननकरबुं ते मति कथंचित् अर्थ परिछेदकमां पण सूक्ष्म धर्मालोचना रूप बुद्धि जाणवी. विशिष्ठ क्षयोपशम जन्ययथावस्थित धर्मालोचनरूप प्रज्ञा जाणवी. For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (<1) २३१ द्रव्यथी, मतिज्ञानी, आदेशथी सर्व द्रव्य जाणे छे. आदेश - एटले ज्ञातव्य वस्तु प्रकार. ते वे प्रकारे छे. १ सामान्य प्रकार. २ विशेष प्रकार. त्यां आघादेश सामान्य प्रकारथी. सर्व ध मस्तिकायादि जाणे छे. असंख्य प्रदेशात्मक ले|कन्यापक. अमूर्त, गति सहाय गुणवान् धर्मास्तिकाय छे. एम केटला पर्याय विशिष्ट द्रव्योने सामान्यतः मतिज्ञानी जाणे छे. पण सर्व विशेष तथा सर्व पर्यायोने मतिज्ञानी जाणतो नथी. सर्व विशेष सर्व भेदोनुं संपूर्ण भासन तो केवलज्ञानमां थाय छे. २३२ क्षेत्र थकी सामान्य प्रकारे मतिज्ञानी केटलाक पर्याय विशिष्ट लोकालोकने जाणे छे. २३३ काल की वर्तमान, भूत अने भविष्य ने मतिज्ञानी सामान्यतः जानेछे २३४ भावी मतिज्ञानी. सर्व औदयिक आदि भावोनो अनंतमो भाग जाणे छे. For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८‍ ) तत्वबिन्दुः २३५ क्षेत्र, काल, वे सामान्यथी द्रव्यमांज समाय छे. केवल भेदवडे ते रूढ छे. माटे पृथक ग्रहण कर्यु छे. एम जाणवुं. २३६ एकेन्द्रियमां मतिज्ञान नथी. मतिज्ञाननो तेमां पूर्वमतिपन्न वा प्रतिपद्यमानक भेद नथी. २३७ मनःपर्याय ज्ञानियो सर्वे पूर्वप्रतिपन्न होय छे. पण प्रतिपद्यमानक नथी. सम्यक्त्व सहचरित प्राप्त मतिज्ञानने पश्चात् अप्रमत्तसंTaratrani मनःपर्यव ज्ञाननी उत्पत्ति ले माटे. सम्यक्त्व सहचरित चारित्र लाभमां तो मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न थतुं नथी. २३८ अपोह - अपाय कहेवाय छे. ते मतिज्ञाननो तृतीय भेद छे. अपाय निश्चय कहेवाय छे. धृतिने धारणा कहे छे. मति मज्ञा शब्दवडे सर्व मतिज्ञान कहेवाय छे. For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिन्दुः ( ८३ ) २३९ ईहा -विमर्पण, मार्गण - गवेषण. संज्ञा लक्षण सर्व ईहा जाणवी ए सर्वनो ईहामां अन्तर्भाव थाय छे. २४० सर्व वस्तुओना अभिलाप वाचक शब्दो के जे वचन रूपताने पाम्या छे ते वचन पर्याय जाणवा. २४१ वाचकशब्दाना अभिधेयात्मभूत सर्व अर्थ पर्याय जाणवा. २४२ मतिज्ञाननामति, प्रज्ञान, ग्रहा, ईहादि सर्व वाचक ध्वनिरूप वचन पर्याय जाणवा. २४३ मतिज्ञानरूप अभिधेय भेदो सर्व अर्थपर्याय जाणवा. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८), बिन्दुः २४४. अवग्रहादि एकेक शब्दथी मतिज्ञानना सर्व प्रकार ग्रहण थाय छे. सर्वनुं ग्रहण करे ते अवग्रह. एम व्युत्पत्तिथी मतिज्ञानना ईहा, अपाय, धारणारूप भेदोनुं ग्रहण थयुं, चेहालक्षणरूप हामी मतिज्ञानना सर्व भेदो समाय छे. अवगमनरूप अपायमां सर्व भेदोनो अन्तःपात थाय छे. धरणलक्षण धारणाथी सर्व भेदोनुं ग्रहण थाय छे. अपेक्षाए आ व्याख्या समजवी. २४५ अवग्रहादि लक्षणनो अर्थ विशेष मात्र अंगीकार करी अवग्रहादि शब्दो भिन्न वर्त छे. २४६ चतुर्गतिमां मतिज्ञान पूर्वप्रतिपन्न नियमयी होयछे. प्रतिपद्यमानकनी भजना. विवक्षितकाले कदापि होयछे. प्रतिपद्यमानक नथी होता. २४७ आभिनिवोधिक प्रतिपत्ति प्रथम समयमां प्रतिपद्यमानक कहेवायछे, अने द्वितीयादि समयोमां पूर्वप्रतिपन्न ए प्रमाणे आ बेनो विशेषछे. For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दुः ( ८५ ) २४८ एकेन्द्रियमां पूर्वप्रतिपन्न अने प्रतिपद्यमानक उभयनो अभावछे. कर्मग्रंथना मत प्रमाणे लब्धि पर्याप्त बादर पृथ्वी, अप, वनस्पति, अकरणपर्याप्ति अवस्थामां पूर्वप्रतिपन्न होय. ते समये सास्वादन समकितनी अस्तिताले माटे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४९ विकलेन्द्रिय, उभयना मत प्रमाणे करण अपर्याप्ता, सास्वादनने पूर्वभवथी अंगीकार करीने आवे ते अपेक्षाए पूर्वप्रतिपन्न होय. पण प्रतिपद्यमान न होय. २५० पंचेन्द्रियजीव तो सामान्यतः नियमयी पूर्वप्रतिपन्न होय. प्रतिपथमानकनी तो भजना जाणवी. २५१ कायद्वारमां पृथिवी, अप्, तेज, वायु, वनस्पतिमां उभयाभाव जाणवो, सकामां पंचेन्द्रियनी पेठे जाणं. For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६) तत्त्वबिन्दुः २५२ मन वचन अने कायाना समुदाये त्रणयोगमां पंचेन्द्रियनी पेठे जाणवू, मनरहित कायवाणीयोगियोने तो विकलेन्द्रियनी पेठे जाणवू. केवलकाययोगीओ तो एकेन्द्रियनी पेठे जाणवा. २५३ त्रण प्रकारना वेदमा पंचेन्द्रियनी पेठे भावना करवो. २५४ अनंतानुबंधी चार प्रकारना कपायमांसास्वादन अंगीकार करी पूर्वप्रतिपन्न लाभेछे पण प्रतिपद्यमानक नहि. बाकीना बार कषायमां पंचेन्द्रियनी पेठे भावना करवी. २५५ भावलेश्या अंगीकार करी कृष्णादिक त्रणमा पूर्वपतिपन्न होय पण प्रतिपद्यमानक नहि. प्रशस्त त्रणलेश्यामां पंचेन्द्रियनी पेठे जाणवं. For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः ( ८७ ) २५६ व्यवहारनये मिथ्यादृष्टि अज्ञानी छे, ते सम्यक्त्व ज्ञाननो प्रति पद्यमानक होयछे. पण सम्यक्त्व ज्ञान सहित नहि. निश्चयनय कहेछे के सम्यग् दृष्टि ज्ञानी, सम्यक्त्व अने ज्ञानने अंगीकार करेछे. पण मिथ्यादृष्टि अज्ञानी अंगीकार करता नथी. २५७ व्यवहारनयथी मति,श्रुत, अवधि,मनःपर्यवज्ञानी,आभिनिबोधि कना पूर्वप्रतिपन्न होयछे. पण प्रतिपद्यमानक नथी. केबलीने तो उभयाभाव होय छे. कारणके तेमने क्षायोपशमिकज्ञानातीतपणुंछे. २५८ मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान अने विभंगज्ञानवाला तो पतिपद्यपान कदाचित् होयछे पण पूर्वपतिपन्न नथी. निश्चयनयमतथी मतिश्रुत अवधिज्ञानियो पूर्वप्रतिपन्न नियमथी होयछे. पतिपद्यमानकनी पण भजना जाणवी. मनःपर्यवज्ञानी तो पूर्वप्रतिपन्न होयछे पण प्रतिपद्यमानक नथी. पूर्व सम्यक्त्वलाभ कालमा प्रतिपन्न मतिज्ञानिने पश्चात् यति अवस्थामां मनःपर्यायज्ञाननो सद्भाव होयछे. मत्यादि अज्ञानवाळाओने उभयाभावज होयछे. ज्ञानिने ज्ञाननी प्रतिपत्ति निश्चयथीछे माटे. For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAAN (60) तत्वबिन्दुः २५९ चक्षु, अचक्षु, अने अवधिदर्शन,ए त्रणमां लब्धि अंगीकार करी पूर्वपतिपन नियमथी होय. प्रतिपद्यमानकनी भजना जाणवी. तेना उपयोगने आश्रितो पूर्वप्रतिपन्न होय पण पतिपद्यमानक नथी. मतिज्ञानने लब्धिपणुंछे. दर्शनोपयोगमां तेनो निषेधछे माटे केवलदर्शनमां उभयाभावछे. २६० संयतद्वारमा संयतादिक आभिनियोधिकना पूर्वप्रतिपन्न नियमतः होयछे. प्रतिपद्यमानक पण भजनाथी जाणवा. कोइ अत्यंत विशुद्धिथी सम्यक्त्व, चारित्र युगपत् अंगीकार करेछे ते अबस्थामां ते संयत, मतिनो प्रतिपद्यमानक होयछे. २६१ पंचज्ञान, साकार उपयोगवाला जाणवां. चार दर्शनमा अना कार उपयोगछे. साकार उपयोगमा पूर्वप्रतिपन्न नियमथीछे. प्रतिपद्यमानक तो भजनाथी. अनाकार उपयोगमां तो पूर्वप्रतिपनज होयछे. पण प्रतिपद्यमानक नथी. कारणके अनाकार उपयोगमा लब्धिनी उत्पत्तिनो प्रतिषेध कर्योछे माटे. For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तस्वविदुः ( ८९ ) २६२ आहारक तो साकारोपयोगवंतनी पेठे जाणवा. अनाहारक तो अपांतरालगतिमां पूर्वप्रतिपन्न संभवेछे. पण प्रतिपद्यमानक तो होता नथी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६३ भाषाofors को भाषमाण वा अभाषमाण, मतिज्ञानने पामे छे. वा पूर्वप्रतिपन्न होय. भाषालब्धियुतमनुष्यादि जातिनी अपेक्षाए पूर्वप्रतिपन्न नियमयी पमायछे प्रतिपद्यमानक पण भजनाथी जाणवो. ♦ २६४ परीताः प्रत्येक शरीरियो वा अल्प भववाला जीवो ए वे पण पूर्व प्रतिपन्न नियमथी पमायछे. प्रतिपद्यमान तो भजनाथी. अपरीता = साधारण शरीरवाळा उपार्थपुद्गल परावर्तथी उपर छे संसार ते जेने एवा जीवो मिथ्यादृष्टिपणाथी ते बेमां उभयाभावछे. For Private And Personal Use Only पट्पर्याप्तिथी पर्याप्ति, परितवत् जाणवा. अपर्याप्ता तो पूर्व प्रतिपनज होयछे. सूक्ष्मद्वारमां सूक्ष्म उभयविकल होयछे. बादर तो पर्याप्सनी पेठे जाणवा. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९०) तस्वबिन्दु २६५ दीर्घकालिकोपदेशवडे संजिनुं ग्रहण जाणवू. तेनी भावना वा. दरनी पेठे करवी. असंज्ञितो अपर्याप्तनी पेठे जाणवा. भवसिद्धि, संज्ञीनी पेठे जाणवा. अभवसिद्धिक तो उभय शून्य जाणवा. चरमभव जेनेछे एवा जीवो तो भव्यनी पेठे अने अचरमते अभव्यवत् जाणवा. कोइ पण विविक्षित समयमा प्रतिपद्यमानक मतिज्ञानीनी प्राप्ति पक्षमां जघन्यथी एकलाभे. अने उत्कृष्टथी तो सर्व लोकमां क्षेत्र पल्योपमनो असंख्यातमो भाग लाभे. पूर्वप्रतिपन्नमां तो जघन्य अमे उत्कृष्टथी क्षेत्र पल्योपम असंख्येय भाग प्रदेश राशिममाण मतिज्ञानियो लाभे. २६६ नाना जीवोनी अपेक्षाएं सर्वमतिज्ञानियो लोकना असंख्यात भागने पामे. मतिज्ञाननो बे प्रकारे काल चितववा योग्यछे. उपयोगथी अने लब्धिथी, एकजीवने मतिज्ञाननो उपयोग जघन्य अने उत्कृष्टथी अन्तर्मुहूर्तमान होयछे. ते थकी उपरतो अन्य उपयोगमां गमन होयछे. सर्वलोकवर्तिमति ज्ञानियोनोआज उपयोगकाल जाणवो. आ अन्तर्मुहूर्त केवल बृहत्तर जाणवू. लब्धिनी अपेक्षाए मतिज्ञाननो काल, अवाप्त सम्यक्त्व जेनेछे एवा एक जीवने जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त जाणवो, अने उत्कृष्थी एक जीवनी अपेक्षाए सातिरेक छासठसागरोपमनो काल जाणवो. मतिज्ञानावरण क्षयोपशमरूपा लब्धि जाणवी. For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिन्दुः (31) २६७ मतिज्ञानियो शेषजीवोना अनंतमा भागे वर्तेछे, आभिनिवोधिक ( मतिज्ञानियो ) सर्वलोक असंख्याता. २६८ सर्व स्तोक, मनःपर्यव ज्ञानियो जाणवा अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा जाणवा. मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी वे स्वस्थानमां तुल्यछे. केवलज्ञानी अनंतगुणाछे. २६९ मतिज्ञानावरण कर्मनी उदीरणा धरते अने अनुदी उपसांत ते मतिज्ञान उत्पन्न थाय छे. १ क्षयोपशमभावे मतिज्ञानछे. पण अन्यशेष औदयिक आदि भावे नयी. सर्वथी थोडा मतिज्ञानि मनुष्यो. तेथी नारक असंख्यातगुणा, तेथी तिर्यच, तेथी देवो. २७० दीर्घ संसार जेनेळे ते कृष्णपाक्षिक कहेवायछे. बहु पापना उदथी कृष्णपाक्षिक गणायछे. For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११ ) तवविन्दुः २७१ सम्यग्दृष्टिना संशयादि पण ज्ञान स्वरूपछे. २७२ एक परमाणुमा अस्तिधर्म अने नास्तिधर्मनी अपेक्षा संपूर्ण जगत् समायछे. नैवयिक अर्थावग्रहना काल एक समयनोछे. ईहा अने अपायनो काल अन्तमुहूर्त मात्र छे, संख्यात अने असंख्यातकाल, धारणानोछे. २७३ अविच्युति, स्मृति, वासनाना भेदयो धारणा त्रणमकारनीछे. मां अविच्युतिरूप तथा स्मरणरूप धारणा वे छेतेमां प्रत्येकनो काल अन्तर्मुहूर्त जाणवो. अने जे अर्थ ज्ञानावरणक्षयोपशमरूप अने स्मृतिनी वीजभूत वासनारूप धारणाछे ते संख्याता वर्षना आयुष्यवाळाने संख्यातकालनी जाणवी तथा असंख्यात वर्ष आयुष्यवाळा (पल्योपमादि आयुष्यवाळाआने ) वासनारूप धारणानो असंख्यात काल जाणवो. २७४ व्यंजनावग्रहनो असंख्यात समयनो कालछे. For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वविन्दुः व्यवहारिक अर्थावग्रहनो अन्तामुहूर्त काल जाणवो. स्पृष्ट ( स्पर्शलां) मात्र शब्द द्रव्योने श्रोतेन्द्रिय ग्रहण करेछे. घ्राणेन्द्रिय गंधनां पुद्गलोने ग्रहण करेछे. रसनेन्द्रिय रसना पुद्गलोने ग्रहण करेछे. स्पर्शेन्द्रिय स्पर्शनां पुद्गलोने ग्रहण करेछे. चक्षु अने मन अप्राप्यकारीछे. २७५ आत्मांगुल, उत्सेधांगुल अने प्रमाणांगुल. ए त्रण प्रकारना अंगुलछे. २७६ आत्मांगुलथी इन्द्रियोन विषय परिमाग जागवं. स्पर्शेन्द्रियर्नु मान उत्सेधांगुलथी जाणवू. बाकीनी इन्द्रियोनुं मान आत्मांगुलथी जाणवू. २७७ मेघगर्जितादि शब्दोने श्रोतेन्द्रिय उत्कृष्टतः बार योजनधी ग्रहण करेछे. घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय आ त्रग इन्द्रियो अनुक्रमे For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) तत्रबिन्दुः उत्कृष्टतः नव योजनथी आवेला गं, रस अने स्पर्शने ग्रहण करे छे. चक्षुरिन्द्रियनो लक्ष योजननो विषय छे, चक्षु इन्द्रियमां पदार्थ आवीने पडता नथी. सर्वेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, अने श्रोतेन्द्रिय जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भागयी आवेला स्पर्श, रस, गंध, शब्द पुलोने ग्रहण करेछे. चक्षु जघन्यथी अंगुलना संख्यातमा भागां रहेला पदार्थने विषयभूत करेछे. २७८ मननुं क्षेत्रथकी विषय प्रमाण नथी. २७९ संज्ञाक्षर अने व्यंजनाक्षर एवे भावश्रुत कारण होवाथी द्रव्य श्रुतछे, लब्ध्यक्षर ते भावश्रुत जाणवुं. २८० अर्थावग्रह, इहा, अपाय अने धारणा, प्रत्येकने पांच इन्द्रियो अने छठ्ठा मनथी गुणतां चोवीस भेद थाय अने मां औत्पातिकी आदि चार बुद्धिना भेद उमेरी कोइ मतिज्ञानना अठावीस भेद माने छे. पण ते शास्त्र सम्मत नथी. 