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श्री प्रतिक्रमण सूत्र - चित्र - आल्बम
प. पू. आचार्यदेव श्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज
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|| ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः ।। ।। श्री आत्म-कमल-वीर-दान-प्रेम-भवनभानुसूरिभ्यो नमः ।।
श्री. प्रतिक्रमण सूत्र-चित्र-आल्बम
*लेखक-संयोजक *
परम पूज्य सकलसंघहितचिंतक A कलामर्मज्ञ युवाजनोद्धारक आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहेब
AHARASHTRA
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* प्रकाशक * दिव्यदर्शन ट्रस्ट ३९, कलिकुंड सोसायटी, धोळका, (गुजरात)-387 810.
* मार्गदर्शन * | परम पूज्य वैराग्यदेशनादक्ष आचार्यदेव श्री विजय हेमचंद्रसूरिजी महाराज के शिष्य
पूज्य मुनिश्री संयमबोधिविजयजी महाराज
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वीर संवत २५३४
विक्रम संवत २०६४
मूल्य : रु. १००/
पुस्तक प्रकाशन के अधिक साहयानी प.पू. वैराग्यदेशनादक्ष आचार्य श्री विजयहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब
के वि.सं. २०६३ के पावापुरी तीर्थधाम (राजस्थान) में हुए
चातुर्मास अंतर्गत भीष्म तपस्वी श्रमणोपासिका रतनबेन बाबुलाल पूनमचंदजी संघवी के लगातार चौदवे वर्षीतप में
७५ मौनपूर्ण उपवास की अभूतपूर्व तपश्चर्या की अनुमोदनार्थ श्री के.पी. संघवी परिवार सुरत, मुंबई, मालगांव (राज.)
मुंबई-माटुंगा निवासी जयकुंवरबेन अमृतलाल रामजीभाई शाह (कुतियाणावाले)
प्रेरक : श्रीमती कल्पनाबेन नरेशभाई शाह
HTHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHin
MIHIRIRIRIHIRAINRIमामामामामामामामामामामाम
* प्राप्तिस्थान * दिव्यदर्शन ट्रस्ट
कुमारपाल वि. शाह
मयंकभाई पी. शाह 39, कलिकुंड सोसायटी, 119/21, बोराबझार स्ट्रीट, धोळका,
पहला माला, " (गुजरात)-387 810
मुंबई-400 001. फोन : 02714-225482
फोन : 2266 6363 दिव्यदर्शन भवन काळुशीनी पोळ, काळुपुर,
अमदावाद-380 001.
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प्रकाशकोय
साधु एवं श्रावक के जीवन में नवकार-जाप-ध्यान स्मरण, २४ तीर्थंकर स्तुति, चैत्यवन्दन एवं प्रतिक्रमण क्रिया व कायोत्सर्गादि नित्य कर्तव्य हैं । इनके सूत्रों का स्मरण या उच्चारण अर्थ-चिंतन के साथ करने पर भी मन ऐसा गद्गद भावभीगा व स्थिर नहीं होता है । इसको स्थिर व भावभिंगा करने का एक प्रबल साधन चित्र है । सूत्रों के पद-गाथाओं के पदार्थचित्र मन के सामने आने पर मन इन्हें देखने में पूरा लग जाने से स्थिर होता है व हुबहु दृश्य सामने आने से भाव से भिंग जाता है |
आज के चित्रमय जगत में चित्रों पर से भाव पैदा करना बहुत प्रचलित है । सो शब्द जो काम नहीं करते हैं वह एक चित्र करता है । शाला की किताबों में बच्चे लोगों को चित्रों से भावान्वित किया जाता है | व्यापारी वर्ग लोगों को अपने माल के भाव से भावित करने हेतु सचित्र विज्ञापन करते है, और विज्ञापन के चित्र से जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता है । अहिंसा मद्यनिषेध आदि का प्रचार करना हो तो भी चित्रों के द्वारा लोगों को भावित किया जाता है, व इससे प्रचार अच्छा होता है । मात्र कथा सुनते हुए जो भाव नहीं आता वह उसका सिनेमा-चित्रपट देखते हुए तथाविध भाव उत्पन्न होते दिखाई पड़ता है । चित्रपट की कथानक मात्र सुनने से जो असर नहीं होता वह चित्रपट देखने के बाद भी गहरा व दीर्घकाल तक का असर अनुभव सिद्ध है | मतलब, चित्र अच्छा भावोत्पादक होता है
चैत्यवंदन-प्रतिक्रमणादि साधना में भी यही सिद्धान्त क्यों न काम करे ? वहां भी सूत्रार्थ का विस्तार शब्दों से कितना भी दिखाओ, किन्तु इसकी अपेक्षा 'सो शब्द व एक चित्र' के हिसाब से सूत्र के अर्थ का चित्र यदि सामने आ जाय तो वह भाव पैदा करने में अधिकतर व अद्भुत काम करेगा । आज जब भौतिक व वैषयिक चित्रों द्वारा प्रजा के भाव भौतिकता-मग्न व विषय-विलासी बनाये जाते हैं तब क्या यह आवश्यक नहीं कि प्रजा में आध्यात्मिक चित्रों द्वारा गहरे अध्यात्मिक भाव पैदा किये जाए? अगर ऐसा नहीं किया, तो भौतिकता व विषयविलास के पोषक चित्रों द्वारा प्रभावित किये गए व ठोस भौतिकता भरे लोगों के दिल में धार्मिक-आध्यात्मिक भाव का साम्राज्य होना मुश्किल है, एवं धार्मिक क्रिया व सूत्रअर्थ मात्र से दिलचस्पी व हृदयकंपी संवेदन हो सकना भी कठिन है।
इसीलिए आज के युग में मात्र सूत्रचित्र ही नहीं, किन्तु धर्मकथा चित्रों का निर्माण भी बहुत आवश्यक बन गया है । जिनमंदिर व उपाश्रय कितना भी भव्य हो, किन्तु बिना ऐसे चित्रों से अलंकित किए गए वे, आज के चित्र-चित्रपटों द्वारा केवल भौतिक भावभरे लोगों को, ऐसे आध्यात्मिक भावभरे कैसे कर सके ? और छोटा भी मंदिर, चित्रों से अलंकृत हो, तो दिल को गद्गद कर देता है व भावभरा बनाता है, यह दिखाई पडता है । देवद्रव्यादिका संग्रह करने के बजाय उस मंदिर को ऐसे सोनरी एम्बोस्ड व काचकाम युक्त भगवान के जीवन के चित्रों से सुशोभित व इन्द्रभवन तुल्य बनाने में क्यों न लगाया जाए ? इस से जैन संस्कृति व जैन इतिहास का भी संरक्षण रहेगा।
एक और भी महान लाभ यह है कि आजकल जैन बच्चों को धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती है, इससे वे बड़े होने पर भी जैन संस्कृति व जैन प्राचीन महापुरुषों के ज्ञान से बिलकुल वंचित रहते हैं । उनके सामने अगर ऐसे धार्मिक चित्र रखे जाए तब वे उन्हें दिलचश्पी से देखेंगे व बोध पाएँगे और आध्यात्मिक भाव का संवेदन करेंगे ।
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इसके लिए मात्र मंदिर-उपाश्रय में ही चित्र नहीं किन्तु कथाचित्रों के आल्बम भी बहुत उपयोगी है।
यह चित्रावलि पुस्तक चैत्यवन्दनादि के सूत्रों के पदार्थों को हुबहु व्यक्त करता है । प्रत्येक चित्र को ध्यान में लाने से सूत्र का भाव मनके सामने दिखाई पड़ता है । उदाहरणार्थ 'नमो अरिहंताणं' पद बोलते या याद करते समय उसके भाव की आकृति रुप में सामने अनंतानंत अरिहंत भगवान समवसरण पर बैठे हुए व अष्ट प्रातिहार्य युक्त दिखाते है । एवं 'नमो सिद्धाणं के वक्त सामने शुद्ध-बुद्ध-निर्विकार अनंत सिद्ध भगवान दिखाई पड़े । वहां मन तन्मय व भावोल्लास भरा क्यों न बने ? मात्र क्रियाएँ नहीं किन्तु असद विचारों को रोकने के लिए व ध्यान करने के हेत भी ये चित्र अत्यन्त उपयुक्त हैं।
पूज्य आचार्यश्री विजयभुवनभानुसूरिजी महाराज ने अपनी क्रियाएँ ऐसी बनाने के लिए सोचते सोचते इन चित्रों की कल्पना की थी, व चित्रकार उद्धवराव, कैलास शर्मा एवं श्यामसुन्दर शर्मा के पास इनको आकार दिलाया था । पूर्व की आवृत्तिमें इन चित्रों के ४ कलर ब्लोक कलकत्तापुष्पा परफ्युमरीवाले श्री जयसुखभाई ने बहुत परिश्रम लेकर मुद्रित किये थे । उस पूर्वावृत्ति के संपादन में पू. पंन्यासजीश्री पद्मसेनविजयजी म. ने काफी परिश्रम किया था । वर्षों से पुस्तक अनुपलब्ध बन चूका था । पुस्तक की अतीव उपयुक्तता देखकर तथा लोगों की मांग के कारण पुनः मुद्रण का निश्चय किया गया । नूतन कोम्प्युटर टेकनोलोजी चित्रों के रुप को काफी निखार दे सकती है ऐसा जानकर चित्र-कल्पना तथा संयोजन वैसा ही रखकर, पूज्यश्री के विचार तथा भाव के अनुरुप ही सब चित्रों के रुप-रंग बदल दिये गये हैं। नूतन आवृत्तिमें चित्रकला संयोजन तथा संपादन में वैराग्यदेशनादक्ष परम पूज्य आचार्यदेव श्री विजयहेमचंद्रसूरिजी महाराज साहेब के शिष्य पूज्य मुनिराजश्री संयमबोधिविजयजी म. का बहुत योगदान रहा है । चित्रसंपादन में विद्वदग्रणी शासनप्रभावक पूज्य पंन्यासजी श्री अजितशेखरविजयजी महाराज का भी सहयोग मिला है। अन्य कइ महात्माओं का भी मार्गदर्शन मिला है । उन सबके प्रति कृतज्ञभाव व्यक्त करते हैं ।
पुनर्मुदित नूतन आवृत्ति भी अल्प समयमें ही अनुपलब्ध हो जाने से वंदित्तु सूत्र और भरहेसर सूत्र के भावानुवाद और चित्रसंयोजन सह नूतनतम आवृत्ति प्रकाशित हो रही है । दोनों सूत्रों के भावानुवाद और चित्रों की कल्पना-संकलन और संपादन प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजयजयघोषसूरीश्वरजी महाराज साहेब के अमूल्य मार्गदर्शन से प.पू. वैराग्यदेशनादक्ष आचार्यदेव श्रीमद् विजयहेमचंद्रसूरिजी महाराज साहेब के शिष्य पू. मुनिश्री संयमबोधिविजयजी महाराज ने किया है । हम उनके ऋणी है ।
राजुल आर्ट्सवाले कीर्तिभाई, राजुभाई और उनके सहयोगीयों ने कडी महेनत कर पुस्तक को अच्छी तरह निखारा है । उनके भी हम आभारी हैं | पुनर्मुद्रण में इस पुस्तक में क्षतियां रह गइ हो तो सुबुद्ध जन हमें ज्ञात करें ताकि उसे परिमार्जित की जाए। आशा है चतुर्विध संघ इस पुस्तक का सदुपयोग करे।
दिव्यदर्शन ट्रस्ट की ओर से
कुमारपाल वि. शाह
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प्रास्ताविक
मानव जीवन ही धर्म द्वारा जन्म-मृत्यु व कर्म की महाविटंबणाओं का अन्त लाने में समर्थ है। ऐसा जीवन पाने पर भी, बिना धर्म, इन विटंबणाओ की धारा अगर चालू रह जाए, पुष्ट हो बढ जाए, तब तारक मानवजीवन कितना भारी मारक बने ? महाविटंबणाओं का अन्त तभी हो सके कि जीवन धर्ममय हो ।
धर्म जिनाज्ञा-प्रतिबद्ध हैं, जिन यानी वीतराग सर्वज्ञ भगवंत के वचन के स्वीकार व पालनस्वरुप धर्म हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ ही समस्त अनंतकाल के सर्व द्रव्य-पर्यायों के यथार्थ द्रष्टा होने से संसार-मोक्ष के ठीक कारणों को देखते हैं, व ठीक मोक्षोपयोगी विधि-निषेध फरमाते हैं । उन वचनों का (१) अश्रद्धान, या (२) विपरीत प्रतिपादन एवं (३) वचन से निषिद्ध कार्यों का आचरण, या (४) वचन-विहित कर्तव्यों की उपेक्षा, ये चार अपराध जीव को अशुभ कर्मों से बांधते हैं, फलतः भव-भ्रमण कर्म व जन्म-मरणादि विटंबणाएँ खडी होती है ।
यहाँ इनसे बचने हेतु प्रतिक्रमण धर्म की महा उच्च उपयोगिता अवसर प्राप्त होती है । प्रतिक्रमण यह दर असल सामायिकादि छः आवश्यकों के अन्तर्गत एक आवश्यक है, और इसका अर्थ है पाप अपराधों से पीछे हटना, उनकी निंदा-गर्हा-पश्चात्ताप करना । यह करने के लिए पहले दिल में 'समभाव, देववंदन व गुरुवंदन आवश्यक हैं। व बाद में प्रतिक्रमण कर के प्रतिक्रमण का कार्य पापनाश सूक्ष्मता से भी हो जाए इस लिए "कायोत्सर्ग व पच्चक्खाण जरुरी है । इसलिए इन छहों आवश्यकों का नाम प्रतिक्रमण भी कहलाता है ।
इससे उन चारों प्रकार के अपराधों की शुद्धि होती हैं। प्रतिक्रमण सूत्रो में ऐसे ऐसे अपराधों के निर्देश के साथ उनकी निंदा-गर्हा-पश्चात्ताप वर्णित है । प्रतिक्रमण की फलश्रुति के बारे में और भी बात है,
'प्रतिक्रमण' अर्थात् आवश्यक क्रिया यह एक मोक्षसाधक महान योग है। जीव मिथ्यादर्शन, पाप-अविरति, कषाय व अशुभ प्रवृत्ति के कारण अनंत काल से इस जन्म मरणादि महा विटंबणा भरे व दुःख-यातना भरे संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इसलिए सहज है कि संसार प्रतिभ्रमण के इन कारणों के प्रतिपक्ष सम्यग्दर्शन, पाप-विरति, उपशम व शुभ प्रवृत्ति का अवलंबन करे तो संसार-कारण छूट जाने से संसार छूट जाय, व मोक्ष प्राप्त हो जाए ।
मोक्ष-साधक इन सम्यग्दर्शनादि की साधना 'प्रतिक्रमण' क्रिया में उत्तम कोटि की होती है। क्योंकि इस में जो सामायिकादि छः आवश्यकों की आराधना करनी होती है उस आराधना में सम्यग्दर्शनादि की साधना 'प्रतिक्रमण' क्रिया में उत्तम कोटि की होती है। क्योंकि इस में जो सामायिकादि छः आवश्यकों की आराधना करनी होती है उस आराधना में सम्यग्दर्शनादि की साधना इस प्रकार समाविष्ट है, -
(१) 'सामायिक' आवश्यक में सर्व सावद्य (सपाप) योगों के त्याग की यानी पापविरति की प्रतिज्ञा की जाती है, व समभाव यानी उपशम की संकल्पपूर्वक आराधना में समाविष्ट है। (२) 'चतुर्विंशति' आवश्यक में चौबीस व अन्य तीर्थंकर भगवंतों की स्तवना व प्रार्थना की जाती है, इससे देवतत्त्वादि के सम्यक् श्रद्धान स्वरुप सम्यग्दर्शन निर्मल होता है । (३) 'वंदन' आवश्यक में गुरु के प्रति विस्तार से सुखशातापृच्छा व गुर्वाशातना की क्षमायाचना स्वरुप वंदन करने से अहंत्वादि-कषायनाश व शुभ प्रवृत्ति होती है । (४) 'प्रतिक्रमण' आवश्यक में समस्त पापों-दोषों की निंदा-गर्हापश्चात्ताप करना होता है। इसमें (i) मिथ्यात्वादिजनित पूर्व पापों का नाश, (ii) पुनः मिथ्यात्वादि के प्रेरक अनुबंधों का व (iii) सम्यग्दर्शन-सर्वविरति के भाव उत्तेजित होते हैं । (५) 'कायोत्सर्ग' आवश्यक में नियत ध्यान के सिवा समस्त मन-वचन-काया के योग (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वह भी प्रतिज्ञापूर्वक, अतः इससे सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्र व कुछ अयोग अवस्था की आराधना होती है । (६) 'प्रत्याख्यान' आवश्यक में उपवास आदि तप का संकल्प किया जाता है । इससे तपधर्म व विरति की साधना होती है ।
नाश,
ऐसे एक ही प्रतिक्रमण में सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग की कई उच्च साधना होती है, इसलिये यह महान योगसाधना है । इसकी भाव से आराधना होवे इस लिए जिनागम में 'तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसाणज्झवसिए, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे' इस प्रकार छः बातें बहुत आवश्यक बताई गई है। इनमें अर्थात् प्रतिक्रमणार्थ जो जो क्रिया की जाती है उस प्रत्येक में (१-२) चित्त का सामान्य-विशेष उपयोग-प्रणिधान रहे, (३-४) सूत्र- क्रियानुसार लेश्या व ध्यान रहना चाहिए। (५) सूत्र के पदार्थ में चित्तोपयोग रहे, व (६) सूत्रोच्चारण व क्रिया में आवश्यक उपकरण मिलाने चाहिए ।
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इन उपयोग-लेश्या-ध्यान को मन में सुचारु रुप में लाने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रत्येक सूत्र का पदार्थ मन के सामने लाया जाए । उदाहरणार्थ,
(१) 'नमो अरिहंताणं सूत्राक्षर बोलते समय अष्टप्रातिहार्य युक्त अनंत अरिहंत मन के सामने देखें व उनके चरण में नमस्कार करते हुए हमारे अनंत सर देखें, प्रत्येक के चरण में हमारा एकेक सर झुका हुआ दिखाइ पडे । वैसे 'नमो सिद्धाणं' आदि बोलते समय सिद्ध भगवान आदि हरेक परमेष्ठी अपने अपने पोझ में दिखाइ पडे । जैसे कि, सिद्ध सिद्धशिला पर, आचार्य पाट पर आचार-प्रवचन करते हुए, उपाध्याय साधुमंडली को पढाते हुए, साधु कायोत्सर्ग-ध्यानमें खडे रहे दिखे।
(२) 'लोगस्स' सूत्र में पहली पंक्ति के उच्चारण समय सामने २४ व अन्य अनंत तीर्थंकर एवं उनके आसपास व पीछे अन्य अनंत तीर्थंकर लोकालोकमय सारे विश्व को ज्ञान-प्रकाश करते हुए सूर्य समान दिखे । 'धम्मतित्थयरे' पद से सभी भगवान समवसरण पर उपदेश करते हए दिखे | 'जिणे' पद से सभी कायोत्सर्ग ध्यान में रागद्वेष का विजय करते हए, 'अरिहंत' पद से सभी अष्ट प्रातिहार्य युक्त दिखाई पडे । २-३-४ गाथा से प्रत्येक पद में निर्दिष्ट संख्या के अनुसार भगवान दिखाई दे जैसे कि 'उसभमजियं च' गाथा से क्रमशः नीचे नीचे २,३,२,१यों ८ भगवान दिखे।
(३) 'नमोत्थुणं अरिहंताणं' सूत्र में 'अरिहंताणं' के वक्त अष्ट प्रातिहार्य युक्त भगवान 'भगवंताणं' के वक्त सुवर्णकमल पर पैर रखे इत्यादि ऐश्वर्यवाले भगवान दृश्यमान हो ।
(४) 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र में 'जो देवाण वि देवो' पद से वीर प्रभ को देवो के भी देवरुप में दिखलाना है, कैसे देखें जाए? यों, महावीर परमात्मा विहार में आगे चले आते व उनकी सेवा में क्रोड देवता हाथ जोड चले आते देखें। ऐसा देखने से पता चलता है कि प्रभु देवों के भी देव है। 'जं देवा पंजलिं...' में सामने आकाश में से झुके हुए देवता उतरते देखें । 'तं देवदेव-महियं' से (देवदेव इन्द्र, महिय-पूजित) प्रभु के दो बाजू इन्द्र चंवर ढालते हुए दिखें ।
इस प्रकार चित्रों के द्वारा सूत्र-पदार्थ सामने दिखाई पड़ने से मन तन्मय व भावभरा बनता है । चित्रों की यह महिमा अन्य धर्मक्रियाओं में भी लागू होती है । कारण यह है कि,
धर्म चित्त की विशुद्ध परिणति है, चित्त की विशुद्धि है | विषयों का व कषायों का आवेश रोकने से चित्त में वह विशुद्धि प्राप्त होती है । इसलिये जीवन धर्ममय बनाने के लिए ऐसी विशुद्धि यानी विशुद्ध परिणतिमय चित्त बनाना जरुरी है । सामान्य नियम यह है कि जैसा संयोग व जैसी क्रिया, चित्त वैसे भाववाला बनता है इसके अनुसार दुन्यवी धन-परिवारादि के संयोग में व आरम्भ विषय-परिग्रहादि की क्रिया में राग-द्वेषादि काषायिक भावों से युक्त बनेगा । जब कि वीतरागदेव, त्यागी गुरु, तीर्थ इत्यादि के संयोग में एवं देवदर्शन-पूजन, जीवदया, साधु-समागम, शास्त्र-श्रवण, तप-जप-दानादि साधना के समय मन के राग-द्वेषादि दबकर विशुद्ध परिणति जाग्रत होती है इसलिए विशुद्ध परिणति के कारणभूत ये देवदर्शनादि भी धर्म कहलाते हैं।
प्र०-'देवाधिदेव आदि का संयोग मिलने पर भी व देवदर्शनादि साधना करते समय भी मन क्यों चंचल रहता है ? क्यों वह अन्यान्य विषय में जा कर राग-द्वेषादि में पड़ता है ?'
उ०-जीव को जिसका ज्यादा रस है उसमें मन बार बार जाता हैं । अगर मन को धर्म में स्थिर करना हो तब दुन्यवी विषयों का रस घटाया जाए व धर्म साधना का रस बढाया जाए यह अति आवश्यक है । विषय रस घटाने के लिए विषयों में वैराग्य-नफरत-अनास्था व आत्महितघातकता का दर्शन बढ़ाया जाए व धर्म-साधना अतीव आत्महितकारक होने से इसमें अत्यंत उपयुक्तता-उपादेयता की भावना दृढ की जाए । इसके लिए तादृश कल्पना-चित्र खड़ा किया जाए। उदाहरणार्थ, नवकार-स्मरण के समय मनके सामने अनंत अरिहंत, अनंत सिद्ध आदि क्रमशः देखे जाए । देवदर्शन के समय प्रभु को समवसरण पर बैठे हुए व अष्ट प्रातिहार्य आदि सर्व शोभा से युक्त देखे जाए । एवं स्तुति के समय इसके अनुसार मन के सामने चित्र खड़ा किया जाए। प्रभप्रक्षालादि के समय मेरुपर्वत पर इन्द्र अभिषेकादि करते दिखाई पड़े । चैत्यवंदन में प्रत्येक सूत्र-गाथा इसका चित्र देखकर ही बोली जाए । जैसे कि, इरियावहियं बोलते समय कोर्ट के समक्ष खूनी के इकरार का चित्र देखा जाए, 'जं किंचि०' बोलते समय जगत के तीर्थ व जिनप्रतिमा देखे जाए ।
- इसीलिए यह चित्रावलि (आल्बम) है। इसमें सूत्रों के पद पद या गाथा गाथा का चित्र बताया गया है । बार बार यह देखने से सूत्र बोलते समय मनके सामने सरलता से वह उपस्थित हो जाता है, यह देखने में मन तन्मय हो जाने से बाह्य विषय में नहीं जाता है व चित्र के अनुसार तादृश द्रश्य दिखाई पड़ने से भावोल्लास बढ़ जाता है।
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विषयानुक्रम
६-७
वयजुत्तो
सूत्र अर्थ चित्रसमझ पृष्ठ सूत्र अर्थ चित्रसमझ
पृष्ठ नवकार नवपद
२-३ (जगचिंतामणि) अवरविदेहि...से संपूर्ण ३८-३९ पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्
४-५ उवसग्गहरं सूत्र विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज
पुक्खरवर-दीवड्ढे० सूत्र,
४०-४२ पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्
सुअस्सभगवओ० विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज
देवसि-राइ प्रतिक्रमण विधि
४३ नमस्कार (नवकार) सूत्र
८-९ सिद्धाणं बुद्धाणं...सव्वसिद्धाणं तक ४४-४५ पंचिंदियसूत्र-खमासमण
१०-११ नाणंमि. सूत्र इरियावहियं सूत्र, तस्स उत्तरी
१२-१३ (सिद्धाणं बुद्धाणं) जो देवाण... ४६-४७ लोगस्स० (चतुर्विंशति-स्तव)
१४-१५ | से वंदे महावीरं तक, देवसियं आलोउं सूत्र अन्नत्थ. सूत्र, करेमिभंते
(सिद्धाणं बुद्धाणं), इक्को वि... ४८-४९ इच्छकार सुहराइ०, अमुडिओ०,
| नरं व नारि वा तक, सातलाख सूत्र, जंकिंचि, जावंति, सव्वलोए, सामाइय १८-१९ प्राणातिपात सूत्र
(सिद्धाणं बुद्धाणं) उज्जित...अरिहनेमि ५०-५१ "नमुत्थुणं...पुरिसवरगंधहत्थीणं' २०-२१ नमंसामि तक, मन्नह जिणाणं सज्झाय पद तक
(सिद्धाणं बुद्धाणं) चत्तारि अ से संपूर्ण ५२-५३ "(नमुत्थुणं) लोगुत्तमाणं धम्मवरचाउरंत २२-२३ वेयावच्चगराणं सूत्र, लघु शांतिस्तव चक्कवट्टीणं" पद तक
वांदणा सूत्र एवं विविध मुद्राएँ
५४-५५ (नमुत्थुणं) अप्पडिहय...'नमो जिणाणं २४-२५ नमोऽस्तु वर्धमानाय सूत्र
५६-५७ जियभयाणं' पद तक
चउक्कसाय सूत्र (नमुत्युणं) 'जे अ अइया'...से संपूर्ण, २६-२७ विशाल लोचनदल सूत्र, अड्डाइज्जेसु सूत्र ५८-५९ नमोऽर्हत् सूत्र, भगवानहं सूत्र
कल्लाणकंदं सूत्र
६०-६१ जावंत के वि साहु, आयरियउवज्झाए २८-२९ |
| संसार दावानल सूत्र
६२-६३ सव्वस्सवि सूत्र
जयवीयराय सूत्र
६४-६६ अरिहंत-चेइआणं सूत्र -३०-३१ सकलतीर्थ भाग-१
६७-६८ 'जगचिंतामणि...जयन्तु अप्पडिहय सासण' ३२-३३ वर्धमान नामे गुणसेण तक पद तक, भुवनदेवता स्तुति, क्षेत्रदेवता स्तुति | सकलतीर्थ भाग-२
६९-७१ (जगचिंतामणि) कम्मभूमिहि...दुहदुरिअ-३४ समेतशिखर...से संपूर्ण खंडणं' पद तक, सुअदेवया, खित्तदेवया, से वंदित्तु सूत्र (श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र) कमलदल, वरकनक, सूत्र
३७ | भरहेसर बाहुबली सज्झाय देवसि-राइ प्रतिक्रमण विधि
१०४
७२
८६
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नवकार-नवपद चित्र
QUI CORR
नमोदसणस्स
पडमी
नमो सिद्धाणं
सापचनमक्कारा
मंगलाणं
सणासणी
Shibon *
*
पंचनमुक्कारी
Sahो (ना
ढम हवइ मंग
मोलोए सवा
क्साहणं
मी अरिहंताण
ताणं)
सायणावण्णणासणी
थमो आयरिया)
मंगलाणचासबसि
। चारित्तस्स
नमोनाणस
नमो उवज्डमा
विज्दाशा
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नवकार- नवपद चित्र- विवरण
श्री योगशास्त्र ग्रंथ में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने बताया है कि अपने हृदय को एक कमल मानकर बिचकी कर्णिका में 'नमो अरिहंताणं' पद और आजूबाजू की आठ पंखुडियों में बाकी के 'नमो सिद्धाणं' आदि आठ पदों का ध्यान-जप १०८ बार करने से एक उपवास का फल मिलता है। नवकार के अक्षरों का भी इतना बड़ा महत्व है । यह पदस्थ ध्यान है ।
अब ऐसी शिकायत होती है कि (१) मन इस में स्थिर नहीं रहता है और अन्यान्य विचार आ जाते है, एवं (२) स्थिर रहे तब भी दिल में भावोल्लास वर्धमान = बढता रहेता नहीं। इन दो शिकायतों के निवारणार्थ उपाय यह है कि पहले पांच पदों के अलावा पांचों परमेष्ठियों को इस प्रकार अपनी अपनी मुद्रा (Pose) में व अनंत संख्या में उसी कमल में या चक्रमें देखा जाए :
(१) अरिहंत भगवान की मुद्रा यह कि वे समवसरण पर छत्र-भामंडलयुक्त बिराजमान है, इन्द्र चँवर ढालते है, ऊपर सारे समवसरण को छाया देता हुआ अशोकवृक्ष है, नीचे पुष्पवृष्टि गिरती है, तीसरे किले पर पर्षदा में देव-मनुष्य है व दूसरे पर पशु आये है, गगन में देवदुन्दुभि व दिव्यध्वनि वाली बँसरी बज रही है, एवं प्रभु धर्मोपदेश देते है। वैसे अनन्त समवसरण व अनंत अरिहंत प्रभु को कर्णिका में या मध्यचक्र में देखना है ।
(२) सिद्ध भगवान की मुद्रा यह कि वे सिद्धशिला पर स्फटिकवत् या ज्योति स्वरूप व अनंत संख्या में विराजित है ।
(३) आचार्य भगवंत की मुद्रा यह कि वे पाट पर विराजते हुए जनता को पंचाचार का प्रवचन देते हैं । (४) उपाध्याय भगवंत साधुमंडली को पढा रहे हैं। वैसी अनंत मंडली वाले अनंत उपाध्याय दिखें । (५) साधु भगवंतों की मुद्रा यह कि वे कायोत्सर्ग ध्यान में खडे है ।
अपनी अपनी मुद्रा में व अनंत संख्या में परमेष्ठियों को देखने से भावोल्लास बढता रहता है। और अनंत की संख्या में देखना है, इसलिए इसमें मन स्थिर रहेता है। यह पिंडस्थ ध्यान है ।
नवकार की भांति नवपद के ध्यान में वे ही पंच परमेष्ठि, किन्तु चार कोण में नमो दंसणस्स, नमो नमो चास्तिस्स, नमो तवस्स ये चार पद दिखाइ पडे ।
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सिद्धान्तमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति पू.आचार्यदेव श्रीमद विजय प्रेमसरीधरजी महाराज
आप एक अप्रतिम युगपुरूष जन्मसिद्ध वैराग्यवान थे | आप मूल राजस्थान-पिंडवाडा निवासी श्रावक भगवानदासजी व कंकुबाई के सुपुत्र थे, जिनका जन्मत: शुभ नाम प्रेमचन्दभाई था |
भाप साधुदीक्षा-ग्रहण हेत व्यारा से लगभग ३६ मील पैदल चल कर रेलगाडी से पालीताणा आ पहंचे सकलागमरहस्यवेदी प्रौढगीतार्थ आचार्यदेव श्रीमद् विजय दानसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य मुनिश्री प्रेमविजयजी बने । चारित्रजीवन में नित्य एकाशन, गुरूजनों की सेवा, अप्रमत्त साधुचर्या व स्वाध्याय-ध्यान आत्मसात् किया । प्रकरणशास्त्रों व दर्शनशास्त्रों के साथ आगमशास्त्रों का गहरा चिं य व्यवसाय बन गया था । आश्चर्य यह था कि आप पंडितों के पास कम पढे फिर भी स्याद्वादरत्नाकर आदि महादर्शनशास्त्रों का अध्ययन स्वयं किया व पूर्वधर महर्षि विरचित गंभीर व जटिल शास्त्र कम्मपयडी व पंचसंग्रह महाशास्त्र का स्वकीय प्रज्ञा से सूक्ष्म अध्ययन कर स्वयंने सक्रमकरण, मार्गणाद्वार आदि शास्त्रों की रचना की । एवं शिष्यों को पढा कर उनके पास १५-१५, १८-१८ हजार श्लोक प्रमाण 'खवगसेढी' 'ठिइबन्धो' 'रसबंधो' 'पएसबंधो' आदि महाशास्त्रों की रचना करवाई।
पू. आचार्यदेवश्री का संयम-जीवन काफी प्रशंसनीय था | आपमें कडा ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, मात्र अन्तर्मुखता, मौनपूर्वक नीची दृष्टि से चलना इत्यादि कई विशिष्ट साधनाएं थी । अंतिम समय पर शारीरिक गाढ अस्वस्थता देख साधु शीतलता हेतु पंखा झुलाने लगे तो खट् से वे बोल उठे, 'भाई ! वायुकाय जीवों की हिंसा होती है, पंखा बन्द करो ।' विहार में कहीं भी दोषित भीक्षा न लेनी पडे इस वास्ते १५-१७ मील तक का विहार करते थे।
शासनप्रभावक आचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरिजी महाराज, आचार्यश्री विजयजंबूसूरिजी महाराज आदि विशाल संख्यामें आपका शिष्य प्रशिष्यों का परिवार है । व्यर्थ विकल्पों आदि से बचाने हेतु पू. आचार्यदेवश्री उन्हें शास्त्रव्यवसाय में ही मग्न रखते थे।
आपने पैदल संघयात्रा, उपधान, उद्यापन, अंजनशलाका महोत्सव, प्रतिष्ठा, पौषधशाला-ज्ञानमन्दिर उदघाटन आदि कई शासन-प्रभावक कार्य करवाये | बम्बई द्विभाषी राज्य में विधानसभा में उपस्थित प्रतिबन्धक बिल के विरोध में आंदोलन जगाया, फलतः बिल पास न हो सका । इस पर मुख्यमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने 'क्या शैतान निर्माण के विरूद्ध कोई कानून नहीं ? और संत निर्माण पर रोक ?...' इत्यादि ऐतिहासिक भाषण कर विशिष्ट बहमति से बिल को उडाया ।।
पू. आचार्यदेवश्री को कई वर्षों तक छाती में वायु की व्याधि रही व अन्तिम ४-५ साल प्रोस्टेट ग्रन्थि के शोथ की व्याधि रही, किन्तु आपकी सहिष्णुता व समाधि अद्भुत थी । खंभात में सं. २०२४ वै.कृ.११ रात को व्याधि बढ गई, हार्ट पर चोट आई। करीब ८० मुनियों का परिवार साथ में था, नमस्कार मंत्रोच्चारण की धुन चली । पूज्यश्री खूब समाधि में थे । रातको १०-१० बजने पर 'वीर ! वीर ! खमा छु' कह कर स्वर्ग में चले गए । सारे भारत के संघोमें पूज्यश्री के वियोग पर वज्राघात सा दुःख हुआ | पूज्यश्री के सद्गुणसुकृत-साधना व शासनप्रभावना की अनुमोदना में भारतभर में जिनेन्द्र-भक्तिमहोत्सवों व वियोग शोकसभाएँ हुई।
पूज्यश्री की कृपासे जैन व इतर दर्शनों के शास्त्रो में जो गति प्राप्त हुई इसके आधार पर प्रतिक्रमण सूत्रों को चित्रों मे साकार किया गया है ।
शिष्याणु पंन्यास भानुविजय (प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.)
