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( ९८ )
तस्वधिन्दु.
२९० क्षायिक वेदक समकित-गर्भज-मनुष्यना पर्याप्ताना पन्नरभे
दमां पामौए-छप्रकृतिनो क्षायिकभावे क्षय करे, अने समकितमोहनीयना चरमदलिक एक समये वेदीने क्षायिक पामे तेने क्षाविकवेदक समकित कहेछे-नरकगति, तिर्यचगति अने देवतानीगति ए त्रणगतिमां परभवतुं आवेलं क्षायिक समकित होय.
२९१ सास्वादन सम्यक्त्व-मनुष्यना वसेनेबेभेद गर्भज पर्याप्ता अने
अपर्याप्ता-देवताना एकशोसित्तेर भेदमा पर्याप्ता अने अपर्याप्तावस्थामां पामीए. नवलोकांतिक अने पांच अनुत्तरविमानना देवोमा सास्वादन समाकित न पामीए. नरकगतिमां सात पर्याप्त भेदमां पामीए. तिर्यचगतिमां एकवीश भेदमां समकित पामीए. पांचतिर्यंच पंचेन्द्रियगर्भजना पर्याप्ता अने अपर्याप्ता मळीने दशभेद-समुर्छिम तिर्यंच पञ्चेन्द्रियना पांच भेदमां अने त्रणविकलेन्द्रिय ए आठमां अपर्याप्तावस्थामा पामीए, तथा पृथ्वी, अप , वनस्पतिनी अपर्याप्तावस्थामांत्रण भेद. सर्व मळी चारसे भेद थाय.
२९२ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
अने समाधि-एवं योगनां आठ अंग छे सम्यग्दृष्टि जीवने आ आठ अंग, सम्यग् पणे परिणमे छे.
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