'व्यंजनावग्रहना चार भेद अने अर्थावग्रहादिना चोवीस भेद मळी मतिज्ञानना २८ अठावीश भेद शास्त्रकारे गण्या छे. अने औत्पातिकी आदि चार प्रकारनी बुद्धि भिन्न गणीछे. For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबिन्दुः (९५) २८१ श्रुतनिश्रितना अठावीस भेद, अने औत्पादिकी आदि अश्रुत निश्रित मतिना भेद जाणवा. २८२ वचन पर्याय पग अनन्तछे अने अर्थपर्याय पण अनन्तछे. एम विशेपावश्यकमां कथ्युंछे. २८३ मतिज्ञानलब्धि काल, जघन्यथी समकितवंतने अन्तर्मुहूर्तकाल जाणवो. तेथकी पर मिथ्यात्वमा गमन अने विकल्प केवलज्ञाननी प्राप्ति. मतिनो लब्धि काल उत्कृष्टतः छासठ सागरो. पम अधिक जाणवो. ते बतावेछे. कोइ साधु मति आदि ज्ञान सहित होय. अने पूर्व कोटि वर्ष पर्यंत चारित्र पाली चार अनुत्तर विमानमां जाय, त्यां तेत्रीस सागरोपमनुं आयुष्य भोगवी पुनः श्रमतिपाति मतिज्ञानसहित मनुष्यभवमा आवी देशोन पूर्वकोटि प्रव्रज्या पाली पुनः चार अनुत्तर विमानमा जाय, पुनः अप्रतिपाति मति आदि ज्ञान सहित मनुष्यगतिमां आवी, पूर्व कोटी वर्ष दीक्षा पाळी सिद्धि पामे. एवं चार अनुत्तर विमानमां गएलाने छासठ सागरोपम अधिक देशोन त्रग पूर्व कोटि वर्ष थाय. अथवा अच्युत देवलोकमां बावीस सागरोपमनी स्थितिए त्रण वार उत्पन्न थाय. अने देशोन पूर्ण For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिदुः कोटि वर्षना चार मनुष्यभव आंतरे पामी मुक्ति पामे. ते अपेक्षाए छासठ सागरोपम अधिक देशोन चार पूर्वकोटि वर्ष थाय. २८४ पांचसो त्रेसठ जीवना भेदछे तेमांथी ४२३ चारसो त्रेवीस भेदमां मतिज्ञान होयछे. मनुष्यना २०२ भेद. देवताना १९८ एकशो अठाणु भेद. नारकीना तेर भेद. तियेचना दश भेद. सर्व मळी चारसोने वीस भेदमा मतिज्ञान पमाय. २८५ सप्तम नरकमांथी नीकलेल जीवो तिर्यंचपां उत्पन थायछे. मनुष्यमा उत्पन्न थता नथी. २८६ देवता अने नारकीओ समकितवंत, मनुष्यगतिमान आवेछे. २८७ जीवना पांचसो त्रेसठ भेदमांथी २०३ बसे त्रण भेदमां उप For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. (९७) शम समकित पर्याप्तावस्थामांहि पमाय. विशेष के-पांच अनुत्तर विमानमा जाय तो तेने अपर्याप्तावस्थामां उपशम समकित होय, अने पर्याप्तावस्थामां तो पांच अनुत्तर विमानमां क्षयोपशम समकित वा क्षायिक समकित होय. नव लोकांतिक देवताने उपशम समकित न होय. २८८ जीवना पांचसो त्रेसठमांथी १६८ एकसो अडसठ भेदमां क्षायिक समकित होय. १२ बार देवलोक, नव लोकांतिक, नव नवग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान, ए पांत्रीसना पर्याप्त अने अपर्याप्त भेद गणतां सित्तेर भेद थाय. त्रीजी नरक सुधीना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता गणतां छ भेद. पन्नर कर्मभूमि अने त्रीस अकर्मभूमिना पिस्तालीश भेद ते पर्याप्ता अने अ. पर्याप्ता गणतां नेवं भेद थाय. अने तिर्यंच गर्भज पंचेन्द्रियना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता ए बे भेद गणतां सर्व मळी एकसो अडसठ भेद थाय. २८९ पांचसो त्रेसठ जीवना भेदछे तेमाथी चारसो त्रेवीस भेद क्ष · योपशम समकितमां जाणवा. For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९८ ) तस्वधिन्दु. २९० क्षायिक वेदक समकित-गर्भज-मनुष्यना पर्याप्ताना पन्नरभे दमां पामौए-छप्रकृतिनो क्षायिकभावे क्षय करे, अने समकितमोहनीयना चरमदलिक एक समये वेदीने क्षायिक पामे तेने क्षाविकवेदक समकित कहेछे-नरकगति, तिर्यचगति अने देवतानीगति ए त्रणगतिमां परभवतुं आवेलं क्षायिक समकित होय. २९१ सास्वादन सम्यक्त्व-मनुष्यना वसेनेबेभेद गर्भज पर्याप्ता अने अपर्याप्ता-देवताना एकशोसित्तेर भेदमा पर्याप्ता अने अपर्याप्तावस्थामां पामीए. नवलोकांतिक अने पांच अनुत्तरविमानना देवोमा सास्वादन समाकित न पामीए. नरकगतिमां सात पर्याप्त भेदमां पामीए. तिर्यचगतिमां एकवीश भेदमां समकित पामीए. पांचतिर्यंच पंचेन्द्रियगर्भजना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता मळीने दशभेद-समुर्छिम तिर्यंच पञ्चेन्द्रियना पांच भेदमां अने त्रणविकलेन्द्रिय ए आठमां अपर्याप्तावस्थामा पामीए, तथा पृथ्वी, अप , वनस्पतिनी अपर्याप्तावस्थामांत्रण भेद. सर्व मळी चारसे भेद थाय. २९२ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान अने समाधि-एवं योगनां आठ अंग छे सम्यग्दृष्टि जीवने आ आठ अंग, सम्यग् पणे परिणमे छे. For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दु. ( ९९ ) २९३ चतुर्दशगुणस्थानकमांधी-प्रथम चोथा, पांचमा, छटा, सातमा, अने तेरमा गुणस्थानके सदाकाल जीव लाभे. अन्यशेष मुग स्थानकमां भजना जाणवी. २९४ पांचसोत्रेसठ भेदमांथी मिश्रगुणस्थानकमां एकसोअठाणु भेद पामिये. नारकीना पर्याप्ताना सात भेद, तिर्यंचगर्भजना पांच भेद. मनुष्यना एकसोने एक पर्याप्ताना भेद, अने पंचाशी भेद देवताना पर्याप्तावस्था संबंधीना जाणवा. २९५ अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, अवर्धमान, प्रतिपाती, भा तिपाती ए छ प्रकारर्नु अवधिज्ञानछे. विशेषावश्यक... २९६ उपयोगथी अवधिज्ञान अन्तर्मुहर्त, अने लब्धियी अवधिज्ञान छासठ सागरोपम अधिकछे. बेवार विजयादि विमानमा उत्पन्न थाय तेने, उपलब्धिथी अवधिनो जघन्य काल एक समयछे. For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (...) तत्त्वबिन्दु. २९७ मनःपर्यवज्ञाननो उत्कृष्ट काल, देशोन पर्वकोटि वर्षनोछे. मनः पर्यवज्ञानी मनोद्रव्यना चिन्तानुगुण अनंतरूपादि पर्यायने जाणे. देखे. भावमनतो ज्ञानरूपछे अने ज्ञानतो अमूर्तछे तेथी भावमनने मनःपर्यवज्ञानी देखे नहि. द्रव्यमनः स्थितभावोने मनःपर्यवज्ञानी देखे. पण चिन्तनीय बाह्यघटादि वस्तुओने देखे नहि. (विशेषावश्यक.) २९८ मनोद्रव्यने देखीने पश्चात् अनुमानथी बाह्यपदार्थो जणायछे. द्रव्य मनवडे अवभासित बाह्यींचतनीय घटादिकने अनुमानवडे जाणे. अत्रतो मनोद्रव्यने मनापर्यवज्ञानी साक्षात् जाणे, २९९ मनापर्यवज्ञानीछे ते मति अने श्रुतसहित होय तो तेने चक्षु अने अचक्षु एम वे दर्शन होयछे. अने जे मनःपर्यवज्ञानी मतिश्रुत अने अवधि सहित होय तेने चक्षु अचक्षु अने अवधि दर्शन, ए त्रण दर्शन होयछे. ३०० अन्य केटलाकनो एवो मत छे के जे अवधिज्ञान युक्त मनः For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वविन्दु. (101) पर्यवज्ञानी होयछे ते मनःपर्यायज्ञानथी जाणेछे अने अवधि ज्ञानवडे देखेछे. अने जे अवधिज्ञान रहित मनःपर्यवज्ञानीछे ते मनःपर्याय ज्ञानवडे जाणेछे, पण अवधि दर्शनना अभावधी देखतो नथी. प्रज्ञापना मूत्रमा त्रिशमा पदमां साकारोपयोग विशेषरूप देखq कपुछे. साकारोपयोग विशेषतावडे मनःपयवज्ञानी देखे एम स्पष्ट कपुंछे. ३०१ कोइ एम कहेछे के उत्सूत्र भाषकने अनन्त संसार होय पण तेनो नियम नथी. जमालि निन्हवादिकने तेम जणातुं नथी. उत्सूत्रभाषकने पण परिणामविशेषे संख्यात, असंख्यात अने अनन्त एम त्रिविध संसार संभवेछे, (वि, विं.) ३०२ उत्सूत्र भाषणादिकनुं प्रायश्चित्त आभवमान होय एवो नियम नथी. दीक्षा ते भवान्तर सर्व पापर्नु प्रायश्चित्तछे. यतःसव्वाविहु पयजा पायछितं भवंतर कडाणं-इत्यादि हरिभद्र वचनानुसारे जाणवू. (वि.वि.) For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दु. ३०३ बादरनिगोद जीवने व्यवहारी कह्याछे. योगशास्ववृत्तौ.(वि.बि) ३०४ अनभिग्रहि मिथ्यात्वछे ते अभिग्रहिक मिथ्यात्व समान भारे नथी. आदिधार्मिकने अनभिग्रहिक मिथ्यात्व गुणकारी छे, (वि. बिं.) ३०५ मार्गानुसारिने अन्यदेवाधर्चन गुणकारी न होय एम कोइ कहे ते योग्य नथी. कारणके उत्तरभूमिकामां तेनो निषेधछे पण पूर्व भूमिकाए तो आशय विशेषे श्रावकने जिनाचानी पेठे गुणकारी संभवेछे. (वि. वि) ३०६ कोइ कहेछे के मार्गानुसारिपणुं पण अजाणतां जैन धर्माच रणेज होय पण अन्यधर्माचरणे न होय, एवो एकान्त (निश्चय) न धारवो. कारणके श्री हरिभद्रमुरिए योगबिन्दुमा योगपातंजल रचनार पतंजलि प्रमुखने मार्गानुसारिपणुं क छे. पतंजलि प्रमुखने मित्रादि दृष्टि कहीछे. माटे अपक्षपातीने परसमय क्रियाए पण मार्गानुसारिपणुं टळे नहीं, तेमां पण निश्चयभाव जैननोजछे, (वि. वि.) For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. (१३) ३०७ मार्गानुसारीने द्रव्याज्ञा एक भवान्तरे भावाना होय एम जे कहेछे ते मिथ्याछे, कारणके द्रव्यस्तव जेम भावस्तवथी बहु आंतरे होयछे, प्रस्थकन्यायवत् नैगमनयमतानुसारे तेम द्रव्याज्ञा पण भावाज्ञाथी बहु अंतरे संभवे. (वि. वि.) ३०८ अन्य दर्शनमध्ये शुभभावज न होय तो शुभवचन न होय एम कहेवाय नहीं. कारणके मार्गानुसारीने मिथ्यात्वमंदताए शुभभाव पण होय. (वि. वि.) ३०९ लौकिक मिथ्यात्वी लोकोत्तर मिथ्यात्व भारे एवो निश्च यनथी. कारणके भिन्नग्रंथिक मिथ्यादृष्टिने पण कोटाकोटीथी अधिक बंधन नथी. ए परिणामे लोकोत्तर मिथ्यादृष्टि हेतुओ जणायछे. (वि. बि.) ३१० मध्यस्थने स्वपरदृष्टिने बीजे ज्ञाने दर्शनग्रह टळेछे. यतः आद्य इह मनाक् पुंसस्तद्रागादर्शनग्रहो भवति न भवत्यसौद्वितीये चिंतायोगात् कदाचिदपि षोडशके. ते माटे साधारणपणे लोक लोकोत्तर गुणप्रशंसा घटेछ. उक्तंच साधारणगुणमशंसा For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. ३११ मिथ्याष्टिना दयादि गुणनी अनुमोदनामां पार्थस्थादिनी पेठे दाष नथी. ३१२ मिथ्याष्टिने सकामनिर्जरा होय तो सम्यग्दृष्टिथी शो विशेष! एम कोइ कहेछे तेणे मिथ्यादृष्टिने शुक्ल लेश्याना सदभावे केवलीथी शो विशेष एवो पण संदेह धरवो. ३१३ सम्यग्दृष्टिज क्रियावादी शुक्ल पाक्षिक होय पण मिथ्यादृष्टि नहीं एम कोइ कहेछे ते मिथ्याछे. ३१४ मोक्षाशयथी निर्जरा ते मार्गानुसारिने अंशथी सकाम निर्जरा जाणवी. ३१५. हीन मिथ्यादृष्टिना गुणने उच्च गुणस्थान वी सम्यग्दृष्टि, केम प्रशंसा करे ? एम कोइ शंका करेछे ते योग्य नथी. कारण के For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवबिन्दुः ( १०५ ) एमजो होय तो तीर्थंकरे कोइना गुण प्रशंसवा न जोइए, कारण के तीर्थंकरथी सर्व जीवो होनछे. श्रावक प्रज्ञप्ति. ३१६ जावणं, अयंजीवे, एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, तावणं अठविहबन्ध एवा, सत्तविहबन्धएवा, छव्विहबंध एवा, एगविहबंध एवा, इत्यादि ज्यां सुधी जीव कंपेछे, चालेछे, धडकेछे, त्यां सुधी आठ प्रकारनो कर्मबन्ध करेछे, सात प्रकारनो, छ प्रकारनो वा एकविध कर्म बंध करेछे, समये समये आ प्रमाणे कर्मबंध करेछे. ३१७ अनादि मिथ्यात्ववाळाने सैद्धांतिकना मत प्रमाणे प्रथम क्षयोपशमसम्यक्त्व अने कार्मग्रन्थिक मत प्रमाणे प्रथम उपशम सम्यक्त्व थायछे. ३१८ अनादि मिथ्यात्वनो क्षय करोछे एवो जीवो, चढतां त्रीजा गुणस्थानके जाय नहीं. चोथे, पांचमे, छठे, अने सातमे गुण For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HINRAHARHARI तस्वबिन्दुः स्थानके जाय. उपशम, क्षयोपशम, अने क्षायिक ए त्रण निश्चय समकितछे. ३१९ तीर्थकर नामकर्म, क्षयोपशम समकिती वा, क्षायिक समकिती जीव, बांधेछे. उपशम समकितनो काल अल्पछे माटे तीर्थकर नामकर्म बंधातुं नथी. तीर्थंकर नामकर्म वांधेलंछे एवो क्षयोपशम समकितवालो जीव पडीने प्रथम गुणस्थानकमां आवे अने त्यां अन्तर्मुहूर्तथी अधिक रहेतो तीर्थकर नामकर्मनां दलिक उवेली नाखे अने अंतर्मुहूर्तमा समकित पार्छ पामे तो तीर्थकर नामकर्मनां दलिक उवेले नहीं. ३२० अभव्यने दीपक समकित होय. ३२१ आयुष्यनो पूर्वमां बंध करीने क्षायिक समकित पामेलो जीव चार भव करेछे, अथवा त्रण भव करेछे. चार भव करे तो बीजो भव युगलिकनो थाय अने त्रीजो भव देवता वा नारकीनो करे, अने चोथो भव मनुष्यनो करे. क्षायिक समकितनी पहेला असंख्याता वर्षनो आयुष्यनो बंध करे तो मरीने युगलिक थाय. ते विना नहि. संख्यात वर्षेनो आयुष्य बंध कर्या पछी कोइ जीव क्षायिक समकित पामे नहीं. For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बदु: ३२२ क्षायिक समकितनी प्राप्ति मनुष्य गतिमांछे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०७ ) ३२३ आयुष्यबंध कर्या विना क्षायिक समकित पामे तो जीव तद्भव मुक्ति पामेछे, ३२४ छप्पन्न अन्तरद्वीपना युगलीकमां क्षायिकसमकिती जीव मरीने जाय नहीं. अन्तरद्वीपना युगलिकमां उपशम, क्षयोपशम, अने सास्वादन ए ऋण समकित होय अने ते सिवायना युगलिकमां चार समकित होय. ३२५ भुवनव्यति, व्यंतर अने ज्योतिषीमां उपशम, क्षयोपशम, अने शास्वादन, एत्रणसमकित होय, अने वैमानिकमां चार समकिवहोम, For Private And Personal Use Only ३२६ त्रीजी नरक सुधी चारे समकित होय. अने तेथी उपर क्षायिक विना ऋण समकित होय. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०८) तत्वबिन्दुः ३२७ तिर्यचनी गतिमां थलचरने मूकीने वाकीना गर्भज पंचेन्द्रियमां उपशम, क्षयोपशम, अने सास्वादन ए त्रण समकित होय गर्भज थलचरमां क्षायिक समकित. उपशम,क्षयोपशम, अने सास्वादन ए चार समकित होय. मनुष्यमाथी जीव थलचरमां क्षायिक समकित जीव लेइ जायचे. ३२८ समुच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच अने विकलेन्द्रियमां अपर्याप्त अव स्थामां एक सास्वादन समकित होय. ३२९ मनुष्यगतिमां पांचे समकित होयछे. ३३० कोइ मतिज्ञानी समकित जीव समकितवमीने अन्तर्मुहूर्त मिथ्या त्वमा जाय अने पुनः समकित सहित मतिज्ञान पामे तो मतिज्ञाननो जघन्य अन्तर्मुहूर्त विरहकाल पडे. अने आशातना दोष बहुलजीवने समकितथी पडतां देशोन अर्धपुद्गल परावनिकाल अंतर(विरह)उत्कृष्टथीपडे.देशोन अर्ध पुद्गलकाल वीत्याबाद पुनः समकित अने मनिज्ञान पामे. एक जीवनुं आ प्रमाणे For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः ( १०९ ) जघन्य अने उत्कृष्ट अंतर कां. श्रुतज्ञाननो पण तेटलो काल जाणवो. नाना जीवोनी अपेक्षाए तो त्रणभुवन मतिज्ञान शून्य होतुं नथी तेथी विरहकाल नथी. ३३१ सिद्विपदवरवामां उत्कृष्ट विरहकाल पडे तो छ मासनो विरह काल पडे. ३३२ मतिज्ञान आखाभवचक्रमां उत्कृष्ट असंख्यातवार आवे. अने जघन्यथी एकवार, बे वार. श्रुतज्ञाननुं पण तेम समज. ३३३ उपशम समकित संपूर्ण भवचक्रमां उत्कृष्टः पांचवार आवे अनेसास्वादन पण तेलीवार आवे. > ३३४ क्षयोपशम समकित आखा भवचक्रमां असंख्यातवार आवे. क्षायक ने वेदक आखा भवचक्रमां एकवार आवे. For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 130 ) तत्वबिन्दुः ३३५ मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान वे परोक्षछे. अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, अने केवलज्ञान प्रत्यक्षछे, ३३६ अवधिज्ञानतुं जघन्यक्षेत्र अंगुलना असंख्यातमा भागनुंछे. अने अवधिज्ञानी उत्कृष्टः अलोकमां पण लोक प्रमाण असंरूयेय खंडने देवी शके. अलोकमां रूपी पदार्थ नथी पण आतो फक ज्ञाननी शक्ति बतावीछे. ३३७ परमावधि अने मनः पर्यवज्ञानमां विपुलमति-ए वे अवश्य haeज्ञान पामीने मुक्ति जाय छे=ते वे पुनःसंसारमा परिभ्रमण करता नथी. ३३८ चक्षुदर्शननो जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल अने उत्कृष्टतः असंख्यात काल जाणवो. अचतुदर्शननो उत्कृष्ट अनंतकाल जाणवो. व्यवहारराशि जीवनी अपेक्षाए अचक्षुदर्शननो जघन्यकाल अन्तमुहूर्त जाणवो. व्यवहारराशिमां अचक्षुदर्शननो उत्कृष्ट अनन्त कालछे, For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरवाबिन्दुः ३३९ दधि बेरात्री गया बाद अभक्ष्यछे. योगशास्त्रे. ३४० द्विदलधान्य कठोल प्रमुखनी साथे काचं दूध, काचं दधि अने काची छासनो संयोग थाय तो सूक्ष्म जीवोनी उत्पत्ति थायछे माटे योगशास्त्रमा तेनो निषेध करेलोछे. विवाहचूलिकामां पण तेनो निषेध कर्योछे. तत्पाठ. विदलेकतिविहे पन्नत्ते तं जहा अन्नदलं कठदलं चइजविदलं दुविहंजिनागमे आगनोरसजोगेण उपज्जतीइ जंतवो. मग, मठ, अडद प्रमुख विदल जाणवू. उकालो छाशमा उकाळेला दूधमा उकाळेला दधिमा विदल नांखवाथी दोष नथी. विदल जम्या बाद काचुं गोरस वापरतुं होय तो मुख अने पात्र बे धोवे अथवा अन्यपात्रमा गोरसादिक भक्षण करे. ३४१ बादरनिगोदमां जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट सित्तेर कोडा कोडी सागरोपमनो काल, एकजीव आश्रयी जाणवो. For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) तस्वबिन्दुः .. ३४२ बादर अने सूक्ष्मनिगोदमां एम बन्नेमां जीव जाय अने आवे तेनो उत्कृष्ट काल अढी पुद्गल परावर्तननो जाणवो. ३४३ द्रव्य क्षेत्र काल अने भावथी पुद्गल परावर्तन चार प्रकारेछे. तेमां एकेक सूक्ष्म अने वादरभेदथी बे प्रकारेछे. सर्व मळी आठभेद थाय. ३४४ गर्भन मनुष्यदेहमां एकेन्द्रियथी ते पंचेन्द्रिय पर्यंत जीव उत्पन्न थाय. ३४५ जातिस्मरण ज्ञानछे ते मतिज्ञान धारणानो भेदछे, जातिस्मरण वडे एक बे त्रण यावत् नवभव देखे. यदुक्तं आचारांगमूत्रवृत्ती गाथा. पुवभवा सो पिच्छइ, इकंदोतिनिजावनवगंवा; उवरितस्स अविसर्ज, सभाव जाइसरणस्स ॥