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युगों युगों तक अमररहेगागुरुभुवनभानु का नाम
बीसवीं सदी में जिनशासन के गगन में सूर्य की तरह चमकता हुआ प्रकाशमान व्यक्तित्व था-संघहितचिन्तक, शासन-सेवा के अनेक कार्यों के आद्य प्रणेता, तप-त्याग-तितिक्षामूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. का अपनी भक्ति, विरक्ति व बुद्धि से समस्त जिनशासन की काया पलट देनेवाले, हजारों जीवों का अज्ञान का अंधकार मिटानेवाले व मिथ्यात्वमोहादि क्षुद्र जंतुओं को दूर करके आत्मशुद्धि व आत्मसिद्धि के सोपान पर चढ़ानेवाले, चौथे आरे की प्रतीति करानेवाले पूज्य गुरुदेवश्री में नाम के अनुरुप ही गुण थे । एक कवि ने कहीं पर लिखा है....मैं उस खुदा की तलाश में हूँ मेरे यारों,
जो खुदा होते हे भी अपना-सा लगे । मैं इन पंक्तियों को कुछ अलग ढंग से पेश करना चाहूँगा...में ऐसे गुरु को पा चुका हूँ मेरे यारो,
जो अपना-सा होते हुए भी खदा सा लगे । हमारे जैसा ही औदारिक शरीर होते हुए भी पूज्यपाद गुरुदेवश्री ने छोटी-सी जिन्दगी में शासन के जो महान कार्य किये हैं, साधना की ऊँचाईयों को पाया है, कुसंस्कारों के साथ संघर्ष करके उन्हें परास्त करके आत्मशुद्धि प्राप्त की है, वह देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि क्या इस विषम बीसवीं सदी में ऐसा चारित्र, ऐसा सत्त्व, ऐसा भगीरथ पुरुषार्थ, ऐसी साधना संभव है ? हमारे बीच आकर उन्होंने इतना महान व्यक्तित्व विकसित किया होगा? उन्हें मानव कहा जाय, महामानव कहा जाय या परम मानव ?
पूज्यश्री के व्यक्तित्व को संपूर्ण रुप से प्रकट करना तो अत्यन्त कठिन ही नहीं, शायद असंभव भी है । पूज्यश्री के गुणों की आंशिक अभिव्यक्ति के लिए भी ग्रंथों के ग्रंथ भर जायें ।
चलिये, पूज्य गुरुदेव की जीवन-यात्रा के मुख्य अंशों पर एक नज़र करें । सांसारिक नाम : कान्तिभाई माताजी : भूरीबहन पिताजी : चिमनभाई जन्म : चैत्र वद६, वि.सं. १९३७, दि. १९-४-१९११, अहमदाबाद शिक्षा : G.D.A. (C.A. के समकक्ष), दीक्षा : संवत् १९९१ पोष सुद १२, दि. १६-१२-१९३४, चाणस्मा, छोटेभाई पोपटभाई के साथ बडी दीक्षा : संवत् १९९१, माद्य सुद १०, चाणस्मा प्रथम शिष्य : पू. मुनिराज श्री पद्मविजयजी म.सा. (बाद में पंन्यास) गुरुदेवश्री : सिद्धान्तमहोदधि प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. गणिपद : सं. २०१२, फाल्गुण सुद ११, दि. २२-२-१९५६, पूना पंन्यासपद : सं. २०१५, वैशाख सुद६, दि. २-५-१९५९, सुरेन्द्रनगर. आचार्यपद : सं. २०२९, मगसर सुद २, दि. ७-१२-१९७२, अहमदाबाद १०० ओली की पूर्णाहूति : सं. २०२६, आश्विन सुद १५, दि. १४-१०-१९७०, कलकत्ता १०८ ओली की पूर्णाहूति : सं. २०३५, फाल्गुण वद १३, दि. २५-३-१९७९, मुंबई.
विशिष्ट गुण : आजीवन गुरुकुलवास सेवन, संयमशुद्धि, ज्वलंत वैराग्य, परमात्मभक्ति, क्रियाशुद्धि, अप्रमत्तता, ज्ञानमग्नता, तप-त्याग-तितिक्षा, संघ वात्सल्य, श्रमणों का जीवन-निर्माण, तीक्ष्ण शास्त्रानुसारिणी प्रज्ञा.
शासनोपयोगी विशिष्ट कार्य : धार्मिक शिक्षण शिबिरों के द्वारा युवापीढी का उद्धार, विशिष्ट अध्यापन शैली व पदार्थ संग्रह शैली का विकास, तत्त्वज्ञान व महापुरुष महासतियों के जीवन-चरित्रों को जन-मानस में प्रचलित करने के लिये चित्रों के माध्यम से प्रस्तुति, बाल-दीक्षा प्रतिबंधक बिल का विरोध, कत्लखाने को ताले लगवाये, 'दिव्यदर्शन' साप्ताहिक के माध्यम से जिनवाणी का प्रसार, संघ-एकता के लिये जबरदस्त पुरुषार्थ, अनेकान्तवाद के आक्रमणों के सामने संघर्ष, चारित्र-शुद्धि का यज्ञ, अमलनेर में सामूहिक २६ दीक्षा, मलाड में १६ दीक्षा आदि ४०० दीक्षाएँ अपने हाथ से दी, आयंबिल के तप को विश्व में व्यापक बनाया.
फलात्मक सर्जन : जैन चित्रावलि, महावीर चरित्र, प्रतिक्रमण सूत्र-चित्र आल्बम, गुजराती-हिन्दी बालपोथी, महापुरुषों के जीवन चारित्रों की १२ व १८ तस्वीरों के दो सेट, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि महाराज के जीवन-चित्रों का सेट, बामणवाडाजी में भगवान महावीर चित्र गेलेरी, पिंडवाडा में पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन-चित्र, थाणा-मुनिसुव्रत स्वामी जिनालय में श्रीपाल-मयणा के जीवन-चित्र आदि
प्रिय विषय : शास्त्र-स्वाध्याय घोष, साधु-वाचना, अष्टापद पूजा में मग्नता, स्तवनों के रहस्यार्थ की प्राप्ति, देवद्रव्यादि की शुद्धि, चांदनी में लेखन, बीमारी में भी खडे खडे उपयोग-पूर्वक प्रतिक्रमणादि क्रियायें, संयम जीवन की प्रेरणा, शिष्य परिवार से संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का विवेचन करवाना.
तप साधना : वर्धमान तप की १०८ ओली, छट्ठ के पारणे छट्ठ, पर्वतिथियों में छट्ठ, उपवास, आयंबिल आदि, फ्रूट, मेवा, मिठाई आदि का आजीवन त्याग
चारित्र पर्याय: ५८ वर्ष, आचार्य पद पर्याय : २० वर्ष, कुल आयुष्य : ८२ वर्ष, कुल पुस्तक : ११४ से अधिक स्व हस्त से दीक्षा-प्रदान: ४०० से अधिक, स्वहस्त से प्रतिष्ठा : २०, स्व-निश्रा में उपधान : २० स्व हस्त से अंजनशलाका : १२, कुल शिष्य प्रशिष्य आज्ञावर्ती परिवार : ३५० कालधर्म : सं. २०४९, चैत्र पद १३, दि. १९-४-१९९३, अहमदाबाद
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मो सिद्धाणं
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पंच परमेष्ठी
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नमो अरिहंताणं
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* नमो आयरियाणं
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नमो उवज्झायाणं
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साहूणं
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नमस्कार(नवकार) सूत्र
नमो अरिहंताणं
अर्थ:- मैं नमस्कार करता हूं अरिहंतों को, नमो सिद्धाणं
मैं नमस्कार करता हूं सिद्धों को, नमो आयरियाणं
मै नमस्कार करता हूं आचार्यों को, नमो उवज्झायाणं
मै नमस्कार करता हूं उपाध्यायों को, नमो लोए सब्बसाहूणं
मैं नमस्कार करता हूं लोक में (रहे) सर्व साधुओं को, एसो पंच-नमुक्कारो
यह पांचों को किया नमस्कार, सव-पाव-प्पणासणो
समस्त (रागादि) पापों (या पापकर्मों) का अत्यन्त नाशक है, मंगलाणं च सव्वेसिं
सर्व मंगलों में, पढम हवई मंगलं ||
श्रेष्ठ मंगल है। समझः- यहाँ चित्र में दिखाये अनुसार पहले अनन्त अरिहंत, बादमें सिद्धशिला पर सिद्ध, बाद में अनंत आचार्य... आदि को सूत्रपद पढते समय चित्त के सामने अनन्त-अनन्त लाए, कारण, अरिहंताणं आदि पद बहुवचन में है तो २-४ ही क्यों, अनन्त को नमन करने में भाव बढता है । (जैसे २-४) रत्नों की अपेक्षा बहुत रत्नों के राशि के
बहुत प्रसन्न होता है । ये भी ५ परमेष्टी अपनी अपनी खास अवस्था में दिखाई पडे, जैसे कि (१) अरिहंतदेव समवसरण में छत्र-चंवर आदि ८ प्रातिहार्य से युक्त, ऊपर (२) श्री सिद्ध भगवान सिद्ध-शिला पर ज्योतिस्वरूप तथा स्फटिकवत् निरंजन निर्विकार; नीचे (३) श्री आचार्य महाराज व्याख्यान पीठ पर बैठे आचार-प्रवचन
ए, (४) श्री उपाध्यायजी म. अपनी अपनी शिष्य मण्डली को आगमशास्त्र पढाते हुए; व (५) अनन्त साधु महाराज कायोत्सर्ग - ध्यान में खडे (या योगसाधना-साध्वाचार पालते हुए, परीषह उपसर्ग सहते हुए भी) दिखे।
देखने में भी एकैक पद के चिंतन-समय मात्र वे ही दिखें, जैसे कि सारी पृथ्वी उन ही से भरी हुई है । वहाँ भी मानो हम भी अनन्त शरीर वाले हैं अतः प्रत्येक परमेष्ठी के चरण में हमारा सिर झुका हुआ दिखाई पडे ।
प्रत्येकपद-चिन्तन के समय चित्र के उस भाग पर धारणा की जाए, ताकि इसका अभ्यास हो जाने पर बाद में भले चित्र सामने नहीं है किन्तु जैसे स्वीच दबाते ही लाईट होता है वैसे पद बोलते ही वे अनंत अरिहंत या सिद्ध या आचार्य आदि अपनी मुद्रा में सामने उपस्थित हो जाएँ । ऐसा अभ्यास बना देना चाहिए कि नमो अरिहंताणं बोलते ही अनंत अरिहंत सामने आ जाएँ, नमो सिद्धाणं बोलते ही अनन्त सिद्ध सामने आ जाय...
"एसो पंच...." बोलते समय ऐसा दिखाई पडे कि सामने पांचों परमेष्ठी भगवंत है, और हम प्रत्येक के सामने नमस्कार कर रहे हैं, और हमारी आत्मा में से समस्त रागादि पाप नष्ट हो रहे हैं, और ये पंच नमस्कार इनके पीछे रहे हुए समस्त श्रीफल-वाजिंत्रादि अन्य मंगलों से आगे है, प्रथम है, श्रेष्ठ है । इस पापनाश व प्रथम मंगल का दर्शन भी बडी श्रद्धा से किया जाय । एवं इन दो विशेषताओं के साथ परमेष्ठि-नमस्कार स्वरूप सुकृत की अनुमोदना की जाय, जिससे हमारे नमस्कार-सुकृत का बल (पावर) बढ जाए, व पुन: पुण्यार्जन हो; (करण-करावण- अनुमोदन सरिखा फल निपजायो- करने से, कराने से या सुकृतों की अनुमोदना करने से समान ही फल मिलता है) इन पांच परमेष्ठी में पहले दो इष्टदेव, व बाद में तीन गुरू हैं ।
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19 माला गिनने की मुद्रा
५
स्थापना- मुद्रा
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6
२
सुत्रोच्चारण/ योगमुद्रा से
चैत्यवन्दना में
दो गोडे भूमि पर या बाया गोडा खडा रख पेट पर दो कोणी व अञ्जलि
योगमुद्रा से
३
६
पंचाङ्ग-प्रणिपात (खमासमणु)
उत्थापन
(स्थापना
ऊठाने की) मुद्रा
८ मुक्ताशुक्ति मुद्रा से जावंति०
जावंत. जय-वीयराय०
४
अब्भुडिओ खामणेखामेमि राइयं...
९
जिन-मुद्रा से कायोत्सर्ग
ध्यान
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पंचिंदिय (गुरुस्तुति-गुरूस्थापना) सूत्र
(१) पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेरगुत्तिधरो । चउव्विह-कसायमुक्को,
इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो ॥ (२) पंच- महव्वय-जुत्तो,
(अर्थ) : (१) पांच इन्द्रियों को (विषयों से) रोकनेहटानेवाले, तथा ९ प्रकार की ब्रह्मचर्य की मेढ का पालन करने वाले व चार प्रकार के कषायों से मुक्त, इस प्रकार १८ गुणों से सु-संपन्न ।
(२) (अहिंसादि) ५ महाव्रतों से युक्त, पांच प्रकार के (ज्ञानाचारादि) आचार के पालन में समर्थ, ५ (ईर्यासमिति आदि) समिति वाले, (व मनोगुप्ति आदि) ३ गुप्तिवाले, (ऐसे) ३६ गुणवाले मेरे गुरू हैं ।
समझ:- यह सूत्र बोलते समय आचार्य महाराज दिखाई पडे, वे १८ निवृत्तिगुण- १८ प्रवृत्तिगुण वाले हैं। यह इस प्रकार दिखे ।
१८ निवृत्तिगुण
१८] प्रवृत्तिण
पंचविहायार- पालण समत्यो ।
पंच-समिओ ति-गुत्तो, छत्तीस-गुणो गुरू मज्झ ।।
५ इन्द्रिय
९ ब्रह्मचर्य मेढभङ्ग
४ कषाय
इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए
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निवृत्ति
निवृत्ति निवृत्ति
१८
१८
जैनशासन का शिरस्ता है कि धर्म का अनुष्ठान देवाधिदेव या गुरू की निश्रा यानी संनिधान में किया जाता है । अतः जहाँ गुरूयोग नहीं वहां गुरू की स्थापना की जाती है। यह गुरूस्थापना किसी पुस्तक या माला आदि के सामने स्थापना-मुद्रासे हाथ रख कर नवकार व पंचिंदिय सूत्र बोल कर की जाती है। क्रिया समाप्त होने पर उत्थापन मुद्रा से १ नवकार पढ कर स्थापित गुरू को ऊठाने को न भूलें । अन्यथा स्थापित आचार्य हीलने से आशातना होती है ।
खमासमण- स्तोभवंदन सूत्र
५ महाव्रत
५ आचार
५ समिति
३ गुप्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
अर्थ- मैं इच्छता हूं हे क्षमाश्रमण ! वंदन करने के लिए, सब शक्ति लगा कर व दोष त्याग कर । मस्तक नमा कर मैं वंदन करता हूं ।
मत्थएण वंदामि
समझ :- इस वंदन प्रणिपात में ध्यान रहे कि दो हाथ, दो पेर के घुटने व मस्त ये पांच अंग भूमि पर स्पर्श करें। इसके लिए दो हाथ की अंजलि दो घुटने के बीच में भूमि पर छूने से सिर आसानी से जमीन पर छूता है (चित्र देखो) । 'इच्छामि... निसीहियाए' तक खड़ा रह कर योगमुद्रा से हाथ जोड कर बोलना; बाद में पांच अंग भूमि पर छूते समय 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिये । मुद्रा ३ : योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा, जिनमुद्रा (देखो चित्र) (१) योगमुद्रा में दो हाथ ऐसे जोड़े जाते हैं कि साम-सामने उंगली के अग्रभाग सामने वाली के अग्रभाग के बीच में रहें। सभी सूत्र-स्तुति-स्तवन योगमुद्रा से पढे जाते हैं। जिनाज्ञा है, 'थयपाढो होइ जोगमुद्दाए' (२) मात्र मुक्ताशुक्ति मुद्रा से 'जावंति चेइ०', 'जावंत के वि' व 'जयवीयराय', इन तीन सूत्रों का उच्चारण होता है । इसमें उंगलियों के अग्रभाग आमने-सामने वाली के बीच-बीच में नहीं किन्तु परस्पर सामने रहती है; अतः हाथ की अंजलि मुक्ताशुक्ति (मोती के शीप) की तरह पोली रहती है। (३) कायोत्सर्ग जिनमुद्रा से किया जाता है। इसमें सिर झुका हुआ नहीं किन्तु सीधा, दृष्टि आधखुली व नासिका के अग्रभाग पर स्थापित हो, दो हाथ सहज नीचे झुकते, एवं दो पेर के बीच में आगे के भाग में ४ उंगली का, व पिछले भाग में इससे कुछ कम अंतर रखा जाता है। जिनेश्वर भगवंत चारित्र साधना में प्राय: इस मुद्रा से ध्यानस्थ रहते थे। अतः यह जिनमुद्रा कही जाती है ।
माला गिनने में भी दृष्टि ऐसी ही रखी जाती है व दाया हाथ हृदय के सामने रख कर इसके अंगूठे पर माला रख वह प्रथम उंगली से फिराइ जाती है, व बाकी तीन उंगली छाते की तरह माला के ऊपर रहती है।
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इरियावहिय
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इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !इरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं ?
पाणक्कमणे इरियावहियाए
EE विराहणाए
बीयक्कमणे - rea गमणागमणे
हरियक्कमणे ouTIVE जे मे जीवा विराहिया
ओसा-उत्तिंग
पणग-दगमट्टी एगिंदिया
मक्कडा-संताणा
संकमणे बेइंदिया
तेइंदिया
बेइंदिया 1300/
तेइंदिया 6 चउरिदिया
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चउरिंदिया
पंचिंदिया
अभिहया
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संघाइया
वत्तिया,
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ठाणाओ ठाणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया
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परियाविया
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इरियावहियं (प्रतिक्रमण) सूत्र
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् हे भगवंत ! आपकी इच्छा से आदेश दें कि मैं ईर्यापथिकी (गमनादि व इरियावहियं पडिक्कमामि ? साध्वाचार में हुई विराधना) का प्रतिक्रमण करूं? (यहां गुरू कहे इच्छं, इच्छामि
'पडिक्कमेह') 'इच्छं ' अर्थात् मैं आप का आदेश स्वीकार करता हूं | पडिक्कमिउं इरियावहियाए ईर्यापथिकी की विराधना से (मिथ्यादुष्कृत द्वारा) वापस लौटना चाहता विराहणाए गमणागमणे । हूं | गमनागमन में, 'पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, १२-३-४ इन्द्रियवाले प्राणी को दबाने में, धान्यादि सचित्त (सजीव) हरियक्कमणे, ओसाउत्तिंग- बीज को दबाने तथा वनस्पति को दबाने में, "ओस (आकाश पतित "पणग-दगमट्टी
सूक्ष्म अप्काय जीव), चिंटी के बिल, "पांचो वर्णों की निगोद (फूलन मक्कडा-संताणा-संकमणे काई आदि) पानी व मिट्टी (या जल मिश्रित मिट्टी, सचित्त-मिश्र कीचड) "जे मे जीवा विराहिया व मकडी के जाले को दबाने में, मुझसे जो जीव दुखित हुएँ, (जीव एंगिदिया बेइंदिया
इस प्रकार)-एक इन्द्रिय वाले (पृथ्वीकायादि), दो इन्द्रिय वाले (शङ्ख तेइंदिया चउरिंदिया
आदि), तीन इन्द्रिय वाले (चिंटी आदि) चार इन्द्रिय वाले (मक्खी पंचिंदिया
आदि), पांच इन्द्रिय वाले (मनुष्य आदि) (विराधना इस प्रकार की,) अभिहया वत्तिया,
अभिघात किया (लात लगाई या हाथ पैर से ठुकराएँ आदि), धूल से लेसिया,
ढके (या उलटाये), भूमि आदि पर घिसा (घसीटे, या कुछ दबाये), संघाइया, संघट्टिया, परस्पर गात्रों से पिण्डरूप किया, स्पर्श किया, परियाविया, किलामिया, संताप-पीडा दी, अङ्ग-भङ्ग किया, उद्दविया,
मृत्यु जैसा दुःख दिया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, अपने स्थान से दूसरे में हटाये, जीवियाओ ववरोविया प्राण से रहित किये। तस्स मिच्छामि दुक्कडं उसका मेरा दुष्कृत (जो हुआ वह) मिथ्या हो ।
चित्र के अनुसार, जैसे खूनी कोर्ट में मेजिस्ट्रेट के आगे अपने से किये गए खून की बडे पश्चात्ताप से क्षमा मांगता है इस प्रकार इस सूत्र में साधकजीव गुरू के आगे अपने से किये गये ज्ञात-अज्ञात जीव-विराधना को गिना कर बडे संताप से उनका मिथ्यादृष्कृत देता है । अतः यह सूत्र मन में खुनी के नाप का भाव
तस्स 'उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहिकरणेणं "विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणढ़ाए ठामि काउस्सग्गं ।
तरस उत्तरीसूत्र (अर्थ) : (जिस अतिचार दोष का पूर्व में 'मिथ्या दुष्कृत' दिया, आलोचना-प्रतिक्रमण किया) इसके 'उत्तरीकरण = स्मृतिरुप संस्कार द्वारा पुनः याद करके आत्मशुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करण द्वारा, (वह भी) प्रायश्चित्त के करने द्वारा, (यह भी अतिचार नाश से) निर्मलता करने द्वारा, (एवं वह भी मायादि) "शल्य हटाने द्वारा, (भवहेतुभूत ज्ञानावरणीयादि) पापकर्मों का उच्छेद करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में रहता हूं।
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अरिहंते कित्तइस्स चउवीसं पि केवली ।।
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मजिअं च वंदे
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मभिणंदणं च सुमइं च ।
पउमप्पह
सुपासं
जिणं च चंदप्पहं.