१॥ ३४६ गर्भमा रहेलो जीव गर्भमांन मरीने चतुर्गतिमां जाय. ३४७ पगथी नीकळेल जीव नरगतियां जाय. साथली नीकळेलो जीव तिर्यंचमां जाय. छातीमाथी नीकळेलो जीव मनुष्यगतियां For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. जाय. अने मस्तकथी नीकळेलो जीव देवगतिमां जाय. सर्वांगथी नीकळेलो जीव मुक्तिमां जाय. तथा चोक्तं ठाणांगे प्रथम स्थाने उरेणं शिरेणं सव्वंगेहि-पाएहिं निजायमाणे निरयगामीभवति, उरुहिं निजायमाणे तिरियगामीभवति २ उरेण निजायमाणे मणुयगामी भवति ३ शिरेणं निजायमाणे देवगामीभवति ४ सव्वंगेहिं निजायमाणे सिद्धिगति पज्जवसाणे पन्नत्ता. ३४८ आत्माना आठ रुचकप्रदेश स्थिर होवाथी तेने कम लागतां नथी. अवशेष प्रदेशोचलछे तेथी तेने कर्म लागेछे. उष्णजल जेम वासणमां उंचुनीचुं फर्या करेछे, तेम आठ रुचक प्रदेश विनाना वाकीना आत्मप्रदेशो शरीरमा उंचानीचा फरेछे. ३४९ मोति वगेरे सर्व रत्नो उत्पत्ति स्थानमा सचित्त होयछे, अने उत्पत्ति स्थान भ्रष्ट थया पछी अचित्त थायछे. तथा हीरप्रश्नमां मोतिविंधेलां तथा अविधेलां अचित्त कह्यांछे तेनो पृथ्वीकायमा समावेश जाणवो. ३५० तेरमा अने चौदमा गुणाणावाला केवलीने भवस्थ केवली कहेछे, अने भवथी मूकायला केवलीने अभवस्थ केवली कहेछे, For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 118 ) तर बिन्दु ३५१ बीजामां, वारमामां, तथा तेरमामां, ए त्रण गुणस्थानकमां जीव मरे नहि. ३५२ चक्षुदर्शननो जघन्यतः विरहकाल अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्टतः अन्ततकाल जाणवो. निगोदनी अपेक्षातः ३५३ परमावधिज्ञान, द्रव्यथी परमाणुने साक्षात् देखे. अगुरुलघु पर्यायने देखे. तेमज गुरुलघु पर्यायने पण देखे. परमावधिनो: समस्त पुद्गलास्तिकाय विषयछे. क्षेत्रथी परमावधिज्ञान असंख्यात लोकमात्र खंड देखे. कालथी असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी देखे. भावथी परमावधिज्ञान एक आश्री असंख्यात, संख्यात पर्याय देखे. सामान्यथी वर्ण, गंध रस स्पर्श वाळा चार पर्यायने एक द्रव्यमां जघन्यथी देखे. क्षेत्र अने कालथी रूपिद्रव्यगतछे. वस्तुतः क्षेत्र अने काल अरूपीछे. माटे क्षेत्रकालमा अवधिज्ञाननो विषय नथी. रूपिण्ववधेः. अवधिज्ञाननो विषय रूपद्रव्योमांछे. अनंतद्रव्य समुदाय भेगो करतो अनंत पर्यायने अवधि ज्ञानी देखे. ३५४ अष्टादशलिपीने संज्ञाक्षर कहेछे. अकारककारादिकने व्यज For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सस्वबिन्दु. ( ११५ ) नाक्षर कछे. संज्ञाक्षर अने व्यञ्जनाक्षरने द्रव्यश्रुत कहे छे. लब्ध्यक्षर भावथुतछे. श्रुतज्ञाननी अनंति प्रकृतियोछे. ३५५ अकारादि एक अक्षरना स्वपर्याय अनन्त, अने परपर्याय पण अनन्तानन्तगुणछे. ३५६ द्रव्यास्तिक नयापेक्षया सर्वज्ञान अक्षरछे. अने पर्यास्तिकनयापेक्षया अनक्षर, रूढिथी श्रुतज्ञान अक्षररूप कहेवायछे. ३५७ संज्ञाक्षर अने व्यंजनाक्षर. वर्णविज्ञानरूप अक्षरनो लाभ, संज्ञिजीवोने होयछे, अक्षरलाभने परोपदेश जन्यत्वछे माटे पूर्वोक्त बे अने लब्ध्यक्षर ए त्रण संज्ञीने होयछे. लब्ध्यक्षर तो इंद्रियादिनिमित्त, क्षयोपशमछे तेथी असंज्ञिने होय तेमां विरोध जणातो नथी. ३५८ भावदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, द्रव्य देव अने नरदेव आ पांच प्रकारना देव जाणवा. For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५९ (१६) तस्वबिन्दु. ओपनियुक्ति पाठ. संपाइमरयरेणु, पमजणहा वयंति मुहपत्तिं; नासं मुहंच बंधइ, तीए वसहिं पमज्जंतो ॥१॥ मुखवास्त्रिका वसति प्रमार्जन माटे बांधवी. ते संबंधी पाठछे, ३६० भव्य करतां अभव्यना प्रतिबोधेला घणा मुक्ति जाय. केम ते बतावेछे. अभव्य जीव तो अनादि अनंतमा भागेछे. अभव्यने कदी मोक्ष नथी. माटे चारित्र उदय आवे ने भव्यने प्रतिबोध आपी बोध पमाडे. तेथी घणा जीव प्रतिबोधे अने ते मुक्ति जाय. भव्यने तो मोक्षमां गया पछी उपदेश देवो नथी. तेथी अभव्यना प्रतिबोध्या घणा जाणवा. ए अधिकार नयचक्रमांछे. ३६१ संसारमा जीवो करतां अजीव अनन्तगुण अधिक जाणवा. ३६२ एक भवथी अन्य भवमा जतां वच्चमां जीवने कार्मणकाययोग होय ए अधिकार पन्नवणामांछे. For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दु. ३६३ वाटे बहेतां ( एक भवथी अन्यगतिमा जतां वच्चमां ) जीपने तेजस अने कार्मण बे शरीर होय. ३६४ वाटे वहेतां (एक भवथी अन्य गतिमा जतां वनमा) संसारि जीवने मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरति ए त्रण गुणठाणा होय. ३६५ वाटे वहेतां संसारि जीवने एक आयुष्य माण होय. ए अधि कारनयचक्रमांछे. ३६६ पल्योपमना असंख्यातमा भागे जेटला समय आवे तेटलां वायुनां एक समये वैक्रिय शरीर होय. वायुवैक्रिय शरीर करे तो एक अन्तर्मुहूर्त रहे. ३६७ पांच इन्द्रियमांथी चक्षु अने कान बेकामी. घाण, जिव्हा, काया, ए त्रण भोगी ए अधिकार भगवतीना सातमा शतक त्रीजा उद्देशामांछे. For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वधिन्दु. ३६८ सर्व जीवोमां कामी जीव योडा. ३६९ पुरुषवेदनो पुरुषवेद रहेतो उत्कृष्ट नवसें सागर सुधी रहे. ३७० स्त्रीवेदनो खीवेद रहेतो उत्कृष्ट एकशो दश पल्योपम अमे के पूर्व कोडी रहे. ३७१ विग्रहगतिमां एक समय, बे समय, त्रण समय पर्यंत जीव अनाहारी होय. आठ समयनी केवली समुद्घातमां ३-४-५ बीजो चोयो अने पांचमो ए त्रण समय जीव, अनाहारि. त्री शैलेशीकरण समये अनाहारि जीव जाणवो. ३७२ विग्रहगतिमां आयुष्य विना सातकर्मनो बंधछे. ऋजुगतिमां पण सातनो बंधछे. ३७३ जीव सपकित सहित छही नरक पर्यंत जाय, For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तत्व बिन्दु. ( ११९ ) ३७४ तंडुलमत्स्य गर्भजछे, अन्तर्मुहुर्तनुं आयुष्यछे. आयुष्य ७७ सतोतेर लवनुंछे. अगीयार लव गर्भमां रहे. अने गर्भथी बहिर नीकळ्या पछी ६६ छासठ लव आयु भोगवे. मरीने सातमी नरकमां जाय. ३७५ अविरतिमां सात तत्व होय. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७६ सर्व तीर्थकरोनो जन्म मध्यरात्रीमां सर्व क्षेत्रमां यायछे. ३७७ केवलीने सातयोग होय. केवली समुद्घात करे तेने सातयोग, अने केवली समुद्घात न करे तेने पांच योग होय. ३७८ केवली समुद्घातवेळा औदारिक, औदारिक मिश्र, अने कार्मग एत्रणयोग होय. ३७९ जण गुप्ति उत्सर्ग मार्गछे, अने पंचसमिति अपवाद मार्गछे, अष्टमवचन मातानुं आराधन करतां मुक्ति थाय. For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०) तत्वविन्दु ३८० ज्ञान, दर्शन अने चारित्र एज मुख्यतः मोक्षमार्गछे, ज्ञानदर्शनचारित्राणिः मोक्षमार्गः तत्त्वार्थ सूत्रवचनात् ३८१ पुण्य प्रकृतिनो एक ठाणायो रस पडे नहि, योगथी प्रदेशबंध अने प्रकृति बन्ध पडे, अने कषायथी रस बन्य, अने स्थितिबन्ध पडे. ३८२ निश्चयमतथी सर्व बादर वस्तु गुरुलघुछे. बादर वस्तु सर्व गुरुलघु पर्यायविशिष्ठछे. अने सूक्ष्म तो अगुरु लघुछे. अगुरुलघु वस्तु संबंधी पर्यायो पण अगुरु लघु कहेवायछे. इहनिश्चयमतेन बादरं वस्तु सर्वमपि गुरुलघु ॥ सूक्ष्मंत्व गुरुलघु तत्राऽगुरुलघुसंबंधिनः पर्यायाअपि अगुरुलघुवः समये अभिधीयन्ते (वि) ३८३ जे एक जाणेछे ते सर्व जाणेछे. जे सर्व जाणेछे ते एक जाणे 2. एक वस्तु पण सर्व स्वपरपर्यायोवेडे जाणनार लोकालोक गत सर्व वस्तुने सर्व स्वपर पर्यायोबडे युक्त जाणेछे. सर्व For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्वबिन्दुः (१२) वस्तुना परिज्ञान विना एक वस्तुनुं ज्ञान थतुं नथी. जे सर्व वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जागेछे. ते एक पण वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जाणेछे. सर्व वस्तुने सर्व पर्यायोपेत जाणनार एक परमाणु वा एक अकारादि अक्षरने पण सर्व स्वगरपर्यायोपेत जाणेछे. (विशेषावश्यक) जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जागइ ॥१॥ ३८४ सर्व द्रव्यना अनंतपायो पण यति संबंधी कहेवायछे. स्व. कार्यनिष्पादकछे ए हेतुथी. ज्ञान, दर्शन अने चारित्रगोचर सर्व वस्तुना सर्व पर्यायोछे. सर्व पर्यायो, सम्यग् दर्शनथी श्रद्धा करवा योग्य थायछे भाटे सर्व द्रव्यपर्यायो दर्शनना पर्याय कहेवायले. सर्व द्रव्यपर्यायो ज्ञानवडे जणायछे माटे ते ज्ञानना : पर्यायो जाणवा. आहार वस्त्र पात्रादि उपकरण औषध शिष्य पुस्तक आदि ग्रहणरूप बहु, चारित्रना पर्यायोछे. पढममि सव्वजीवा, बीए चरियमेव सव्वदबाई ।। सेसा महव्वया खलु, तदेवदेसेण दवाणं ॥१॥ प्रथमव्रतमां सर्व जीवो, द्वितीय अने चरमवतमां सर्व द्रव्य. शेषमहावत द्रव्यो तदेकदेशन ग्रहण करेछे. व्रतो चारित्र रूपछे. तेथी तेमां सर्व द्रव्य पर्यायन ग्रहण थयु. ज्ञान दर्शन विना चारित्रनो अभावछे. यतिना ज्ञान दर्शन चारित्र पर्याय For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२२) तस्वबिन्दुः छे. तेथी यतिमां अपेक्षाए सर्व जगत्ना पर्यायो समायछे. तेथी सर्व जगत् यतिमांछे, ज्ञानादिकना पर्यायनी अपेक्षाए एम सिद्ध ठरेछे. ( विशेषावश्यक ) ३८५ सर्व वस्तुओ नैगम, संग्रह, व्यवहाररूप अविशुद्धनयनी अपे क्षाए अक्षर [ ध्रुव ] छे. तेमज सर्व वस्तुओ ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनयनी अपेक्षाए क्षर [उत्पाद व्ययरूप अनित्य ] छे. द्रव्यास्तिकनयनी अपेक्षाए सर्व वस्तुओ अक्षर छे, अने पर्यायाथिकनयनी अपेक्षाए सर्व वस्तुओ क्षर [उत्पाद व्ययरूपछे. [ विशेषावश्यक ] ३८६ अभिधान शक्तिरूप सर्व अभिलाप्य प्रज्ञापनीय पदार्थों छे ते अकारादिक अक्षरना स्वपर्याय जाणवा, पण अनभिलाप्य न जाणवा-अकारना हस्व, दीर्घ, प्लुत भेद सानुनासिक, निरनुनासिक, उदात्त, अनुदात्त अने स्वरित ए अढार भेद आदि अनंत स्वपर्याय जाणवा. अकारअक्षरवाच्यविष्णुप्रमुख अन्य अनंत पदार्थ अस्तित्व संबंधवडे स्वपर्याय जाणवा. इकारादि वाच्य लक्ष्मी आदि पर्यायो अनंतछे ते अकारना परपर्यायछे, नास्तित्व संबंधथी. तेमज इकारना हस्वादिक वाच्य अनंत स्वपर्याय जाणवा. अने अकारादिकना अनंत स्वपयर्याय ते इकारना परपर्याय नास्तित्व संबंधथी जाणवा. एम सर्वत्र भावना करवी ( विशेपावश्यक.) For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (१२) ३८७ अतीव मुग्धवाल, गोवाल, गौ, वगेरे पण संज्ञाक्षर अने व्यं जनाक्षरना अभावे पण शब्दादिवर्णोच्चारण करेछते श्रवणथी सन्मुख देखवू इत्यादि प्रति निवृत्तिं करतां जणायछे. गौ पण शवला, बहुलादि शब्दोशी बोलवतां दोडी आवेछे. अने निवृत्त थती पण देखायछे. गवादिने परोपदेश नथी. संज्ञाक्षर अन्ढे व्यंजनावरमां, परोपोश निमित्तभूत होयछे. तादृश संजाक्षर, अने गजनाक्षर मानना अभावे पण गौ आदि सज्ञि जीयो लन्ध्याची प्रवृत्ति करेछे. ते प्रमाणे असंज्ञिमां पण लब्ध्यार इच्छयायोग्यछे (विशेषावश्यक.) ३८८ आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, अने परिग्रहसंज्ञा, आचा रसंज्ञानो समावेश लब्ध्यक्षरमां थायछे, (वि.) ९३८ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरुढ अने एवं भूत, ए सातनयो अने तेना भेदोनुं गुरूगमथी यथार्थज्ञान करवु जोइए. तेमज चारनिक्षेप अने सप्तभंगीतुं गुरूगमयी यथार्थ स्वरूप धार, जोइए. सातनय, चार निक्षेप अने सप्त भंगीथी वस्तुनुं स्वरूप समजतां सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थायछे. For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२४ ) तत्वाबन्दु; ३९० दशमगुणस्थानकमां लोभनो उदयछे. अगीयारमा गुणस्थानकमां लोभनो उदय नथी. त्यारे अगियारमागुणस्थानकथी जीव केम पडेछे ? प्रत्युत्तरमां समजवायूँ के-अगीयारमागुणस्थान कनी स्थिति अन्तर्मुहर्तनीछे, अने अगियारमाथी वारमा गुणस्थानकमां जवातुं नथी. तेथी स्थितिना स्वभावथी अन्त मुहूर्त त्यां रही पाछो पडेले. ३९१ उपशम श्रेणिवाळाने उपशम समकित होय अथवा क्षायिक समाकित होय. ३९२ क्षयकश्रेणिमा भाषिक समकित होय. क्षपकश्रेणिमां ८, ९, १० आठमा नवमा अने दशमा गुणस्थानकमां क्षयोपशम चारित्र होय, अने बारमामां भायिकचारित्र होय. ३९३ पहेला, बीना अने त्रीजागुणटाणामां. क्षयोयपशम, औदायिक अने पारिणामिक ए त्रण भाव होय. For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबिन्दुः ( १२५ ) ३९४ चोथाथी ते अगियारमा गुणस्थानक सुधी प्रत्येक गुणस्थान कमां पांच भाव पमाय. ३९५ वारमा गुणस्थानकमां उपशम विना चार भाव होय. क्षायोपशमिक इन्द्रियोनुं मतिज्ञान वगेरे औदयिकीगति, पारिणामिक जीवत्व - क्षायिकभावे सम्यक्त्व अने चारित्र. ३९६ तेरमा गुणस्थानकमां क्षायिक केवलज्ञानादि नव लब्धि . औaratगति अने पारिणामिक जीवत्व. अने चौदमा गुणस्थानकमां पण त्रण भाव ले. ३९७ प्रथम गुणस्थानकमां पारिणामिक भावना त्रण भेद छे. जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व. ३९८ वीजा गुणस्थानकथी ते वारमा गुणस्थानक पर्यंत अभव्यत्व वर्जीने भव्य अने जीवत्व ए वे भेद होय. तेरमा अने चौदमा गुणस्थानकमां जीवत्व, पारिणामिकभावे होय. For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२६) तत्वविन्दुः ३९९ ज्ञानावरणीय कर्ममां चार भाव, दर्शनावरणीयमां चार भाव, वेदनीय कर्ममा त्रण भाव, मोहनीयमां पंच भाव, आयुष्यमां त्रण भाव, नामकर्ममां त्रण भाव, गोत्रकर्ममां त्रण भाव अने अन्तराय कर्ममां चार भाव छे. ४० औपशमिकभाव सादि सपर्यवसित (सादि सांतछे ) क्षायिक भाव सादि अपर्यवसित (सादि अनंत ) छे. क्षायोपशमिक भाव अनादि:सपर्यवसित (अनादि सांत) छे. अने अभव्यनी अपेक्षाए अनादि अनंतछे. औदयिकभाव अभव्यनी अपेक्षाए अनादि अनंतछे, अने भव्यनी अपेक्षाए अनादि सांतछे. अभव्यत्व अने जीवत्व अनादि अनन्तछे, अने भव्यत्व अनादि सांतछे पारिणामिकमां. ५ ६ ७ ८ ९/१०११/१२/१३ ११ संख्या । दे प्र अ अपू नि सू उक्षी स अ गुणस्थानक | नाम । . | म ! । । ko | ०००। ० । --03 . . . . . . . . । . . " १३१२१२ . क्षयोपशम भेदा: ३ ३ २ औदयिक भावभेदाः 000 ओपश मिकभावभेदा: ९९ क्षयिक | भावभेदाः .. पारिणामिक भावभेदाः ----- ४३२३ ०/२७/२८/२२/२011 - For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवविन्दुः (920) ४०२ उपशम श्रेणिमां आठमा गुणस्थानकमां क्षयोपशम चारित्र होय. ४०३ १ बंधोनाम - कर्मपुद्गलानां जीवविशेषैः सह वन्ास्पिंडवद् अन्योऽन्याऽनुगमः ४०४ २ संक्रमः प्रकृति स्थित्यनुभागमदेशाना मन्यरूपतया स्थिताना मन्यकर्म स्वरूपेण व्यवस्थापनं ३ उद्वर्तनास्थित्यनुभागयो बृहत्करणं ४ अपवर्तना - तयोरेव हस्वी करणम् ५ उदीरणा - कर्म्म पुद्गलाना मकालमाप्ताना मुदयावलिकायां प्रवेशन मुदीरणा, ६ उपशमना - कर्म्मपुद्गलाना मुदयोदीरणानिधत्ति निकाचना करणाsयोग्यत्वेन व्यवस्थापन मुपशमना ॥ ७ निधतिः - उद्वर्तनाऽपवर्तनावर्जशेष करणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापनम्. ८ निकाचना - समस्त करणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापनम् || उक्त स्वरूपबंधादिनिबंधनभूताश्च जीववीर्यविशेषाबन्धनादिनीत्युच्यन्ते तथा व्युत्पत्तिभावा तथाहि For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२८) तत्त्वबिन्दुः १ वध्यते अष्टप्रकारं कर्म येन तबंधनं । २ संक्रम्यतेऽन्य प्रकृत्यादिरूपतया व्यवस्थाप्यते येन तत् संक्रमणम् । ३ उवय॑ते प्राबल्येन प्रकृतिस्थित्यादि यया जीववीर्यविशेष परिणत्या सा उद्वर्तना ४ अपवर्त्यते इस्वोक्रियते स्थित्यादि यया सा अपवर्तना ५ अनुदयं प्राप्तं सत्कर्मालिक मुदीर्यते उदयावलिकायां प्रवे___ श्यते यया सा उदारणा ६ उपशम्यते उदय उदीरणानिधतिनिकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते कर्मयया सा उपशमना । ७ निधीयते उद्वर्तनाऽपवर्तनाव करणाऽयोग्यत्वेन व्यव__ स्थाप्यते यया सा नित्तिः ८ निकाच्यते अवश्यवेद्यतया निवध्यते यया सा निकाचना योगस्वरूप ४०५ वीयांतराय कर्मना देशक्षयथी तथा सर्वक्षयथी वीर्य लब्धि उत्पन्न थायछे. देशक्षयथी छद्मस्थने अने सर्वक्षयथी केवलीने लेश्या आश्रयी वीर्यना के भेद छे. सलेशीवीर्य अने अलेशीवीर्य. सलेशीवीर्यना बे भेदछे. १ अभिसंधिज २ अनभिसंधिन. For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. १२९) १ बुद्धिपूर्वक धावनवलगनादि क्रियामां जेने जोडीए ते अ भिसंधिज वीर्यछे. २ भुक्त आहारनुं धातुमलत्वादि आपादनकारण इत्यादि अनभिसंधिज वीर्य जाणवू. ए बन्ने प्रकारचं वीर्य यथासंभव मूक्ष्म बादर परिस्पंदरूपक्रियासहित योग पण तेनुंज नाम. एवां एकार्थिक नामयोग, वीर्य, थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य, ए योगना पर्यायवाची नामछे. ४०६ योगनु १ परिणामादि हेतुपणुं. २ योगना भेद. ३ जीव प्रदे शोमां विषमावस्थान कारण. १ प्रथम जोव, योगसंज्ञितवीर्यविशेषे औदारिक शरीर प्रायोग्य पुद्गलोने ग्रहण करेछे. ग्रहण करीने औदारिक रूपे परिणमावेछे. तेमज प्राणापान, भाषा, मनोयोग्य पुद्गल स्कंधोने पण ग्रहीने प्राणापानादिरूपे परिणमावेछे. परिणमारिने पश्चात् तेनी स्वाभाविक शक्ति विशेष प्रसिद्धि अर्थ तेज पुद्गल स्कंधोनुं अवलंबन करेछे. यथा दृष्टांतकोइ मन्द शक्तिवाळो नगरमा परिभ्रमगार्थ यष्टिकार्नु अ. वलंबन करेछे. तेना आलंबनथी शक्ति उत्पन्न थतां ते पुद्गल स्कंधोनुं विसर्जन करे छे. ते माटे परिणाम, आलंबन, अने ग्रहण- साधन, वीर्यजछे, For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१.) तस्वविन्दु. २ मन, वचन अने कायाना अवष्टंभथी उत्पन्नतावडे तेनां त्रण नाम पडयांछे. १ मनोयोग.२ वचनयोग, अने काययोग. ३ जीव प्रदेशोमां वीर्यना न्यूनाधिकपणाना वे हेतुओछे. १ कार्याभ्यास. कार्यनी २ पासे जीवप्रदेशोनो शृंखलावयवनी पेठे अन्याऽन्य प्रवेश. जे आत्म प्रदेशोने घटादिकार्य पासे होय तेमां विशेष चेष्टा अने दूर होय तेमां अल्प चेष्टा ए वात अनुभव सिद्ध छे. ४०७ अविभाग, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तरस्थान, अनंतरोपनिधा, 4 रंपरोपनिधा, वृद्धि, समय, अल्पबहुत्वप्ररूपणा दरेकने प्ररूपणाशब्द जोडवो. आ अधिकार अवबोधवा योग्यछे. ४०८ पुद्गल द्रव्योने परस्पर संबंध स्नेहथी थायछे. तेथी स्नेह परूपणा शास्त्रमा करीछे. तेना त्रण प्रकार छे. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा. २ नाम प्रत्ययस्पर्धकारूपणा. ३ प्रयोगमत्ययस्पर्धक प्ररूपणा. For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. (1) १ स्नेहप्रत्यय स्नेहनिमितस्पर्धकनी प्ररूपणाने स्नेहमयय स्पर्धक प्ररूपणा जाणवी. २ शरीरबंधननामकर्योदयथी परस्पर बंधाएल शरीर पुद्ग लोनो स्नेह अंगीकार करीने स्पर्धक प्ररूपणाते नामपत्यय स्पर्धक प्ररूपणा. ३ प्रकृट योगकारणथी जे ग्रहण करेलां पुद्गलो, तेना स्ने. हने लेइ स्पर्धकनी प्ररूपणाते प्रयोग प्रत्यय स्पर्धक प्ररूपणा जाणवी. केवलयोग प्रत्ययथी बंधाता कर्मपरमाणुओमां योगस्थाननी वृद्धिथी स्पर्धकरूपे जे रस वृद्धि पामे छे ते प्रयोग प्रत्ययस्पर्धक. ४०९ अनुभाग बंधमां चौद अनुयोग द्वार जाणवा योग्प छे. ते पा प्रमाणे-१ अविभाग प्ररूपणा, २ वर्गणा प्ररूपणा, ३ भन्तर प्ररूपणा, ४ स्थान प्ररूपणा, ५ कंडक प्ररूपणा, ६ षट्स्थान प्ररूपणा, ७ अधस्तनस्थान प्ररूपणा, ८ वृद्धि प्ररूपणा, ९ समय प्ररूपणा १० यवमध्य प्ररूपणा, ११ ओजो युग्म प्ररूपणा, १२ पर्यवस्थान प्ररूपणा, १३ अल्प बहुत्व प्ररूपणा, १४ स्पर्धक मरूपणा. (३) त्रीजी आ छे, For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३२ ) तत्त्वधिन्दु. ४१० देव, नारक, गर्भजतिर्यच, तथा मनुष्योने दीर्घकालिकीसंज्ञा होय छे. (वि) ४११. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञामां पण भूतकाल अने भविष्यनुं अनुक्रमे स्मरण चितवन छे. पण लांबा कालनुं नथी. विकलेंद्रिय अने समुच्छिम पंचेंद्रियने हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा छे. (वि.) विकलेन्द्रिय जीवो, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञाथी इष्टमां प्रवृत्ति करे छे अने अने अनिथी पाछा फरे छे. ४१२ सम्यग्दृष्टिजीवने, दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होय छे. ज्ञानवरणीय क्षयोपशमभावी जे ज्ञान थाय छे तेमां दृष्टिवा दोपदेशिकी संज्ञा होय छे. आ संज्ञा पामीने सम्यग्दृष्टि संज्ञी कहेवाय छे। अने बाकीना जीवो असंज्ञी कहेवाय छे, चोथा गुणस्थानकथी ते वारमा गुणस्थानक पर्यंत क्षयोपशम ज्ञानमां वादोपदेशिकी संज्ञा ले क्षायिक केवलज्ञानीने संज्ञा होती नथीं. कारण के तेमना ज्ञानमां, सर्ववस्तुनो भास थाय छे तेथी भूतकाल स्मरण, भविष्यकाल विचाररूप संज्ञानो अभाव होय छे. क्षयोपशम ज्ञानमां तेवी संज्ञानो संभव छे. ते संज्ञानो नाश तां ते संज्ञाना अभावे केवली असंज्ञी कहेवाय छे. (वि.) For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवविन्दु. ( १३३ ) ४१३ एकेन्द्रियमां आहारादि दश संज्ञा छे, किन्तु ते विशिष्ठ संज्ञाना भावे असंज्ञी कहेवा छे. कोडीथी कोइ धनवान् कहेवातो नयी. सामान्य रूपथी कोइ रूपवान कहेवातो नथी तेवी रीते मोहनीय आदि जन्य अविशिष्टसंज्ञाथी एकेन्दिय संज्ञी गणाता नथी. (वि.) ४१४ ज्ञानाद्वैतवाद मत प्रमाणे सर्वज्ञेय वस्तु ज्ञानरूप ठरवाथी केवलज्ञानना पर्याय सिद्ध ठरेछे, पण वस्तुतः जोतां केवलज्ञानना पर्याय अने परपर्याय अनंत सिद्ध ठरेछे. (वि.) ४१५ सर्व जीवोने अक्षरनो अनंतमो भाग उघाडोळे ते श्रुतज्ञानमां जन्य, मध्यम, उत्कृट भेदथी संभवेले. सर्वथी जघन्य निगोड़िया जीवने, सर्वथी उत्कृष्ट संपूर्ण श्रुतज्ञानिने, निगोह अने संपूर्ण श्रुतधारकनी मध्यनो भाग मध्यम भेदमां गणवो. (वि) ४१६ दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा करतां दीर्घकाली की संज्ञा अविशुद्ध छे. दीर्घकालीक करतां हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा अविशुद्ध छे. (वि.) For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३) तत्वबिन्दु. ४१७ सिखंतवादीनो मत एवो छे के अनादि मिथ्यादृष्टिजीवछे ते उपशम समकित पाम्या विना प्रथमथीज क्षयोपशम समकित पामेछे. अन्य तो यथाप्रवृत्तिआदि करण वणना क्रम वडे अंतरकरणमां उपशम समकित पामेछे. अने आ उपशम समकिती त्रण पुंज करतो नथी. पश्चात् उपशम समकितथी च्यवी अवश्य मिथ्यात्वने पामेछ. कल्पभाष्ये पण एम कडं छे. कार्मग्रंथिक तो आ प्रमाणे मानेछे. सर्व अनादिमिथ्याहष्टि, प्रथम सम्यक्त्व लाभकालमा यथावृत्तादिकरण त्रिपूर्वक अन्तरकरण करेछे त्या उपशम समकित पामेछे. अने उपशम समकिती त्रण पुंज करेछेज, अने ते हेतुथी उपशम समकित थी च्यवेलो क्षयोपशमसमकिती, अने तेथी मिश्र,वा मिथ्यादृष्टि थाय छे. (विशेषावश्यक पत्र १६४ ) वेदकनो क्षयोपशम समकितमा अन्तर्भाव थायछे ४१८ वेदक समकितमां, समकितमोहनीयनो चरम पुद्गल ग्रास फक्त उदयरूप प्रवर्तेछे अने त्यां एक समयनी स्थितिछे, पश्चात् क्षायिक समकित पामे. (वि.) ४१९ संपूर्ण दशमा पूर्वथी आरंभीचउदमा पूर्व पर्यंत निश्चयथी सम्यक् श्रुत होयछे. (वि.) संपूर्ण दशपूर्वन्यूनथी ते आवश्यक श्रुत पर्यतमां सम्यक् श्रुतनी भजना. (वि.) For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. ४२० समकित मोहनीयनां दलिक छे ते अति स्वच्छ वस्त्रनी पेठे यथावस्थित तत्वरूचि अध्यवसायरूप सम्यक्त्वने आच्छादन करतां नथी. तेथी ते पण उपचारथी सम्यक्त्व कहेवायछे. समकित मोहनियनां दलिक छतां, क्षायिक समकित थतुं नथी (वि) ४२१ अप्रमत्त चारित्रियाने सातमा गुणठाणे मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न थायछे. (वि) ४२२ सम्यग्दृष्टि परिगृहित भारतादि पण समकितीने सम्यकपणे परिणमेछे. अने मिथ्यादृष्टि परिग्रहित आचारांगादि पण मिथ्यादृष्टिने मिथ्यात्वपणे परिणमेछे. (वि) ४२३ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, आश्रीने शुतज्ञानछे ते आदि अने अनादिछे, सांतछे, अने अनंतछे. (वि) ४२४ मिथ्यात्वादि परभावमा परिणमवू ते अविरतिसंयम कहेवायछे. For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३६) तत्वबिन्दुः ४२५ बोजा गुणस्थानकमां मिथ्यात्वना उदयनो अभावछे. अने अनंतानुबंधी उदयथी कलुषित तत्वश्रद्धान रसनु आस्वादन छे. (वि) ४२६ गाथा. पण्णवणिज्जा भावा, अणंत भागोउ अणभिलप्पाणं पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबको(वि) ? अनभिलाप्यना अनंतमा भागे प्रज्ञापनीय भावोछे. ( अभिलाप्य भावोछे ) प्रज्ञापनीयनो अनंतमो भाग श्रुतनिवद्धछे. (वि) ४२७ जं चोदसपुव्वधरा, छठाण गया परोप्परं होति ॥ तेणउ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं ॥१॥ चतुर्दश पूर्वधारियो परस्पर षट्स्थान पतितछे. हीनाधिकवडे १ अनंतभागहीन २ असंख्यातभागहीन ३ संख्यातभागहीन ४ संख्यातगुणहीन ५ असंख्यातगुणहीन ६ अनंतगुगहीन १ अनंतभागवृद्धि २ असंख्यातभागवृद्धि ३ संख्यातभागवद्धि ४ संख्यातगुणअधिक ५ असंख्यातगुणअधिक ६ अनंतगुण अधिक-(वि) For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (१७) ४२८ सर्व चतुर्दश पूर्वधरो अक्षरलाभथी तुल्यछे. उन अने अधिक तो मतिना विशेषोवडेछे. क्षयोपशमना वैचित्र्यपणाथी पति शब्दथी श्रुतमति अत्र विवक्षितछे. मतिशब्देन इह श्रुतमति विवक्षिता नत्वानिनिबो. धिकमतिः ततश्चयैश्चयैश्चतुर्दशपूर्वविदोहीनाधिका स्तानपि च मतिविशेषान श्रुतज्ञानाभ्यंतरे जानीहि. गाथा. अस्करलाभेण समा, उणहिया हुंति मइविसेसेहिं; तेविय मइविसेसे, सुयनाणम्भंतरेजाण ॥१॥ गाथा. ४२९ जे अख्खराणुसारेण, मइविसेसा तयं सुयं सव्वं ॥ जे नण सुय निरवरका, शुद्धं चिय तं मन्नाणं॥१॥ जे अक्षरानुसारथी श्रुतग्रंथने अनुसरी मतिविशेषो उत्पन्न थायछे ते सर्व श्रुतज्ञानछे. जे यथोक्त श्रुतनिरपेक्षछे, स्वयं उत्पेक्षित वस्तुतत्त्वरूपमति विशेष उत्पन्न थायछे, ते शुद्ध मतिज्ञानछे. For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३८ ) तबिन्दु: ४३० मतिज्ञानीछे ते श्रुतज्ञानिथकी सदा अनन्तगुण अधिकछे. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनः सकाशात् सदैवानंतगुणाधिकः श्रुतज्ञानी वितरस्मान्नित्यमनन्तगुणहीन एव प्राप्नोति ४३१ श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना अठावीश अने ऋणसोने छत्रीशभेद थायछे. अश्रुतनिनिधितना औत्पातिकी बुद्धि वगेरे चार भेदछे. मतिअनक्षरले भने श्रुतज्ञान अक्षररूपले द्रव्याक्षर अप्रेक्षाए (वि) साक्षर अने अनक्षरनो भेट्छे (वि) • ४३२ द्रव्याक्षरना अभावथी मतिज्ञानमूकछे अने श्रुतज्ञान मुखरछे अर्थात् द्रव्याक्षर सद्भाववडे स्वपरमत्यायकपणाथी मृगुं नथी. अवधि, मनःपर्यव, अने केवलज्ञान पण गूगांछे. (वि) ४३३ करवक्त्र संयोगथी भोजनक्रियाविषय मतिज्ञान थायछे. शीर्ष घुणाववानी चेष्टाथी निवृति प्रवृति विषयमति ज्ञान थायछे, हवे समजवानुं के शब्द वा अक्षरथी श्रुतज्ञान उत्पन्न थायछे. माटे ते परमबोधकछे तेम करवक्त्र चेष्टा तथा शिरोधुनन चेष्टा पण परमबोधकछे. तेथी श्रुतज्ञाननी पेठे मतिज्ञान परबोधक केमन गणाय ? अने ज्यारे परमबोधक गणाय तो मां शो भेद रह्यो ? For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिन्दुः ( 138 ) प्रत्युत्तर - द्रव्यश्रुतछे ते तो असाधारण कारण छे, माटे द्रव्यश्रुत परमवोधक थाय. पण करादि चेष्टा छे ते सो मतिश्रुत उभ यनुं कारण छे. माटे ते साधारण कारणछे, करादि पेश तो मति ज्ञाननुं असाधारण कारण नथी, श्रुतज्ञान हेतुपणाथी. करवक्त्र संयोगादि चेष्टा देखे छते केवल अवग्रहादि मतिज्ञान उत्पन्न थतुं नथी. किंतु आ खावाने इच्छेछे इत्यादि श्रुतानुसारि विकल्पात्मक श्रुतज्ञान पण उत्पन्न थायछे. माटे असाधारण कारणना अभावधी करादि चेष्टाछे ते परमार्थतः मतिज्ञाननुं कारण नथी, माटे मतिज्ञानमां अन्तर्भूत थती नथी. अने ते प्रमाणे थए छते मतिज्ञान, परमबोधक गणातुं नथी. अने द्रव्यश्रुत छे ते भावतनुं असाधारण कारण माटे पर प्रबोधक छे. करादि चेष्टा जो के मतिज्ञाननुं कारणछे तोपण यथोक्त वि शिष्ट परमबोधले तेमां ते संभवती नथी. माटे विशिष्टपर प्रबोधकपणाना अभावधी करादि चेष्टाओपर प्रबोधक नथी. अत एव करादि चेष्टा द्वारा मतिज्ञान परमवोधक थतुं नथी (वि. पत्र. ५९ ) ४३४ औत्पातिकी आदि बुद्धि चतुष्टयमां अवग्रह, इहा, अपाय अने धारणा, विद्यमानछे. तो पण परोपदेशादिनी अपेक्षा विना ते छे माटे ते चारनो श्रुतनिश्रितमां अन्तःपात थतो नशी. (वि. पत्र. ६० ) For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४०) तस्वबिन्दुः ४३५ श्रुतज्ञान-श्रुतअज्ञान, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान ए छ साकार पश्यत्ताना भेद जाणवा. चक्षु, अवधि अने केवलदर्शनना भेदथी त्रण प्रकारे अनाकार पश्यताछे. पांच ज्ञान अने त्रग अज्ञान मेळवतां आठ प्रकारे साकार उपयोगछे, चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवलदर्शनना भेदथी चार प्रकारे अनाकार उपयोगछे. (वि. पत्र. १७४) ४३६ सर्व तीर्थकरनुं अवधिज्ञान तुल्य न होय कारण के जे जीव ज्यांथी आवे तेमने ते स्थान संबंधी ज्ञान तथा वर्धमान ज्ञान होय. ४३७ लोकांतिक देव एकावतारी तथा आठ भव पण करे. प्र. चिंतामणि पत्र ९. ४३८ पांचमे आरे क्षायिक समकित पामे. प्र. चिं. प. १४ इहक्षायिकं विच्छिन्नं इत्थमक्षराणि कुत्रापिन दृष्टानिततः प्राप्यते ४३९ एक भवमा उपशम श्रेणि बे वार करे ते क्षपकश्रेणि ते भवमां न पामे. कर्म ग्रंथ अभिप्राय सिद्धांतमते एक भवमा एकज पामे. प्र. चिं. ५, २९. For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वविन्दुः (11) ४४. लोक प्रकाशमां चक्षुदर्शननी स्थिति एक हजार सागरो पमनी कही. ४४१ धर्मः पारदः मंगलं सुवर्ण,उत्कृष्टं,ताम्र अहिंसा कथिर संयमो-अगस्त्यवृक्षः. तपः कृष्णवतूर. देवावि पीतपलाश. (से) ४४२ वासी विदलमां बेरेन्द्री जीव लालरूप होय. पा. ८ प्र. ६०. ४४३ मुकु लसण अचित्त दवामां साधुने कल्पे. पा. ७ प्रश्न. ५८. ४४४ चरक परिव्राजकादि मिथ्यादृष्टिमां सकाम तथा अकाम नि. जरा बन्ने होय. पाने ९५. ४४५ मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टि जेनो अर्ध पुद्गल परावर्तन काल बाकी होय ते शुकलपक्षीया जाणवा. ते बन्ने क्रियावादी होय. For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४२ ) तबिन्दु ४४६ अन्तर्मुहूत शेष आयु रहे त्यारे केवली, केवली समुद्घात करे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४७ सात मकारे आयुष्य तुटे. १ राग स्नेहमय अध्यवसायथी, २ दंडादि निमित्तथी, ३ घणा आहारथी, ४ नयन वेदनादियी, ५ गर्तादि पराघातथी, ६ सर्पादि दंशथी, ७ श्वासोश्वास रोका गयी. ४४८ पचरुखाण करावनार गुरु वोसिरे अने करनार वोसिरामि कहे. ४४९ मनः पर्यत्र ज्ञाननो उंचो अने नीचो विषय अहारसे योजननो छे. माटे मनः पर्यव ज्ञानि, नारकी देवलोकमां रहेलाना मनोभाव जाणी शके नहि. ४५० तमस्काय अप्कायरूप छे. ४५१ त्रण कारणे तारा खसे-वैक्रिय करतां मैथुन करतां स्था For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४५३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवबिन्दुः ( १४३ ) नान्तर अथवा महर्षिक देवताने वैक्रिय करतां मार्ग देवा तारा चलायमान थाय. ४५२ त्रण कारणे अल्पदृष्टि अने त्रण कारणे महावृष्टि. जे देशम उदक योनिया घणा जीव उत्पन्न थाय नहि, अथवा थायं. देव नाग भूत यक्ष पूजाय नहि, अथवा पूजाय तो दृष्टि परावर्त करे. प्रचण्ड वायु, वादलने विखरे अथवा न विखेरे तो. योगस्य लक्षणं. आदारिकादि देहसंयोगसंभवाः आत्मवीर्यपरिणाम विशेषाः कथिता स्त्रिधा ॥ ४५४ उपांग स्थविरकृत होयछे. तीर्थकर विद्यमान छतां तथा अविद्यमान छतां पण होय. ४५५ त्रिफलाजल मासुकछे. निशीथभाष्ये हार प्र. ७ For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४४) तत्त्वबिन्दुः ४५६ एकवीश प्रकारना जलनो काळ उष्णजल प्रमाणे. एकविंशतिणनीयानां प्रासुकभवनानन्तरं पुनः कियता कालेन सचित्तता भवति; तथा तेषांसर्वेषां सांप्रतंप्रवृत्तिः कथंनास्तीति अत्र नष्णोदकस्य यथावर्षादौ प्रहरत्रयादिकः कालः प्रोक्तोऽस्ति तथा प्रासुकोदकधावनादीना मपीति बोन्यं तेषांप्रवृत्तिस्तु यथासंभवविद्यते॥ ४५७ गृहस्थनी सूइ चकु वगेरे हाथमां न आपतां साधुए भूमि उपर मूकी आपवां. ४५८ निर्विकृति प्रमुखेषु एकान्ते आर्दशाक भक्षण निषेधो ज्ञातो नास्ति. निवीयाता प्रमुखोमां एकान्त लीलाशाकनो भक्षण निषेध जाण्यो नथी ४५९ उपधानमध्ये आईशाक भक्षण रीति स्ति. उपधानमा लीला शाकनी भक्षण रीति नथी. For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दु. ४६० एक समयमां चार तीर्थकर उत्कृष्टा मोशे जाय. ४६१ सपेद सिंधव अचित्तछे. पत्र ११ प्र. ९५ ४६२ लीलोतरी त्यागीने तेजदीननो केरीपाक कल्पे. ४६३ गृहस्थनी रजाथी साधु पोताना हाथे पाणी बहोरी शके. आचारांगनी पृष्ठ १२५. १६४ देवनिद्राविचार-लो. प्रदेशोदय स्त्वेषां, स्यात्तथाप्यन्यथाकथं; दर्शनावरणीयस्य, सतोप्यनुदयोभवेत् ॥ ४६५ सम्यग्दृष्टि देवो उत्कृष्टतः एक समयमा संख्याता चवे. गर्भन मनुष्योमा उत्पत्ति होबाने लीधे. For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६) तत्वधिन्दु. ४६६ वे नेत्र, वे कर्ण, मुख, नासिका, ललाट, तालु, शिर, नाभि, हृदय, इत्यादि ध्यान करवानां स्थानछे. ४६७ ज्ञानावरणीयमा प्रज्ञापरिसह अने अज्ञान वे, दर्शनावरणीयमा समकित परिसह, अन्तराय कर्ममां अलाभ परिसह, चारित्र मोहनीयमा आक्रोश, अरति, स्त्री, निपया, याश्चा, अचेल, सत्कार, ए सात परिसह. वेदनीय कर्ममां क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डंश, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, ए एकादश परिसहछे. नवमा गुणस्थानक पर्यंत सर्व परिसहो होयछे. दशमा, अग्यार अने वारमा ए त्रग गुणस्थानका प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, क्षुधा, तृपा, शीत, उष्ण, डंश, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, ए चउद परिसह होयछे. तेरमा अने चउदमा गुणस्थानकमां वेदनीय जन्य एकादश परिसह होय. ४६८ एक जीवने एक भवमा उत्कृष्टतः ओगणीश वा विश परि सह होयछे. ४६९ क्षुधा, तृषा, स्त्री, सम्यक्त्व, अरति, ए पंच मनथी होय. For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. (१७) याचना, आकोश, सत्कार, अढाभ, प्रज्ञा, अज्ञान, ए छ वचनथी होय. अने बाकीना शीत, उष्ण, दंश, चर्या, शय्या, अचेल, मल, रोग, नैपेधिकी, वध, तृणस्पर्श, ए एकादश कायाथी होय. ४७० दर्शन उपयोगरूप औघसंज्ञा अने ज्ञानोपयोगरूपालोकसंज्ञा एम स्थानांग टीकाकारनो अभिप्रायछे. ओघ संज्ञा अव्यक्त उपयोगरुप अने स्वच्छंद घटित विकल्परुप लोक संज्ञा,एम आचारांग त्तिमांछे, मतिज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशमथी शब्दार्थ गोचर सामान्य अवबोध क्रिया ते ओघ संज्ञा अने तेनो विशेषावबोधरुप जे क्रिया ते लोक संज्ञा. इति प्रवचन सारोद्धार दृत्तिमांछे. ४७१ नेजस नामकर्मना उदयथी अने अशाता वेदनीयना उदयथी आहाराभिलापरूप आहारसंज्ञा थायछे. त्रासरूप भयसंज्ञा. मूर्छारूप परिग्रहसंज्ञा स्त्री आदि वेदोदयरूप मेथुनसंज्ञा. ए त्रण मोहनीयना उदयथी होयछे. क्रोधसंज्ञा. गर्वरूप मानसंज्ञा, वक्रतारूप मायासंज्ञा, गृद्धि रूप लोभसंज्ञा, विप्रलापरूप शोकसंज्ञा, मिथ्यादर्शनरूप मोहसंज्ञा. ए छ संज्ञाओ मोहोदयजन्यछे. शातारूप सुख संज्ञा अने दुःखरूप अशातासंज्ञा ए बे वेदनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थायछे. ज्ञानावरणीय अने मोहनीयना उदयथी चित्तविप्लुतिरूप विचिकित्सारूप संज्ञा जाणवी. स्व. च्छंद आदि प्रागुक्त लक्षणरूप ज्ञानावरण क्षयोपशमयी अने मोहना उदयथी लोकसंज्ञा प्रगटेले. अव्यक्त उपयोग वल्लिवि For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४ ) तत्वविन्दुः तानारोहणादि लक्षणरूप ज्ञानावरणीय अल्प क्षयोपशमयी उठेली ओघसंज्ञा जाणवी. क्षमादि आसेवनरूप मोहनीय क्षयोपशमथी धर्मसंज्ञा प्रगटेछे. ४७२ अर्ध पुद्गल परावर्तनकालमा क्षयोपशम समकित उत्कृतः एक जीवने असंख्यातवार आवे. ४७३ सास्वादन गुणस्थानकनो जघन्य काल एक समयछे.अने उत्कृष्ट छ आवलिकानो कालछे. ४७४ नैश्चयिक अर्थावग्रह एक समयनोछे अने व्यवहारिक अर्थावग्र. हनो काल अन्तर्मुहूर्तछे. बहु बहुविध आदि बारभेदनो समास व्यवहारिक अर्थावग्रहमां थायछे. (वि) ४७५ तीर्थंकरो विना बाकीना जीवो पण अवधिज्ञानसह माताना उदरमा उत्पन्न थाय. For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. ४७६ अमूर्तत्व,सर्ववेतृत्व,निरावरणत्व,आदि केवलज्ञानना स्वपर्याय छे अने ज्ञेय सर्व पदार्थोछे ते केवलज्ञानना परपर्यायछे. (वि) ४७७ सामान्यतः श्रुतज्ञानना स्वपर्याय अने परपर्यायछे से केवल ज्ञानना पर्यायतुल्य थाय. (वि.) ४७८ उपजतीवेला अन्तर्मुहुर्तमां जीव करे ते पर्याप्ति अने ते पर्याप्ति पश्चात् जीवे त्यां मुधी रहे ते प्राण जाणवा. (र) ४७९ पहेला बीजा अने त्रीजा ए त्रण अनंताना स्वामी कोइ नथी. माटे ए त्रण अनंता शून्यछे. चोथा अनंतामां अभव्य जीव आव्या. पांचमा अनंता मध्यभांगे सम्यक्त्व पडवाइ जीव कह्या. तथा पडवाइथी अनंतगुणा अधिक अनंतसिद्ध पांचमा भंगमांछे. छठा अनंतामां कोइ नथी. सातमा अनंतामां पण कोइ नथी. ए सर्व निगोदिया वनस्पतिकायना जीव आठमे अनंतेछे तेथी अनंतानंतगुणा अधिक पुद्गल परमाणुआछे. तेथी काल, तेथी सर्व आकाश प्रदेश तेथी केवलज्ञान दर्शनना पर्याय अनुक्रमे अधिक आठमां अनन्तामां जाणवा. नवमा अनंतागां कोइ नथी. (रत्न) ४८० केवलीने शुकललेश्यानो उदयछे ते योगद्वारे परिणमे, योगर्नु परिणमन आदयिकभावे परिणमे. लेश्याए एक समये शाता For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५० ) तर बिन्दु . वेदनीयनो बंधछे. पण उत्तम पुद्गल ग्रहे. बीजे समये निर्जरे (र) ४८१ काललब्धि, इन्द्रियलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि, प्रयोगतालब्धि ए पांच लब्धि पामे त्यारे जीव स्वआत्मबोध समकित धर्म पामे. (रत्न) ४८२ का सरगना द्रव्य अने भाव ए भेद कह्याछे. द्रव्य का सरगना चार भेद जाणवा. १ शरीरका उसग्ग २ उपधिका उसग भात ३ पाणीनो त्याग ४ ते पण काउसग्ग, भावका उसरगना ऋण भेदछे. १ कपायका उसग्ग २ संसारका उसग्ग ३ कर्म्मका उसग्ग. १ चारकषायना त्यागरूप कपायकाउसग्ग २ चारगतिनिवारणरूप संसारका उसग्ग. अष्टकर्म क्षय करवा कर्म काउसग्ग. (र) ४८३ भावमोक्ष सम्यग्दृष्टिने होय, द्रव्यमोक्ष साधुने होय, गुणमोक्ष ते केवलीने तेरमा तथा चउदमा गुणस्थानकमां होय. ४८४ जैनदर्शन ते उपयोगे तथा अक्रियभावेछे. जैनदर्शन श्रद्धान ते शुद्धोपयोग आत्मभावेछे, अक्रियभावेछे, अने बीजायोगे क्रियाधर्मछे. For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. ४८५ शुद्धोपयोग अने अशुद्धोपयोगछे. अशुद्धोपयोगना बे भेदछे. शुभ, २ अशुभ, तेमां शुभोपयोगे वर्ते तो जीव पुण्य बंध करे. अशुभोपयोगे वर्ते तो पापकर्म बन्ध करे. शुद्धोपयोगे वर्ते तो परमात्मपद प्राप्त करे. शुद्धोपयोग निर्विकल्पदशामां होयछे. ४८६ १ द्रव्यआत्मा २ कपायआत्मा ३ योगआत्मा ४ उपयोग आत्मा ५ ज्ञानात्मा ६ दर्शनात्मा, ७ चारित्रआत्मा ८ वीर्यात्मा, भगवतीमां ए आठ प्रकारना आत्मा कह्याछे. ३८७ शुभोपयोगथी पुण्यछे. अने शुद्धोपयोगथी धर्मछे. एवं पुण्य अने धर्ममा भेद समजवो. ४८८ सामायक, चतुर्विंशतिस्तव, प्रतिक्रमण ए त्रण आवश्यक संवर तत्त्वमांछे, वाकी त्रण निर्जरा तत्त्वमांछे. ४८९ अस्तित्व,वस्तुत्व, द्रव्यत्व,प्रमेयत्व,प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व ए छ द्रव्यास्तिकना सामान्य स्वभाव जाणवा. ४९० १ नित्यस्वभाव २ अनित्यस्वभाव ३ एकस्वभाव ४ अनेकस्व For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. भाव ५ सत्यस्वभाव ६ असत्यस्वभाव ७ वक्तव्यस्वभाव ८ अवक्तव्यस्वभाव ९ भेदस्वभाव १० अभेदस्वभाव ११ परम स्वभाव, ए विशेषस्वभावछे. ४९१ संसारी जीव केवल कार्मणयोगे वर्त तो सर्व स्थानके अना हारी होय. औदारिक अथवा वैक्रियनी मिश्रता कार्मण साये मळे तो आहारग्रहण होय. ४९२ जेना वस्त्रमा जु न पडे. ज्यां विचरे त्यां देशनो भंग न थाय. देशमा चिन्ता न उपजे. पगनो धोवण पीवे तेनो रोग नाश पामे ए चार अतिशयादि युक्त होय ते युग प्रधान जाणवा. ४९३ आहार लेइ परिणमावान कारण ते तैजस शरीर जाणवू. ४९४ अष्टदृष्टिन स्वरूप पुनः पुनः मनन करवू जोइए. अने तेमां उपशमादि भाव विचारवा. मनन करवा, पांचमी दृष्टिमा समकित पमायछे तेना हेतुओ आत्मामां अनुभववा योग्यछे. For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सस्वबिदुः वाह्यदशाथी दृष्टिनी श्रेणिपर आरोहातुं