वंदे ॥ कुंथु
अरं च मल्लि
सुविहिं च पुप्फदंतं 6
सुविहिं च पुष्पदंतं
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सीयल सिज्जंस वासुपूज्जं च
वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।
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विमल मणंतं च जिणं
वंदामि रिट्ठनेमि
धम्म संतिं च
वंदामि एवं मए अभिथुआ वियस्यमला पहीणजरमरणा कित्तिय-वंदिय-मडिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा चदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
पास तह वद्धमाण
च ।। चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयतु ।। आरुग-बोडिलाभं समाहिवरमत्तमं दित ।।। सागरवरगभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसतु ।।
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लोगरस (चतविंशति-स्तव) सत्र
लोगस्स उज्जोअगरे, अर्थ : (१) पंचास्तिकाय लोक (विश्व) के प्रकाशक, धम्म-तित्थयरे जिणे। धर्मतीर्थ (शासन) के स्थापक, रागद्वेष के विजेता, अरिहंते कित्तइस्सं
अष्टप्रातिहार्यादि शोभा के योग्य चउवीसं पि केवली ।। चौबीस भी सर्वज्ञों का कीर्तन करूंगा। उसभ-मजिअं च वंदे, (२) श्री ऋषभदेव व श्री अजितनाथ को वंदन करता हूं। संभव-मभिणंदणं च सुमइं च । श्री सम्भवनाथ व श्री अभिनन्दन स्वामी को एवं श्री सुमतिनाथ को, पउमप्पहं सुपासं,
श्री पद्मप्रभ स्वामी को, श्री सुपार्श्वनाथ को, जिणं च चंदप्पहं वंदे || एवं श्री चन्द्रप्रभ जिनेंद्र को वंदन करता हूं। सुविहिं च पुष्पदंतं,
(३) श्री सुविधिनाथ यानी श्री पुष्पदंत स्वामी को, सीयल-सिज्जंस-वासुपुज्जं च । श्री शीतलनाथ को, श्री श्रेयांसनाथ को, श्री वासुपूज्य स्वामी को, विमल-मणंतं च जिणं श्री विमलनाथ, श्री अनन्तनाथ को, धम्म संतिं च वंदामि || श्री धर्मनाथ को व श्री शान्तिनाथ को वन्दन करता हूं। कुंथु अरं च मल्लि
(४) श्री कुंथुनाथ को, श्री अरनाथ को व श्री मल्लिनाथ को, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । श्री मुनिसुव्रत स्वामि तथा श्री नमिनाथ को वंदन करता है । वंदामि रिट्टनेमि
श्री नेमनाथ को, श्री पार्श्वनाथ को, पासं तह वद्धमाणं च ।। श्री वर्धमान स्वामी (श्री महावीर स्वामी) को वंदन करता हूं | एवं मए अभिथुआ
(५) इस प्रकार मुझसे अभिस्तत (जिनकी स्तवना की गई वे), विहुयरयमला पहीणजरमरणा | कर्मरज-रागादिमल को दूर किया है जिन्होंने वे, चउवीसं पि जिणवरा
जरावस्था व मुत्यु से मुक्त (यानी निर्मल-अक्षय) चौबीस भी तित्ययरा मे पसीयंतु ।। (अर्थात् अन्य अनंत जिनवर के उपरान्त २४) कित्तिय-वंदिय-महिया जिनवर धर्मशासन-स्थापकों मुझ पर अनुग्रह करें । जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। (६) कीर्तन-वंदन-पूजन किये गए ऐसे, व लोक (मंत्रसिद्धादि अनेकआरूग्ग-बोहिलाभं
विध सिद्धजन के समूह) में जो श्रेष्ठ सिद्ध हैं वे भाव-आरोग्य (मोक्ष) के समाहिवरमुत्तमं किंतु || लिए (आरोग्य व) बोधिलाभ एवं उत्तम भावसमाधि दें । चंदेसु निम्मलयरा
(७) चंद्रों से अधिक निर्मल, आइच्चेसु अहियं पयास-यरा। सूर्यों से अधिक प्रकाशकर, सागर-वरगम्भीरा
समुद्रों से उत्तम गांभीर्यवाले (उत्कृष्ट सागर स्वयंभूरमण जैसे गंभीर) सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु || सिद्ध (जीवन्मुक्त सिद्ध अरिहंत) मुझे मोक्ष दें।
समझ :- पहली गाथा में क्रमशः 'ज्ञानातिशय, वचनातिशय, अपायापगम (रागादि-नाश) अतिशय व "पूजातिशय याद किये । देखो चित्र में ऊपर इनके प्रतीक, बोलते समय मन के सामने वैसे प्रभु दिखे । '२४ भी' में 'भी' से और भी अनंत तीर्थकर याद किये । देखो चित्र में ।
5 यहां सूत्र की १ ली गाथा पढते समय चित्र में २४ भगवान के ऊपर दिये गए सूर्यसमवसरण-वीतराग-प्रातिहार्य इन चार को ध्यान में रखकर सब सर्वज्ञ भगवान को (१) सूर्यवत् ज्ञान-प्रकाशकर, (२) तीर्थ-स्थापक (३) रागादि विजेता व (४) प्रातिहार्य द्वारा पूजित रूप में देखना है । यहां चउवीसंपि में पि पद से और भी सब देश-काल के अनंत भगवान देखना है।
(देखीए पृष्ठ नं. १६ पर) १५
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• २-३-४ गाथा बोलते समय गाथा के प्रत्येक चरण के अनुसार चित्र में दिये गये क्रम से भगवान को प्रत्येक चरण के उच्चारण के साथ देखना है, व प्रत्येक के चरणकमल में वंदना करते चलना है ।
५वीं गाथा में भी 'चउवीसं पि' में 'पि' शब्द से २४ के साथ और भी सब देश-काल के भगवान स्तुत्य एवं निर्मल एवं अक्षय देखना है तथा उनका प्रभाव अपने पर पडे ऐसी चाहना करनी हैं ।
• ६-७ गाथा, यहाँ ये सब भगवान का (तीनों जगत में) कीर्तन-वंदन-पूजन हुआ है, एवं मन्त्रसिद्ध विद्या-सिद्ध आदि पुरूषों से भी वे श्रेष्ठ शुद्ध-बुद्ध-मुक्त सिद्ध है ऐसा देखना है ।
(आरुग्ग....) उनके आगे मोक्षार्थ वीतरागता तक के बोधिलाभ (जैनधर्म प्राप्ति) व श्रेष्ठ भावसमाधि वे दें ऐसी प्रार्थना करनी है। अंत में (चंदेसु) वे क्रोडो चंद्र-सूर्य-सागरों से अधिक निर्मल प्रकाशक-गंभीर एवं सिद्ध है वैसा देखकर वे मोक्ष दें ऐसी प्रार्थना करनी है ।
अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उड्डएणं वाय-निसग्गेणं भमलीए पित्त-मुच्छाए सुहुमेहि अंग-संचालेहिं सुहुमेहिं खेल-संचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताव, कायं ठाणेणं मोणेणं
झाणेणं
अप्पाणं वोसिरामि ।
अन्नत्थ सूत्र
अर्थ : सिवा श्वास लेना, श्वास छोडना खाँसी आना, छींक आना, जम्हाई आना, डकार आना, अधोवायु छूटना, चक्कर आना, पित्त-विकार से मूर्च्छा आना,
सूक्ष्म अंग-संचार होना
करेमि भंते ! सामाइयं । सावज्जं जोगं पच्चक्खामि । जाव नियमं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि
अप्पाणं वोसिरामि
सूक्ष्म कफसंचार होना,
सूक्ष्म दृष्टि-संचार होना
इत्यादि अपवाद के (सिवा), मुझे कायोत्सर्ग (काया के त्याग से युक्त ध्यान) हो, वह भी भग्न नहीं, खण्डित नहीं ऐसा कायोत्सर्ग हो । जहाँ तक (नमो अरिहंताणं बोल) अरिहंत भगवंतों को नमस्कार करने द्वारा (कायोत्सर्ग) न पारूं (पूर्ण कर छोडूं), वहां तक स्थिरता, मौन व ध्यान रखकर अपनी काया को वोसिराता हूं (काया को मौन व ध्यान के साथ खडी अवस्था में छोड देता हूं) ।
करेमि भंते (सामायिक) सूत्र
अर्थ - हे भगवंत ! मैं सामायिक करता हूं ।
पापवाली प्रवृत्ति का प्रतिज्ञाबद्ध त्याग करता हूं | (अतः) जब तक मैं (दो घडी के) नियम का सेवन करूं, (तब तक) त्रिविध से द्विविध (यानी) मनसे, वचन से, काया से, (सावद्य प्रवृत्ति) न करूंगा, न कराऊंगा ।
हे भगवंत ! (अब तक किये) सावद्य का प्रतिक्रमण करता हूं, (गुरु समक्ष) गर्हा करता हूं, (स्वयं ही) निंदा करता हूँ, (ऐसी सावद्य-भाववाली) आत्मा का त्याग करता हूं
समझ - सामायिक यह एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें 'समाय' समभाव का आय (लाभ) होता है। यह सामायिक
(देखीए पृष्ठ नं. १७ पर)
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इच्छकारसुहराई सुत्र इच्छकार १ सुहराई ? (सुहदेवसि) २ सुख तप? ३ शरीर निराबाध ? ४ सुखसंजम जात्रा निर्वहते होजी? स्वामि ! ५ शाता है जी ? भातपाणी का लाभ देना जी ।
विवेचन - यहां गुरू से १ रात्रि (दिन) - २ तप - ३ शरीर - ४ संयम - ५ शाता, इनके विषय में ५ प्रश्न पूछे जाते हैं, इच्छकार यानी आप की इच्छा हो तो मैं पूछू कि (१) आपकी रात्रि सुखरुप व्यतीत हुई ? (आपका दिवस सुखरुप व्यतीत हुआ ?) (२) आपका तप सुखरुप चलता है ? (३) आपके पुण्यदेह को कोई बाधा नहीं है न ? (४) आपकी संयमयात्रा का निर्वाह सुखरुप चलता है ? (५) आप को सुखशान्ति है ? बाद में विज्ञप्ति की जाती है कि आहार-पानी (संयमोपकारक भोजन-पात्र-दवाई आदि) का (सुपात्रदान का) लाभ देने की कृपा करें | यहां ध्यान रहे कि सुहराई इत्यादि पांचों का उच्चारण प्रश्न के रूप में होवे । मध्याह्न के पहले सुहराई, व बाद में सुहदेवसी बोलें ।
अब्भडिओमि
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अर्थ - हे भगवन्, आपकी इच्छा से मुझे आदेश दें । अब्भुट्टिओमि अमिंतर राइयं मैं रात्रि के भीतर (किये हुए अपराधों) को क्षमा याचने के लिये खामेउं ? इच्छं,
उपस्थित हुआ हूं । (यहां गुरू 'खामेह' कहे उस पर) मैं आपके खामेमि राइयं (देवसिय), आदेश का स्वीकार करता हूं, रात्रिक (देवसिक) अपराधों को खमाता जं किंचि, अप्पत्तियं, परप्पत्तियं, हूं (यह इस प्रकार :-) जो कुछ (आप को) अप्रीतिकर, अत्यन्त भत्ते-पाणे, विणए-वेचावच्चे, अप्रीतिकर, (या स्वात्मनिमित्त, परनिमित्त) आहार में, पानी में, आलावे-संलावे,
विनय में, वैयावच्च (सेवा) में, एक बार बात में, अनेक वार बात उच्चासणे-समासणे,
में, (आप से) ऊंचे आसन में, समान आसन में, अंतर-भासाए, उवरि-भासाए (गुरू से की जाती बात में) बीच में बोलने में, अधिक बोलने में, जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं, जो कुछ मेरा विनयरहित सुहमं वा, बायरं वा
सूक्ष्म या स्थुल (अपराध) हो, तुडभे जाणह अहं न जाणामि, आप जानते हैं, मैं नहीं जानता, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । (उसको मैं निंद्य-त्याज्य मानता हूं।)
(अनुस् न पृष्ठ १६-करेमि भंते सूत्र का चालू) सावद्ययोग यानी मन-वचन-काया की पापवाली प्रवृत्ति के पच्दखाण (प्रतिज्ञाबद्ध त्याग) से हो सकता है । यहां यह पच्चक्खाण किस प्रकार है ? तो कि जहां तक 'नियम' दो घडी का अभिग्रह चले वहाँ तक मन-वचन-काया से सावध योग स्वयं न करना, न कराना । यह सावधयोग-पच्चक्खाण शुद्ध हो इसलिए अब तक किये सावद्ययोग का प्रतिक्रमण करना अर्थात् मिच्छामि दुक्कडं करने पूर्वक सावद्ययोग से मन को वापस लौटाना, यानी इस का पश्चात्ताप करना । निन्दा यानी आत्मसाक्षिक घृणा-दुगंछा, गर्दा यानी गुरुसाक्षिक घृणा-दुगन्छा । 'अप्पाणं वोसिरामि' पहले सावद्ययोग जिस मलिन काषायिक भाव से किये वैसे भाववाली आत्मा का ममत्व छोड देता हूं, वैसी मेरी दुष्ट आत्मा की घृणा-जुगुप्सा करता हूं कि अरे कैसी मेरी दुष्ट आत्मा कि इसने ऐसे मलिन भाव व सावद्य योग किये । इस सूत्र को सामायिक दंडक कहा जाता है । दंडक अर्थात् फकरा (Paragraph) परेग्राफ, आलापक (आलावा)।
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सकल तीर्थ बंदु कर जोड
र
जीजे १२ लाख
पहेले स्वर्गे लाख ३२
पांच (चैत्य)
000
जगचिंतामणि अवरविदेहि तित्थयरा
नवप्रवेयके
८ में स्व
1७ में ६] स्वर्गे
५ में बंदू
Desis
- (११-१२ में ३००) (९-१० में ४००)
aaSA 400
ama
उठन्द उठन्द
OE
ज्योतिषी असंख्य मंदिर
बिंब
ABA
GATP
AAA
त्रणसें अढार (३१८)
25991
अनुत्तरे
६००० ४०,०००
५०,०००
४ लाख
व्यंतर असंख्य मंदिर बिंब...
भवनपति में
७,७२ लाख, मंदिर १३८९ क्रोड ६० लाख बिंज
COSE
बीजे लाख २८
AAAAA
Jove
D
वैमानिक देवलोक में
कुल जिनमंदिर- ८४,९७,०२३ कुल जिनबिंब १, ५२,९४,४४,७६०
सिद्ध अनंत नमुं निशदि
चोथे ८ लाख
Talor
(जंकिंचि नामतित्यं (जावंति चेइयाई)
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जंकिचि सूत्र
जं किंचि नामतित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए । जाइं जिणबिम्बाई, ताइं सव्वाइं वंदामि ।।
सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं...
अर्थ : स्वर्ग, पाताल (एवं) मनुष्यलोक में जो कोई तीर्थ है, (व वहां) जितने जिनबिम्ब है उन सब को मैं वंदना करता हूं ।
जावंति सूत्र
जावंति चेइयाइं, उड्ढे अ अहे अ तिरियलोए अ । अर्थ : ऊर्ध्व (लोक) में, अधो (लोक) में व तिर्च्छालोक में जितने चैत्य (जिनमंदिर-जिनमूर्ति) हैं वहां रहे हुए उन सब को यहां रहा हुआ मैं वंदना करता हूं ।
सव्वाई ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ||
सव्वलोए सूत्र
समस्त (ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक्) लोक में रहे हुए अरिहंत भगवान के चैत्यों के (वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान निमित्त) मैं कायोत्सर्ग करता हूं।
(समझ ) चित्र के अनुसार यहाँ उपर अनुत्तर विमान से लेकर नीचे भवनपति तक के सब जिनमंदिर व जिन प्रतिमाओं को, स्वयं अलोक में खड़ा रह, व सामने लोक रख, लोक में देखना है । 'जं किंचि' बोलते ही तीनों लोक के शाश्वत अशाश्वत तीर्थ-जिनमंदिर पर दृष्टि पड़े, व 'सग्गे' बोलते समय उपर वैमानिक व ज्योतिष्क स्वर्ग के, 'पायालि' उच्चारण में नीचे व्यंतर-भवनपति के, व 'माणुसे लोए' बोलने में जंबूद्वीपादि के जिनमंदिर पर दृष्टि पडे । (अगर 'मनुष्य लोक' से मध्यलोक ले तो व्यंतर-ज्योतिष्क के मंदिर में असंख्य मंदिर दिखाई पड़े, बाकी में संख्यात) । 'जाइं जिण०' बोलते समय इन मंदिरों में चतुर्मुख या एकमुख प्रतिमा दिखाई पडे । 'ताइं वंदे० ' बोलने में उन सब के प्रत्येक के चरण में दो हाथ जोड़ अपना सिर नमे । तात्पर्य, असंख्य जिनचरण में असंख्य स्व-शिर झुकते दिखाई पड़े । इस प्रकार वंदना करनी है।
'जावंति चेइयाई' सूत्र का भी चित्र यही है । मात्र अपने को अलोक में नहीं किन्तु 'इह संतो' यहाँ ही बैठे रहे 'उड्ढे अ...' स्वर्ग-पाताल-मध्यलोक के चैत्य अर्थात् मंदिर व जिनबिंब पर दृष्टि डालनी हैं ।
'सव्वलोए०' में समस्त लोक के बिम्बों को देव-मनुष्य द्वारा किए जाते वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान दिखाई पड़े व स्वयं को इनकी अनुमोदना हो । ('पूजन' पुष्पादि से, 'सत्कार' अंगरचना आभूषणों से, 'सन्मान' स्तुति-गुणगान से होता है ।
सामाइय-वय- जुत्तो (सामायिक-पारण) सूत्र
सामाइय-वय-जुत्तो जाव मणे होइ नियम संजुत्तो । (अर्थ) सामायिक व्रत से युक्त जीव जहां तक मन छिन्नइ असुहं कम्मं सामाइय जत्तिया वारा ||१|| में नियम से युक्त है (वहां तक) वह अशुभ कर्म का सामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । उच्छेद करता रहा है, (यह भी) सामायिक जितनी एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥२॥ बार होती है (उतनी बार) सामायिक करे उसमें ||१|| सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, जिस कारण श्रावक साधु जैसा होता है। विधि करने में जो कोई अविधि हुई हो वह सभी इस कारण से बहुत बार सामायिक मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं करनी चाहिए ||२|| (मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो)
दश मनके दश वचनके बारह कायाके ऐसे बत्तीस दोषमें से जो कोई दोष लगा हो तो वह सभी मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं ।
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नमुन्धुणं
भगवंताणं
नमुत्थुण
आरहताण
आइगराण
सय
प्रभुत्वय दीक्षा लेते है
सबुद्धाण
तित्थायराण
पुरिसुत्तमाणं
पुरिससीहाण .
पुरिस
वर
पुरिस-वर-गधहत्यीण
पुण्डरीआणं
RUITM
कैवल्य श्रीदेवी
an Educate Intern
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नमुत्थुणं (शक्रस्तव) सुत्र (भाग-१) नमुत्थुणं अरिहंताणं
(अर्थ) नमस्कार हो (८ प्रातिहार्यादि सत्कार के योग्य) अरिहंतों को, भगवंताणं
(उत्कष्ट ऐश्वर्यादिमान) भगवंतों को. (इस सत्र में प्रथम पद प्रत्येक विशेषण को लग सकता है, जैसे कि नमोत्थु णं अरिहंताणं, नमोत्थु
णं भगवंताणं, नमोत्थु णं आइगराणं) (२) आइगराणं
धर्म (अपने अपने धर्मशासन) के आदिकर को, तित्थयराणं
चतुर्विध संघ (या प्रथम गणधर) के स्थापक को, सयं-संबुद्धाणं
(अन्तिम भव में गुरु बिना) स्वयं अच्छे बुद्ध को (स्वयं बोध प्राप्त कर
चारित्र-ग्रहण करनेवालों को) (३) पुरिसुत्तमाणं
जीवों में (जात्यरत्नवत् अनादिकाल से) उत्तम को, पुरिस-सीहाणं
जीवों में सिंह जैसे को (परीसह में धैर्य, कर्म के प्रति क्रूरता आदि से), पुरिस-वरपुंडरीयाणं जीवों में श्रेष्ठ कमल समान को, (कर्मपंक-भोगजल से अलग रहने से), पुरिस-वरगंधहत्थीणं जीवों में श्रेष्ठ गंधहस्ती समान को (अतिवृष्टि आदि उपद्रवगजों को
दूर रखने से), (समझ) यहाँ 'नमोत्यु णं' व अंत में नमो जिणाणं' पद बोलते समय दो हाथ, दो पैर, व सिर को भूमि पर १ या ३ बार लगाना ध्यान में रहें ।
नवकार-सूत्र में मात्र 'नमो' पद होने से अर्थ 'मैं नमस्कार करता हूँ' । यहाँ 'नमोत्थु' = 'नमो अस्तु' है, अर्थ 'मेरा नमस्कार हो' । इसमें नमस्कार की प्रार्थना है । 'नवकार' में तो इच्छायोग का नमस्कार है इसके हम अधिकारी है, किन्तु यहाँ ऊँचा सामर्थ्ययोग का नमस्कार है जो वीतरागभाव के निकट में ही प्राप्त होता है, अतः अब हम इसके अधिकारी नहीं है किन्तु इसकी मात्र प्रार्थना-आशंसा-अभिलाषा कर सकते हैं । अतः 'नमोत्थ' कहा । इस प्रार्थना में दिल की आशंसा व्यक्त होती है, व आशंसा भी धर्म का बीज होने से अवश्य कर्तव्य है।
(१) 'अरिहंताणं' बोलने पर सुरासुरेन्द्रपूजित व अष्ट प्रातिहार्ययुक्त अनंत अरिहंतों को दृष्टि सन्मुख रखने हैं। 'भगवंताणं' बोलने पर 'भग' यानी सर्वोत्तम ऐश्वर्य-रुप-यश-श्री-धर्म-प्रयत्नवाले देखने है, जैसे कि 'ऐश्वर्य' में प्रभु क्रोड देवों से परिवरित हो कर सुवर्ण-कमल पर पैर रखते हुए, दो बाजू चंवर-भामंडल व गगन में छत्र-सिंहासनदेवदंदभि के साथ विहार कर रहे दिखाई पडे, प्रभ को बाज में पेड नमते हैं. गगन में पक्षी प्रदक्षिणा देते हैं यह टिखे ।
(२) 'आइगराणं' में श्रुतधर्म-द्वादशांगी प्रवचन के 'आदि' प्रारम्भकर्तारुप में देखे, बाद में यह धर्म गणधर, आचार्य आदि में चला । 'तित्थयराणं' में तीर्थ यानी चतुर्विध संघ या प्रथम गणधर को स्थापित करने वाले, 'सयंसंबुद्धाणं' में अन्तिम भव में गुरु के बिना स्वयं बोध पा कर चारित्र लेते हुए दृष्टव्य है।
(३) 'पुरिसुत्तमाणं' में खाण में पड़े हुए जात्यरत्न जैसे प्रभु को अनादि निगोद में से विशिष्ट तथाभव्यत्व की वजह से अन्य जीवों की अपेक्षा उत्तम देखना है । वही उत्तमता अन्त में तीर्थकरत्व में फलित होती है । 'पुरिससीहाणं' में सिंह की भाँति कर्मों के प्रति क्रूर, मोह के प्रति असहिष्णु, विषयों के प्रति बेपरवाह, परिसह-उपसर्गों के प्रति अखिन्न इत्यादि रुप में देखना है । 'पुरिसवर-पुंडरीयाणं' में श्रेष्ठ कमल के समान प्रभु कैवल्यश्री (केवलज्ञान स्वरुप लक्ष्मीदेवी) के भवनरुप हैं, अथवा कमल के समान कर्म-कीचड़ में उत्पन्न व भोग-जल से वर्धित किन्तु इन दोनो से ऊँचे रहनेवाले हैं । 'पुरिस-वरगंधहत्थीणं' में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान मारकाट-मरी-दुष्काल आदि उपद्रवरुप दुष्ट हाथियों को दूर हटानेवाले श्रेष्ठ गंधहस्ती समान देखने हैं । अनाज के थेले आने से दुष्काल नष्ट होता है व तीड वापस लौटते हैं, बाढ़ वापस घूमती है, सूके खेतों पर बादल आने से बारिस की आशा होती है। 50/दो गोड़े या दाये गोड़े को भूमि से लगा कर व कोणी पेट पर रख कर, अंजलिबद्ध योगमुद्रा से दो हाथ मुंह के पास रख यह सूत्र पढ़ना है ।
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धम्मदयाणं धम्मदेसयाण
अभयदयाण
JanDecshara
ast
७ भय
(चित्त स्वस्थता
लोगुत्तमाणं
चक्खदयाण
धम्मनायगाणं
धम प्रशसा
लोगनाहाण
प्रवर्तन-पालन-दमन
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लोगहियाणं
मरगट्याण
धम्मसारहीणं
चित्तानुकुलता
चतुर्गति
तिच्छदकधी
मेचक्र
लोग-पज्जोअगराणं
बोति
सरणदयाण
वोहिदयाणं
तत्त्वजिज्ञासा
गपड़वाणं
तत्त्ववधि
धम्मवर-चाउरन्त-चक्कवट्टाण
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नमत्थण (शक्रस्तव) सत्रभाग-१
(४) १ लोगुत्तमाणं
२ लोगनाहाणं ३ लोगहियाणं ४ लोगपईवाणं
५ लोगपज्जोअगराणं (५) १ अभयदयाणं
२ चक्खुदयाणं ३ मग्गदयाणं ४ सरणदयाणं
५ बोहिदयाणं (६) १ धम्मदयाणं
२ धम्मदेसयाणं ३ धम्मनायगाणं ४. धम्मसारहीणं ५ धम्म-वर-चाउरंतचक्कवट्टीणं
(अर्थ) (१) सकल भव्यलोक में (विशिष्ट तथाभव्यत्व से) उत्तम को, (२) चरमावर्त प्राप्त जीवों के नाथ को (मार्ग का 'योग-क्षेम' संपादनसंरक्षण करने से), (३) पंचास्तिकाय लोक के हितरुप को (यथार्थनिरुपण से), (४) प्रभुबचन से बोध पानेवाले संज्ञिलोगों के लिए प्रदीप स्वरुप को, (५) उत्कृष्ट १४ पूर्वी गणधर लोगों के लिए उत्कृष्ट प्रकाशकर को । (१) 'अभय'-चित्तस्वास्थ्य देनेवालों को, (२) 'चक्षु' धर्मदृष्टि-धर्म आकर्षण देनेवालों को, (३) 'मार्ग' अवक्रचित्त के दाता को, (४) 'शरण'-तत्त्वजिज्ञासा देनेवालों को, (५) बोधि' तत्त्वबोध (सम्यग्दर्शन) के दाता को । (१) चारित्रधर्म के दाता को, (२) धर्म के उपदेशक को, (यह संसार जलते घर के मध्यभाग के समान है, धर्ममेघ ही वह आग बुझा सकता है...ऐसा उपदेश) (३) धर्म के नायक (स्वयं धर्म कर औरों को धर्म में चलानेवालों) को, (४) धर्म के सारथि को (जीव-स्वरुप अश्व को धर्म में दमन-पालन-प्रवर्तन करने से), (५) चतुर्गति-अन्तकारी श्रेष्ठ धर्मचक्र वालों को ।
समझ: (४) 'लोगृत्तमाणं' आदि पांच पदों में 'लोक' के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं, १) सकल भव्यलोक में उत्तम, २) चरमावर्त प्राप्त
जीवों के नाथ (मोक्षमार्ग के प्रापक-संरक्षक योग-क्षेमकर्ता) ३) पंचास्तिकाय लोक हो हितरुप (यथार्थ वक्ता होने
से), ४) प्रभु से ज्ञान प्राप्त करे वैसे लोगों के प्रदीप, ५) उत्कृष्ट १४ पूर्वी गणधर लोगों को प्रद्योतकर | (५) अभयदयाणं...जंगल में लूटे गए व चक्षुपट्ट बन्ध हुए को कोइ दयालु निर्भय करे, पट्ट छोड़ दृष्टि दे, मार्ग दिखावे,
नंटे गए माल का पता दे, इसी तरह भगवान 'अभय' = चित्तस्वास्थ्य, 'चक्ष' = धर्मदृष्टि धर्मआकर्षण, 'मार्ग'= अवक्रचित्त, जो तत्त्वसम्मुख हो, 'शरण' = तत्त्व-जिज्ञासा, 'बोधि' = तत्त्वदर्शन के दाता हैं। (६) धम्मदयाणं-चारित्रधर्म के दाता, धर्म के उपदेशक (यह संसार जलते घर के मध्य भाग के समान है, धर्ममेघ ही
आग बुझानेवाला है...इत्यादि), धर्म के नायक, स्वयं धर्म सिद्ध कर दूसरों को धर्म में ले चलनेवाले, धर्म के सारथि दमन-पालन-प्रवर्तन करने द्वारा, चतुर्गति-अन्तकारी श्रेष्ठ धर्मचक्र वाले धर्मचक्रवर्ती ।
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चौद राजलोक
(समस्त लोकालोक के शाश्वत ज्ञान दर्शन को धरनेवाले) अप्पडिहय-वर-नाणदंसण-धराणं
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नियंग
पूर्ण न्या
कम.
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लोक
कम
वांसला और चंदन की ओर समान वृत्तिवाले होकर
छद्म कर्म के आवरण दूर करनेवाले वियट्टछउमाणं
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी,
रुज अनत-अक्षय-अव्याबाध
पुनरावृत्ति- सिद्धिगति-नाम-स्थान- संप्राप्त
मुत्ताण माअगाण
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बुद्धाण बहियाण
तिण्णाणं तारयाणं
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जिणाणं जावयाण
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मोक्षनगर में प्राप्त
कवल्य बोधवाल
अज्ञान समुद्र को तैरनेवाला
३०
मोह को जीतनेवाला
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नमुत्थुणं सूत्र (शक्रस्तव) भाग-३
(७) अप्पडिहय-वर-नाणदंसणधराणं वियट्ट-छउमाणं
(८) जिणाणं जावयाणं
तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोह
मुत्ताणं मोअगाणं
(९) सव्वण्णूणं सव्वदरिसीणं सिव-मयल-मरुअ-मणंत मक्खयमव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं
जिअभयाण
(अर्थ) अबाधित श्रेष्ठ (केवल) - ज्ञान दर्शन धारण करनेवाले, छद्म (४ घातीकर्म) नष्ट करनेवाले. राग-द्वेष को जीतनेवाले, जितानेवाले, अज्ञानसागर को तैरनेवाले, तैरानेवाले, पूर्णबोध पानेवाले, प्राप्त करानेवाले,
मुक्त हुए, मुक्त करानेवाले. सर्वज्ञ-सर्वदर्शी,
उपद्रवरहित-स्थिर अरोग अनंत (ज्ञानवाले)- अक्षयपीडारहित-अपुनरावृत्ति
सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त,
भयों के विजेता जिनेश्वर भगवंतों को
नमस्कार करता हूँ ।
समझ - (चित्र में) (७) 'अप्पडिहय०' प्रभु अबाधित केवल ज्ञान-दर्शन से समस्त त्रिकाल के समस्त विश्व को देखते हैं, एवं मोहनीय कर्म सहित समस्त घाती कर्म नष्ट होने से प्रभु निरावरण-वीतराग है, भक्त या शत्रु के प्रति रागद्वेष वाले नहीं, एवं ज्ञानावरणादिवाले नहीं ।
(८) 'जिणाणं जाव०' बोलते वक्त जिन-तीर्ण-बुद्ध-मुक्त इन चार क्रमिक अवस्था के चित्र सामने आवें, (१) 'जिन'
माने प्रभु ध्यान में खड़े रह कर राग-द्वेष को जीतते दिखें । 'तीर्ण' में प्रभु गोदोहिका आसने ध्यानस्थ रह कर बाकी के ३ घाती कर्मों को तैर जाते व अज्ञान, निद्रा, अंतराय को हटाते दिखें । 'बुद्ध' में केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर समवसरण पर बैठें व 'मुक्त' में सिद्धशिला पर कर्ममुक्त हो स्थिर हुए दिखें । ये चार अवस्थाएं १४ गुणस्थानक की दृष्टि से क्रमशः १० वे के अंत में, १२ वे के अंत में, १३ वे में, व १४ वे के अन्त में होती है । अरिहंताणं पद में बहुबचन है इसलिए ऐसे जिन-तीर्ण आदि अनंत दिखें । साथ साथ 'जावयाणं' 'तारयाणं'... आदि पदों में भव्य जीवों को जिन-तीर्ण आदि बनाते हैं वैसा देखा जाए ।
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चित्र में बाजू में उपमा बताई है-संसार सागर दिखाया है। इसमें फसा हुआ जीव पहले मोह-स्वरुप मगरमच्छ के मुँह से निर्ग्रन्थ चारित्र स्वरुप मुष्टिप्रहार करके बाहर नीकलता है, बाद में अज्ञान-निद्रा-अंतराय स्वरुप जल में से तैर जाता है, पीछे केवलज्ञान स्वरुप प्रकाशमय तट पर पहुँचता है, पश्चात् मोक्षस्वरुप इष्ट नगर में जा कर स्थिर होता है ।
(९) सव्वन्नूणं...मोक्ष में भी प्रभु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं, एवं ऐसी सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त है जहां शिव अचल...आदि अर्थात् कोई अशिव उपद्रव नहीं, चलायमानता नहीं, रोग नहीं, क्षय-मृत्यु-नाश नहीं, कोई ज्ञेय का अन्त (सीमा) नहीं, कोई बाधा-पीड़ा नहीं, जहाँ से अब कभी संसार में पुनरावर्तन- पुनर्गमन नहीं ऐसे सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त । ऐसे एवं 'नमो जिणाणं'... भयों के विजेता जिनेश्वर भगवन्तो को नमस्कार करता हूँ ।
'नमो जिणाणं जियभयाणं' बोलते समय पांच अंगों को भूमि पर एक या तीन बार लगाना ध्यान में रहे।
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। (नमुत्थुणं-सुत्र (शकस्तव) (भाग-४) (द्रव्यजिन-वंदन) । जे अ अइया सिद्धा,
(अर्थ ) जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व जे अ भविस्संति णागए काले ।
जो भविष्य काल में होंगे, संपइ अ वट्टमाणा
एवं (जो) वर्तमान में विद्यमान हैं, सवे तिविहेण वंदामि ।।
(उन) सब को मन-वचन-काया से वंदन करता हूं | (समझ ) यहाँ त्रिकाल के तीर्थंकर भगवन्तों को वंदना है । (आगे भविष्य में होनेवालों को भी उनकी वर्तमान अवस्था-रुप में नहीं, किन्तु भावी भावतीर्थंकर अवस्था याद कर के वंदना करनी है । इसी रुप में अतीत सिद्ध हुए को भी)
चित्र के अनुसार बायीं ओर अनन्त भगवान को समवसरणस्थ देखते हुए 'जे अ अइया सिद्धा' बोलना, एवं दायी ओर भी अनन्त जिनेन्द्र देवों को समवसरणस्थ देखते हुए 'जे अ भविस्संति णागए काले' बोलना व 'संपइ अ वट्टमाणा' बोलते समय सामने वर्तमान श्री सीमंधर भगवान आदि २० प्रभु समवसरण पर विराजमान दिखाई पड़े । उन सब के प्रत्येक के चरण में दो हाथ जोड़ अपना सिर झुकता हुआ दिखाई पड़े । कल्पना में अपने अनन्त सिर झुकते दिखें । चित्र मे नहीं बताया फिर भी सभी भगवान समवसरण-ऋद्धि युक्त देखें ।
नमोऽहत सुत्र नमोऽर्हत्-सिद्धा-ऽऽचार्यो-पाध्याय-सर्वसाधुभ्यः । अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय एवं समस्त
- साधु भगवंतो को मैं नमस्कार करता हूं |
चित्रसमझ : यहां बहुवचन होने से QUAON
हम एक-दो नहीं किन्तु अनन्त अरिहंत देव आदि को, सूत्र बोलते समय दृष्टि समक्ष कर सकते हैं।
चित्र में दिखाये अनुसार (१) अनंत अरिहंत देवों को समवसरणस्थ, (२) सिद्ध भगवंतों को सिद्धशिला पर शरीर रहित स्फटिकवत् ज्योतिर्मय, (३) आचार्य महाराजों को प्रवचन देकर पंचाचार प्रचारते हुए, (४) उपाध्याय महाराजों को शिष्यमंडली समक्ष शास्त्र पढाते हुए, एवं (५) साधु मुनिराजों को ध्यान में खड़े दृष्टि समक्ष लावें ।'
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भगवानहंसत्र
भगवानहं, आचार्यहं, उपाध्यायहं, सर्वसाधुहं ।
भावार्थ : ४ खमासमण देते समय चित्र में दिखाये अनुसार 'भगवानहं' पद से अनन्त तीर्थंकर भगवान को, वैसे 'आचार्यहं...' आदि बोलते समय अनंत आचार्य-उपाध्याय-साधु को दृष्टि समक्ष लावें ।
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जावंत केवि साहू... अडुढाइज्जेसु...
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जावंत के वि साहू भरहेरवय-महाविदेहे य । सव्वेसि तेसिं पणओ
तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥
(९) आयरिय उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य ।
जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ||
(२) सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अअलि करिय सीसे ।
सव्वं खमावइत्ता,
खमामि सव्वस्स अहयं पि ।। (३) सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म-निहिय-नियचित्तो ।
सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥
जावंत के वि साहू सूत्र
(अर्थ) जितने भी भरत-ऐरवत महाविदेह में (करण करावण अनुमोदन) त्रिविध रीति से त्रिदंड (मन-बचन काया की असत् प्रवृति) से निवृत्त कोई साधु है उन सब को मैं वंदन करता हूं ।
आयरिय उवज्झाए सूत्र
सव्वस्स वि राइअ (देवसिअ) दुच्चिन्ति दुब्भासिअ दुच्चिट्ठिअ, (इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ? इच्छं, तस्स) मिच्छामि दुक्कडं ।
(१) आचार्य-उपाध्याय के प्रति,
शिष्य के प्रति, साधर्मिक के प्रति, कुल-गण के प्रति (कुल = एक आचार्य का समुदाय) मुझ से जो कोई कषाय हुए हो, उन की उन सब के आगे त्रिविध (मनवचन-काया) से मैं क्षमा मांगता हूं ।
(समझ ) चित्र में दिखाये अनुसार मनुष्य लोक २।। द्वीप के ५-५ भरत-ऐरवत-महाविदेह क्षेत्र में रहे हुए मुनिराजों को विविध योग में देखते है । उन में कई विहार कर रहे हैं, कई गोचरी जाते हैं, कई आवश्यक क्रिया, प्रतिलेखना, स्वाध्याय या सेवा या ध्यान कायोत्सर्ग-केशलोच आदि कर रहे हैं, कई अध्ययन कराते हैं, इत्यादि । ये सब के सब मन-वचन-काया के असद् विचार-वाणी-वर्तन से त्रिविधे निवृत्त हैं, यानी ऐसी असत् प्रवृत्ति न खुद करते हैं, न दूसरे के पास कराते हैं न किसी की पसंद करते हैं। हम २॥ द्वीप के बाहर रह कर सामने २॥ द्वीप में इन सब मुनि भगवंतों को देख नमस्कार करते हैं ऐसा दृष्टव्य है ।
(२) पूज्य समस्त श्रमण (साधु) संघ के प्रति मस्तक पर (दो हाथ की) अअलि लगा कर उस समस्त की क्षमा मांग के मैं भी उस समस्त को क्षमा करता हूं । (उनके प्रति उपशान्त होता हूं ।)
(३) समस्त जीवराशि के प्रति उपशम भाव से धर्म में अपना चित्त स्थापित कर सबकी क्षमा मांग कर मैं भी सब को क्षमा करता हूं, (उपशान्त होता हूं) ।
आयरिय-उवज्झाए॰ सूत्र- यहाँ दो गाथा पढ़ते समय चित्रानुसार सम । आचार्य उपाध्यायादि को देखना है । तीसरी गाथा के समय १४ राजलोक को सामने लाकर उसमें एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सर्व जीवों को देख उनकी क्षमा मांगनी देनी है । 'अड्ढाइज्जेसु०' सूत्र का चित्र भी उपर मुताबिक समझना ।
सव्वरस वि सूत्र
(अर्थ) दुष्ट चिंतन वाले, दुष्ट भाषण वाले व दुष्ट चेष्टा वाले, रात्रि (दिवस) सम्बन्धी समस्त अतिचार का [(क्या...? इसका हे भगवन् ! आपकी इच्छा से आदेश दें । यहाँ गुरु कहें 'इसका प्रतिक्रमण कर' मैं स्वीकार करता हूं, (उस समस्त अतिचार का)] मेरा दुष्कृत मिथ्या हो (अर्थात् मैं दुष्कृत की जुगुप्सा करता हूं ।)
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३ सत्कार (वस्त्रालंकारादि से)
२ पूजन (पुष्पादिसे)
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१ वंदन
४ सन्मान (स्तुति आदि से)
५ बोधिलाभ
आरहतचइयाण मानिस
६ निरुपसर्ग (मोक्ष)
श्रद्धा
मधाशद्धशास्त्रग्रहण धति दःखविन्वागत धारणा चित्तोपयोगदहता जीवादितच्च प्रतीति से के आकर कौशल्य से मनःसनाधिरुप धैर्य से अविस्मरण से
अनुप्रेक्षा वार्थानुचिंतन से
श्रद्धा से, शरम-बलात्कार से नहीं
मेधा से. जडता से नहीं
धृति से, रागद्वेषादि-व्याकुलता से नहीं
धारणा से, चित्त की शून्यतासे नहीं
अनुप्रेक्षा से, तत्त्वार्थचिंतन के बिना नहीं
जलशोधकमणिवत् औषध के समान विन्तामणि-समान जिनोक्त मोतीमाला में परोये मोतीबत आगरन से कर्ममलशोधक अग्निसन वित्तमालिन्यशोधक वितरोगनाशक सम्राकार चितरोगनाशक सम्यक्शासा के धर्म की प्राप्ति से दुःख चिन्तनपदार्थों
अनुप्रेक्षा से अनुभूत SIG I ational ग्रहण-आदर-काशल्य नाविन्तामुक्ति
का दृढ संकलनधारणा
(अर्थाभ्यासविशेष-परम संवेगदरता अधिकाधिक संपत्ताकर्मनाशकेतलजाब
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| अरिहंत-चेइयाणं (चैत्यस्तव) सूत्र अरिहंत-चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं । (अर्थ-) मैं कायोत्सर्ग करता हूं अरिहंत प्रभु की प्रतिमाओं के १. वंदणवत्तियाए
(मन-वचन-काया से संपन्न) वंदन हेतु २. पूअणवत्तियाए
(पुष्पादि से सम्पन्न) पूजन हेतु, ३. सक्कारवत्तियाए
(वस्त्रादि से सम्पन्न) सत्कार हेतु, ४. सम्माणवत्तियाए
(स्तोत्रादि से सम्पन्न) सन्मान हेतु, ५. बोहिलाभवत्तियाए
(तात्पर्य, वंदनादि की अनुमोदना के लाभार्थ) ६. निरुवसग्गवत्तियाए
(एवं) सम्यक्त्व हेतु, मोक्ष हेतु, (यह भी कायोत्सर्ग 'किन साधनों' १. सद्धाए
से ? तो कि) वड्ढमाणीए बढती हुई २. मेहाए
श्रद्धा = तत्वप्रतीति से (शर्म-बलात्कार से नहीं), ३. धिईए
मेधा = शास्त्रप्रज्ञा से (जडता से नहीं) ४. धारणाए
धृति = चित्तसमाधि से (रागादिव्याकुलता से नहीं) ५. अणुप्पेहाए
धारणा = उपयोगदृढता से (शून्य-चित्त से नहीं) वढमाणीए
अनुप्रेक्षा = तत्त्वार्थचिंतन से (बिना चिंतन नहीं), ठामि काउस्सग्गं
मैं कायोत्सर्ग करता हूं। (समझ ) यह सूत्र, अर्हद्-बिम्बों को भव्यात्माओं के द्वारा होते हुए वंदन-पूजन आदि का अनुमोदना द्वारा लाभ पाने के लिए एवं सम्यक्त्व-मोक्ष का लाभ पाने के लिए जो कायोत्सर्ग करना है, उसके लिए बोला जाता है | सूत्र में दो भाग हैं, (१) एक, कायोत्सर्ग के ६ निमित्त यानी जिन प्रयोजनों से कायोत्सर्ग किया जाता है, (२) दूसरा, कायोत्सर्ग के ५ साधन, जिनको कायोत्सर्ग में जूटाना हैं।
छ: प्रयोजनों में, (१) चार प्रयोजन अर्हत्-प्रतिमाओं के वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान के लाभ, एवं (२) दो प्रयोजन बोधिलाभ व मोक्ष के लाभ हैं । इसलिए ध्यान में रहे कि 'अरिहंत-चेइयाणं' पद का संबन्ध मात्र 'वंदणवत्तियाए' से ले कर 'सम्माणवत्तियाए' तक के चार पदों के साथ जोड़ना है, और यह जोड़ने के बाद 'करेमि काउस्सग्गं' पद जूटेगा। जैसे कि, 'अरिहंत-चेइयाणं वंदणवत्तियाए करेमि काउस्सग्गं' 'अरि०चेइ. पूअणवत्तियाए करेमि काउ०, अरि० चे० सक्कार. क. का.,' 'अरि० चे० सम्माण. क. काउ० ।'
बाकी दो में 'अरि० चेइ०' नहीं, किन्तु 'करेमि काउस्सग्गं' पद जूटेगा, जैसे कि 'करेमि काउ० बोहिलाभवत्तियाए, 'करेमि का. निरुवसग्गवत्तियाए' । पाँच साधनों के 'सड्ढाए' आदि पद हैं, व 'वड्ढमाणीए' पद इस प्रत्येक के साथ जूटेगा, जैसे कि सड्ढाए वड्ढमाणीए, मेहाए वड्ढमाणीए...| कायोत्सर्ग इस बढ़ती हुई श्रद्धा-मेधा आदि को साथ में रख कर करना हैं, अतः ये साधन हैं ।
चित्र में ऊपर सीधी लाईन में हैं वैसे 'अरिहंत-चेइयाणं' बोलते समय अर्हद्-बिम्ब दृष्टि में आवें । 'वंदणवत्तियाए' बोलते समय चित्र की तरह हजारों भाविकों से की जाती वंदना, 'पूअणवत्ति समय चित्र २ के अनुसार कई पूजकों से होती पुष्पादिपूजा, 'सक्कारवत्ति०' वक्त चित्र ३ के समान वस्त्र-आभूषणादि से सत्कार, एवं सम्माणवत्ति०' बोलते समय चित्र ४ की तरह भाविकों से किये जाते स्तुति-गुणगान दृष्टि में आवे व प्रत्येक में अतीव हर्ष हो, 'वाह ! प्रभु को हजारों-लाखों से किया जाता कैसा बढ़िया सुन्दर वंदन !...पूजन ! सत्कार ! सन्मान !
(५) 'बोहिलाभवत्तियाए' में बोधिलाभ सम्यक्त्व दृष्टि में लाने के लिये एक दृष्टान्तरुप से चित्र के बाँये मध्य में दिखाई वैसी चन्दनबाला (या अन्य किसी) का (अत्यन्त) प्रभुप्रेम व प्रभुवचन-श्रद्धा दृष्टि में आये । वह भोयरे में ३ दिन भूखी प्यासी कैद होती हुई भी स्वकर्म का दोष देखती हुई चित्त में प्रसन्नता से प्यारे वीरप्रभु का स्मरण कर रही है । (६) 'निरुवसग्ग०' बोलते वक्त चित्र दायें मध्य की तरह सिद्धशिला पर विराजित अनन्त सिद्धों से प्राप्त निरुपसर्ग मोक्ष दृष्टि में आवे |
चित्र में नीचे कायो० के ५ साधन श्रद्धा-मेधादि को दृष्टान्त विवरण के साथ दिखाये हैं, जैसे कि-श्रद्धा जलशोधक मणि की तरह चित्त की मलिनता की नाशक है । मेधा जैसे रोगी को औषध के प्रति, वैसे शास्त्रग्रहण के प्रति अति आदर व प्रज्ञा-कौशल्य रुप है । धृति चिन्तामणि की प्राप्ति के समान जैन धर्म व कायोत्सर्गादि की प्राप्ति से धैर्यनिश्चिन्तता स्वरुप है । धारणा मोतीमाला में परोये मोतीवत् चिन्तनीय पदार्थों का दृढ़ श्रेणिबद्ध संकलनरुप है । अनुप्रेक्षा तत्वार्थ-चिन्तन रुप है, और वह परम संवेगदृढ़तादि द्वारा आग की तरह कर्ममल को जला
देती है।
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जगभाववियक्रवण
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कर्म ८कर्म ८कर्म
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जगचिन्तामणि सूत्र (भाग-2) (१) जगचिन्तामणि ! जगनाह ! (अर्थ-) हे जगत के चिंतामणिरत्न ! हे जगत के नाथ ! जगगुरु ! जगरक्खण !
हे जगत के गुरु ! हे जगत के रक्षक ! जगबंधव ! जगसत्थवाह !
हे जगत के बन्धव ! (सगे !) हे जगत के सार्थवाह ! जगभाव-वियक्खण !
हे जगत के भावों के ज्ञाता ! (२) अद्वावय-संठवियरुव !
हे अष्टापद पर स्थापित बिंबवाले ! कम्मट्ट-विणासण !
हे आठ कर्मों के विनाशक ! चउवीसं पि जिणवर !
हे चौबीश भी जिनेन्द्र ! जयंतु अप्पडिहयसासण !
हे अबाधित (धर्म-तत्त्व) शासनवाले ! आप जयवंत रहें । (समझ-) गणधरदेव श्री गौतमस्वामीजी महाराज ने अष्टापद पर्वत पर जा कर वहां भरत चक्रवर्ती स्थापित २४ जिनेश्वर भगवंत के बिम्ब के आगे यह स्तुति की । इसमें भगवान के ९ विशेषण है, हे जगत के १ चिन्तामणि-२ नाथ३गुरु-४ रक्षक-५ बंधव-६ सार्थवाह-७ भावज्ञाता, हे ८ अष्टकर्मनाशक-९ अबाधितशासनक
इसमें प्रत्येक पद का भाव मन में लाने के लिए चित्र में दायी ओर से क्रमशः दिखाये अनुसार भगवान को वैसे वैसे देखना है, जैसे कि, (१) भगवान 'चिन्तामणिरत्न' के समान अचिंत्य प्रभाव से जगत के मनुष्य-स्वर्गलोक एवं मोक्ष के सुख के दाता हैं । (२) 'नाथ', जगत को अप्राप्त सम्यग्दर्शनादि के प्रापक व रक्षक हैं। (३) 'गुरु', जगत को सम्यकतत्त्व के उपदेशक हैं । (४) 'रक्षक' जगत का कषाय लूटेरों से रक्षण करनेवाले हैं। (५) 'बंधव', विश्व के जीवों को 'अभयदान दो व मैत्री करो' यह सिखाने से उनके बंधव=निजी सगे है। (६) जगत के जीवों को मोक्षमार्ग पर ले चलनेवाले सार्थवाह हैं। (७) 'जगभावः', जगत यानी समस्त लोक-अलोक के भावों के कुशल ज्ञाता हैं । ऐसे अष्टापद स्थित २४ भगवान (८) 'कम्मट्ठ.' -आठों कर्मों के विध्वंसक हैं । (९) 'अप्पडिहय.'-त्रिकालाबाध्य व समस्त इतर दर्शनों से अबाधित तत्त्वशासन-धर्मशासन के प्ररुपक हैं ।
भुवनदेवता स्तुति ज्ञानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानां ।
विद्धातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्व साधूनाम् ।। अर्थ : ज्ञानादिगुणों से युक्त, सदाकाल स्वाध्याय संयम में तत्पर सर्वसाधुओं का कल्याण भवनदेवता सदाकाल करें।
| क्षेत्रदेवता स्तुति यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया ।
सा क्षेत्रदेवता नित्यं, भूयान्नः सुखदायिनी ।। अर्थ : जिनके क्षेत्र का आश्रय लेकर साधु आत्महितकर क्रिया साधते हैं वह क्षेत्रदेवता सदाकाल हमें
सूखदायिनी हो।
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जयउ वीर ! सच्चरितडण
जयर सामिय ! जयउ सामिय !
रिसह सतुंजि
उज्जितमह ने सिजिया
अरुअच्छाई मणिसव्वय
सहुरि पास दुह-दुरिअ-राण
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- जगचिंतामणि सुत्र (भाग-२) कम्मभुमिहि०, जयउ सामिय० (चालु)
(३) कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढम संघयणि (अर्थ-) सब कर्मभूमिओं में (मिलकर) वज्रऋषभनाउक्कोसय सत्तरिसय जिणवराण विहरंत लब्भइ । राच संघयण वाले उत्कृष्ट १७० जिनेश्वर विचरते नवकोडिहिं केवलीण, कोडिसहस्स नव साहु गम्मइ । हुए मिलते हैं, उत्कृष्ट ९ क्रोड केवलज्ञानी, ९००० संपइ जिणवर वीस, मुणि बिहु कोडिहिं वरनाण, क्रोड साधु पाये जाते हैं । वर्तमानमें २० जिनवर, २ समणह कोडि सहस्स दुअ,
क्रोड केवलज्ञान वाले मुनि, व २००० क्रोड साधु थुणिज्जइ निच्चविहाणि ।।
है । नित्य प्रातः काल में (उनकी) स्तुति की जाती है । (४) जयउ सामिय ! जयउ सामिय ! हे स्वामिन्-आपकी जय हो, आपकी जय हो, रिसह ! सत्तुंजि, उज्जिति पहु-नेमिजिण ! शत्रुजय पर हे स्वामिन् ऋषभदेव ! गीरनार पर हे जयउ वीर ! सच्चउर-मंडण !
प्रभो नेमिजिन ! साचोरि के श्रृंगार हे महावीर प्रभो !, भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय !
भरुच में हे मुनिसुव्रत जिन ! मथुरा में दुःख व पाप महुरि पास ! दुह-दुरिअ-खंडण !
के नाशक हे पार्श्वनाथ ! आप की जय हो । (समझ-) श्री अजितनाथ प्रभु के काल में अन्य ४ भरत व ५ ऐवत क्षेत्रों में भी १-१ भगवान यों १०, तथा ५ महाविदेह में प्रत्येक में मेरु के पूर्व-पश्चिम में १६-१६ भगवान यों ३२४५ = १६० प्रभु, कुल मिल के १७० भगवान विचरते थे । चित्र में भगवान के नीचे ९ क्रोड केवलज्ञानी बताये हैं, उनके नीचे ९००० क्रोड मुनि ध्यानस्थ बताये हैं। वर्तमान काल में प्रत्येक महाविदेह में मेरु के दो बाजू २-२, एवं कुल २० भगवान, २ क्रोड केवली व २० अरब मुनि देखना हैं । ('कम्मभूमिहिं०' का चित्र पीछे)
'जयउ सामिय.' का चित्र सामने है । चित्र में दिखाये अनुसार 'रिसह ! सत्तुंजि' बोलते ही मन के सामने तीर्थाधिराज शत्रुजय व उपर श्री ऋषभदेव प्रभु आवें । एवं 'उज्जिति०...' आदि बोलते समय क्रमशः गीरनार-साचोरभरुच-मथुरा में क्रमशः श्री नेमनाथ-महावीरस्वामी-मुनिसुव्रत स्वामी-पार्श्वनाथ आंतरदृष्टि सम्मुख आवें ।
सुअदेवया-स्तुति सूत्र
★ जिनकी श्रुतसागर पर भक्ति है, उन के सुअदेवया भगवई नाणावरणीअ-कम्म-संघायं ।
ज्ञानावरण कर्मों के समूह पूज्य श्रुतदेवी सदा
क्षय करती रहें। तेसिं खवेउ सययं, जेसिं सुअ-सायरे भत्ती ||१||
★ जिस के क्षेत्र में साधुओं चारित्रसहित दर्शनखित्तदेवया-स्तुति सूत्र ज्ञान द्वारा मोक्षमार्ग की साधना करते हैं वह जीसे खित्ते साहू, दंसण-नाणेहिं चरण-सहिएहिं ।
(क्षेत्राधिष्ठायिका) देवी विघ्नों को दूर करे । साहंति मुक्खमग्गं सा देवी हरउ दुरिआई ।।१।।
★ कमलपत्र जैसे विशाल नेत्र वाली, कमल
समान मुखवाली, कमल के मध्य भाग जैसी कमल-दल स्तुतिसुत्र (त्रियों के लिए)
गौर (उज्ज्व ल) व कमल पर बैठी हुई पूज्य कमल-दल-विपुल-नयना, कमल-मुखी कमलगर्भ-समगौरी । श्रुतदेवी सिद्धि दे। कमले स्थिता भगवती, ददातु श्रुतदेवता सिद्धिम् ||१|| * श्रेष्ठ सुवर्ण-शंख-मूंगे-मरकतमणिवरकनक सुत्र
मेघ के समान (पीत-शुक्ल-रक्त-हरित्
कृष्ण वर्णवाले), मोहरहित व सर्व देवों वर-कनक-शंख-विद्रुम-मरकत-घनसन्निभं विगतमोहं ।
से पूजित १७० जिनेंद्रो को वन्दना सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामरपूजितं वंदे ||१||
करता हूं।
|३५|
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कम्मभुमिहि
उत्कृष्ट १७० तीर्थंकर
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कम्मभुमिहि
९ क्रोड केवलज्ञानी ९००० क्रोड मुनि
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जगचिंतामणि - अवरविदेहि तित्थयरा
(जंकिंचि नामतित्थ) (जावंति चेइयाई)
१
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जगचिंतामणि सूत्र (भाग-३) अवर विदेहि० 2
(अर्थ) • महाविदेह में, विशेष क्या चारों दिशाओं में व चारों विदिशाओं में जो कोई हुए हैं, होने वाले हैं, व विद्यमान हैं, उन सब जिनेश्वर देवों को मैं वंदन करता हूँ । (अथवा 'अवर'=उक्त ५ तीर्थ के अलावा 'विदेहि' =अशरी-मुक्त बने तीर्थंकर स्थापना रूप से चारों...)