नथी. दृष्टिओने आत्मामां उतारची जोइए. दुपणदृष्टि आदि माटे दृष्टिओनो अभ्यास हितावह नथी. ४९५ व्यवहार अने निश्चयथी देव गुरु अने धर्मनें मूक्ष्मदृष्टिथी स्व रूप अनुभवq योग्यछे. ४९६ शुद्धान्तः करणथी सद्गुरुनां वचना हृदयमा परिणमे छे. तदर्थे __ सवळी दृष्टिनी जरूरछे. अपात्र जीवने तत्त्वज्ञान परिणमतुं नथी. ज्ञानिनां वचनोने ज्ञानी समजेछे. ४९७ सर्व शास्त्रोमां अध्यात्मशास्त्र श्रेष्ठता भोगवेछे. अल्पकालमा जे मुक्ति पामवानो होयछे तेनेज अध्यात्मज्ञानपति रुचि थायछे. ४९८ क्रियावादी, अक्रियवादी, ज्ञानवादी, अने विनयवादीना सर्व मळी त्रणसेवेसठ भेद थायछे. For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५५) तस्वबिन्दु ४९९ बाह्यतपजप प्रतिलेखना पूजा पतिक्रमण आदि बाह्यस्थूलधर्मनी क्रियाओछे. धर्मध्यान, पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, धारणा, आत्मामां रमणता, आदि आत्मधर्मनी सूक्ष्मक्रियाओछे, स्थूलक्रियाओतो अज्ञानी पण करी शकेले. पण धर्मनी सूक्ष्म क्रियाओ तो ज्ञानीज करी शकेले. सूक्ष्मध्यानादिक धर्मनी क्रिया करनार अनंतकर्मने दूर करेछे. वाह्यक्रिया करनार करतां ध्यानादिक अंतर सूक्ष्मक्रिया करनार अनंत गुण विशेष उच्च पदवी धारक जाणवो. ध्यानादिक सूक्ष्म अंतर क्रिया विना मुक्ति थती नथी, माटे जे पुरुषो सूक्ष्म क्रिया करनारने निश्चय वादी अक्रियवादी कही निंदेछे. हेलना करेछे. तेणे तीर्थकरनी निंदा हेलना करी एम जाणवू. स्थूल बाह्यधर्मनी क्रियाओमांथी सूक्ष्मध्यानादिक क्रियामां उतरतां अनुभव प्राप्त थायछे. अने तेथी केवलज्ञान प्राप्त थायले. ५०० गमे तेवा दुष्ट शत्रुथी जे अनिष्ट थतुं नथी. ते अनिष्ट राग द्वेषधी थायछे. ५०१ परनी निन्दा फरनार जे परने दोषो देले. ते ते दोपो ते पोते पामेछे. परनी निन्दा करनाग्नुं मुख पण देखवालायक नथी. For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तरच विन्दुः ५०२ अज्ञान कष्ट करवामां तामसी तापसनी पेठे अल्प फळछे. ५०३ जगत्मां ज्ञानिनीज बलिहारीछे. ५०४ दृष्टिरागी, दोषने देखी शकतो नथी. ५०५ शिष्योनी शोभा विनयवृत्तिमांजछे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५५ ) For Private And Personal Use Only hin ५०६ यदि सद्गुरु शिष्यने सर्पना दांत गणवानुं कहे तो पण शिष्ये गुरुनी आज्ञा स्वीकारवी. मनमां एम समज के तेनुं प्रयोजन गुरु जाणेले. गुरु तो शिष्योनुं एकान्त हित इच्छेछे. ५०७ सुनक्षत्र अने सर्वानुभूतिनी पेठे गुरुपर भक्तिराग थवो जोइए. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्मबिन्दुः ५०८ अशुभ अध्यवसायथी प्रसनचंद्र राजर्षिनी पेठे दुर्गति कर्मदलिक प्राप्त थायछे. अने शुभ अध्यवसायथी प्रसन्नचन्द्रनी पेठे तुर्तज केवलज्ञान थाय छे. ५०९ हे भव्यो ! दुर्लभ जिनवचनमा शंका न करो!!! अनादर न करो. रुचिथी तेमां आदर करो. ५१० शुभाशुभ परिणामनी तरतमतानुसार न्यूनाधिक कर्मबंध थायछे. सांसारिक स्नेह क्षणिक अने दुःखनी परंपरा देनारछे. ५११ एक दीवसमां शुभाशुभ परिणाम, जीवने घणीवार थायछे. ५१२ परिणामनी विचित्रताछे. माटे पापी पण शुभ परिणाम पापी धर्मी बनेछ, ५१३ बद्ध, निधत्त, निकाचित अन स्पृष्ट एवा अनेकधा कर्मभेदोथी आत्मा बंधायछे. बद्धकर्म कलुषित जल समानछे अथवा दो For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (५७) राथी वांधेला सोयोना जथ्था समानछे. निधत्तकर्म दृढबंधनथी बांधेलं अने निकाचितकर्म अत्यंत आकर अने स्पृष्टकर्म तो वस्त्रपर लागेली धूळ समान शिथिल अवरोधq. ५१४ ज्ञानिनी बाह्य चेष्टा करतां अन्तर् परिणति जोवानी आवश्य कताछे, आत्माना शुभाशुभ अध्यवसायथीज मुख्यताए शु. भाशुभ बंध पडेछे. बाह्यचेष्टा आदि अनुमानथी परीक्षा थाय तेमां एकांत सत्य परखातुं नथी. ५१५ जे एक जीवने द्रव्यभावथी जैन दर्शन पमाडेछे. ते चउद राजलोक स्थित जीवने अभयदान आपेछे, कारण के जैन धर्मथी मुक्ति पामतां चउदराजमां वसनारा जीवोनी हिंसा करतो बंध पडेछे. ५१६. आत्मतत्त्व ज्ञान अर्पनार सद्गुरुने सर्वस्व समर्पण कर जोइए. ५१७ अपाय, धृति (धारणा) वे विशेषबोध स्वभावथी ज्ञान मिश्र छे अने अवग्रह तथा इहाछे ते अर्थ पर्याय विषयत्वथी सा For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५८) तस्वविन्नुः मान्यावबोध दर्शनरूपछे. वचन पर्याय ग्राहकपणावडे अपाय अने धारणा विशेषावबोधरूपछे. ५१८ सम्यक्त्व अने श्रुतनो युगपत् लाभछे तो पण कारण कार्यना भेदथी भेदछे. शुद्ध तत्त्व अवगमरूप श्रुतमां श्रद्धानांशछे ते सम्यकत्वछे. एवं सिद्धांतवादी मानेछे. (विशे. प. १६६). ५१९ द्रध्यास्तिकनयना अभिप्रायेद्वादशांग श्रुतछे ते पंचास्तिकायनी पेठे नित्यपणाथी अनादि अनन्तछे. (वि. प. १६७). ५२० पर्यायास्तिकनयना अभिप्राये द्वादशांगश्रुत अनित्यछे माटे सादिसांतछे, (वि. प. १६७). गाथा. ५२१ चोदस पुवी मणुओ, देवत्तेतं न संभरइ सव्वं; देसाम्म होइ भयणा, सट्ठाण भवेवि भयणाओ.१ कोइ चतुर्दशपूर्वी मरीने देवलोकमां जाय त्यां संपूर्ण पूर्वश्रुनर्नु तेने स्मरण थाय नहि. देशश्रुतमां भजना. मनुष्यगतिमा चतुर्दश पूर्वी, मिथ्यात्व गमनथी श्रुतथी पडे, कोइ न पडे. चउदशपूर्वीने For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः केवलज्ञान थतां चउदपूर्वश्रुतनो नाश थायछे. कोई ग्लान तथा पमाददशाथी पण चतुर्दश पूर्वरूप श्रुतज्ञानथी पडेछे (वि. पत्र १६७) प्रश्नोत्तर सार्धशतक. ५२२ तीर्थकर भगवान् दीक्षा लेती वखते सिद्धोने नमस्कार करे. उक्तंच आचारांगसूत्र द्वितीयश्रुतस्कंध पष्ठाध्ययनेसओणं से महावीरे पंचमुठियं लोयं करेत्ता सिद्धाण नमोकारं करेइ ॥ ५२३ केवलीने वेदनीयादिशेष चार कर्मछे ते जीर्ण वस्त्र पाय जाणवां. ५२४ एकावतारी देवोने च्यवनचिन्ह प्रगट थतां नथी. ५२५ अगियारमा, बारमा अने तेरमा गुणस्थानकवर्ति मुनियो, प्र कृतिथी शाता वेदनीय बांधेछे. अकषायत्वथी स्थितिना अअभावे बध्यमानज परिशाटन करेछे. अनुभावथी अनुत्तरोप पातिक सुखातिशायीछे, प्रदेशथी स्थूल रुक्ष शुक्लादि बहु प्रदेशविशिष्ट कर्मने बांधेछे. For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६०) स्वबिन्दुः ५२६ भवचक्रमां चार वार आहारकशरीर करनार मुनि तद्भवमा सिद्धिगामीछे. ५२७ आचारांगमूत्र वृत्ति तृतीयाध्ययन, प्रथम उद्देशामा स्त्यान धिंत्रिकोदय थएछते सम्यक्त्व प्राप्ति अने भवसिद्धि कोइनी थती नथी. ५२८ एक भवमां, एक जीवने, कर्मगतिवैचित्र्यताथी त्रणवेदनो उदय पण संपजेछे निशीथचूर्णि. ५२९ कोइ पण निर्भाग्यना संसर्गथी घणा भाग्यवंतोनो पण पुण्यो दय हणायछे. ५३० द्रव्यथी परमाणु नित्यछे. पर्यायथी अनित्यछे. भगवती सूत्र १४ शतक-चोथा उद्देशामां कहूंछे के-परमाणु पुग्गलेणं भंते सासए असासए? गोयमा सियसासए,सिअअसासए,सेकेण ठेणं भंते एवं वुच्चति? गोयमा!!! दव्वठयाए सासए,पज्जवठयाए असासए, इत्यादि यत्तु केचित् परमाणोनित्यत्वेनतत्पर्यवाणां नित्यत्वंमन्यते तदसत्. पंचमांगे स्पष्टतोऽनित्यत्वोक्ते,, केटलाक परमाणुना नित्यपणावडे तेना पर्यायोने पण नित्य For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः (1 ) मानेछे ते असत्यछे. भगवतीमा पर्यायास्तिकनी अपेक्षाए परमाणु अनित्यछे एम स्पष्ट कहूंछे. ५३१ कुकडानी शिखा सचित्तछे,अने मयुरनी शिखा मिश्रछे. आ चारांग वृत्ति द्वितीयश्रुतस्कंध पीठिकामां कडंछे. सचित्ता कुकुटस्य, मिश्रा मयुरस्य. ५३२ परमाधार्मिक देवताओ भव्यछे, एम प्रश्नोत्तर सार्धशतकमां लख्युछे. हीरप्रश्नमां परमाधार्मिक देवताओ भव्यछे एवो प्रघोष असत्य कह्योछे. (प्र. सा) ५३. निश्चयनयमतवडे बारमा गुणस्थानकना अंत्य समये केवलो. त्पत्ति अने चउदमा गुणस्थानकना अंत्य समये सिद्धत्व जा. णवू. व्यवहारनय मतवडे तो तेना अनंतर समयमा उभय पण जाणवां. (प्र. सा) ५३४ सम्यक्त्वथी भ्रष्ट थतां जेओनो अनंत काल गयोछे तेओमां १०८ एकशो आठ, एक समयमां सिद्धि वरे. संख्यात काल पतित अने असंख्यात काल पतितोमां एक समयमां दश, For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः सिद्धि वरे. अप्रतिपतितसम्यक्त्वधारियोमा एक समयमा चार उत्कृष्टा सिद्धि वरे. (प्र. सा.) उक्तंच. जेसि मणंतो कालो, पडिबाओ तेसि होइ अठसय; अप्परिवडिए चउरो, दशगं२ च सेसाणं ॥१॥ ५३५ गाथा. अंबत्तणेण जीहाइ, कूचिया होइ खीर मुदयंमिः हंसो मुत्तण जलं, आवियइ पयं तह सुसीसो ॥२॥ १३६ दीर्घ वैताढयमां-कांचनगिरिमां चित्रविचित्र पर्वतमां यमक समक पर्वतमा तिर्यगजंभक देवताओरहेछ. ते व्यंतरविशेषछे. ५३७ समवायांग वृत्तितः नारकी जे पुद्गलोनो आहार करेछे. तेने अवधिज्ञानवडे पण जाणता नथी. लोमाहारपणाथी चावडे देखी शकता नथी. असुर. व्यंतर, ज्योतिष्य अने वैमानिक जे For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्याबिन्दुः (६३) सम्यग्दृष्टि देवताओछे. ते विशिष्ट अवधिज्ञानथी आहारना पुद्गलोने जाणेछे. अने चक्षुवडे पण देखेछे, चक्षुर्नु पण विशिष्टपणुंछे. मिथ्यादृष्टि देवताओ तो जाणता पण नथी अने देखता पण नथी. प्रत्यक्ष अने परोक्षज्ञान, तेओने अस्पष्टछे. संग्रहणी वृत्तिमां तो अनुत्तर देवोज जाणे देखेछे. पण नारक तथा ग्रैवेयक पर्यंतना देवताओ जाणता देखता नथी. एम कधूछे. प्रज्ञापनावृत्तिमां पण एम अभिमायछे. तत्व तो ज्ञानि गम्यछे. कार्मण शरीर पुद्गलोने अनुत्तर देवो जाणेछे अने देखेछे. पण ग्रैवेयकांतो देवो जाणता नथी. तेमना अवधिमां ते पुद्गलो अगोचरछे. प्रज्ञापनावृत्ति इन्द्रियपद प्रथमोद्देशामा एम जणाव्युंछे. ५३८ शुष्कवाद, विवाद, अने धर्मवाद आ त्रण प्रकारना वाद जा. णवा. माध्यस्थदृष्टिथी आत्महित माटे धर्मवाद थइ शकेछे. साधुओए धर्मवाद कारण छतां करवो. पण शुष्कवाद अने विवाद ए बे करवा नहीं, ५३९ चउदमा गुणस्थानकना चरम समये केवलज्ञानी मुक्ति जतां जे कर्म पुद्गलोने निर्जरेछे. ते परित्यक्त कर्म स्वभाव विशिष्ट परमाणु पुद्गलो सर्व लोकने पण स्पर्शछे. प्रज्ञापनासूत्रवृत्ति इन्द्रियपद प्रथम उद्देशामां कपुंछे. For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६४ ) तयकिदुः : ५४० मनुष्य, पोताना छायापुद्गल प्रतिबिंबने आरीसामां देखेछे. ५४१, आकाशना अतृमध्यरुचक प्रदेशो समभूतला प्रदेशमां मेरु मtrai रह्याछे. धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना आठ मध्य रुचक प्रदेशोछे ते आकाशना आठ रुचक प्रदेशमां सदा रहेले. ते बेनुं लोकाकाश तुल्यपछे माटे पोताना प्रदेशोवडे लोकाकाशना प्रदेशोने व्यापीने अविचलपणावडे सर्वदा रहेवापणाथी. तथा जीवना आठ रुचक प्रदेशो तो स्वशरीरना मध्य भागमां सर्वदा रहेछे, केवलि समुद्घात कालमां मेरु मध्यस्थ आकाशना आठ रुचक प्रदेशोमां आत्माना आठ रुचक प्रदेश रहेछे. अन्यदाखविचला एवेति ते आठ जीवना प्रदेशो जघन्यथी एक आकाश प्रदेशने अवगाहेछे. वेमां त्रणमां, चारमां, पांचमां, छमां आत्माना रुचकपदेशो अवगाहेछे. संकाचविकाश स्वभावणाथ उत्कर्षथी आठप्रदेशोमां एकेकमां अवगाहनपणाथी अवगाहेछे. पण विशेष के सात प्रदेशमा अवगाहता नथी. ते प्रकारना स्वभावथी. ते आठ जीवना रुचक प्रदेशो कर्मथी लेपायमान थता नथी. सर्वदा निरावरण रहेछे. बाकीना आत्माना प्रदेशो तो कर्मथी लेपायला होयछे. आवर्तमान जलनी पेठे निरंतर उद्वर्तन परिवर्तनपणुं शेष आत्माना प्रदेशोनुंछे. ( म. सा ) ५४२ द्रव्य मन विना भाव मन नथी. असंज्ञीनी पेठे. For Private And Personal Use Only J Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दुः ५४३ः द्रव्यमन तो भावमन विना पण होय. भवस्थ केवलिवत्. ५४४ सर्व एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवोने द्रव्यमनना अभावथी भाव मन पण नथी. ज्यारे तो भावमन शब्दवढे चैतन्य मात्रनी विवक्षा करायछे. त्यारे तो द्रव्यमन विना पण भावमन होय. ५४५ मंज्ञिपंचेन्द्रियोवडे मनःपर्याप्ति नामकर्मना उदयथी मनयोग्य पुद्गलोने ग्रहण करीने मनरूपे परिणमावेलां जे पुद्गलो तेने द्रव्यमन कहेछे. ते मनोदव्यने अवलंबी जीव चितवनरूप व्यापार करेछे तेने भावमन कहेछे. आह-नंद्यध्ययनचूर्णिकार मणपजतिनामकम्मो दयतो जोगोमणोदव्वे घेत्तुं मणत्तेण परिणामिया दव्यमणो भन्नइ, जीवो पुण मणपरिणामकिरिया वंतो भावमणो किं भणियं होइ, मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमण भन्नइत्ति ॥ ५४६ कालसूक्ष्मछे. कालथी पण क्षेत्र मुक्ष्मछे. क्षेत्रथी पण द्रव्य सूक्ष्म छे. तेथी पण भावरूप पर्याय अति सूक्ष्मतमछे. For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२६ ) तश्वबिन्दु: ५४७ परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग, अने चूलिका आपांच भेद दृष्टिवादनाछे. तेमांथी पूर्वगत नामना द्वितीयभेदमां चतुर्दश पूर्व समायछे. ५४८ जातिस्मरण भने अवधिज्ञानना उत्पादनो हालमां निषेध नथी ५४९ अपर्याप्ता सर्वे जीव ओजाहारी जाणवा. ५५० भाषातुं संस्थान वज्राकारे होयछे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५१ परमाधामीओनी करेली वेदना पहेली त्रण नरकोम छे. ५५२ मुनिराजो उत्कृष्टथी बेहाथतुं अन्तर राखी सुवे. अने पात्र वीश आंगुल दूर राखी शयन करे. ५५३ मुनियोने श्रीहिपलाल कल्पेछे. For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्पविन्दुः ५५४ पनवणा सूत्रकार श्री श्यामाचार्य श्री उमास्वातिवाचकना शिष्य जाणवा. श्री वीरात् ३७६ वर्षे स्वर्गे गयाछे. नंदीसूत्र तथा तपागच्छ पट्टावलीमां अधिकारछे. ५५५ अध्यात्मयोगक्रिया चोथागुणस्थानकथी ते चउदमा गुणस्थानक पर्यंत होय. अध्यात्मसारमां. ५५६ वैक्रियशरीरवाळो जीव तथा विग्रहगतिवालो जीव, अनिमाथी जतो दाझे नहि. ५५७ अचक्षुदर्शनमा स्वमदर्शननो अन्तर्भाव थायछे, एम ठाणांगसूत्र टीकामां कपुंछे. ५५८ मिद्रा अवस्था प्रथमना त्रण गुणस्थानकमांछे. स्वमदशा चो थायी छठागुणस्थानक पर्यंतछे. जाग्रतदशा सातमाथी ते बारमा सुधीछे. उजागरदशाछे ते तेरमा तथा चौदमागुणस्थानकमां जाणवी. For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दुः ५५९ पांच प्रकारना अन्तराय, हास, रति, अरति, मय, जुगुप्सा, शोक, शोक, काम, मिथ्याख, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग, द्वेष ए अष्टादश दोषरहित तीर्थंकरदेव जाणवा. ५६० १ घणुं भोजन करवाथी, २ अति निद्राथी, ३ अतिजागवाथी ४ झाडो ( विष्टा ) रोकवाथी, ५ पेशाव ( मूत्र ) रोकवाथी. ६ मार्गमां घणुं गमन करवाथी, ७ प्रतिकूल भोजन करवाथी, ८ इन्द्रियोना काम अत्यंत विकारथी, रोगोनी उत्पत्ति थायछे. मूत्रनिरोधथी चक्षुने हानि थायछे. झाडाना निरोधथी जीवितव्यनो नाश थायछे. ५६१ क्षेत्र अने कालनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना असंख्यात भेद छे, द्रव्य अने भावनी अपेक्षाए अवधिज्ञानना अनन्त भेदछे. क्षेत्र अने काल, असंख्यछे तेथी अवधिज्ञानना असंख्य भेद घटे छे. पुद्गल द्रव्य अनंत अने भाव (पर्याय ) पण पुद्गलद्रव्यना अनन्तछे माटे अनन्त भेद कह्याछे. (वि) ५६२ देवता अने नारकीओने क्षयोपशमभावे भवमत्ययिक अवधि ज्ञानछे अने मनुष्य तथा तिर्यंचने गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान होयछे. (विशे) For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. (१६९) ५६३ अवधिज्ञानी, कालथी जघन्य आवलिकाना असंख्येय भागयी आरंभी समयोत्तर वृद्धिवडे उत्कृष्टथी असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल जाणे. ( वि. पत्र १७८ ) ५६४ अवधिज्ञानी ज्यारे ज्यारे उपयोग मूके त्यारे अन्तमुहूर्त पर्यंत रहे अने लब्धिनी अपेक्षाए अवधिनो उत्कृष्ट छासठ सागरोपम काल अधिक जाणवो. ५६५ अवधिज्ञानी क्षेत्र आश्री अने काल विशिष्ट रूपी द्रव्यने जाणे छे. पण अरूपि एवा क्षेत्र अने कालने अवधिज्ञानी, जाणी शकतो नथी. कारणके क्षेत्र अने काल अरूपीछे, अवधिज्ञाननो तो रूपि द्रव्य जाणवानो विषयछे. (वि. पत्र १७९) ५६६ विग्रहगतिमां आवता भवनुं आयुष्य, उदयमां होयछे. एम समजायछे. ५६७ बकुश, पुलाक अने प्रतिसेवना कुशील छठा, सातमा गुणठाणा सुधी होय. कषायकुशील दशमागुणठाणा सुधी होय, निय अगियारमा, बारमागुणस्थानक पर्यंत होय, तेरमा, चौदमा For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (10) सत्वबिन्दु. गुणठाणामा स्नातक होय, छद्मस्थावस्थामा तीर्थकरने कपाय कुशील चारित्र होयछे. उत्तराध्ययन अध्ययन. ३४ ५६८ कृष्णलेश्याना परिणाम-पंचास्रवना सेवनार, मन वचन का यानी गुप्ति नहि पालनार, षट्कायनो नाश करनार, आरंभ सारंभना तीव्र परिणाम सहित, सर्व जीवोने अप्रिय, आभव अने परभवतुं अस्तित्व नहि स्वीकारनार, क्रूरपरिणामवान, इत्यादि अशुभ कृष्णलेश्याना परिणाम जाणवा. ५६९ नीललेश्याना परिणाम-इर्ष्या करवी. परजीवना अवर्णवाद बोलवा. अत्यंत कदाग्रह करवो. तपरहित अनाचारता. भाव सहित विषयलंपटता. अष्टमदनुं करवू. शातानुं इच्छQ. आरंभ करवो. सर्व- अहित करवू, इत्यादि ५७० कापोतलेश्या-वांकुं बोलवू, कपट करवू, निजदोष ढांकवापणुं, मिथ्यादृष्टित्व, अनार्यत्व, वाणीथी जीवोने दुभववा. मार्मिक बचननुं बोलवू, चोरी करवी, अन्यनी संपत्ति देवी स्वयं पाप व्यापार करवो कराववो. इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वविन्दु. ५७१ तेजोलेश्याना परिणाम-मानरहितपणू, मायारहितपणुं, कूतुहल रहितपणुं, विनयपणुं, भावनी द्धि, चपलतारहितपणुं, इन्द्रियोनुं दम, धर्मतत्त्वग्रंथ स्वाध्यादिकन करवू. धर्ममांश्रद्धा, पापकत्यथीभय, मोक्षनी वाच्छा इत्यादि ५७२ पद्मलेश्या-रागद्वेपनी उपशमता, इन्द्रियोनेदमवी, शुभअध्यव साय, दयादिना परिणाम, त्रणयोगनी शुभमां प्रवृत्ति, अल्पभापण कर, जितेन्द्रियव मुकिनी वा छा आदि ५७३ शुक्ललेश्याना परिणाम-आर्तरौद्रनो परिहार. धर्मध्यान अने शुकलध्यानावस्थापणुं.रागद्वेपनी उपशमता. त्रणगुप्ति अने पंच समितिमा रक्तता. जितेन्द्रियस. स्वस्वरूपमां दृष्टि इत्यादि. ५७४ जिनकल्पी उपशमश्रेणि तथा अपकणि मांडे नहीं अने तद् भवमा मुक्ति जाय नहि. ५७५ नाममंगल, स्थापना मंगल,द्रव्यमंगल,अने भावमंगल,आ चार प्रकारमा मंगळले. For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७२ ) तव बिन्दुः ५७६ द्रव्यादिकमां नवविध उपचारथी असद्भूत व्यवहार थायछे. १ द्रव्ये द्रव्योपचार, २ गुणेगुणोपचार ३ पर्यायेपर्यायोपचार. ४ द्रव्ये गुणोपचार, ५ द्रव्येपर्यायोपचार, ६ गुणेद्रव्योपचार, ७ पर्यायेद्रव्योपचार ८ गुणेपर्यायोपचार, ९ पर्यायेगुणोपचार. १ द्रव्येद्रव्योपचार- क्षीरनीर न्यायवत्जीव, पुद्गल साथे मळ्योछे माटे जीवने पुद्गल कहे ते जीव द्रव्यमां पुद्गल द्रव्यनो उपचार. २ गुणेगुणोपचार - भावलेश्या ते आत्मानो अरूपी गुणछे तेने कृष्णादिक लेश्या कही छीए ते कृष्णादि पुद्गलद्रव्यना गुणनो आत्मगुणमां उपचारछे माटे गुणेगुणोपचार जाणवो. ३ पर्यायेपर्यायोपचार - अश्व हस्ति प्रमुख आत्मद्रव्यना असमान जातीय द्रव्यपर्याय तेने स्कंध कहे छे. आत्माना पर्याय उपर पुद्गल द्रव्य जे स्कंध तेनो उपचार कहीए छोए ते पर्यायेपर्यायोपचार जाणवो. ४ द्रव्येगुणोपचार - हुं गौरवर्ण एम वोलतां हुं एटले आत्मद्रव्य अने गौरवणुं ते पुद्गलनुं उज्ज्वलतापणुं, आत्मद्रव्यमां पुद्गलना गौरगुणनो उपचार कर्यो माटे द्रव्येगुणोपचार. ५ द्रव्येपर्यायोपचार - हुं गौर एम बोलतां हुं ते आत्मद्रव्य, अने गौर तो पुद्गल द्रव्यनो सामान्य जातीयपर्याय जाणवो. ६ गुणे द्रव्योपचार - यथा दृष्टान्त आ गौर देखायचे. गौरतारूप पुद्गलगुण उपरे आत्मद्रव्यनो उपचार ते गुणे द्रव्योपचार. ७ पर्याये द्रव्योपचार - देहपर्यायने आत्मद्रव्य कहेतुं ते देहरूप पुद्गल पर्यायां आत्मद्रव्यनो उपचार जाणवो. For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वबिन्दु. (१७३) ८ गुणेपर्यायोपचार-मतिज्ञान ते पंचइन्द्रिय अने मनोजन्यछे माटे शरोरज कहीए अत्र मतिज्ञानरूप आत्मगुणमां शरीररूप पुद्ग लनो उपचार को. ९ पर्याये गुणोपचार:-शरीर ते मतिज्ञानरूप गुणजछे. अत्र शरीर पर्यायमां मतिज्ञानरूप गुणनो उपचार को जाणवो. ५७७ श्लोक अध्यात्मसार. अतो मार्ग प्रवेशाय, व्रतंमिथ्यादृशामपि ॥ द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य, ददते धीरबुद्धयः ॥ १७ ॥ ते माटे धीरबुद्धिवाळा रत्नत्रयिमार्गमा प्रवेशार्थे मिथ्यादृष्टिवाळाने पण द्रव्यसमकितनो आगेप करीने चारित्र आपेछे. ५७८ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान अने शुकलध्यान ए ध्यानना चार भेदछे. ५७९ अवधिज्ञानमां क्षेत्राधिकारथी प्रमाणांगुल ग्रहण करायछे. अव विज्ञानना अधिकारथी उत्सेधांगुल प्रमाण जाणवू एम केटलाक कहेछे. (कि. प. १८८) For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७४ ) तबिन्दु . ५८० अवधिज्ञानी क्षेत्रथी, अंगुलना असंख्यातमो भाग देखे अतीत अनागत क्षेत्र, क्षेत्र उपचारथी कवायछे. (वि) ५८१ अंगुला असंख्यातो भाग देखतो छतो अवधि, कालथी आवलिकानो असंख्यातमो भाग देखे. अंगुल संख्येय भाग मात्र देखतो छतो अवधिज्ञानी, आवलिकानो संख्यातमो भाग देखे. क्षेत्रथी अंगुल देखतो छतो कालथी आवलिकान्तर्भिन्न आवलिकाने देखे. (वि) ६८२ कालथी आवलिकाने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रथी वे आंगुलथी नव आंगुल देखे. (वि) ५८३ क्षेत्री हस्त प्रमाण देखतो छतो अवधिज्ञानी कालथी मुहूर्तातर्भिन्न मुहूर्त देखे. (वि) ५८४ कालथी दिवसांतर्भिन्न दिवस देखतो छतो क्षेत्रथी गव्यूत विषय वाळं अवधिज्ञान जाणवुं. (वि) ५८५ योजनक्षेत्र विषयवाळु अवधिज्ञान कालथी वे दीवसथी ते नव दीवस पर्यंत देखे. (वि ) For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वबिन्दु. (१७५) ५८६ कालथी पक्षांतर्भिन्न पक्ष देखे तो छतो क्षेत्रथकी पच्चीशयोजनने अवधिज्ञानी देखे. (वि) ५८७ क्षेत्रथी भरतक्षेत्र देखतां छतां कालथकी अर्धमास अवधिज्ञानी देखे. जंबुद्वीप विषयमा साधिक मास जाणवो. मनुष्यलोकमां वर्ष रुचकाख्य बाह्यद्वीपविषयमां अवधिज्ञाननो काल बे वर्षथी नववर्षनो जाणवो. अन्यो तो हजार वर्ष कहेछे. क्षेत्रगत अने कालगतरूपि द्रव्यने अवधिज्ञानी देखे. मंचाः क्रोशंति इत्यादि न्यायनी पेठे उपचारथी क्षेत्रकालने जाणेछे देखेछे एम जाणवू नतु साक्षात्. गाथा. काले चउण्हवुढी, कालो भइयव्यो खेत्तबुढिए; वुवीए दव पजव, भइअव्वा खेत्तकाला ॥ अवधिगोचर काल वृद्धि थए छते क्षेत्रादिनी वृद्धि चारनी वृद्धि कालथी क्षेत्र मूक्ष्मले. क्षेत्रथी द्रव्यमूक्ष्मछे. द्रव्यथी भाव मुक्ष्मछे. ५८८ ५८९ अवधिज्ञानना कालनो समय वृद्धि पामतां क्षेत्रना प्रभूतपदेशो वृद्धि पामेछे. क्षेत्रनी वृद्धि थतां भाव (पर्याय ) नी वृद्धि थायठेज. For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७६) तत्त्वधिन्दु. ५९० कालो भइयव्वो खेत्तबुट्टीएत्ति अवधिज्ञानतुं क्षेत्र वृद्धि पामतां कालनी भजना. ( वधे वा न वधे ) अन्यथा क्षेत्रनी वृद्धि थतां कालना नियमवडे समयादि वृद्धि थाय त्यारे तो अंगुल मात्र क्षेत्र वृद्धि पामे छते कालनी असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियो वृद्धि पामे. अंगुल सेढीमेत्ते नसप्पिणी असंखेज्जत्ति ॥ ते माटे आवलिकावडे वे आंगुलथी नव आंगुल, अवधि कांछे ते आदि सर्व विरुद्ध ठरे. माटे क्षेत्र वृद्धि थतां कालवृद्धिनी भजना. द्रव्य अने पर्यायनी वृद्धि थए छते क्षेत्र अने कालनी भजना जाणवी. द्रव्यनी वृद्धि थतां पर्यायनी अवश्य वृद्धि थायछे. प्रतिद्रव्यमा पर्याय अनंतछे तेमांथी जघन्यथी एकद्रव्यना चार पर्यायलाभ, अवधिज्ञानिने होय. ___ गाथा विशेषावश्यकभाष्य. काले पवढमाणे, सब्वे दव्वा पवद्वंति; खेत्ते कालो भइओ, वढंतिओ दव्वपज्जाया ॥१॥ भयणाए खेत्तकाला, परिवढतेसु दव्वभावसु दव्वे वढइ भावो, भावे दव्वं तु भयणिज्जं ॥२॥ सुहुमोय होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं; अंगुलसेढीमित्ते, नसप्पिणीउ असंखेज्जा ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवं बिन्दु. ५९२ गाथा. कालो खित्तं दव्वं, भावोय जहुत्तरं सुहुमभेया ॥ थोवा असंखाणंता, संखाइ जमोदि विसयम्मि ॥१॥ ( १७७ ) कालयकी क्षेत्र असंख्यात गुण, क्षेत्रथकी द्रव्य अनन्त गुण, अने द्रव्यथी पर्याय असंख्यातगुण, वा संख्यातगुण एम अवधिज्ञान' त्रिपयमां जाणवुं. ५९३ तेया भासादव्वाण, अंतरा एथ्थ लभइ पडवओ गुरु लहुआ गुरु लहुयं, तंपिय तेणावतिठाइ ॥१॥ गुरु लहु तेया सन्नं, भासासण्णमगुरुं च पासेजा आरंभे जं दिनं, दहूणं पडइ तं चैव ॥ २ ॥ तैजस द्रव्यासन्न गुरुलघुने अने भाषाद्रव्यासन्न अगुरुलघुने अवधिज्ञानी प्रारंभमां देखे. For Private And Personal Use Only ५९४ मिथ्यात्व, अविरति कषाय अने योगथी कर्मनो बन्ध थायछे, पांच प्रकारनां मिथ्यात्व, बार अव्रत, पच्चीस कषाय, १५ पर पनरयोग ए सत्तावन उत्तर हेतु जाणवा. प्रथम गुणस्थानकमां आहारक अने आहारकमिश्रयोग विना १३ तेरयोग सर्व मळी पंचावन हेतु प्रथम गुणस्थानकमां. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७८) तस्वबिन्दु. ५९६ द्वितीय सास्वादन गुणस्थानकमां मूल हेतु त्रण अने उत्तरहेतु पञ्चाश. ६९६ विजा गुणस्थानकमां मूलहेतु ऋण अने उत्तरहेतु तेतालीस जाणवा. अत्रत बार, कषाय एकविश भने योगदश. ५९७ चोथागुणस्शनकमां मूल हेतु त्रण अने उत्तरभेद छेतालीश. बार अवत, एकविश कषाय, अने तेरयोग. ५९८ पांचमा देशविरति गुणस्थानकमां अगियार अवत, सत्तरकषाय, अगियारयोग. मूल हेतु प्रणछे. ५९९ छठा प्रमत गुणस्थानकमां मूलहेतु बे, उत्तरहेतु छन्विश, तेर कषाय, तेरयोग. ६०० अप्रमत्त सातमा गुणस्थानकमां मूलहेतु वे अने उत्तरहेतु चोविश. तेरकषाग अने अगियारयोम. For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दु ( ९) ६०१ अपूर्वकरण आठमा गुणस्थानकमां मूलहेतु ये अने उत्तरहेतु बाविश. योगनवअने कषायतेर. ६०२ नवमा अनिवृत्ति बादर गुणस्थानकमां मूलहेतु वे अने उत्तरहेतु सोळ तेमां कषाय सात अने योग नद. संज्वलनना चार कषाय त्रण वेद ए सात कषायछे. ६०३ नवमा गुणस्थानकमां पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसक ए त्रण वेदनो उदय होपले. आ संबंधो विशेष मनन करी आत्मलक्ष्य राखयो. ६०४ दशमा गुणस्थानकमां मूलहेतु बे अने उत्तरहेतु दश तेमां योग नव अने एक संज्वलननो लोभ. ६०५ अगियारमा उपशम अने वारमा क्षीणमोह गुणस्थानकमां मूल हेतु एक. योगना उत्तरभेद नवछे. For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८०) तत्वविन्दुः ६०६ तेरमासंयोगी गुणस्थानकमां मूलहेतु एक अने उत्तरहेतु पांच अथवा सात. वे वचनना बे मनना अने एक औदारिकयोग. एवं पांचयोग जाणवा. समुद्घातनी अपेक्षाए औदारिकमिश्र अने कार्मण वधे त्यारे सातयोग, चउदमा अयोगी गुणस्था. नकमा एकपण कर्मबंध हेतु नथी. ६०७ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोश्वास, मनो वर्गणा, अने कार्मणवर्गणा ए आठ प्रकारनी वर्गणाछे. ६०८ द्रव्य क्षेत्र काल अने भावथी वर्गणाना चार प्रकारछे तेनुं विशेषावश्यक पत्र १९० थी स्पष्ट स्वरूप दर्शाव्युछे. ६०९ तैजस अने भाषाद्रव्यना आंतरामा गुरुलघु पर्याय विशिष्ट अने अगुरु लघुपर्याय विशिष्ट पुद्गल द्रव्यछे. तैजस आसन्न गुरुलघु द्रव्यछे, अने भाषा आसन्न अगुरुलघु द्रव्यछे. ६१० औदारिक, वैक्रिय, आहारक, अने तैजस द्रव्यो तथा तदाभास अपर सर्व द्रव्यो, बादर अने गुरुलघु स्वभाववाळांछे. For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्वविन्दु. (१८) ६११ भाषा,-श्वासोश्वास, मन, अने कार्मण वर्गणा तथा परमाणु द्वयणुकादि तथा आकाशादि अगुरुलघुपर्याय विशिष्टछे. निश्चय नयमत ॥ ६१२ जे उंचं वातिई फेंकतां तेनु स्वभावथी अधः पतन थाय ते गुरु द्रव्य, जेम इंट आदि. जे स्वभावथी ऊर्ध्वगति स्वभाववाल्छे ते लघुद्रव्य, जेम दीपकलिका. अने जेनो ऊर्ध्वगति स्वभाव नथी तेमज अधोगति स्वभाव पण नथी. पण जे स्वभावे तिर्यग्गतिधर्मकछे ते द्रव्य, गुरुलघु, वायु आदिनी पेठे जाणवू. जे बळीऊर्ध्व अधः अने तिर्यग्गति स्वभावमांथी एकपण स्वभाववाळु नथी. वासर्वत्रजायछे ते गुरु लघु द्रव्य. व्योम, परमाणुआदिछे. इतिव्यावहारिकनयमत. ६१३ निश्चयनयमत वडेतो एकांते सर्व वस्तुगुरुस्वभावविशिष्ट नथी, भारे एवी इंटपण पर प्रयोगथी उंचीजायछे. कोइवस्तु एकांते लघुपण नथी. अतिलघु बाष्पमुंपण करताडनादिथी अधोगमन जोवामां आवेछे. माटे एकांते कोइवस्तुगुरुवालधुनथी जेमाटे आलोकमां औदारिक वर्गणादिक, भूभूधरादिक, बादर वस्तु सर्वगुरु लघुछे. शेषभाषादिव्योमादि अगुरुलघुछे. इतिनिश्चयनयमतम्. For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१५ तबिन्दु ( १८२ ) ६१४ व्यवहारनयवादी कहेले के हेनिश्वयवादी? एकांत गुरुवा एकांतलघु सर्वथा द्रव्य नथी एम तुं कहेछे तेयोग्यनथी. कारणके लघुकर्म जीवनुं सौधर्मदेवलोकादिकमां गमन कछे. भारेकर्मिजीवनुं सप्तमनरकमां गमन शास्त्रमां कछे. सर्वसिद्धांतोएम जाणे. प्राय जीव अने पुद्गलो ऊर्ध्व अने अधोगामिछे. उंचाथी नीचा जायछे ते गुरुताविनाकेम घटे, नीचेथी उंचे जायछे ते लघुता विना केम घटे ? माटे गुरु, लघु, गुरुलघु, अगुरु लघु, ए चार प्रकारे वस्तु ने मानवी जोइए: गुरुता निबंधन अधोगमनछे. अयोगोलादिनं. लघुता निबंधन उर्ध्वगमन दीपकलिकादिनुंळे. गुरुलघुत्वसाध्य तिर्यग्गमन, वायु आदिनुंछे. अगुरुलघुताकारण अवस्थान- स्थिरता, आकाश देवलोकनीछे. इति व्यवहारनयमत. • Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निश्aranवादी प्रत्युत्तर आपेछे. अन्नचिय गुरुलहुया, अन्नो दव्वाणिविरिय परिणामो; अण्णोगइ परिणामो, नावस्सं गुरु लहु निमित्ता ॥ १॥ अत्र योनी गुरुलघुता भिन्न छे, अन्यवी परिणामछे. अने For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. ( १८३ ) तेओनो गतिपरिणामपण अन्यछे, गुरुलघुनिमित्त अवश्यनथी. शाथीते बतावेछे. गाथा. परमलहूण मणूणं, जंगमणम दोवितथ्थकोहेऊ ऊद्धं धूमाईणं, थूलयरइणपि किं कज्जं ॥१॥ किंच विमाणाइणं, नाहोगमणं महागुरूणंपि तणुयर देवोदर, खुबइ किं महासेलं ||२|| जेमाटे परमलघुपरमाणुओनुं अधोगमन पण थायछे. त्यांअधोगति परिणामनी उत्कटताने त्यजीने अन्य कोइपण हेतुनथी. स्थूलतरवादरत्वथी गुरु द्रव्यधुमादिनुं जेऊर्ध्वगमन थायछे त्यां ऊर्ध्वगतिपरिणामने छोडी अन्यकयुं प्रयोजनछे? तेप्रमाणे उत्क अधोगतिपरिणामवडे परमाणुगतलघुतानुं लंघन थयुं. ऊर्ध्वगति परिणामवडे धूमादिगतगुरुतानुं लंघन थयुं गतिपरिणाम वडे गुरुलघुतामां अतिक्रमण उपलक्षणथीजाणवु. • स्थिति परिणामनी उत्कटतावडे पण गुरुतानुं अतिक्रमण दर्शावे छे. गुरुताज जो अधोगति निबंधन कहेशोतो खेदनीवातछेके आनतआदि देवलोक वगेरे महागुरु पदार्थोनुं अधोगमन थतुं नथी. त्यां उत्कृष्टताथी स्थिति परिणामज गुरुतानुं अतिक्रमण करीने ओनी स्थिरता करेछे. तनुशरीरी महावीर्यधारी देवतामाटा पर्वतने पणउंचोउछाळेछे. त्यांपणजोगुरुता अधोगतिनुं एकांतकारणहोयतो उंचोपर्वत For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८४ ) तव विन्दु. नजवोजोइए; पण उंचोउछळेछेमाटे एकांते गुरुता अधोगति कारणनथी. तेमज लघुता एकांत ऊर्ध्वगतिकारणनथी. ते की जणावे छे. विरियं गुरुलहुयाणं, जहाहियं गइविवज्जयं कुणइ || तहगइ दिइ परिणामो, गुरुलहुयाओ बिलंघेइ ||१|| यथोक्त न्यायवडे देवादिगत वीर्य गुरुलघु वस्तुओना गमननो विपर्यय करेछे. देवता पर्वतने उंचो उछालेछे. बाप्प उंची जती होयछे तोपण करताडनादि वीर्यथी नीची जायछे. ते माटे एकांते अधोगति निबंधन गुरुता नयो. तेमज ऊर्ध्वगति निबंधन लघुता नथी. तो शामाटे अधोगत्यादि सिद्धिअ गुरुलघुआदि चतुष्टय मानवा जोइए ? अर्थात् न मानवा जोड़ए. माटे आज परिभाषा युक्तिमतीछे. बादरवस्तु गुरुलघुळे. अने शेष सूक्ष्मवस्तु अने अमूर्त सर्ववस्तु अगुरुलघुछे. इति निश्चयनय कथनम्. ६१६ मनोवर्गणाने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रथी लोकना संख्यातमा भागने देखे. कालथी पल्योपमना संख्यातमा भागने देखे. कर्मवणा द्रव्यने देखतो छतो अवधिज्ञानी क्षेत्रयी लोकना संख्यातमा भागोने देखे. अने कालथी पल्योपमना संख्यात भागोने देखे. (वि) For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. (१८५) ६१७ चउदमा राजलोकने अवधिज्ञानी देखतो छतो कालथी स्तोकोन पल्योपम देखे. कालवृद्धिना सामर्थ्यथी कर्मद्रव्यने अतिक्रमीने तेना उपर ध्रुवादिवर्गणा देखतो क्रमथी परमावधि पामे.(वि) ६१८ जे अवधिज्ञानी तेजस शरीरने देखेछे ते कालथी बे भवथी ते नवभव देखेछे. (वि) ६१९ परमावधौ समुत्पन्ने सति किलान्त महतैनावश्यमेव केवलज्ञान मुत्पद्यते. परमावधिज्ञान उत्पन्न थएछते अन्तर्मुहूर्तमा अवश्य केवलज्ञान उत्पन्न थायछे. (वि) ६२० नारकीओने क्षेत्रथी उत्कृष्ट अवधिज्ञान, योजनप्रमाण होय. जघन्यथी एकगाउ होयछे. योजनप्रमाण, रत्नप्रभा पृथ्वीमा अने एकगाउ प्रमाण सातमी नरकमां (वि) नरकः पहेली. बीजी त्रीजी. चोथी. पांचमी. छठी. सातमी. ऊ. गा. ४ ॥ ३ २॥ २ २ १ ज. गा. ॥ ३ २॥ २ ॥ १ ॥ ६२१ सौधर्म अने इशानकल्पना देवताओ अवधिज्ञानवडे नीचुं प्रथम नरक पर्यंत देखेछे. त्रीजा अने चोथा देवलोकना देवता बीजी नरक सुधी नीचं देखेछे, ब्रह्मलोक अने लांतकलोकना देवता श्रीजी नरक सुधी देखे. सातमा अने आठमा देवलोकना देवता चोथी नरक सुधी देखेछे. नवमा अने दशमा देवलोकना देवता पांचमी नरक मुधी देखे. अगियारमा अने वारमा देवलोकना देवता, विशुद्धतर बहु पर्याय विशिष्ट पांचमी नरकने For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८६) तत्वबिन्दु. AAA देखे. नवग्रैवेयकना अधस्त्य मध्यम ग्रैवेयक देवताओ छठी नरक सुधी देखे. अने उपरितन ग्रैवेयक देवो सातमी नरकने देखे. अनुत्तरविमानवासी देवताओ संभिन्न अने चारे दिशामां पोताना ज्ञानवडे व्याप्त, कन्याचोलक संस्थान एवी लोकनाडीने अनधिज्ञानवडे देखे. वैमानिकन अधोक्षेत्र विषयक अवधिज्ञान कडं. तिच्छे अने उचं पण गुरुगमथी धारी लेवु (वि) ६२२ द्रव्यथी परभावधिज्ञानी सर्वरूपि द्रव्यने देखे. क्षेत्रथी परभाव विज्ञानी अलोकमां पण लोकप्रमाण खांडवां देखे. एटलुं सामर्थ्य बताव्यु. कालथी अवधि असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीने देखे. भावथी अवधिज्ञानीः रूपिद्रव्यगत असंख्यात पर्यायने देखे. चउदराजने देखतो छतो अवधिज्ञानी प्रतिपाती अने अलोकनो एक आकाश प्रदेश देखतो अप्रतिपाति अवधि ज्ञानी जाणवो. ६२३ अवधिज्ञानी परमाणु आदि देखे त्यारे अवश्य वादर द्रव्यने देखे. अने बाहर द्रव्य देखतां मूक्ष्मद्रव्य देखे एवो नियम नथी. ६२४ मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि मूक्ष्मण्यपि पश्यति चिन्तनीयंतु घटादि स्थूरमपिन पश्यति. मनापर्यवज्ञानी भूक्ष्मपण मनोद्रव्योने जाणेछे. चिन्तनीय घटादि स्थूलछे तोपण तेने देखी शकतो नथी. For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्वविन्दु. (१७) ६२५ गाथा. अणुगामिय आही, नेरझ्याणं तहेवदेवाणं । अणुगामि अणणुगामी, मीसोय मणुस्स तेरिथ्थे । अनुगामि अवधिज्ञान, नारको अने देवोने होयछे. अनुगामी अननुगामी अने मिश्र ए त्रग प्रकारर्नु अवधिज्ञानछे ते मनुष्यो अने तिर्यंचोनेछे. जघन्यथी अवधिज्ञाननो उपयोग एक समयनो जाणवो गाथा. ६२६ खित्तस्त अवठाणं, तेत्तीसं सागरा कालेणं; दब्बे भिन्नमुहुत्तो, पज्जवलीय सत्ता ॥ १ ॥ अनुत्तरदेवो जे क्षेत्रमा जन्म समये रहेछे त्यांज भवक्षय पर्यंत रहेछे तेथी अवधि संबंधि एकत्र क्षेत्रमा तेत्रीस सागरोपम सुधी अवस्थानछे. उपयोगयी अवधिज्ञान- द्रव्यक्षेत्र आश्री भिन्न मुहर्त अवस्थानछे. भिन्नमुहूर्तमेवावस्थानं नपरतः सामर्थ्या भावात् तत्रैव द्रव्ये येपर्यवाः पर्यायधस्तिल्लाभे पर्यायात् पर्यायांतरंच संचरतो अवधेस्त दुपयोगे सप्ताष्टौवा समयान् अवस्थानं न परतः ॥ ते द्रव्यमा जे पर्यायछे तेना लाभमां पर्यायथी पर्यायांतरमा जनार अवधिना उपयोगमां सात, आठ समयपर्यंत अवस्थान होय. ते उपर नहीं. केटलाक तो कहेछे के पर्याय बे प्रकारेछे. गुण अने पर्याय. तत्रसहवर्ति गुणछे. शुक्लादि. अने क्रनवति पर्यायोछे. नव पुराणादि. तेमां गुणोमां आठ समयपर्यंत, अवधिज्ञानना उपयोगर्नु अवस्थानछे. अने पर्यायोमा सात समय पर्यंत अवधिज्ञानना उपयोग, अवस्थान For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (106). तस्वबिन्दु. छे. स्थूलद्रव्यछे तेथी त्यां अन्हुर्मुहूर्त अवधिज्ञान उपयोगस्थितिछे. गुणो तेथी मूक्ष्मछे तेथी तेओमां आठ समय. अने गुण करतां पण पर्याय मूक्ष्मछे तेथी त्यां सात समय पर्यंत अवधिज्ञानना उपयोगर्नु अवस्थान कां. २२७ अवधिज्ञानमांषद्गुणभागनी हानि वृद्धि संभवेछे, तेनुंध्यान करवू. २२८ अवधिज्ञानमा फड्डक होयछे. एकजीवने संख्यात अने असं ख्यात फड्डक होयछे. फड्डक त्रण प्रकारनाछे. अनुगामिक अननुगामिक,अने अनुगामिक अननुगामिक उभयमिश्र. ए त्रण फड्डक पण वळी त्रण प्रकारे होयछे. प्रतिपाती, अप्रतिपाती अने प्रतिपाती अप्रतिपाति उभयरूपमिश्र, ते मनुष्य अने तिर्यंचना अवधिज्ञानमां होयछे. देव अने नारकमां नथी. प्राय अनुगामिक अप्रतिपाति फड्डको, तित्र विशुद्धि युक्तपणाथी तीव्र कहेवायछे. अननुगामि प्रतिपाति फड्डको तो अविशुद्धताथी मंद कहेवायछे. मिश्र तो मध्यम कहेवायछे. (वि) ६२९ अपवरक जालकांतरस्थप्रदीपप्रभापमफडकावधि ज्ञान होय छे. (वि.) अपवरकादिनालकांतरस्थ प्रदीप प्रभा निर्ग मस्थानानीवावधिज्ञानावरणे क्षयोपशमजन्यान्यवधिज्ञान निर्गमस्थानानीहफडुकान्युच्यन्ते ॥ ६३० नवौवेयकमां अभवी तथा भवी मिथ्या दृष्टि देवता छे तेने विभंग ज्ञान होयछे. For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ तत्वविन्दु. (१८९) ६३१ श्रेणिद्वयमा वर्तमान वेदक, अपायक, एवा केटलाकने अव विज्ञान उत्पन्न थाय छे. जेओने अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं नथी एवा मति श्रुत चारित्रवाळाओने प्रथम सातमा गुण स्थानकमां मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न चाय छे तेवा मनःपर्याय ज्ञानियो पण केटलाक पाछळथी अवधि ज्ञानना अंगीकार करनाराओ थायछे. ( वि.) गाथा. उदय खय खवसमो, वसम समुथ्था बहुप्पगाराउ एवं परिणामवसा, लकी होति जीवाणं १ उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशमी थएली बहु प्रकारवाळी लब्धियो, परिणामवशे जीवोने उत्पन्न थायछे. (वि.) ६३३ रुजुमति अने विपुलमति अभव्य पुरुष अने स्त्रीने पण होय नहीं. (वि) ६३४ चक्रवर्ति, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, ए भव्य होय छे अने अर्ध पुद्गल परावर्तनकालमा मुक्ति जायछे. ६३५ सामायक चारित्रमा कर्म बंधमां मूल हेतु बे. छे, अने उत्तर हेतु छब्बीशछे. तेर योग अने तेर कपाय ॥ छेदोपस्थापनीय, पण ते प्रमाणे जाणवू. परिहार विशुद्धि चारित्रमा कर्म बंधावाना मूल हेतु बे अने उत्तर हेतु एकवीश. वार कपाय तेमां स्त्री वद विना आठ नोकषाय, अने चार संज्वलनना तेमज योग For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६३६ ( १९० ) तरवधिन्दु. नव जाणवा. सूक्ष्म संपराय चारित्रमां मूल हेतु वे अने उत्तर हेतु दश, तेमां एक संज्वलननो लोभ अने नव योग जाणवा. यथाख्यात चारित्रमां मूळ हेतु कर्म बंधनमां एक छे. अने उत्तर हेतु अगियार. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोक. यथा प्रकारा यावन्तः संसारावेश हेतवः तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेश हेतवः || १ || जे प्रकारना जे जे संसारना हेतुओछे तेज विपर्यासपणाने पामेला मुक्तिना हेतुओछे. जे जे कर्म बंधना हेतुओछे ते तेज कर्म नाशना हेतुओछे. ६३७ संमति निश्रय समकित प्रगटी शकेळे अने तेना हेतुओछे. ६३८ हे त्रिशलानन्दन वीराधिवीर !!! व्यवहार चारित्र स्वीकारी तमोर तेमां एकांतवास सेव्यो. तेमां निःसंगतानी मुख्यताए ध्यानमा निमनताज मुख्य उद्देश संभवे छे. ६३९ अज्ञानिन सहुधी बुरी एकान्त, ज्ञानयुद्ध व्यानीने सहुथी शुरी एकान्त. ६४० ध्यानमां विनकारक, भय अने लज्जानो परिहार कर, For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वबिन्दु. ६४१ बहु आलाप अने अयोग्यने उपदेश आपवानी टेव भूल. ६४२ समय अने पात्र विना गुह्य मूक्ष्मतत्त्व प्रकाशीश नहि. !!! ६४३ जीव जीत्र प्रति भिन्न भिन्न कर्मछे. क्षयोपशम पण भिन्नछे. अनादि कालथी मिथ्यात्व अने समकित, जगतमांछे. ६४४ संघयण, काल, ज्ञान अने मनोबलनी योग्यताथी ध्यान थइ शकेछे. ६४५ ज्ञाननी अनन्त शक्तिछे. ज्ञानि गुरुनो समागम अति दुर्लभछे. अज्ञानी, ज्ञानिने पारखी शकतो नथी. ६४६ धलना ढगलामांथी खांडना कणिया शोधी काढबाना करतां आ शरीररुपी पुद्गल ढगलामा व्यापी रहेला आत्माने ध्या. नोपयोगथी शोधी काढवो ते अति दुर्लभ कार्यछे. ६४७ अज्ञानी जीव जे शरीरना उपर ममत्वभाव राखेछे तेना क रोड अंशे पण आत्मा उपर राखतो नथी. ज्ञानी आत्मामांज रमणता करे छे. ६४८ अप्रति वद्ध विहारथी ज्ञानीने सहज दशानो अनुभव थायछे. ६४९ क्रिया शास्त्रछे अने ज्ञान योद्धोछे. For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१९१) तत्वबिन्दुः ५५० हे आत्मन् तुं ज्ञानदर्शन चारित्रमयछे.तुं बाह्य दृश्यपदार्थमां नथी. चतुर्दश गुण स्थानकमां पड़ गुण भागनी हानिवृद्धि संभवेछे. ६५१ जीवना पांचसो त्रेसठ अने अजीवना पांचसो त्रीस भेद थायछे. षड्मुव्य, नव तत्त्व, सातनय, सप्तभंगी आदि तत्त्वनुं स्वरूप प्ररूपनार त्रिशला नन्दन सर्वज्ञ श्री वीरप्रमुछे, तेमने त्रिकरणयोगे द्रव्यभावे अनन्तशः वन्दन थाओ. ६५२ योगियोने ध्यानभक्ति प्रतापे धरणेन्द्र अने पद्मावती प्रत्यक्ष थायछे एवा जेना शासन देवताओछे. ते श्री पार्श्वनाथ भगवान्, आत्मानी अनन्तशक्तिना प्रकाश माटे थाो. सकलविघ्न वृन्दनो क्षय करी परममंगलमा ध्येयरूप निमित्तपणे परिणमो. पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत ध्यानथी पार्श्वप्रभुने भेदाभेदपणे ध्यावतां मूर्य प्रकाश विस्तारनी पेठे पदे पदे अनन्तशक्ति प्रताप विकास थाओ अने अनन्त मंगलधामभूत आत्मा थाओ. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः इतिश्री योगनिष्ठ मुनि महाराजश्री बुद्धिसागरजी विरचित तत्त्वबिन्दु ग्रन्थ समाप्तः मुकाम. अमदावाद झबेरी वाडो. आंवली पोळनो उपाश्रय. सं. १९६६ मागसर शुदी ५ शुक्रवार. लि. मुनि, बुद्धिसागर. For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only