• अवरविदेहि तित्थयरा,
चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि ।
तीयाऽणागय-संपइय, वंदु जिण सव्वे वि ।।
• सत्ताणवई सहस्सा,
लक्खा छप्पन अट्ठ कोडिओ । बत्तीससय बासियाई,
तिय लोए चेइए वंदे ॥
• पनरस कोडिसयाइं,
• तीन लोक में (स्थित) ८ क्रोड ५६ लाख ९७ हजार, ३२८२ (शाश्वत) जिन मंदिरों को वंदन करता हूँ । ८,५७,००,२८२
कोडिबायाल, लक्ख अडवन्ना ।
छत्तीस सहस असीइं,
सासय बिंबाई पणमामि ||
१५४२ क्रोड, ५९ लाख, ३६ हजार, ८० शाश्वत जिनबिम्बों को मैं नमस्कार करता हूँ ।
१५,४२,५९,३६,०८०
(समझ-) यहाँ अपनी चारों ओर भूत वर्तमान-भावी सब २॥ द्वीपवर्ती जिनबिम्बों को देख नमस्कार करना है । एवं 'सत्ताणवइ०' 'पनरस० ́ २ गाथा से तीन लोकवर्ती शाश्वत मंदिरों व बिम्बों को नमस्कार करना है ।
●
उवसग्गहर सूत्र
उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर विस- निन्नासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ॥ विसहर फुलिंगमंत, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गह-रोगमारी, दुट्ठजरा जंति उवसामं ।। चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्चं ॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिन्तामणि- कप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ इअ संथुओ महायस !, भत्तिब्भरनिब्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ! II समझ : यहां चार गाथा में क्रमशः पार्श्वप्रभु-फुलिंग मंत्र-प्रणाम व सम्यक्त्व की महिमा बताई,
(१) प्रभु उपसर्गहर-विषनाशक मंगलकल्याण के स्थान है । (२) मंत्र ग्रह-रोगादि पीड़ा-शामक ।
(३) प्रणाम मनुष्य- देवगति दुःख वारक ।
(५) इस प्रकार, हे महायशस्वी प्रभो ! बहुत भक्ति से भरपूर हृदय बनाकर की स्तुति की गई । अतः हे देव ! हे
(४) सम्यक्त्व मोक्षदायी ।
★ अन्तिम गाथा में भक्तिसभर स्तुति के फल में पार्श्व जिनचन्द्र ! (मुझे) जनम जनम जन्मोजन्म बोधि की याचना की गई ।
में बोधि (सम्यक्त्व, जैन धर्म) दीजिए ।
३९
(१) उपसर्गहर पार्श्वयक्ष (या सामीप्य) है जिनका, (या आशारहित), कर्मसमूह से मुक्त, सर्पविष का नाश करनेवाले, (व) मंगल-कल्याण के आवास श्री पार्श्वनाथ प्रभु को मैं वंदन करता हूँ । (२) 'विसहरफुलिंग' मन्त्र जो मनुष्य हमेशा रटता है, उसके दुष्टग्रह, बाह्याभ्यन्तर रोग, हैजा (या मारण प्रयोग) व दुष्ट ज्वरवर्ग उपशान्त होते हैं । (३) (हे प्रभो !) आप का मन्त्र तो दूर रहो, किन्तु आप को किया प्रणाम भी बहुत फलदायी है । (इससे) मनुष्य व तिर्यंच में भी दुःख व दुर्गति (भव-दुर्दशा) नहीं पाता है।
(४) चिन्तामणि व कल्पवृक्ष से भी अधिक (समर्थ) तेरा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाए तो जीव जरामरणरहित स्थान (मोक्ष) को बिना विघ्न प्राप्त कर लेते हैं ।
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गाथा -
गाथा-२ तम तिमिर
नाश
कल्पसूत्र
Z
मोहनाल नाश
dation International
पुकस्व स्वर- फीवड्ढे
संस्कृण भूमिक
व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवती
समवायांग
स्थानाग
सूत्रकृतांग
आचारांग
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ज्ञाताधर्मकथा
उपासकदशांग
अन्तकृद्दशांग
अनुत्तरोपपातिकदशांग
प्रश्नव्याकरण
दिपाकसूत्र
दृष्टिवाद
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पुक्ख रवर-दीवड्डे
श्रत-धर्मी
गाथा-३ जाइ-जरा
Intentional
जन्म
देवदानव पूजित
जरा
जरा
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रोग
शोक
For Priva
lodie
lolnacp
गाथा-४ सिद्धे भो.
Luceni
देव बाग
Cicle
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मति ज्ञान
श्रुव ज्ञान
अवधि ज्ञान
मनःपर्यव ज्ञाब
केवल ज्ञान
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(पुक्खरवर-दीवड्ढे सुत्र (श्रुतस्तव) पुक्खरवर-दीवड्ढे,
(अर्थ-) (१) पुष्करवर द्वीप के अर्ध भाग में, धातकी खण्ड में, धायइसंडे अ जंबूदीवे य ।
व जम्बूद्वीप में (स्थित) भरत-ऐरवत-महाविदेह (क्षेत्र) में धर्म भरहेरवय-विदेहे,
प्रारंभ करनेवाले (तीर्थंकरदेवों) को मैं नमस्कार करता हूं। धम्माइगरे नमसामि ||१||
(२) अज्ञानांधकार के समूह को नष्ट करनेवाले, देव (४ निकाय) तमतिमिरपडल-विद्धंसणस्स,
समूह व राजाओं से पूजित, मोहजाल को अत्यन्त तोड़नेवाले सुरगणनरिंद-महियस्स ।
श्रुत को मैं वंदन करता हूं। सीमाधरस्स वंदे,
(३) जन्म-जरावस्था-मृत्यु व शोक का अत्यंत नाशक, कल्या
णभूत ('कल्य' यानी भावारोग्य के निमन्त्रक), संपूर्ण व विस्तृत पप्फोडियमोहजालस्स ||२||
सुख का प्रापक, देव, दानव व राजाओं के समूह से पूजित जाइ-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स,
(ऐसे) श्रुतधर्म का सामर्थ्य जानकर कौन (सुज्ञ श्रुताराधनकल्लाण-पुक्खल-विसाल-सुहावहस्स |
श्रुतोक्ताचरण में) प्रमाद करे ? को देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स,
(४) हे (अतिशयज्ञानी ! देखिए कि इतना काल, मैं) प्रतिष्ठित धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ।।३।।
(व सर्वनय-व्यापिता एवं कष-छेद-ताप आदि त्रिकोटिपरिशुसिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए, द्धता से प्रख्यात) जिनमत में यथाशक्ति प्रयत्नशील हूँ | जिनमत णंदी सया संजमे,
को मेरी वंदना है । (जिससे मुख्यतया प्रतिपादित एवं) वैमादेवं नाग-सुवन्न-किन्नरगणस्सब्भूय- निक देव-नागकुमार-सुपर्णकुमार-किन्नर (आदि देवों के) समूह भावऽच्चिए ।
द्वारा सच्चे भाव से पूजित संयम में मुझे सदा समृद्धि-वृद्धि लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं हो । जिस जिनमत में लोक (आलोक-ज्ञान) प्रतिष्ठित (आश्रित) तेलुक्कमच्चासुरं,
है, एवं त्रैलोक्य-मनुष्य-असुरलोक स्वरुप यह जगत प्रतिष्ठित धम्मो वड्ढउ सासओ
(प्रतिपादित) है, (ऐसा) श्रुतधर्म (परप्रवादी पर) विजय द्वारा विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ||४||
हमेशा बढ़ता रहे, (वह भी 'धर्मोत्तर') चारित्र धर्म प्रधान हो
इस प्रकार वृद्धिमान रहे । (पुनः 'वड्ढउ' पद से सूचित है कि सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं ।
मोक्षार्थी प्रतिदिन ज्ञानवृद्धि करता रहे ।) यशो-माहात्म्यादि
युक्त श्रुत (प्रवचन) के वंदना निमित्त, पूजन निमित्त....मैं (वंदणवत्तियाए)
कायोत्सर्ग करता हूं। (चिन समझ-) गाथा-१ के लिए चित्र में दिये अनुसार अर्ध पुष्कर०, धातकी. जंबू के भरत. ऐर० महावि० में श्रुतधर्म (तत्त्वशास्त्र बोध) के प्रारम्भक अनन्त तीर्थंकर भगवान दृष्टि में आवे | वे भी गणधरों को त्रिपदी दे रहे दिखें। गाथा-२ के लिए गाथापाद के क्रम से चित्रानुसार आगम से अज्ञानांधकार-नाश, आगम का देव-राजा द्वारा पूजन, गणधर हृदयस्थ आगमज्ञान व आगम को वंदन और मिथ्यात्वादि मोहजाल का नाश नजर में आवे | गाथा-३ पढ़ते समय चित्रानुसार जन्मादि के प्रतीक देख जन्म-जरा-मृत्यु-शोक का श्रुतधर्म से नाश व दर्शन-ज्ञान-चारित्र रुपं कल्याण के प्रतीक मंदिरादि देख उस कल्याणवाही पुष्कल=विस्तृत सुख का श्रुत से निर्माण और वह श्रुतधर्म इतना सारभूत यानी समर्थ है यह देखकर निर्णय करे कि कोई सुज्ञ इस की आराधना में प्रमाद नहीं करे | गाथा-४ चित्र में दिखाये अनुसार 'सिद्ध जिनमत' यानी सभी तीर्थंकर देवों का एक ही श्रुतप्रकाश, वह प्रतिष्ठित और व्यापक दिखे, उसे 'नमो' नमस्कार करें, व संयम की समृद्धि की प्रार्थना की जाए | चित्र में संयम के ध्यान-कायोत्सर्ग-उपसर्ग सहनईर्यासमिति आदि कतिपय प्रतीक देख ऐसी संयम वृद्धि मांगनी है । इस संयम को 'देवं-नाग...'देवों से पूजित देखना । 'लोगो जत्थ.' यहाँ जिनमत में (१) 'लोक'=आलोक=५ ज्ञान आश्रित व (२) 'लोक'='जगत्' त्रैलोक्यरुप वर्णित देखना है । 'धम्मो०...वड्ढउ' से प्रार्थना-आशंसा की जाए कि ऐसे जिनमत के रटणरुप मेरा श्रुतधर्म हमेशा बढो व परवादि-विजय द्वारा चारित्र धर्म प्रधान हो इस लगाह बनो।
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राइअ-प्रतिक्रमण विधि
सामा० लेना
सामा० पारना • 'कुसुमिण काउ० ४ लोग०, जगचिंता०,
"सीमंधर 'शत्रुजय चैत्य०, २६ खमा० "सज्झाय भरहेसर
• 'नमु०-२४ खमा०- अड्डाइजेसु-४५२चैत्यवंदन इच्छकार, 'राइअ-पड़ि ठाउं-सव्वस्सवि०
"सिद्धाणं० वेयाव० अन्नत्य काउ० , 'नम०, करेमि भंते०४, काउलोग०
'नमु०-अरि० लोग सब 'पुक्खर० सुअ० 'लोग०सब्ब०, काउ० पलो.
(१-१) नवकार काउन्थी कल्लाणकंदं० "थोय "पुकखर०, काउ० नाणंमि०, सिद्धाणं.
मुह०-वांदणां सकलतीर्थ. "सामा०६, विशाललो० • 'मुह-वांदणां-राइअं आलोउं-"सातलाख सव्वस्सवि० टकरेमिभंते०४, काऊ तप०१६ नवकार, लोग०
वंदित्तु-वांदणां-अब्भुडिओ० वांदणा-'आयरियउव०
देवसिअपडिक्कमण विधि सामायिक लेना
सामायिक पारना (जिसमें मुह-२ वांदणां, पच्च०
इरिया. बाद चउककसाय से जयवीय०) चैत्य. "नमु०५४थोय
४ लोग शांति उपर लोग अरिहंतचे. अन्नत्थ, काउ० १ नवथोय-१
खमा-दुक्खखय कम्मक्खय निमित्तं काउ० लोग. सव्वलोए. वंदण. अन्नत्थ.१ नव०, थोय-२ ५२ खमा० सज्झायसंदि-करु. १ नव सज्झाय १ नव० पुक्खरसुअरस० वंदण० अन्नत्थ० १ नव०, थोय-३ "देवसिअ पाय काउ. ४लोगस्स, उपर लोग सिद्धाणं-वेयावच्च० अन्नत्थ. १ नव० थोय-४ "नमु. स्तवन, वरकनक ४ खमा अड्वाइज्जेसु० 'नमुत्थु०, ४खमा०,
'मुह-वांदणां-*सामा० ६, नमोऽस्तु वर्ध०, इ.स. भग. देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं ?
पखित्तदेवयाए. पनव० थोय १नव० इच्छं, हाथ ठाकर सव्वस्सवि० "करेमि भंते.
सुयदेवयाए करेमि काउ०१ नव० थीय, ४ सूत्र, काउ. नाणंमि०, लोगस्स्
पुक्खरवर०काउ० १ लोग०- सिद्धाणं. मुह०-२वांदणां. देवसिअं आलोउं०
सव्व लोए-का०१ लोग० "सातलाख०२, "सव्वस्सवि०
करेमि भंते ४-काउ.-स्लोग.-'लोग०
वंदित्तु-वांदणां-अब्भुडिओ० "वांदणा-'आयरियउव० (५ काउ०)
रामदेवसिमप्रतिक्रमण विधि (चित्रसमड़ा) क्रमः-उपर चंद्राकार में चन्द्र की रेखा के अनुसार आगे बढ़ना ।
संकेत : 'कुसुमिण काउ०=खमा० देकर इच्छा० संदि० भग० कुसुमिण दुसुमिण ओहडावणियं राइअ पायच्छित्त विसोहणत्थं काउस्सग्ग करुं ? इच्छं, कुसु०...विसोहणत्थं करेमि काउ० अन्नत्थ० सूत्र पढ़कर ४ लोगस्स० काउ० कर के प्रगट लोगस्स० पढे I★ 'जगचिंता०' चैत्यवंदन कह कर जंकिंचि से जयवीयराय तक । '६ खमा०' में एकैक खमा० देकर भगवानहं आचार्यहं उपाध्यायहं सर्वसाधुहं, यह चार में से एकैक पद, ४, और दो खमा० देकर इच्छा० संदि० भग० सज्झाय संदिसाहं ?...सज्झाय करूं? * 'राइअ पडि.' इच्छा० संदि० भग. राइअ पडिक्कमणे ठाउं ? इच्छं, * 'नमु० नमुत्थुणं 'लोग०' लोगस्स, 'सव्व० =सबलोए अरिहंत चेइयाणं,* करेमि०४=''करेमि भंते०, 'इच्छामिठामि काउ०, तस्स उत्तरी०, "अन्नत्थ. ऐसे ४ सूत्र, ★ 'मुह वांदणा'=मुहपत्ति का पडिलेहण कर २ वांदणां देवे । * सातलाख०, सूत्र के साथ पहले प्राणा०' सूत्र पढे I★ 'वंदित्तु ''म्दाहिना घुटना खड़ाकर के नवकार, करेमि भंते. इच्छामि पडिक्कमिउं०, सूत्र पढकर वंदित्तु० पढे । वहां 'तस्स धम्मस्स०' बोलते खडा होना० | ★ 'तप'तपचिंतवणी काउ० | * सामा०६' ''सामाइअ'चउविसत्थो-वंदण- पडिक्कमण-'काउस्सग्ग -पच्चक्खाण किया है जी, इच्छामो अणुसडिं, नमो खमासमणाणं, नमोऽर्हत् कहना I★ 'देवसिअ पाय०'इच्छा० संदि० भग० देवसिअ पायच्छित्त विसोहणत्यं काउ० करूं ? इच्छं देवसिअ...विसो० करेमि काउ० अन्नत्य सूत्र पढ़े।
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लोअंग्गमबगयाण. MAH0579 नमो. सं.या संव्वसिद्धाण.
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सिद्धाणं बुद्धाणं (सिद्धस्तव) सूत्र (भाग-१)
सिद्धाणं बुद्धाणं,
(अर्थ) ८ कर्मों को जलानेवाले, सर्वज्ञ (केवलज्ञान पाये हुए), पारगयाणं परंपरगयाणं । संसार से पार गये हुए, गुणस्थानक क्रम की (या पूर्व सिद्धों की) परंपरा से पार गए, १४ राजलोक के अग्र भाग को प्राप्त, सर्व सिद्ध भगवंतों को मेरा हमेशा नमस्कार है ।
लोअग्ग-मुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं
(समझ-) यहां चित्र के अनुसार सिद्ध बुद्ध आदि एकैक को नीचे से उपर तक क्रमशः दृष्टि सन्मुख करना है । 'सिद्ध' यानी सित (बद्ध ८ कर्मों को) जला देते हुए । 'बुद्ध' कैवल्य प्रकाश पाए हुए । 'पारगय' संसार सागर को पार कर गए । 'परंपरगय' १४ गुणस्थानक की क्रम परंपरा पहुंच चुके, एवं पूर्व सिद्धों की परंपरा में प्राप्त । 'लोअग्गमुवगय' लोकाग्रे विद्यमान सिद्धशिला के उपर पहुंच चुके । 'सव्वसिद्ध' अनंत सिद्ध भगवंत को मेरी हमेशा वंदना है ।
नाणंमि सूत्र (अविचार-आलोचन सूत्र)
नाणंमि दंसणंमि अ, चरणंमि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ || काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह य अनिन्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो || निस्संकिय-निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ।। पणिहाण जोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं । एस चरितायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ।। बारसविहंमि वि तवे, सब्मिन्तर बाहिरे कुसलदिट्ठे । अगिलाइ- अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो || अणसण-मूणोयरिआ, वित्तिसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो विअ, अब्मिंतरओ तवो होइ ॥ अणिगूहिअ बलवीरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथामं, नायव्वो वीरियायारो ||
(१) ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में, तप में तथा वीर्य में प्रवृत्ति यह आचार है। यों यह ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार व वीर्याचार इन पांच प्रकार का कहा है ।
(२) काल, विनय, बहुमान, उपधान (तप), (गुरु, ज्ञान व सिद्धान्त का) अपलाप नहीं करना, सूत्र, अर्थ व सूत्रार्थ (में प्रयत्न, यह) आठ प्रकार का ज्ञानाचार है ।
(३) (जैनमत में) निःशंकता, (अन्य मत की ) कांक्षा आकर्षण नहीं, (धर्म-क्रिया के फल सम्बन्ध में) मतिभ्रम नहीं, (मिथ्यात्वी की पूजादि देख) सत्य मार्ग से चलितता नहीं, (धर्मी के धर्म व गुण का) प्रोत्साहन - प्रशंसा, (धर्म में) स्थिरीकरण, (साधर्मिक पर) वात्सल्य, धर्म प्रभावना, ये ८ दर्शनाचार है ।
(४) उपयोग व संयम-योगों से युक्त चारित्राचार पांच समिति एवं तीन गुप्ति द्वारा ८ प्रकार का ज्ञातव्य है...
(५) जिनोक्त १२ प्रकार के बाह्य आभ्यन्तर तप में भी खेदरहित व आजीविका के हेतु बिना प्रवृत्ति, यह तपाचार जानना चाहिए ।
(६) अनशन-ऊनोदरिका-वृत्तिसंक्षेप (खानपान-भोग के द्रव्यों में संकोच) रसत्याग, कायक्लेश व कायोत्सर्ग बाह्य तप हैं ।
(७) प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, वैसे ही स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग आभ्यन्तर तप हैं...। (८) बाह्य-आभ्यन्तर सामर्थ्य (कायबल-मनोबल) को न छिपाते हुए उपर्युक्त (ज्ञानाचारादि) में सावधान हो जो पराक्रम किया जाए व शक्य बल लगाया जाए यह वीर्याचार ज्ञातव्य है ।
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lain duration Interieur
जो देवाण वि देवो
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तं देवदेव-महिय
जं देवा पंजली नमसंति
सिरसा वंदे महावीर 0
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सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र (भाग-२) (वीर स्तुति)
(अर्थ-) जो देवताओं के भी देव हैं,
जिनको अंजलि जोड़े हुए देव नमस्कार करते हैं,
इन्द्रों से पूजित उन महावीर स्वामी को मैं सिर झुका कर वन्दन करता हूं ।
जो देवाण वि देवो
जं देवा पंजली नमसंति ।
तं देवदेव-महियं
सिरसा वंदे महावीरं ||
(समझ-) यहां महावीर प्रभु को वन्दना करनी है। चित्र में दर्शित के अनुसार प्रत्येक गाथा पंक्ति का भाव सामने इस प्रकार दिखाई पड़े कि, (१) जो देवों के देव यानी पूज्य नेतारुप में हैं, उदाहरणार्थ जघन्यतः क्रोड देवताओं से परिवरित महावीर प्रभु विचर रहे है, हमें अपनी दायी ओर से प्रभु आ रहे दिखाई पड़े, व (२) बायी ओर से आकाश से उतर रहे देवताएँ अंजलि जोड नमस्कार कर रहे दिखाएँ, एवं (३) 'देव-देव' यानी इन्द्र प्रभु की दो बाजू चंवर ढाल रहे दिखाए जिससे प्रतीत हो कि प्रभु इन्द्र से महित-पूजित है । (४) ऐसे प्रभु को हम मस्तक नमाकर वंदना कर रहे हैं।
देवसिय आलोउं सूत्र
(अर्थ-) हे भगवन् आपकी इच्छा हो तो आदेश दें, मैं दिवस संबन्धी (मेरे अतिचार = दोषसमूह) को प्रकाशित करूं ? (गुरु'आलोएह' 'प्रकाशित कर' कहे, तब शिष्य) आपका आदेश जो मे देवसिओ (राइओ) अइयारो कओ. स्वीकारता हूं, मैं प्रकाशन करता हूं। मुझसे जो दैवसिक
इच्छं आलोएमि ।
काइओ वाइओ माणसिओ
(रात्रिक) अतिचार (समूह) किया गया । कायिक- वाचिक - मानसिक, उत्सूत्र- उन्मार्ग, अकल्प्य अकरणीय
दुर्ध्यानरुप-दुश्चिंतनरुप
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं (राइयं) आलोउं ?
उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो-अकरणिज्जो
दुज्झाओ-दुव्विचिंतिओ
अणायारो अणिच्छिअव्वो
असावगपाउग्गो
नाणे- दंसणे-चरित्ताचरिते
सु-सामाइए
अनाचाररुप अनिच्छनीय
श्रावक के लिये सर्वथा अनुचित.
(ऐसे अतिचार) ज्ञान के विषय में, दर्शन के विषयमें, देशविरति के विषय में, श्रुत (मत्यादिज्ञान) के विषयमें, सामायिक (सम्यक्त्व सामायिक, चारित्र सामायिक) के विषय में.)
(अतिचारों का यहां तक एक भाग, अब चारित्र सामा० अतिचारों का दूसरा भाग )
तिन्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं
पंचह मणुव्वयाणं तिण्हं गुणव्वयाणं चउन्हं सिक्खावयाणं
३ गुप्तियों का, ४ कषायों का,
५ अणुव्रतों का, ३ गुणव्रतों का, ४ शिक्षाव्रतोंका,
बारसविहस्स सावगधम्मस्स
जं खंडियं, जं विराहियं
तस्स मिच्छामि दुक्कड'
(समझ-) इस सूत्र बोलते समय पद के अनुसार दिवस (या रात्रि आदि) में किये गए उस उस दोष को मन में याद करना । यहां दो भाग हैं- (१) 'जो मे'...से 'सुए-सामाइए' तक (२) 'तिण्ह गुत्तीणं' से ' जं विराहियं' तक । इन दोनों का सम्बन्ध 'तस्स...दुक्कडं' के साथ । इन दो में (१) 'जो मे...पाउग्गो' तक के अतिचार 'नाणे...सामाइए' ज्ञान-दर्शन- चारित्राचारित्र श्रुत-सामायिक प्रत्येक में कैसे कैसे प्रमाद हुआ, यह सोचना है । (२) 'तिण्ह०...धम्मस्स' ३ गुप्ति... श्रावकधर्म प्रत्येक की जो जो खंडना- विराधना हुई यह सोचें । अंत में तस्स मिच्छा मि दुक्कडं करे, उन दुष्कृत्यों की गर्हा करे ।
४७
१२ प्रकार के श्रावक धर्मका,
जो अंश खंडित हुआ, जो सर्वांश भग्न हुआ तत्संबन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।
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इक्को वि.नयुक्कारो
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सिद्धाणं सूत्र (भाग-३) इक्को वि नमुक्कारो)
(अर्थ ) जिनवरो (केवलज्ञानी) में प्रधान वर्धमान स्वामी को (किया गया सामर्थ्ययोग की कक्षा का) एक भी नमस्कार संसारसमुद्र से पुरुष या स्त्री को तार देता है ।
इक्को वि नमुक्कारो जिणवर-वसहस्स वद्धमाणस्स
संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥
(समझ-) चित्र के अनुसार दृष्टि सन्मुख प्रभु 'जिनवर वृषभ' याने प्रधान जिनवर रुप में दिखाई पड़े। यहां 'जिन' यानी राग-द्वेष का जय करनेवाले अवधिज्ञानी आदि, जिनवर' यानी इन में श्रेष्ठ केवलज्ञानी, इनमें 'वृषभ' यानी श्रेष्ठ प्रधान वीरप्रभु। वे प्रभु=प्रधान दिखें, यानी अष्ट प्रातिहार्य व नमनशील देवों से युक्त एवं नीचे सुवर्णकमल पर अन्य केवलज्ञानी महर्षि के सिर पर दिखें । प्रभु के पैर में दोनों ओर पुरुष साधु, स्त्री साध्वी नमस्कार करती हुई एवं उपर मोक्ष में जाते हुए दिखाई पड़े। प्रभु के प्रति सामर्थ्य-योग की कक्षा का एक भी नमस्कार उन्हें भवसागर से तैराता है। नमस्कार ३ प्रकार के, (१) इच्छायोग की कक्षा का, जिस में नमस्कार की मात्र इच्छा बलवान् है, किन्तु विधिविधान व अप्रमाद का ठीक पालन नहीं । (२) शास्त्रयोग की कक्षा का नमस्कार, इसमें चारित्रभाव के साथ तीव्र श्रद्धासंवेदनवश शास्त्रोक्त विधि-विधान का पालन है । (३) सामर्थ्ययोग की कक्षा का नमस्कार, इसमें क्षपकश्रेणि के लिए उल्लसित किये गए अपूर्व सामर्थ्य व ५ अपूर्वकरणों के रुप में भाव नमस्कार किया जाता है । इसके उत्तर काल में अवश्य वीतरागता व केवलज्ञान प्रगट होता है यही तैरना है, नमस्कार तैराता हैं ।
सात लाख सूत्रः
सात लाख पृथ्वीका सात लाख अप्काय
सात लाख तेउकाय
सात लाख वाउकाय
दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय
दो लाख बेइंद्रिय, दो लाख तेइंद्रिय दो लाख चउरिंद्रिय, चार लाख देवता चार लाख नारकी
चार लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय
चौदह लाख मनुष्य, इस प्रकार चोराशी लाख जीवयोनियों में से मेरे
जीव ने किसी जीव का जो हनन किया हो, हनन कराया हो, हनन करते हुए का अनुमोदन किया हो, वह सभी मन-वचन-काया सेमिच्छामि दुक्कडं ।
पहले प्राणातिपात
(१८ पापस्थानक) सूत्र
दसवां राग ग्यारहवाँ द्वेष
बारहवाँ कलह तेरहवाँ अभ्याख्यान
पहला प्राणातिपात
दूसरा मृषावाद तीसरा अदत्तादान
चौथा मैथून
पांचवां परिग्रह
छठा क्रोध
सातवां मान
आठवां माया
नौवां लोभ
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चौदहवाँ पैशुन्य
पंद्रहवाँ रतिअरति
सोलहवाँ परपरिवाद
इन अठारह पाप स्थानकों में से
मेरे जीव ने जो कोई पाप सेवन किया हो, सेवन कराया हो,
सत्रहवां मायामृषावाद अठारहवाँ मिथ्यात्वशल्य
सेवन करते हुए का अनुमोदन किया हो, वह सभी मन-वचन-काया से मिच्छा मि दुक्कडं ।
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उज्जितसेल- सिहरे
दिक्खा
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निसीहिया
जस्स
तं धम्मचक्कवट्टीं अरिट्ठनेमिं नम॑सामि
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4 सिद्धाणं-सुत्र (भाग-४) (नेमिस्तुति) उज्जित सेल-सिहरे,
(अर्थ:-) उज्जयन्त (गीरनार) गिरि के शिखर पर दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स ।
जिनकी दीक्षा-केवलज्ञान-निर्वाण हुए, तं धम्मचक्कवदि,
उन धर्म-चक्रवर्ती अरिडनेमिं नमसामि ।।
श्री नेमनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ। (समझ:-) चित्र के अनुसार यहाँ गीरनार पर्वत पर सहस्राम्रवन में तीन भाग में हमें तीन कल्याणक देखने है।
(१) नेमनाथ प्रभु केश-लोच कर दीक्षा लेते हुए, (२) उद्यान में केवलज्ञान पाकर समवसरण पर विराजमान हुए, व (३) निर्वाण मोक्ष पाने पर आभूषण से अलंकृत प्रभु के शरीर को देवों द्वारा अग्निसंस्कार कराता दिखाई पडे ।
चित्र में जगह की कमी से नहीं दिखाया, किन्तु दीक्षा-समय वहाँ क्रोड़ो देवताएँ स्त्री-पुरुष, देवों का गीतवाजिंत्र, एक ओर शिबिका इत्यादि दिखाई पड़े । दीक्षा के लोच समय इन्द्र वस्त्र में प्रभु के लुंचित केश को ग्रहण करते हैं । यो समवसरण भी १२ पर्षदा युक्त इत्यादि दिखें । निर्वाण में देवादि शोकयुक्त देखें ।
मन्नह जिणाणं (श्रावक कृत्यकी) सज्झाय मन्नह जिणाणमाणं.
हे भव्यजीवों ! १) तुम जिनेश्वरों की आज्ञा को मानो, २मिथ्यात्व मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं । का त्याग करो, सम्यक्त्व को धारण करो और ४-९)प्रतिदिन छ: छ-विह आवस्सयम्मि, प्रकार के आवश्यक करने में प्रयत्नशील बनो ।।१।। उज्जुत्ता होह पइदिवसं ||१|| पव्वेसु पोसहवयं,
और १०)पर्वके दिनोंमें पौषध करो, ११)दान दो, १२)सदाचार का दाणं सीलं तवो अ भावो अ। पालन करो, १३)तपका अनुष्ठान करो, १४)मैत्री आदि उत्तम प्रकार सज्झाय नमुक्कारो, AILY की भावना करो, १५)पाँच प्रकार के स्वाध्याय में मग्न बनो, परोवयारो अ जयणा अ ||२|| १६)नमस्कार मंत्र की गणना करो, १७)परोपकार परायण बनो और
नमस्कार मंत्र की गणना करा, परोपकार
१८)यथाशक्य दया का पालन करो ||२|| जिणपूआ जिणथुणणं, १९)प्रतिदिन जिनेश्वर की पूजा करो, २०नित्य जिनेश्वर देव की गुरूथुअ साहम्मिआण वच्छल्लं । स्तुति करो, २१निरन्तर गुरूदेव की स्तुति करो, २२)सर्वदा साधर्मिक ववहारस्स य सुद्धी,
भाइओं के प्रति वात्सल्य दिखलाओ, २३)व्यवहार की शुद्धि रखो रह-जत्ता तित्थ-जत्ता य ||३|| तथा २४)रथयात्रा और २५)तीर्थयात्रा करो ||३|| उवसम विवेग संवर, २६)कषायोंको शान्त करो, २७)सत्यासत्यकी परीक्षा करो, २८)संवर भासासमिई छजीवकरूणा य । के कृत्य करो, २९)बोलने में सावधानी रखो, ३०)छ'काय के जीवों धम्मिअ-जण-संसग्गो, के प्रति करूणा रखो, ३१)धार्मिक जनों का संसर्ग-सत्संग करो, करण-दमो, चरण-परिणामो ।।४।। ३२ इन्द्रियों का दमन करो तथा ३३)चारित्र ग्रहण करने की भावना
रखो ||४|| संघोवरि बहुमाणो,
३४)संघ के प्रति बहुमान रखो, ३५)धार्मिक पुस्तके लिखाओ पुत्थय-लिहणं पभावणा तित्थे ।
और ३६)तीर्थकी प्रभावना करो । ये श्रावकों के नित्य कृत्य हैं, सड्ढाण किच्चमेअं, निच्चं सुगुरूवएसेणं ||५||
जो सद्गुरू के उपदेश से जानने चाहिए ।।५।।
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परमट्ठनिट्ठियट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु
चत्तारि - अट्ठ दस- दोरा बंदिया
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श्री अष्टापदनी महातीर्थ
जगचिंतामणि जगनाह अट्ठावय-संठवियरूव
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सिद्धाणं सुत्र (भाग-१) चत्तारि-अट्ठ० चत्तारि-अठ्ठ-दस-दोय,
(अर्थ-) (अष्टापद पर) ४-८-१०-२, (इस क्रम से) वंदिया जिणवरा चउवीसं ।
वंदन किए गए चौबीस जिनेश्वर भगवंत, परम-निट्टिअट्ठा,
परमार्थ से (वास्तव में) इष्ट पूर्ण हो गए हैं जिनके, सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु |
(कृतकृत्य) ऐसे सिद्ध हुए भगवंत मुझे मोक्ष दें । (समझः) चित्र के अनुसार यहां अष्टापद पर्वत पर चतुर्मुख मंदिर में चारों दिशा में प्रत्येक में बिराजमान अपने अपने शरीर की ऊँचाई के मानवाले क्रमशः ४-८-१० व २ भगवान दिखाई पड़े। उन्हें हमें वन्दन करना है । इसके बाद में हमें उपर देख सिद्धिशिला पर वे २४ एवं अन्य सिद्ध भगवान को हाथ जोड़ प्रार्थना करनी है कि हमें वे मोक्ष दें । उन सिद्ध भगवन्तो का समस्त इष्ट अब वास्तव में पूर्ण हो गया है अब कुछ भी अभीष्ट शेष नहीं है तृप्त हो बैठे हैं ऐसा देखना है | नमन समय प्रत्येक प्रभु के चरण में अलग-अलग हमारा सिर झुकता है ऐसा कल्पना में लाया जाय । अनंत सिद्धों के अनंत चरण में हमारे अनंत मस्तक झूक रहे दिखाइ पड़ें।
वेयावच्चगराणं सूत्र वेयावच्चगराणं
(अर्थ:-) वैयावृत्य करने वालों के निमित्त, (उपद्रवों की) संतिगराणं सम्मदिट्ठिसमाहिगराणं
शान्ति करने वालों के निमित्त, सम्यग्दृष्टियों को समाधि करेमि काउस्सग्गं (अन्नत्थ०)
करने वालों के निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। (इस कायोत्सर्ग का तात्पर्य यह है कि इससे कायोत्सर्ग करनेवाले को एक ऐसा शुभ (पुण्य) उत्पन्न होता है जिससे उन देवताओं को वैयावृत्त्य-शांति-समाधि करने की प्रेरणा मिलती है । इस लिए यह सूत्र पढ़ते समय वैयावृत्यादि-कारक देवों को वैयावृत्यादि करने का भाव हो ऐसा उद्देश रख कर सूत्रोच्चारण व कायोत्सर्ग किया जाए । ललितविस्तरा में कहा है कि ऐसा पुण्य उत्पन्न होने में यही सूत्र प्रमाण है ।
लघुशान्तिस्तव सूत्र शांति शांति-निशांतं, शांतं शांताशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शांतिनिमित्तं, मंत्रपदैः शांतये स्तोमि ।।१।। ओमिति निश्चितवचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजा । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ।।२।। सकलातिशेषक-महा-संपत्तिसमन्विताय शस्याय । त्रैलोक्य-पूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ।।३।। सर्वामरसुसमूह-स्वामिक संपूजिताय न जिताय । भुवनजनपालनोद्यत-तमाय सततं नमस्तस्मै ।।४।। सर्व-दुरितौघनाशन-कराय सर्वाशिवप्रशमनाय । दुष्ट-ग्रह-भूत-पिशाच-शाकिनीनां प्रमथनाय ||५|| यस्येति नाममंत्र-प्रधान वाक्योपयोग-कृततोषा । विजया कुरुते जनहित-मिति च नुता नमत तं शान्तिम् ।।६।। भवतु नमस्ते भगवति, विजये सुजये परा परैरजिते । अपराजिते जगत्यां, जयतीति जयावहे भवति ।।७।। सर्वस्यापि च संघस्य, भद्र-कल्याण-मंगल-प्रददे । साधूनां च सदाशिव-सुतुष्टि-पुष्टिप्रदे जीयाः ।।८।। भव्यानां कृतसिद्धे, निवृत्ति-निर्वाण-जननि ! सत्त्वानाम् । अभयप्रदाननिरते, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे तुभ्यम् ।।९।। भक्तानां जंतूनां शुभावहे नित्यमुद्यते देवि । सम्यगदृष्टिनाम् धृति-रति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ||१०|| जिन-शासन-निरतानां शान्तिनतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसंपत्कीर्तियशो-वर्द्धनि | जय देवि ! विजयस्व ||११|| सलिलानलविषविषधर-दुष्ट-ग्रह-राज-रोग-रणभयतः । राक्षसरिपुगणमारी-चौरेतिश्चापदादिभ्यः ।।१२।। अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वं ।।१३।। भगवति ! गुणवति ! शिवशान्ति-तुष्टि पुष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं हूं ह्रः यःक्षः ह्रीं फट् फट् स्वाहा ।।१४।। एवं यन्नामाक्षर-पुरस्सरं संस्तुता जयादेवी । कुरुते शान्ति नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ।।१५।। इति पूर्वसूरिदर्शित-मंत्रपद-विदर्भितः स्तवः शान्तेः । सलिलादिभयविनाशी, शान्त्यादिकरच भक्तिमतां ||१६|| यक्षेनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम्, स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्री मानदेवश्च ।।१७।। उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिचंते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ।।१८।। सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याणकारणं, प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ।।१९।।
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यथाजात
मुद्रा
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अवनत
मुद्रा
प्रक्षाल
अभिषेक पूजा
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स्वस्तिक के लिए पहला अक्षत वर्तुल
३
६
८
वर्तुल मे ४ लकीर
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पहला आवर्त
तिलक
पूजा
४
दूसरा आवर्त
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वांदणा (बृहद् गुरुवन्दन) सूत्र एवं विविध मुद्राएँ
इच्छामि खमासमणो
वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अ... हो, का... यं,
का... य संफासं,
खमणिज्जो में किलामो
अप्पकिलंताणं
बहुसुमेण मे राइ वइक्कंता ? ज... त्ता..भे ?
ज...व... णि ज्जं च भे ? खामेमि खमासमणो
इयं वइक्कमं आवस्सियाए, पडिक्कमामि
खमासमणाणं राइयाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जंकिंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहा माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए
सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो
पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि.
(अर्थ) हे क्षमाश्रमण ! मैं शक्ति समन्वित हो (प्रमाद-पाप क्रिया से शरीर को हटाकर वंदन करना चाहता हूं (गुरु- 'छंदेण) मुझे परिमित (१) अवग्रह (में प्रवेश) की (व २ कायस्पर्श की) अनुज्ञा दें । (गुरु- 'अणुजाणामि ) निसीही यानी सर्व अशुभ व्यापार का त्याग कर मैं प्रवेश करता हूं । (आपकी) नीचे की काया (चरण) को (मेरी) काया (हाथ व सिर) का स्पर्श (करा कर नमस्कार करता हूं।) आप को (स्पर्श से) लगे कष्ट (क्लेश) के लिए आप क्षमा करेंगे (कष्ट आप निभा लेंगे ।) (अब ३ प्रश्न)
(१) अल्प खेद (श्रम) वाले आपकी रात्रि बहुत सुखपूर्वक व्यतीत हुई ? (गुरु- 'तहत्ति') (२) आपकी (संयम) यात्रा (सुखरुप चलती है) ? (गुरु- 'तुब्भं पि वट्टए ?') (३) एवं आपको यापनीय (इन्द्रियमन की व्याकुलता से रहित शरीर उपशान्ततादि से युक्त) हैं ? हे क्षमाश्रमण ! (मेरे) रात्रि संबंधी (कर्तव्य में क्षतिरुप) अपराध की क्षमा मांगता हूं । (गुरु-'अहमवि खामेमि)
आवश्यक क्रिया के लिए (अवग्रह से बाहर जाता हूं।) आप क्षमाश्रमण के प्रति मुझसे हुई रात्रि संबन्धी ३३ में से किसी भी आशातना से मैं वापस लौटता हूं । (विशेषत: असद् आलंबन लेकर) जो कुछ मिथ्या भाव से मन की (प्रद्वेषादि निमित्त) दुष्ट प्रवृत्ति, वचन की (असभ्यभाषण द्वारा) दुष्ट प्रवृत्ति, काया की (निकट जाना, निकट खड़ा रहना इत्यादि द्वारा) दुष्ट प्रवृत्ति स्वरुप, क्रोधयुक्त-मानयुक्त मायायुक्त-लोभयुक्त (आशातना), सर्वकाल संबन्धी (आशातना) सर्व मिथ्या (माया-कपट भरे) आचरण स्वरुप, व सर्व प्रकार के धर्म (८ प्रवचन माता, या सामान्यतः कर्तव्य) के उल्लंघन या विराधनायुक्त आशातना द्वारा जो कुछ मुझ से अतिचार किया गया हो तत्संबन्धी, हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण (फिर सेन किए जाए इस प्रकार वापस लोटना) करता हूं, (दुष्टकर्मकारी मेरी) आत्मा की (भवोद्विग्न प्रशांत चित्त से) निन्दा करता हूं। (आपके समक्ष निन्दारूप) गर्हा करता हूं, उसकी अनुमति छोड़ मेरी दुष्कर्मकारी आत्मा का त्याग करता हूं ।
मुद्रा चित्र-वांदणां देने में पहले इच्छामि खमा०...निसीहियाए तक बोलते समय यथाजात मुद्रा रखनी, इसमें चित्रानुसार दो हाथ योगमुद्रा से जोड़ कुछ सर नमाना । बाद 'अणुजाणह मे... उग्गहं' बोलते समय अवनतमुद्रा, यहाँ • अंजलि ललाट साथ छूए व शरीर कमर से आधा नमे । 'अ... हो का..यं का... य' बोलते ३ आवर्त अर्थात् 'अ' बोलते हाथ की १० उँगली गुरुचरण (रजोहरण) पर छूएँ, वहां से उलटा कर उँचे ले कर 'हो' बोलते समय वे ही ललाट को छूएँ, फिर उलटा कर नीचे लेकर 'का' बोलते गुरुचरण को, 'यं' बोलते ललाट को ... ऐसे 'का'...'य' में । इसी प्रकार 'ज...त्ता...भे' 'ज...व... णि' 'ज्जं ...च...भे' में ३ आवर्त, किन्तु बीच का अक्षर 'त्ता' 'व' 'च' बोलते समय नीचे से उठाये हाथों को बीच में कुछ रुकाना ।
(शेष पृष्ठ ६१ पर)
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स्पर्धमानाय कर्मणा.
तज्जयावाप्तमोक्षार
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परोक्षारा कुतीथिनाम्
1 नमोऽस्तु वर्धमानाय ।
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सन्तुनिर्वृति
कषाय तापामा
पार्दित जन
येषां विकचारविन्दराज्या
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नमोऽस्तु वमानाय सुत्र (१) नमोऽस्तु "वर्धमानाय (अर्थः-) (१) 'जो कर्म-गण से स्पर्धा (मुकाबला) करते हैं, 'स्पर्धमानाय कर्मणा ।
२(अन्त में) जिन्होंने कर्मगण पर विजय पाने द्वारा मोक्ष प्राप्त 'तज्जयावाप्तमोक्षाय
किया है, व जो मिथ्यादर्शनियों को परोक्ष है (प्रत्यक्ष नहीं, परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ।।
बुद्धिगम्य नहीं), उन श्री वर्धमान स्वामी (महावीरदेव) को मेरा (२) येषां विकचारविन्दराज्या, नमस्कार हो। 'ज्यायःक्रमकमलावलिं दधत्या ।। (२) जिनके 'उत्तम चरणकमल की श्रेणि को धारण करनेवाली सदृशैरिति संगतं प्रशस्यं, विकस्वर कमलपंक्ति ने (मानों) कहा कि समानों के साथ कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः । संगति प्रशस्य है वे जिनेन्द्र भगवान निरुपद्रवता (कल्याण-मोक्ष) (३) कषायतापार्दित-जन्तु-निवृति के लिए हों। करोति यो जैनमुखाम्बुदोदगतः । (३) कषायों के ताप से पीड़ित प्राणियों को जिनेश्वर भगवान के स शुक्रमासोद्भव-वृष्टि-संनिभो मुखरुपी बादल से प्रकटित, ज्येष्ठ मास में हुई वृष्टि के समान जो दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् || वाणी का विस्तार (समूह) शान्ति करता है, वह मुझ पर अनुग्रह करे ।
(समझः) यहां चित्र के अनुसार १ली गाथा में अष्ट प्रातिहार्य सहित महावीर स्वामी को देखते हए सिर नमाकर 'नमोऽस्तु वर्द्ध०' बोलना है । 'स्पर्धमानाय कर्मणा' बोलते समय भगवान को सिर पर कालचक्र के आघात जैसी भयंकर कर्मपीड़ा भी शांति से सहते हुए व कर्मों के साथ विजयी युद्ध करने के रुप में देखना है । उसमें विजय पाकर मोक्ष प्राप्त कर सिद्धशिला पर जा बैठे यह 'तज्जयावाप्तमोक्षाय' बोलते समय दृष्टिसन्मुख आवे । 'परोक्षाय०...' के उच्चारण पर मिथ्यादर्शनियों का मुँह फिर जाता है वे तेजस्वी प्रभु को देख नहीं पाते ऐसा दिखाई पड़े ।
(२) 'येषां विकचार०' गाथा बोलते समय दृष्टि सन्मुख अनंत तीर्थंकर भगवान आवे, उनके चरण-कमल में कमलों की पंक्ति है, उनकी अपेक्षा चरणकमल अधिक सुन्दर है फिर भी दोनों ही कमल होने से सदृश है, समान है। इसलिए मानों कमलपुष्पों की पंक्ति बोल रही है कि 'हमारा समान से योग हुआ है यह अच्छा हुआ है । ऐसे अनंत प्रभु कल्याण के लिए हों।
(३) 'कषायतापा०' गाथा में दृष्टि सन्मुख देशना दे रहे भगवान आवे । उनके मुंह-मेघ से वाणी स्वरुप बारिस गिर रहा है जिससे श्रोताओं के कषायस्वरुप ताप शान्त हो जाता है । ऐसी वाणी का विस्तार हमें अनुग्रह करें ।
चउक्कसायसूत्र
(१) चउक्कसाय पडिमल्लुल्लूरणु, दुज्जयमयण-बाण- मुसुमूरणु । सरस-पियंगु-वण्णु गय-गामिउ, जयउ पासु भुवणत्तय-सामिउ ।
(अर्थः) (१) चार कषाय योद्धाओं का नाश करनेवाले, दुर्जय कामदेव के बाण तोड़नेवाले, सरस प्रियंगुलता समान वर्णवाले, गजगतिवाले, तीनों भुवन के स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान जयवंत हो । (२) जिनका कायिक तेजोमण्डल देदीप्यमान है, जो नागमणि की किरणों से व्याप्त (होने से) मानो बिजली की रेखा से अंकित नवीन मेघ-सा । शोभते हैं, वह पार्श्वनाथ जिन वांछित प्रदान करें।
(२) जसु तणुकंति-कडप्पसिणिद्धउ, सोहइ फणि-मणि-किरणा-लिद्धउ ।। नं नवजलहर तडिल्लयलंछिउ, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ।।
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विशाल
कलंक-निर्मुक्त-ममुक्तपूर्णतं कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् ।
कुतर्कराहु
जिनागम-चन्द्र
CHAPRATIGIOURUICTUDIUIDIO
अपूर्वचन्द्र जिनचन्द्रभाषितम् दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥
येषामभिषेककर्म कृत्वा
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विशाल-लोचनदल सूत्र (१) विशाल-लोचनदलं,
(अर्थः) (१) विशाल नेत्ररुप पत्रवाला, प्रोद्यद्दन्तांशु-केसरम् ।
अत्यन्त देदीप्यमान दांतों की किरण स्वरुप केसरवाला, प्रात:रजिनेन्द्रस्य,
श्री महावीर जिनेन्द्रदेव का वदनकमल मुखपद्मं पुनातु वः ||
आपको प्रातःकाल में पवित्र करे । (२) येषामभिषेककर्म कृत्वा,
(२) जिन का अभिषेक-कार्य करके, भरसक हर्षवश मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः ।।
मस्त सुरेन्द्र स्वर्गसुख को तृणमात्र भी नहीं गिनते हैं, तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं,
वे जिनेन्द्र भगवान प्रातःकाल में प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ।।
शिवसुख (निरुपद्रवता-कल्याण) के लिये हों ।
(३) (असत्स्थापन-सनिषेधादि) कलङ्क से रहित, (सर्व नयों (३) कलङ्कनिर्मुक्त-ममुक्तपूर्णतं,
से) पूर्णता को कभी न छोड़नेवाले, कुतर्क स्वरुप राहु का कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् ।
ग्रास करनेवाले, हमेशा उदयवाले, विद्वज्जनों से वंदित, अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितम्,
जिनेश्वर-भाषित, जिनागम स्वरुप अपूर्व (नये) प्रकार के चन्द्र दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥ का दिवस के आगमन (प्रातःकाल) में नमस्कार करता हूं |
(समझः-) चित्र में नीचे दिये अनुसार गाथा (१) 'विशाल.' बोलते हुए हमें वीरप्रभु के मुख को कमल जैसा देखना है जिसमें नयन तो पत्र समान हैं, व दांत से ऊछलती किरण पराग शी हैं । (२) 'येषां विकचार०' बोलने पर पूर्व पूर्वकाल की अनंत मेरु-अवस्था पर अनंत भगवान को इन्द्र जन्माभिषेक करते हुए दिखाई पड़े । वहाँ इन्द्र अभिषेककार्य के अत्यन्त सुख के वश हो स्वर्ग सुख को तृण से भी तुच्छ मान रहे हैं । (३) 'कलंक.' गाथा बोलते समय जिनागम को दुनिया के चन्द्र से विलक्षण चन्द्र स्वरुप देखना है । दुन्यवी चन्द्र कलंकयुक्त है, छोटा बड़ा होता है, राह से ग्रसित होता है व उदय बाद अस्त भी पाता है, तब जिनवचन स्वरुप चन्द्र निष्कलंक, स का ग्रास करनेवाला, हमेशा उदयवाला कभी अस्त नही होनेवाला है, पंडितमान्य है।
अटाइजेसुसूत्र अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु,
(अर्थ:-) ढाइ द्वीप-समुद्र संबन्धी १५ भूमि में पनरससु कम्मभूमिसु जावंत केवि साहू, रजोहरण-गुच्छा-पात्र को धारण करनेवाले, रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह धारा, पंचमहब्बयधारा, पंचमहाव्रतधर, १८००० शीलाङ्ग धरनेवाले, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग धारा,
अभग्न पंचाचार व सर्वविरति-चारित्रभाववाले अक्खुयायार-चरित्ता,
जितने कोइ साधु हैं उन सबको 'सिरसा' ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वन्दामि ! (बहुत आदर सहित) 'मणसा' (भावपूर्वक)
मस्तक झुकाकर वंदन करता हूं। (समझः) यहां भी 'जावंत के वि०' अनुसार वंदना करनी है । द्वीप २।। है-जंबूद्वीप, धातकी खण्ड और अर्ध पुष्कर द्वीप । बीचमें २ समुद्र लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्र है । 'रजोहरण' यह उनी दशी प्रमार्जन हेतु साधु-चिह्न हैं | 'गुच्छा' यह भोजनार्थ रखे गये काष्ठपात्र को स्थापन करने के लिए उनी वस्त्र का टूकड़ा है । ५ महाव्रत ये जीवनभर हिंसा-जूठ-अदत्तादान-मैथुन-परिग्रह पापों के सर्वथा त्याग की प्रतिज्ञा है । १८००० शीलाङ्ग इस प्रकार-पृथ्वीकायादि ५, द्वींद्रियादि ४, इन ९ प्रकार के जीवो व अजीव एवं १० का, १० क्षमादि यतिधर्म पालते हुए, आरम्भ-समारम्म करने का त्याग है । वह भी ५ इन्द्रियनिग्रह व ४ संज्ञानिग्रह पूर्वक ३ मनोयोगादि से त्याग है । १०x१०४५४४४३ = ६००० यह भी त्याग करण-करावण-अनुमोदन रुप से करना है । अतः ६००० x ३ = १८००० शीलाङ्ग के पालनवाले मुनि है ।
|५९
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क ला
ढम जिणिद
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संति
चारित्र
दशन
ज्ञान
8
नेमिं
कुवादा:
क्षमादि सुगुण
पास
वद्धमाण
꼭 먹고
कल्लाणकंद
वंदे
THE
अपार-संसार-समुद्द-पार पत्ता सिव दितु सुइक्कसार । सव्वे जिणिदा सुर-विंद-वंदा कल्लाणवल्लीण विसालकंदा ||
कुंदिंदु-गोक्खीर- तुसार-वन्ना सरोजहत्था कमले निसण्णा । वाईसरी पुत्थयवग्गहत्था सुहाय सा अम्ह सया पसत्या ||
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कल्लाणकंदंसूत्र (१) कल्लाणकंदं पढमं जिणिंदं, (अर्थः-) (१) कल्याण के कन्द (मूल) रुप प्रथम जिनेंद्र (श्री ऋषसंतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं। भदेव) को, (व) श्री शान्तिनाथ को, बाद में मुनिओं में श्रेष्ठ श्री पासं पयासं सुगुणिक्कठाणं, नेमिनाथ को, ज्ञानप्रकाशरुप श्री पार्श्वनाथ को, (व) सद्गुणों के एक भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं || स्थानभूत विभूतियुक्त श्री वर्धमान स्वामी को मैं भक्ति से वन्दना करता हूं | (२) अपार संसार-समुद्दपारं, (२) अनन्त संसार सागर के पार को प्राप्त. पत्ता सिवं दिंतु सुइक्कसारं ।। देवसमूह से वंदनीय (व) कल्याण की लत्ताओं के सवे जिणिंदा सुरविंदवंदा, विशाल कन्दरुप समस्त जिनेन्द्रदेव कल्लाणवल्लीण विसालकंदा || शास्त्रों-श्रुतियों (या शुचि-पवित्र वस्तुओं) के एक सारभूत मोक्ष दें। (३) निव्वाणमग्गे वरजाणकप्पं, (३) मोक्षमार्ग में श्रेष्ठ जहाज समान, पणासियासेस-कुवाइदप्पं । समस्त कुवादियों के अभिमान को जिसने नष्ट किया है, ऐसे व मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, पण्डितों को शरणभूत , (तथा) त्रिभुवन में श्रेष्ठ, (एवं) जिनेश्वर देवों नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं || से कथित ऐसे सिद्धांत (आगम) को हमेशा नमस्कार करता हूं | (४) कुंदिंदु-गोक्खीर-तुसारवन्ना, (४) वागीश्वरी (सरस्वती) मुचुकुन्द (मोगरा), चन्द्र, गाय के दूध व सरोजहत्था कमले निसण्णा। बर्फ के समान (शुक्ल) वर्णवाली, हाथ में कमलवाली, कमल पर वाईसरी पुत्थयवग्गहत्था, बैठी हुई, हाथ में पुस्तक धारण करनेवाली (पुस्तकव्यग्रहस्ता अथवा सुहाय सा अम्ह सया पसत्था || पुस्तक-वर्ग-हस्ता, पुस्तक-समूह युक्त हस्तवाली) है | उत्तम (या
प्रशंसा प्राप्त) वह सदा हमारे सुख के लिये हो । (चित्र समझ:-) चित्रखण्ड-१ में प्रथम जिनेन्द्र श्री ऋषभदेव को कल्याण (दर्शन-ज्ञान-चारित्र-क्षमादि) के मूलरुप बताया है तो यह सूत्रपद बोलते समय सामने प्रभु वैसे दिखाई पड़ने चाहिये । बाद में चित्र के मुताबिक प्रथम प्रभु के नीचे श्री शान्तिनाथ-नेमिनाथ देखें । पीछे, बाजू में श्री पार्श्वनाथ प्रभु सु-गुणों के ही आश्रय रुप में एवं नीचे श्री महावीर प्रभ दिखाई दे, और हम वंदन करते हुए दिखाई दे ।
चित्रखण्ड २ के अनुसार 'अपार...' गाथा में देवसमूह से वन्द्य अनन्त जिनेन्द्रदेव को संसारसागर पार कर ऊँचे मोक्ष के प्रति जाते हये देखना है । वे भी ऐसे दिखें कि उन के (चिंतन के) प्रभाव से विशाल कल्याण हमारे में ऊगते हैं, और वे हमें सब शास्त्रों के सारभूत व सब से शुचि (पवित्र) मोक्ष दें।
चित्रखण्ड-३ से जिनोक्त विश्वश्रेष्ठ सिद्धांत को जहाज के रुप में देखना है, इससे कुवादी निस्तेज हो डूबे हुए व प्राज्ञ जनों द्वारा शरण-आश्रय कराये हुए दिखें ।
चित्रखण्ड-४ से वागीश्वरी सरस्वती को सफेद वर्ण में देखना है । वह एक हाथ में कमलवाली व कमल पर बिराजमान एवं दूसरे हाथ में पुस्तकवाली तथा उत्तम दिखे, व उससे सदा सुख की प्रार्थना करनी ।
(पेज ५५ का शेष-) प्रक्षालमुद्रा में दो हाथ से कलश को पकड़ कर प्रभु के सर पर राज्याभिषेक की तरह अभिषेकधारा की जाए । पूजा-मुद्रा में दाये हाथ की 'अनामिका' (कनिष्ठा के पहले) की उंगली का अग्रभाग प्रभुअंग को ऐसे छूए की नाखून प्रभु को छू न पावे | स्वस्तिक करने में, पहले अक्षत का भरा वर्तुल बनाया जाए, ऊपर तीन छोटे वर्तुल, उनके ऊपर एक वर्तुल किया जाए । तत्पश्चात् नीचे के बड़े वर्तुल में चित्रानुसार उंगली से चार लकीर खिंचे और स्वस्तिक की चार पंखुडी ठीक बनाई जाए । सब से ऊपर के वर्तुल में अष्टमी की चंद्ररेखा ऊपर सीधी रेखा खींची जाए।
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संसार-दावानल-दाह-नीशं... भावावनाम-सुरदानव-मानवेन-चूलाविलोलकमलावलिमालितानि ।। नमामि वीर गिरिसारधीरम् ॥
90संपरिताऽभिनतलोकसमीहितानि कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ।।। संमोहधूलीहरणे समीरम् ।
RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRROOOOOOK
નિનિકોનોમિનેજિનેનિનિનિકને બિનનિવનિનિક નેનિને બિનનિનેનિયને નાગિકિનેનિકનેજિત मायारसा-दारण-सारसीर
संसार-दावानल-दाह-नी
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भवविरहवर देहि मे देवि । सारम् ।।
बोधागाधं सुपदपदवी-नीरपूराभिराम, जीवाहिंसा-विरल-लहरी-संगमागाहदेहम् ।।
चूलावेलं गुरुगम-मणि-संकुलं दूरपारं सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ।।
वाणी-संदोह-देहे।
આચારાંગ
પન્નવણા
| કલ્પસૂત્ર
દ્રષ્ટિવાદ
ભિગવતી !
| પયત્રા
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संसार-दावानल सत्र १) संसार-दावानल-दाह-नीरं,
अर्थ - १) संसार रुप दावानल (को शमाने) के लिए संमोहधूली-हरणे समीरं ।
नीर समान, अज्ञान (मोह) स्वरुप धूल को दूर करने मायारसा-दारण-सारसीरं,
में पवन के समान, मायारुप पृथ्वी का विदारण करने नमामि वीरं गिरिसार धीरम् ।। में समर्थ (तीक्ष्ण) हल के समान, पर्वतों में श्रेष्ठ (मेरु) वत्
निष्प्रकम्प श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करता हूं | २) भावावनाम-सुर-दानव-मानवेन
२) भक्तिभाव से प्रणाम करते हुए सुरेन्द्र-दानवेन्द्रचूलाविलोल-कमलावलि-मालितानि । मानवेन्द्र (सम्राट) के मुकुटों में रहे हुए चंचल कमलसंपूरिताभिनत-लोक-समीहितानि, . श्रेणि से सुशोभित (एवं) नमस्कार करनेवाले लोगों के कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ।। वाञ्छित पूर्ण करनेवाले श्री जिनेश्वर देवों के प्रसिद्ध
चरणों को अत्यन्त आदरपूर्वक नमस्कार करता हूं | ३) बोधागाधं सुपद-पदवी-नीरपूराभिरामं, ३) ज्ञान से अगाध, सुन्दर पदरचना रुप जल के
जीवाहिंसा-विरललहरी-संगमागाह देहम् । उछलते प्रवाह से मनोहर, जीवों की अहिंसा रुप निरचूलावेलं गुरुगममणि-संकुलं दूर पारं, न्तर तरंगो के संबन्ध से गहरे (कठिनाई से प्रवेश योग्य) सारं वीरागमजलनिधिं सादरं साधु सेवे || देहवाले चूलिका रुप ज्वार (या तट) वाले, बड़े बड़े
आलापक (पेराग्राफ) स्वरुप रत्नों से व्याप्त, दूर है
किनारा जिसका ऐसे श्रेष्ठ महावीर-आगमरुप समुद्र की ४) आमूलालोल-धूली बहुल
आदर सहित विधिपूर्वक उपासना करता हूं। परिमलालीढ-लोलालिमाला,
४) मूल पर्यन्त डोलते हुए, पराग-भरसक सुगन्ध में झंकारारावसारा-मलदलकमलागार आसक्त चपल भ्रमरों की श्रेणियों के झंकार शब्द से भूमिनिवासे ।
प्रधान व निर्मल पहुंडीवाले कमल स्वरुप गृहभूमि छायासंभारसारे वरकमलकरे
पर निवासवाली, कान्तिपुञ्ज से शोभायमान, हाथ में तारहाराभिरामे,
सुन्दर कमलवाली देदीप्यमान हार से मनोहर हे (जिनेन्द्र) वाणीसंदोहदेहे भवविरहवरं
वचनों के समूह रुप देहवाली (श्रुत)देवी ! मुझे सारभूत देहि मे देवि ! सारं ।।
मोक्ष-वरदान दें । (या मोक्षफल से श्रेष्ठ श्रुतसार दे)। समझ - (१) चित्र के अनुसार श्री वीर भगवान काया व वाणी से (i) जलवर्षा समान दिखाइ दे जिससे जीवों का संसार (कषाय) दावानल शान्त होता है, (ii) पवन समान दिखे जिससे मिथ्यामति रुप धूल ऊड जाती है (ii) तीक्ष्ण हल समान, जो मायारुप पृथ्वी को फाड़ देता है, (iv) मेरु समान धैर्यवाले दिखें । (२) अनन्त जिनराज के चरण दिखें जो नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेश के मस्तक की चलित हुई कमलमाला से शोभित (चित्र में नमस्कार करते हए नरेश व माला की कमी है।) व वे नमन करते हुए लोगों के इष्ट के पूरक हैं । (३) चित्र में जो समुद्र दिखाया है यह वीर प्रभु के आगमशास्त्र है, वह बोध से गहरा सु-पदरचनारुप जलप्रवाहवाला, अहिंसा के सतत तरंगसंबन्ध से अगाध (दुष्प्रवेश्य), चूलिकारुप ज्वारवाला, बडे बडे आलापक रुप रत्नों से व्याप्त, दूर किनारेवाला है । उसकी उपासना सादर करता हूं यह भावना करनी चाहिये । (४) यहां वाग्देवी देख भवविरह-संसार अन्त की प्रार्थना करें । वह कमलघर-निवासी, कमल भी आमूल मूल से उडती । खूब सुगंध में लीन ऊडते भंवरों के झंकार ध्वनि से व्याप्त व निर्मल देखे । यह देवी तेजोमय व हस्त में कमलवाली एवं गले में हार से मनोहर दिखे।
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जय वीयशय
हे वीतराग जगदगुरु ! आप मेरे दिल में विजय पाएँ । हे भगवंत ! आप के प्रभाव से मुझे हो.......भवनिर्वेद...
जयवीयराय
जगगुरु
सखमय भी संसार असार
हे भगवंत ! मेरे जीवनरथ के सुकानी । बनकर कर्मयुद्ध को जीताईए ।
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866666
भवनिर्वेद
उन्मार्गमार्गानुसारिता
लोकावरुद्धत्याग
कलह
मैत्री
मश्करी
निन्दा
धर्मी की हांसी
कृपण
दान
ईर्ष्या
बहुजनविरुद्ध का संग देशाचारोल्लंघन उद्भट भोग परसंकटतोष आदि लोकविरुद्ध कार्यो का त्याग
(२) मार्गानुसारिता : कलह-निर्दयता-अनीति-ईर्ष्या आदि को छोड मैत्री-दान-नीति-शुभेच्छादि मार्गग्रहण ।।
अनीति
नीति
आज्ञा स्वीकार
विटम्बणावाले सुखमय भी संसार पर ग्लानि । निन्दा आदि का त्याग । सुचारु भोजनवस्त्रादिभक्ति, रामवत् आज्ञास्वीकार । उपकार हितोपदेश आदि भावोपकार (१) भवनिर्वेद : रागादिरोग व जन्ममरणादि (४) लोकविरुद्ध : कार्यो (५) गुरुजनपूजा : मातापितादि वडिलजन की सेवा (६) दान-सेवा-सहायादि दूव्य
गुरुजनपूजा
पितृसेवा
रामचन्द्रजी
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इष्टफलसिद्धि
परार्थकरण
) देवदर्शनादि : धर्म व चित्तशान्ति हो इसलिए आजीविकादि इष्ट की सिद्धि।
रोग में समाधि
दान
हितोपदेश
JaiffEducation आजाविका समाध)
& Personali
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(११) कर्मक्षय : गजसुकुमाल खंधक।
धन (१०) दुःखक्षय : ईर्ष्या दीनता का क्षय निश्चिन्तता ।(गरुवचनसेवना जिनभक्ति- (७) शभगरुयोग : त्यागी चारित्री
कामशोक का क्षय जाप-शुभेच्छा । आधि-चिन्ताक्षय शास्त्रचिंतन । शालिभद्रवत् सहर्ष सहन ।
MOHIT शरण । क्रोधादि द:खक्षय समता सौम्यता-मैत्री । तपन्दा
तप-दान-दया- व्रतादि।। साधु-समागम
कर्मक्षय
आधि-चिता
दानता
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शीला
रावे
चारित्र सामायिक
अभिमान
जिनाभक्तिः
सहर्ष सहन
91 hit
शुभगुरु योग गुरुवचनसेवा
जय बी.यशय
क्रोध
G
स शा
चतुर्विध संघ
गणधर
URAS
LOACHECAS
श्रद्धा जनवचन
AHEEEEE
'जैन जयतिशासनम्
भवे
समाधिमरण
चारित्र
दशन
ज्ञान
बोधिलाभ
प्रवचन
चारित्र
जिनचा
जिनमंदिर
सेवा
ज्ञान
प्रभुचरण की सेवा मिले। प्राप्ति जिनवचन स्वीकार दर्शन-ज्ञान चारित्र। स्वरुप जिनशासन का जय हो । समाधि । (१२) समाधि-मरण : अन्त में परमेष्ठि ध्यानयुक्त (१३) बोधिलाभ : परभव के लिए जैन धर्म गणधर, चतुविध संघ, प्रवचन, रत्नत्रय मोक्ष न हो तब तक हर भव में ।
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'जय वीयराय (प्रणिधान) सुत्र जय वीयराय जगगुरु !
(अर्थ:-) [१-२] हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! (मेरी होउ ममं तुह पभावओ भयवं !
आत्मामें) आप की जय हो । हे भगवन् ! आपके (अचिंत्य) १भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ
प्रभाव से मुझे (१) संसार के प्रति वैराग्य इठ्ठ-फलसिद्धी ॥
हो, (२) तत्त्वानुसारिता हो, (धर्माराधना स्वस्थता से चले "लोगविरुद्धच्चाओ,
ऐसी) (३) इष्ट फल की सिद्धि हो (४) लोकसंक्लेश"गुरुजणपूआ परत्थकरणं च
कारी प्रवृत्ति का त्याग हो, (५) मातापितादि) पूज्यजनों "सुहगुरुजोगो
की सादर सेवा हो, (६) परहितकरण (परोपकार) हो । 'तब्बयणसेवणा आभवमखंडा ।।
(७) सच्चारित्र संपन्न गुरु की प्राप्ति हो । (८) उनकी वारिज्जइ जइवि नियाण-बंधणं
आज्ञा का पालन हो । ये ८ संसार पर्यन्त हो । वीयराय ! तुह समये ।
[३] हे वीतराग ! यद्यपि आपके आगम में नियाणा (आशंतह वि मम हुज्ज सेवा,
सा) करने का निषेध किया है, तथापि (यह मेरी इच्छा भवे भवे तुम्ह चलणाणं ।।
है कि) (९) जन्म-जन्म मुझे आपके चरणों की सेवा हो । १ दुक्खक्खओ ११कम्मक्खओ,
[४] हे नाथ ! आप को प्रणाम करने से मुझे १२समाहिमरणं च १३बोहिलाभो अ।
(१०) दुःखक्षय, (११) कर्मक्षय, (१२) समाधिमरण संपज्जउ मह एयं, तुह नाह ! पणामकरणेणं । व (१३) बोधिलाभ प्राप्त हो। सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणं । [५] सर्व मङ्गलों की मङ्गलतारुप, समस्त कल्याणों का प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ।। कारण (व) सर्व धर्मो में श्रेष्ठ जैनशासन जयवन्त है।
(समझः-) यह सूत्र पढ़ते समय प्रभु सामने दिखें, व ये १३ वस्तु हमें खास चाहिए ऐसी उत्कट अभिलाषा हो । चित्र में दिखाये अनुसार (१) 'भवनिव्वेओ' में नरामरसुख व जन्मादि विटंबणा दिखें, उनके प्रति ग्लानि इष्ट है। (२) 'मग्गाणुसारिआ'=तत्वानुसारिता में तत्त्वहीन बातों में रस नहीं, एवं कलह-निर्दयता-अनीति-इर्ष्यादि छोड़ मैत्रीदया-दान-नीति-शुभेच्छा आदि मार्ग का ग्रहण दिखे। (३) 'इट्ठफल' में चित्तसमाधि-प्रेरक आजीविकादि द्वारा सुलभ शान्तिभरे देवदर्शनादि दिखे । (४) 'लोगविरुद्ध०' में निन्दा-जूआ-खरकर्म-मस्करी आदि दिखें, उनका त्याग इष्ट है । (५) 'गुरुजण' में माता-पितादि व विद्यागुरु-धर्मगुरु के आदर सहित विनय-सेवा-आज्ञापालन दिखे । (६) 'परत्थ०' में दान-धर्मशालानिर्माण-हितोपदेश-परदुःखनिवारणादि परोपकार दिखे । (७) 'सुहगुरु०' में कंचन-कामिनी के त्यागी पंचमहाव्रतधारी मुनि गुरु का योग, व (८) तब्बयणं में उनके उपदेश के अनुसार जिनभक्ति-सामायिक-दया-दानादि की साधना दिखे । 'वारिज्जइ०' गाथा में (९) राजा-देव-धनिक आदि बनने की आशंसा का शास्त्रनिषेध दिखे व उत्तरोत्तर भवो में प्रभुचरण-सेवा दिखे एवं उसकी कामना की जाए । 'दुक्खक्खओ०' गाथा में (१०) ईर्ष्या-दीनता-गर्व-चिंता-काम-शोक-धनमानादितृष्णा-प्रमुख दुःख दिखे, इनका क्षय व (११) गजसुकुमाल-खंधक मुनि की भाँति सम्यक् परीसह-उपसर्गसहन द्वारा कर्मक्षय देख वह मांगा जाए । (१२) जीवन के अन्तकाल में परमेष्ठि ध्यान-सर्वमैत्री आदि युक्त अत्यन्त चित्तसमाधि के साथ मृत्यु दिखाई पड़े, और (१३) परलोक में बोधिलाभ यानी दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरुप जैनधर्म की प्राप्ति व साधना दिखे, ये माँगी जाए । चित्र में १३ अभिलषित के प्रतीकरुप प्रसङ्ग दिये गए हैं, सूत्रपदोच्चारण के साथ वैसे प्रसंग सामने दिखे इनमें से अप्रशस्त की अनिच्छा व प्रशस्त की इच्छा होने की प्रार्थना करे । 'सर्वमङ्गल०' गाथा में अन्य मङ्गलों को माङ्गल्य देनेवाला, समस्त कल्याणों का कारण, व सर्वधर्मश्रेष्ठ जैनशासन देख देख 'अहो ! क्या जैन धर्म !' इत्यादि रुप आहलाद-अनुमोदना होवे, एवं वह पाने की धन्यता का अनुभव होवे, व शासन की जयवंतता की घोषणा की जाए ।
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OyM
सकल तीर्थ बंदु कर जोड
सिद्ध अनंत
नमुं निशदिस वैमानिक देवलोक में कुल जिनमंदिर-८४,९७,०२३ कुल जिनबिंब-१,५२,९४,४४,७६०
पांच (चैत्य)
अनुत्तरे
नवौवेयके
त्रणसें अढार (३१८)
(११-१२ में ३००) (९-१० में ४००)
८ में स्वर्गे
.७ में ६ ठे स्वर्गे ५ में बंदु
६००० ४०,०००
५०,००० ४ लाख
बीजे १२ लाख
चोथे ८ लाख
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पहेले स्वर्गे लाख ३२
जे लाख २८
ज्योतिषी असंख्य
14 असंख्य DDDDDDDDDDDD)
मंदिर
बिंब
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व्यंतर-असंख्य मंदिर बिंब...
BARALA भवनपति में ७.७२ लाख
मंदिर १३८९ क्रोड ६० लाख बिंब
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SEE
SHES
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सकलतीर्थ वंदु करजोड सुत्र (विश्व के तीर्थों को वंदना) -(भाग-१) । सकल तीर्थ वंदूं करजोड, जिनवर नामे मंगल कोड । समझ : इस सूत्र में समस्त तीर्थों को पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमूं निशदिश || | वन्दना है । अपने को बाहर अलोक में ठहरा कर बीजे लाख अठ्ठावीस कह्या, त्रीजे बार लाख सद्दह्यां । | सामने लोक यानी १४ राजलोक में नीचे की चोथे स्वर्गे अड लख धार, पांचमे वंदं लाख ज चार ।। | छःनरक पाताल को छोड़कर इनके ऊपर के भवछढे स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालीस सहस प्रासाद ।
नपति-पाताल से लेकर ऊपर ऊपर यावत् सबसे आठमे स्वर्गे छ हजार, नव-दशमे वंदूं शत चार ||
ऊपर अनुत्तर विमान तक देखना है । ८ राजअगियार-बारमे त्रणसे सार, नव ग्रैवेयके त्रणसे अढार ।
लोक दिखें । इन में पांच भाग दिखे - पांच अनुत्तर स्वर्गे मली, लाख चोरासी अधिकां वली ।।
(१) शाश्वते मन्दिर, सहस सत्ताणुं त्रेवीस सार, जिनवरभवन तणो अधिकार | |
(२) अशाश्वते मन्दिर लांबा सो जोजन विस्तार, पचास ऊंचा बहोतेर धार ।। |
(३) विचरते २० भगवान, एकसो एँशी बिम्ब प्रमाण, सभा सहित एक चैत्ये जाण । |
(४) अनन्त सिद्ध, व सो कोड बावन कोड संभाल , लाख चोराणुं सहस चौंआल ||
(५) विद्यमान मुनि । सूत्र बोलते वक्त हाथ जोड़
वन्दना करते चलें । यहां १० गाथा में प्रथम भाग सातसे उपर साठ विशाल, सवी बिम्ब प्रणमुं त्रणकाल |
में शाश्वते मन्दिर-मूर्ति को वन्दना है । इसमें भी ४ सात कोड ने बहोंतेर लाख, भवनपतिमां देवल भाख ।।
भाग हैं. एकसो एँशी बिम्ब प्रमाण, एक एक चैत्ये संख्या जाण ।
(१) ऊपर के वैमानिक देवलोक के मन्दिर-बिंब तेरसे क्रोड नेव्याशी क्रोड, साठ लाख वंदूं कर जोड ||
(२) भवनपति के मंदिर-बिंब, बत्रीसे ने ओगणसाठ, तिर्छालोकमां चैत्यनो पाठ ।
(३) मध्य लोक के शाश्वत मन्दिर व मूर्ति और त्रण लाख एकाणं हजार, त्रणसे वीस ते बिम्ब जुहार ।। (४) व्यंतर ज्योतिषी के मन्दिर-बिंब असंख्य । व्यंतर ज्योतिषीमां वली जेह, शाश्वता जिन वंदूं तेह । उषभ-चंटानन-वारिषेण.-वर्द्धमान नाम गुणसण ।।
५ अनुत्तर में वैमानिक में पहले नीचे प्रथम देवलोक से शुरु करें । वहां दिखाई ३१८ नौ ग्रेवेयकमें संख्या के जितने विमान हैं । प्रत्येक में १-१ मन्दिर है अतः ३२ ३०० ११-१२ देवलोक में लाख, २८ लाख आदि मन्दिर देखें । यह भी यहाँ बाजू में दर्शित ४०० ९-१०
के अनुसार नीचे से ऊपर तक देखा जाए । प्रत्येक मन्दिर लम्बा ६०००८
१०० योजन, चौडा ५० योजन ऊंचा ७२ योजन दिखे । कुल ४०,००० ७
मन्दिर ८४,९७,०२३ ५०,००० ६
इस प्रत्येक मन्दिर में १८० रत्नमय शाश्वत जिनबिंब हैं, मात्र ४ लाख | ५
ग्रैवेयक-अनुत्तर के ३२३ मन्दिरों में १२०-१२० जिनबिंब है | ३ देवलोक ४ देवलोक
वैमानिक देवलोक १२ लाख ८ लाख १देवलोक २ देवलोक
८४,९६,७०० x १८० = १,५२,९४,०६,००० ३२ लाख
८४,९७,०२३ मादर ३२३ x १२० = ३८,७६० |२८ लाख
= १,५२,९४,४४,७६० ★ अब नीचे पाताल में भवनपति-देवलोक देखना वहां मन्दिर ७,७२,००,००० (यहां १० भवनपति में मन्दिर क्रमशः लाख ६४-८४-७२, छ: में प्रत्येक में ७६ लाख, १० वें में ९६ लाख, कुल ७७२ लाख) प्रत्येक में जिनबिंब १८०, अतः कुल बिम्ब १३,८९,६०,००,००० को वन्दना । ★ अब ऊपर मृत्युलोक में ३,२५९ मन्दिर, व मूर्ति ३,९१,३२० ।
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१ समेतशिखर वंदु जिन वीश
२ अष्टापद वंदु चोवीश
Smiumuvistianimlaime
विमलाचल
४ गढ़ पीरनार
PORAN
१ आबु
६ शंखेश्वर
७ केसरिया
८तारंगा
190 वरकाणा पास
९अंतरिक्ष
११जीरावला
१२र्थभण पास
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गाम-नगर-पुर-पाटण जेह जिनवर चैत्य नमुं
विहरमान वंदु जिन वीश
सिद्ध अनंत नहुँ
अढी द्वीपमा जे अणगार
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सकल तीर्थसुत्र (विश्व केतीयों कोवंदना) (भाग-2)
समेतशिखर वंदूं जिन वीश अष्टापद वंदूं चोवीश । यहां ४ विभाग हैं, (१) अशाश्वत तीर्थ, (२) विद्यविमलाचल ने गढ गीरनार आबु उपर जिनवर जहार || मान २० भगवान, (३) अनंत सिद्ध, (४) वर्तशंखेश्वर केसरियो सार, तारंगे श्री अजित जुहार ।
मान मुनि । देखो चित्र में क्रमशः समेतशिखर
अष्टापद-विमलाचल-गीरनार-आबू-शंखेश्वर-केसअंतरिक्ष वरकाणो पास, जीराउलो ने थंभण पास ||
रिया-तारंगा-अंतरीक्ष-वरकाणा-जीरावला-स्थंभन गाम नगर पुर पाटण जेह, जिनवर-चैत्य नमुं गुणगेह ।
पार्श्वनाथ भगवान के तीर्थ और मूलनायक विहरमान वंदूं जिन वीश, सिद्ध अनंत नमुं निश-दीस ||
भगवान... अढीद्वीपमा जे अणगार, अढार सहस सीलांगना धार । दूसरे पेज में बाकी बचे को १५ कर्मभूमि में गामपंच महाव्रत समिति सार, पाले पलावे पंचाचार | नगर आदि में देखना । (जैसे, 'जं किंचि' बाह्य अभ्यंतर तप उजमाल, ते मुनि वंदं गुण-मणि-माल | 'जावंत० सूत्र' में) (२) विद्यमान विचरते २० नित नित उठी कीर्ति करूं, जीव कहे भवसायर तरुं ||
भगवान ५ महाविदेह में, (३) अनंत सिद्ध भगवान सिद्धशिला पर, (४) मुनि ढाइ द्वीप में । वे १८,००० शीलांग, ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ आचार व बाह्य-आभ्यंतर तपवाले दिखें।
मृत्यु लोक में ३२५९ मंदिर व मूर्ति ३,९१,३२० का कोष्टक
२०
मंदिर | बिंब मंदिर बिंब
मंदिर | बिंब नंदीश्वर ५२ ६४४८ | इषुकार | ४ ४८० | | यमकगिरि
२४०० कुंडल ___४९६ | मानुषोत्तर | ४| ४८० | मेरुचूला
६०० रुचक
। ४९६ | दिग्गज । ४० ४८०० | जंबूवृक्षादि ११७० १,४०,४०० कुंडल | ३० | ३६०० | द्रह । ९६०० । वृत्त वैताढय
२४०० देव-उत्तरकुरु १० १२०० कंचनगिरि १००० १,२०,००० विजयादि नगरीओ १६ १९२०
८० | ९६०० | महानदी ७० ८४०० गजदंता २० । २४०० दीर्घवैताढय १७० २०,४०० कुल
३२५९ ३,९१,३२० वक्खार ८० / ९६०० कुंड ३८०, ४५,६००
| २०
मेरु
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वोदिनु सम्वसिद्ध
वंदित्तु सबसिडे
सिद्ध
आचार्य जोमेवयाइयारो
आचार्य
अरिहंत
ज्ञान
चारित्र दर्शन
साधु
उपाध्याय
वदितु
दुविहे परिग्गहम्मि
आगमणेनिग्गमणे
11
चंकमणे
सचित्त परिग्रह
HO
अचित्त परिग्रह
पठाणे आगमणे निगमणे
सावज्जे बहुविहे अ आरंभे
अभिओगे
पडिक्कमे
संकाकख बिगिच्छा
मोक्ष
देव
साधु प्रति द्वेषभाव विचिकित्सा
शङ्का
अन्य धर्म की इच्छाकाङ्क्षा अन्य दर्शनीयों का परिचय-प्रशंसा
देवलोक
गुरु
नर्क
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प.पू.आ. श्री विजयहेमचंद्रसूरिजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री संयमबोधिविजयजी म.सा. ने की है ।
वंदित्तु सूत्र (श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र)
वंदित्तु सव्वसिद्धे,
(अर्थ) सर्व (अरिहंतों को), सिद्ध भगवंतो को, धर्माचार्यों (अ शब्द से धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ । उपाध्यायों) और सर्व साधुओं को वंदन करके श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचारों इच्छामि पडिक्कमिउं, का प्रतिक्रमण करना (व्रतों मे लगी हुई मलिनता को दूर करना चाहता हुँ । सावगधम्माइआरस्स ||१|| जो मे वयाइयारो, नाणे तह दंसणे चरिते अ । सुमो अ बायरोवा, तं निंदे तं च गरिहामि ||२|| दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । कारावणे अकरणे,
पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||३|| जं बद्धमिंदिएहिं, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्येहिं रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ||४||
आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||५||
संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्स-इआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||६||
मुझे व्रतों के विषय में तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र (अ शब्द से तपाचार, वीर्याचार, संलेखना तथा सम्यक्त्व) की आराधना के विषय में सूक्ष्म या बादर (छोटा या बड़ा) जो अतिचार लगा (व्रतमें स्खलना या भूल हुई) हो, उसकी • (आत्मसाक्षी से) निंदा करता हूँ और (गुरूसाक्षी से) गर्हा करता हुँ ।
सचित्त व अचित्त (अथवा बाह्य अभ्यंतर) दो प्रकार के परिग्रह के कारण, पापमय अनेक प्रकार के आरंभ (सांसारिक प्रवृत्ति) दुसरे से करवाते हुए और स्वयं करते हुए (तथा करते हुए की अनुमोदना से) दिवस संबंधी (सुबह के प्रतिक्रमण में रात्रि संबंधी) छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । अप्रशस्त (अशुभ कार्य में प्रवृत्त बनी हुई) इन्द्रियों से, चार कषायों से (तीन । योगों) तथा राग और द्वेष से, जो (अशुभ कर्म) बंधा हो, उसकी मैं निंदा करता हुँ, उसकी मैं गर्हा करता हुँ ।
उपयोगशून्यता से, दबाव होने से अथवा नौकरी आदि के कारण आने में, जाने में, एक स्थान पर खडे रहने में व बारंबार चलने में अथवा इधर-उधर फिरने में दिवस संबंधी जो (अशुभकर्म) बंधे हो उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (अभियोग = दबाव राजा, लोकसमूह, बलवान, देवता, मातापितादि वडिलजन तथा अकाल या अरण्यमें फँसना वगैरह आपत्तियों से आया हुआ दबाव, नियोग=फर्ज)
१) मोक्षमार्ग में शंका २) अन्यमत (धर्म) की इच्छा, क्रिया के फलमें संदेह या धर्मियों के प्रति जुगुप्सा (घृणा) ३) मोक्षमार्गमें बाधक अन्य दार्शनिकों की प्रशंसा व ४) उनका परिचय सम्यक्त्व विषयक अतिचारों में दिवस संबंधी लगे हुए अशुभ कर्मों की मैं शुद्धि करता हुँ ।
चित्र (समझ-) गाथा १ : प्रतिक्रमण के साररूप इस सूत्र के प्रारंभ में पंच परमेष्ठी को नमस्कार रूप मंगल किया जाता है। पंच परमेष्ठी को स्वयं की विशिष्ट मुद्रा में देखकर भाव से मस्तक झुकाकर "शुद्ध आलोचना (प्रायश्चित्त) करने का सामर्थ्य प्राप्त हो" वैसी प्रार्थना करनी । गाथा २ : देव-गुरू कृपा से प्राप्त हुए ज्ञान-दर्शन-चारित्र के योग व भावमें आयी हुई मलिनता दूर करके निर्मलता को प्राप्त करने का सम्यक्पुरुषार्थ, उसके लिए पार्श्वभूमिकामें अंधकार से उजाले की ओर गति बतायी गयी है ।
गाथा ३ : परिग्रह तथा आरंभ के प्रतीकों से पीछे हटते आत्मा को देखना ।
गाथा ४-५ : अनुपयोग और लापरवाही से जीवयुक्त या जीवरहित भूमि पर सकारण या निष्कारण आना, जाना, खड़े रहना व घुमना फिरना । घर व पीछे उद्यान के पास इन्सान देखिये । अभियोगमें राजा के आदेश को नतमस्तक स्वीकार करता सेवक है व नियोगमें रामचंद्रजी के आदेश से सीताजी को जंगलमें छोडकर अपने कर्तव्य को अदा करता हुआ कृतान्तवदन सेनापति दिखाया है ।
गाथा ६ : आलोक विषय में देव-गुरु के वचन पर व परलोक विषयमें मोक्ष, देवलोक व नरक जैसे स्थानों के प्रति शंका हो । अन्य धर्म के पवित्र स्थानों की चमत्कारिक बातें सुनकर मन आकर्षित हो वह कांक्षा, जिसमें प्रख्या हिंदु देवस्थान तथा चर्च दिखाये हैं। साधु के मलिन वस्त्र-गात्र देखकर मुंह मचोडता हुआ युवान है । और अन्य दर्शनियों के यज्ञ-यागादि क्रिया देखकर प्रभावित होकर उसकी ओर आकर्षित होते जीव है ।
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बीए अणुव्वयम्मि
कन्या- गौ- भूम्यालिक
सहसा रहस्सदारे कूडतुल कूडमाणे
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पयावणे
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अपरिग्गहिआ इत्तर
इनो अणुव्वर पंचमम्मि
मोसुवएसे
पढमे अणुव्वयम्मि
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भत्तपाणवुच्छर
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तेना हडप्पओगे
तिब्व-अणुरागे
कुविअपरिमाणे
कूटसाक्षी
दुपए चउप्पयम्मी य
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छक्कायसमारंभे,
छकाय के जीवों की हिंसायुक्त प्रवृत्ति करते हुए तथा अपने लिए, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा । दूसरों के लिए और उभय के लिए (भोजन) रांधते हुए, रंधाते हुए (या अत्तट्ठा य परट्ठा,
अनुमोदन में) जो कर्म बंधे हों, उनकी मैं निंदा करता हुँ। उभयट्ठा चेव तं निंदे ||७|| पंचण्ह मणुव्वयाणं,
पांच अणुव्रत (स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि) तीन गुणव्रत (दिक्गुणवयाणं च तिण्हमइआरे । परिमाण व्रतादि), चार शिक्षाव्रतों (सामायिकादि) (तप संलेखणा व सिक्खाणं च चउण्हं, सम्यक्त्वादि के) विषय में दिवस संबंधी छोटे बड़े जो अतिचार लगे पडिक्कमे देसि सव्वं ।।८।। हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । पढमे अणुब्बयम्मि
प्रथम अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के विषय में पांच अतिचारथूलग-पाणाइवाय-विरईओ । प्रमाद के परवश होकर या रागादि अप्रशस्त (अशुभ) भावसेआयरियमप्पसत्ये,
१) मार मारना २) रस्सी आदि से बंधन बांधना ३) अंगछेदन ४) इत्थ पमायप्पसंगेणं ॥९॥ ज्यादा भार रखना और ५) भूखा-प्यासा रखना, प्रथम व्रत के इन पांच वह-बंध-छविच्छेए,
अतिचारों से दिनभर में जो कर्म बंधे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता अइभारे भत्तपाणवुच्छेए। हूँ ।। ९-१०) पढमवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ||१०|| बीए अणुव्वयम्मि,
दूसरे अणुव्रत-झूठ बोलने से अटकने रूप स्थूल मृषावाद विरमण व्रत पस्थूिलग-अलियवयण-विरईओ । के विषय में पांच अतिचार-प्रमाद से अथवा रागादि अप्रशस्त भावों का आयरियमप्पसत्थे,
उदय होने से- १) बिना विचारे किसी पर दोषारोपण करना २) कोई इत्थ पमायप्पसंगेणं ||११|| मनुष्य गुप्त बात करते हों उन्हें देखकर मनमाना अनुमान लगाना सहसा-रहस्स-दारे,
३) अपनी पत्नी (या पति) की गुप्त बात बाहर प्रकाशित करना ४) मोसुवएसे अ कूडलेहे अ । मिथ्या उपदेश अथवा झूठी सलाह देना तथा ५) झूठी बात लिखना, बीयवयस्स-इआरे,
इन पांच अतिचारों से दिनभर में बंधे हुए अशुभ कर्म की मैं शुद्धि करता पडिक्कमे देसिअं सवं ||१२|| हूं || ११-१२) तइए अणुव्वयम्मि,
तीसरे स्थूल अदत्तादान विरमण अणुव्रत के विषय में पांच अतिचारथूलग-परदबहरण-विरईओ। प्रमाद से या क्रोधादि अप्रशस्त भावों से १) चोर द्वारा लाई हुइ वस्तु आयरियमप्पसत्ये,
स्वीकारना २) चोरी करने का उत्तेजन मिले ऐसा वचनप्रयोग करना ३) इत्थ पमायप्पसंगणं ||१३|| माल में मिलावट करना ४) राज्य के नियमों से विरुद्ध गमन करना तेनाहड-प्पओगे,
और ५) झूठे तौल तथा माप का उपयोग करना...अन्य के पदार्थों का तप्पडिरूवे विरूद्धगमणे अ | हरण करने से अटकनेरूप अदत्तादान विरमण व्रत के अतिचारों द्वारा कूडतुल-कूडमाणे, दिनभर में लगे हुए कर्मों की मैं शुद्धि करता हूं ।। १३-१४) पडिक्कमे देसि सबं ||१४||
(अनुसंधान पृष्ठ ८५ पर)
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गमगरसयपरिमाणे
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मज्जम्मि अमंसम्मि भ | सचित्ते पडिबद्ध
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पुष्प
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रात्रिभोजन
रिंगण
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मक्खन
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अंगार कर्म
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"शकट कर्मः।
भाटक कर्म
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केस वाणिज्य
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सर-दह-तलाय सोस
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गमणस्स य परिमाणे, दिशा परिमाण नामक प्रथम गुणव्रत के विषय में १) ऊर्ध्वदिशामें जाने का दिसासु उड्ढ अहे अ तिरिअं च । प्रमाण लाँघने से २) अधोदिशा में जाने का प्रमाण लाँघने से ३) तिर्यग् अर्थात् वुड्ढि सइ-अंतरद्धा,
दिशा और विदिशा में जाने का प्रमाण लाँघनेसे ४) एक दिशा का प्रमाण कम पढमंमि गुणव्वए निंदे ||१९||
करके दूसरी दिशा का प्रमाण बढाने से और ५) दिशा का प्रमाण भूल जाने
से पहले गुणव्रत में जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ ||१९|| मज्जम्मि अ मंसम्मि अ, भोगोपभोग परिमाण नामक दूसरे गुणव्रत में मदिरा, मांस ('अ' शब्द से पुप्फे अ फले अ गंधमल्ले अ ।
२२ अभक्ष्य, ३२ अनंतकाय, रात्रिभोजनादि) पुष्प, फल, सुगंधी द्रव्य , उवभोग-परीभोगे,
पुष्पमाला आदि (एक बार ही जिसका उपयोग हो सकता है वह) उपभोग व बीअम्मि गुणव्वए निंदे ||२०||
(बारंबार जिसका उपयोग हो सकता है वह) परिभोग संबंधी लगे हुए अतिचारों
की मैं निन्दा करता हूँ ।।२०।। सचित्ते पडिबद्ध,
१) निश्चित किए हुए प्रमाण से अधिक या त्याग किये हुए सचित्त आहार का भक्षण अपोल-दुप्पोलियं च आहारे ।
२) सचित्तसे संयुक्त आहार का भक्षण ३) अपक्व आहार का भक्षण ४) कच्चेतुच्छोसहि-भक्खणया, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।२१।।
पक्के पकाओ हुए आहार का भक्षण ५) जिसमें खाने का भाग कम व फेंकने का भाग अधिक हो वैसी तुच्छ औषधिका भक्षण, सातवें व्रत के इन पाँच अतिचार से
दिवस संबंधी जो कर्मों की अशुद्धि लगी हो उनकी मैं शुद्धि करता हुँ ।।२१।। इंगाली-वण-साडी
सातवाँ भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत दो प्रकार का है-भोगसे व कर्मसे । उसमें भाडी-फोडीसु वज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव दंत
कर्मसे पन्द्रह कर्मादान (अति हिंसक प्रवृत्तिवाले व्यापार) श्रावक को छोड़ने लक्ख-रस-केस-विस-विसयं ।।२शा चाहिए । वे इस प्रकार के हैं | १) अंगार कर्म-इंटका निभाड़ा, कुंभार-लोहार एवं खु जंतपीलण
आदि, जिसमें अग्निका अधिक काम पडता हो ऐसा काम | २) वन कर्मकम्म निल्लंछणं च दव-दाणं । जंगल काटना आदि जिसमें वनस्पति का अधिक समारंभ हो, ऐसा कार्य । सर-दह-तलाय सोसं, ३) शकट कर्म-गाडी, मोटर, खटारा आदि वाहन बनाने का कार्य । ४) भाटक असइपोस च वज्जिज्जा ||२३|| कर्म-वाहन या पशुओं को किराये पर चलाने का कार्य ५) स्फोटक कर्म-पृथ्वी तथा पत्थर फोडने का कार्य । ६) दन्त वाणिज्य-हाथीदांत, पशु-पक्षी के अंगोपांग से तैयार हुई वस्तुओं को बेचना । ७) लाक्षा वाणिज्य-लाख, नील, साबु, हरताल आदि का व्यापार करना । ८) रस-वाणिज्य-महाविगइ तथा दूध, दही, घी, तैलादि का व्यापार | ९) केशवाणिज्य-दो पाँव (दास-दासी वगैरह) तथा चार पाँववाले जीवों का व्यापार | १०) विषवाणिज्य-जहर और जहरीले पदार्थों तथा हिंसक शस्त्रों का व्यापार | ११) यंत्रपीलनकर्मअनेकविध यन्त्र चक्की, घाणी आदि चलाना, अन्न तथा बीज पीसने का कार्य । १२) निर्लाञ्छनकर्म-पशुओं का नाक-कान छेदना, काटना, आँकना, डाम लगाना व गलाने का कार्य | १३) दवदानकर्म-जंगलों को जलाकर कोयले बनाना । १४) जलशोषण कर्म-सरोवर, कुआँ, स्त्रोत तथा तालाबादि को सुखाने का कार्य । १५) असतीपोषणकर्म-कुल्टा आदि व्यभिचारी स्त्रीयाँ तथा पशुओं के खेल करवाना, बेचना, हिंसक पशुओं के पोषण का कार्य । ये सब अतिहिंसक व अतिक्रूर कार्यों का अवश्यमेव त्याग करना चाहिए ||२२||२३|| चित्र (समझ-) गाथा १९ : उर्ध्वगमनके लिए हवाई विमान, अधोगमनके लिए सबमरीन या डाइवर्स तथा तिर्छागमनके लिए गाड़ी मोटर आदि बताये गये हैं । गाथा २०-२१ : २०-२१ : २२ अभक्ष्य ३२ अनंतकाय, चार महाविगई, रात्रिभोजन आदिमें से कई अभक्ष्य द्रव्य व अतिभोगासक्ति के प्रतीकरूप पुष्प, फल आदि दिखाये हैं | गाथा २२-२३ : महाहिंसक, महाआरंभ समारंभ के कारक पंद्रह कर्मादान के धंधे में से कितने की रूपरेखा : अंगार कर्म : ईंट का भट्ठा, स्टील फेक्टरीकी भट्ठी, वन कर्म : लकड़े (वृक्ष) काटने का काँन्ट्रेक्ट देना, शकटकर्म : मोटर मेन्युफेक्चरींग...| भाटक कर्म : ट्रान्सपोर्टेशन की ट्रक, टेम्पो आदि स्फोटक कर्म : सुरंग फोड़ना, रस्ता बनाने के लिए पर्वतको बीचमें से तोडकर जगह करना । दंत वाणिज्य : हाथीदांत का ढ़ेर, लक्ख वाणिज्य : साबुनकी दुकान, रसवाणिज्य : शराबकी बोतलों का व्यापार, केश वाणिज्य : केश तथा केशयुक्त जीवों को बेचना-यहाँ सुंदर रोमवाले पशुओं की बिक्री बतायी है । विष वाणिज्य : बेगॉन स्प्रे, टिक-२० आदि तथा तलवार बंदूक आदि शस्त्रों। यंत्रपीलन कर्म : चक्की, इख का संचा, निर्लाछनकर्म-गाय को डाम देना, दव-दानकर्म : वन को आग लगाना, सरद्रह-तड़ाग शोषण कर्म : तालाब, सरोवर आदि का पानी मशीनसे खाली किया जा रहा है । असती पोषण : नीच कृत्य करने के लिए मनुष्यों को बेचनेवाला दलाल ।
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तइअम्मि गुणव्वए निंदे
सत्थ
अग्गि
मुसल
जतग
पहाणुव्वट्टण
तण-कडे
मंत-मूल-भेसज्जे
वन्नग
सद्द-रुव-रस-गंधे
रुव
गंधे
वत्थ
आभरणे
कुक्कुइए अहिगरण
भोग-अइरित्ते
कंदप्पे
आसण
शिक्षाखत १-सामायिक
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सत्याग्गेमुसलजतग-, अनर्थदंड गुणव्रत चार प्रकार के है-अपध्यान, पापोपदेश, हिस्रप्रदान तणकट्ठे मंतमूलभेसज्जे । व प्रमादाचरण इनमें से हिंस्रप्रदान व प्रमादाचरण अति सावध होने से दिन्ने दवाविए वा,
उसका स्वरूप दो गाथा द्वारा बताते हैं । प्रथम-हिंस्रप्रदान-शस्त्र, अग्नि, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||२४|| मुसल, हल आदि, चक्की आदि यंत्र, अनेक प्रकार के तृण, काष्ठ,
मंत्र, मूल और औषधि के विषय में दूसरों को देते हुए व दिलाते हुए दिवस संबंधी जो अतिचार लगे हो उन सबसे मैं पीछे हटता हुँ ||२४||
ण्हाणुव्वट्टण-वन्नग
प्रमादाचरण-स्नान, पीठी चोलना, मेहंदी लगाना, चित्रकारी करवाना, विलेवणे सद्द-रूव-रस-गंधे । लेपन करना, आसक्तिकारक शब्द, रूप, रस, गंध का उपभोग, वत्थासण-आभरणे,
वस्त्र-आसन तथा अलंकारों में तीव्र आसक्ति से दिवस संबंधी लगे हुए पडिक्कमे देसि सव्वं ।।२५|| अशुभ कर्म से मैं पीछे हटता हूँ ||२५||
कंदप्पे कुक्कुइओ,
अनर्थदंड नामक तीसरे गुणव्रतमें लगे हुए पाँच अतिचार १) कामोत्तेजक मोहरि-अहिगरण-भोगअइरित्ते । शब्द प्रयोग-कंदर्प २) नेत्रादि की विकृत चेष्टा (सामनेवाले को हास्य दंडम्मि अणट्ठाए,
उत्पन्न कराना)-कौत्कुच्य ३) अधिक बोलना, वाचालता ४) हिंसक तइअम्मि गुणव्वए निंदे ||२६|| साधनों को तैयार रखना, जैसे ऊखल के पास मूसल रखाना ५) भोग
के साधनों की अधिकता आदि के कारण लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ ||२६||
तिविहे दुप्पणिहाणे, (१-२-३) मन-वचन-काया के दुष्प्रणिधान (अशुभ प्रवृत्ति) ४) सामायिकमें अणवट्ठाणे तहा सइविहूणे । स्थिर न बनना-चंचलता-अनादर सेवन तथा ५) सामायिक समय का सामाइय वितहकए, विस्मरण, यह पाँच अतिचार प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक में लगे हों, पढमे सिक्खावए निंदे ॥२७॥ उनकी मैं निंदा करता हूँ ||२७||
चित्र (समझ-) गाथा २४-२५-२६ : अनर्थदंड विरमणव्रतमें हिंस्रप्रदान तथा प्रमादाचरण के प्रकार बताये हैं। अतिचारों में प्रेमिका को फूल देकर कामचेष्टा करता हुआ मनुष्य कंदर्पमें दिखाया है । तथा अन्य को हँसाना, विचित्र चेष्टा करना, पशुओं के मुखौटे पहने हुए मनुष्य कौत्कुच्यमें दिखाये हैं । लोक आकर्षण के लिए की हुई निरर्थक चेष्टा होने से अनर्थदंड में ली है । अधिकरण में पापप्रवृत्ति के लिए तैयार हालत में रखे हुए घंटी तथा उदुखल बताये गये हैं। अंतिम विभाग में वर्तमानकाल में अत्यंत व्यापक बन चूके हुए और जनमानस में पापप्रवृत्तिरूप नहीं माने जा रहे अनर्थदंड के भेद बताये गये हैं । इस विभाग में कोम्प्युटर से संलग्न रमते-चेटिंग, सर्किंग आदि, स्विमींग पुल, फ्रिज, टी.वी. पत्ते की जोड, हाउझी, टेप, थियेटर, रेसकोर्स (घोडदोड) आदि जुएं के भेद, होटल, सर्कस, टुरिस्ट स्पोट (प्रवासन के स्थल), घर में अद्यतन ढंग का फर्निचर, क्रिकेट आदि के खेल में दिलचस्पी से प्रवृत्ति आदि दिखाये हैं । क्लिष्ट कर्मबंध के कारणभूत इन अनर्थदंडों को त्यागकर आत्मकल्याण और जगतकल्याण की अनगिनत प्रवृत्तियों में लग जाना चाहिये।
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आणवणेपेसवणे
सद्दे
आणवणे
रुवे
पेसवणे
पुग्गलक्खेवे
(संथारुच्चारविही
अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय संथारए ।
| अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय उच्चार-पासवणभूमि
अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सिज्जा अतिथि संविभाग
10.
गाससपा
RGIR
* इहलोए परलोए
डहला
विआससपा
ससप्पआ
परणास
Acioitis
RBS
पभोगासस
सप्पआ
कामम
iloilar
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आणवणे पेसवणे, नियत मर्यादा के बाहर से १) वस्तु मंगवाना २) वस्तु बाहर भेजना सद्दे रूवे अ पुग्गलक्खेवे ।। ३) आवाज द्वारा या ४) मुखदर्शन द्वारा अपनी उपस्थिति बतलाना देसावगासिअम्मी,
५) कंकर, पत्थर आदि फेंकना, ये दूसरे देशावगाशिक शिक्षाव्रत बीए सिक्खावए निंदे ||२८|| के पाँच अतिचार से बंधे हुए अशुभ कर्म की मैं निंदा करता हुँ ॥२८॥ संथारूच्चारविही
(१-२-३-४) संथारा की भूमि व परठवणे की भूमि का प्रतिलेखन व पमाय तह चेव भोयणाभोए ।
प्रमार्जन में प्रमाद होने से ५) भोजनादि की चिंता द्वारा पौषध उपवास नामक पोसहविहि-विवरीए,
तीसरे शिक्षाव्रत में जो कोइ विपरितता हुई हो (अतिचारों का सेवन हुआ हो) तईए सिक्खावए निंदे ||२९||
उसकी मैं निंदा करता हूँ ।।२९।। सच्चित्ते निक्खिवणे,
मुनि को दान देने योग्य वस्तु में १) सचित्त वस्तु डालना २) सचित्त वस्तु से पिहिणे ववएस मच्छरे चेव ।
ढंकना ३) परव्यपदेश (दूसरों के बहाने देना या न देना) ४) ईर्ष्या-अभिमान से कालाइक्कमदाणे,
दान देना व न देना तथा ५) काल बीत जाने पर दान देने की विनंती करनी
व आग्रह करना, चौथे शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार से बंधे हुए चउत्थ-सिक्खावए निंदे ||३०||
अशुभकर्म की मैं निंदा करता हूँ ||३०॥ सुहिएसु अ दुहिएसु अ, सुखी अथवा दुःखी असंयमी पर राग या द्वेष से मैने जो अनुकंपा की हो जा मे असंजएसु अणुकंपा। उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हुँ । ज्ञानादि उत्तम हितवाले, ग्लान और गुरू की रागेण व दोसेण व, निश्रामें विचरते मुनिओं की पूर्व के प्रेम के कारण या निंदा की द्रष्टि से जो तं निंदे तं च गरिहामि ||३१।। (दूषित) भक्ति की हो, उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हूँ | ||३१|| साहस संविभागो,
वहोराने लायक प्रासुक (निर्दोष) द्रव्य होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील व |
तटोगने लायक न कओ तव-चरण-करणजुत्तेसु । क्रियापात्र मुनिराज को वहोराया न हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ व गरे । संते फासुअदाणे,
करता हूँ ||३२|| तं निंदे तं च गरिहामि ||३२।। इहलोए परलोए,
१) इहलोक संबंधी भोग की आसक्ति २) परलोक संबंधी भोग की आसक्ति जीविअ-मरणे अ आसंसपओगे। ३) दीर्घ जीवन की आसक्ति ४) शीघ्र मरण की इच्छा, व ५) कामभोग की पंचविहो अडयारो,
इच्छा, ये (संलेखना व्रत के) पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरण के अंतसमय | मा मज्झ हुज्ज मरणंते ||३३|| में भी न हो ॥३३॥
काएण काइअस्स,
मन, वचन व काया के अशुभ योग से सर्व व्रतोंमें मुझे जो अतिचार लगे हो पडिक्कमे वाइअस्स वायाए। उसका मैं शुभ काययोग से, शुभ वचनयोग से व शुभ मनोयोग से प्रतिक्रमण मणसा माणसिअस्स,
करता हूँ ||३४|| सव्वस्स वयाइआरस्स ||३४|| वंदण-वय-सिक्खा -गारवेसु देववंदन या गुरूवंदन के विषय में, बारहव्रत के विषयमें, पोरिसि आदि पच्चक्खाण सन्ना-कसाय-दंडेसु । में, सूत्रार्थ का ग्रहण व क्रिया का आसेवन रूप शिक्षा, रिद्धि-रस-शाता का गुत्तीसु अ समिइसु अ, गौरव (अभिमान), आहार-भय-मैथुन-परिग्रह संज्ञा, चार कषाय, मन-वचनजो अइआरो अ तं निंदे ||३५|| कायारूप तीन दंड तथा पाँच समिति व तीन गुप्ति के पालन के विषय में प्रमाद
से जो अतिचार लगा हो उसकी मैं निंदा करता हूँ ||३५|| गाथा २८ : वस्त्र लाता, पुस्तक ले जाता, किसी को बुलाता, कंकर डालने की क्रिया करता...इस तरह अनेक निषिद्ध प्रवृत्ति कर रहा सामायिक वस्त्रधारी श्रावक दिखाया गया है | चित्र (समझ-) गाथा २९ : पौषधव्रतमें अविधिपूर्वक की हुई क्रियाओं के प्रतीक रूप संथारा बिछाना, काजा लेना तथा मात्रु परठना ये तीन क्रियाएं बतायी. हैं | गाथा ३३ : पाँच प्रकारकी आशंसा-इहलोककी आशंसामें राज्यसुखादि की आशंसा देखनी, इस प्रकार क्रमसे देवसुख, जीवित सुख, आत्महत्या तथा कामभोग की आशंसा देखनी ।
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तं पिहुसपडिक्कमण
जहाविसीकुतगर्य
एवअविहकम
चिरसंचिय पाव-पणासणीइ, भवसयसहस्समहणीओ ।
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चउव्वीसजिणविणिग्गयकहाइ
वोलंतु मे दिअहा
खार्ममिसनजी तिर्यंच
देव
तिर्यंच
मममगल
सिद्धा
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विकलेन्द्रिय
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साह
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सम्मदिट्ठी देवा
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सुअं च धम्मो अ
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समाहिं च बोहि च
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सम्मदिट्ठी जीवो,
सम्यग्दृष्टि जीव (आत्मा) यद्यपि किंचित् पापमय प्रवृत्ति को जीवन जइ वि हु पावं समायरइ किंचि। निर्वाह के लिए करता है, फिर भी उसे कर्मबन्ध अल्प होता है अप्पो सि होइ बंधो,
क्योंकि वह उसे निर्दयतापूर्वक नहीं करता ||३६।। जेणं न निद्धंधसं कुणइ ||३६।। तं पि हु सपडिक्कमणं,
जैसे सुशिक्षित वैद्य व्याधि का शीघ्र शमन कर देता है वैसे ही सप्परिआवं सउत्तरगुण च ।
सम्यग्दृष्टि श्रावक उस अल्प कर्मबंध का भी प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप खिप्पं उवसामेइ,
व प्रायश्चित्त-पच्चक्खाण आदि उत्तरगुण द्वारा शीघ्र नाश कर देता वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो ||३७|| है ||३७|| जहा वीसं कुट्ठगयं,
जैसे पेट में गये हुए झहर को मंत्र और जडीबूटी के निष्णात वैद्य मंत-मूल-विसारया ।
मंत्रों से (झहर को) उतारते हैं व उससे वह विषरहित होता है वैसे विज्जा हणंति मंतेहिं,
ही प्रतिक्रमण करनेवाला सुश्रावक अपने पापों की आलोचना व तो तं हवइ निविसं ||३८||
निंदा करता हुआ राग और द्वेष से उपार्जित आठ प्रकार के कर्म एवं अट्ठविहं कम्म,
को शीघ्र नष्ट करता है ||३८||३९।। राग-दोस-समज्जिअं । आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ||३९|| कयपावो वि मणुस्सो,
जैसे मजदूर भार उतारते ही बहुत हल्का हो जाता है, वैसे पाप आलोइअ निंदिअ गुरूसगासे ।
करने वाला मनुष्य भी अपने पापों की गुरू समक्ष आलोचना व होइ अइरेग-लहुओ,
निंदा करने से एकदम हल्का हो जाता है ।।४०।। ओहरिअ-भरूव्व भारवहो ||४०|| आवस्सएण एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होइ ।
यद्यपि श्रावकने (सावध आरम्भादि कार्य द्वारा) बहुत कर्म बांधे हुए दुक्खाण मंतकिरिअं,
होते हैं तथापि इस छ आवश्यक द्वारा अल्प समय में दुःखों का काही अचिरेण कालेण ॥४१।।
अंत करता है ||४१|| आलोअणा बहुविहा,
(पाँच अणुव्रतरूप) मूलगुण व (तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत रूप) न य संभरिआ पडिक्कमणकाले ।
उत्तरगुण संबंधी बहुत प्रकार की आलोचना होती है वे सब प्रतिक्रमण मूलगुण उत्तरगुणे,
के समय याद नहीं आई हो उनकी यहाँ मैं निंदा करता हूँ, मैं गर्दा तं निंदे तं च गरिहामि ||४२||
करता हूँ ||४२|| तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुढिओमि आराहणाए,
मैं केवली भगवंतो द्वारा प्ररूपित (गुरूसाक्षी से स्वीकृत) श्रावक विरओ मि विराहणाए ।
धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हुआ हुँ और विराधना से तिविहेण पडिक्कतो,
विरत हुआ हूँ । अतः मन वचन और काया द्वारा संपूर्ण दोषों से / वंदामि जिणे चउव्वीसं ||४३|| पापों से निवृत्त होता हुआ चोबीसो जिनेवरों को मैं वंदन करता हूँ ।।४३।। चित्र (समझ-) गाथा ३७ : बैद दर्दी को दवाई देकर स्वस्थ करता है वैसे गुरूसाक्षी प्रायश्चित्त लेकर श्रावक का भावरोग दूर होता है। गाथा ३८-३९ : मांत्रिक पुरूष मंत्रक्रिया द्वारा पेटमें रहे हुए झहर को वमन द्वारा बाहर निकालता है, वैसे ही आलोचना व आत्मा निंदा द्वारा श्रावक आत्मामें प्रवेश किये हुए कर्म को बाहर निकालता हुआ देखना ।
आदखना |
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ऊर्ध्वलोक (देवलोक), अधोलोक (भवनपति-व्यंतरादि के निवास में) व मनुष्यलोक (ति लोक-मध्यलोक) में जितने भी जिनबिंब हो वहाँ रहे हुए उन सबको यहाँ रहता हुआ मैं वंदन करता हूँ ||४४|| ५-५ भरत, औरावत व महाविदेह में स्थित, मन-वचन और काया से पाप प्रवृत्ति नहीं करते, नहीं कराते और करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करते ऐसे जितने भी साधु भगवंत हों उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ ||४५|| दीर्घकाल से संचित पापों का नाश करनेवाली, लाखो भव का क्षय करने वाली जैसी चौबीस जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई धर्मकथाओं (देशना) के स्वाध्याय से मेरे दिवस व्यतीत हो ||४६||
जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ, सब्वाइं ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥४४|| जावंत के वि साहू, भरहेरवय महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥४५।। चिरसंचियपावपणासणीइ, भवसयसहस्समहणीए । चउवीसजिणविणिग्गयकहाइ, वोलंतु मे दिअहा ||४६|| मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ । सम्मदिट्ठी देवा, दितु समाहिं च बोहिं च ||४७।। पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असद्दहणे अ तहा, विवरीअपरूवणाए अ ||४८।। खामेमि सव्वजीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ||४९|| एवमहं आलोइअ, निदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्म । तिविहेण पडिक्कंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥५०॥
अरिहंत भगवंत, सिद्ध भगवंत, साधु भगवंत, द्वादशांगी रूप श्रुतज्ञान व चारित्रधर्म मुझे मंगल रूप हो, वे सब तथा सम्यग्दृष्टि देव मुझे समाधि और बोधि (परभवमें जिनधर्म की प्राप्ति) प्रदान करें ||४७|| (जिनेश्वर भगवंतों ने) निषेध किये हुए कृत्यों का आचरण करने से, करने योग्य कृत्यों का आचरण नहीं करने से, (प्रभुवचन पर) अश्रद्धा करने से तथा जिनेश्वर देव के उपदेश से विपरीत प्ररूपणा करने से प्रतिक्रमण करना आवश्यक है ||४८|| सब जीवों को मै खमाता हुँ, सब जीवों मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों के साथ मित्रता (मैत्रीभाव) है तथा किसी के साथ वैर भाव नहीं है ||४९||
इस तरह सम्यक् प्रकार से अतिचारों की आलोचना-निंदा-गर्दा और (पापकारी मेरी आत्मा को धिक्कार हो इस तरह) जुगुप्सा करके, मैं मन वचन और काया से प्रतिक्रमण करते हुए चोवीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ ||५०।।
चित्र (समझ-) गाथा ४६ : २४ जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई देशना पुस्तकमें संगृहीत हो रही है व उसका स्वाध्याय हो रहा है जैसी भावना करनी । गाथा ७ : अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत तथा चारित्र धर्मके प्रतीकरूप रजोहरणमें से बरसते हुए कृपाके तेजपूंजसे तथा उनके प्रभाव से मिलती मरणसमाधि व दूसरे जनममें जन्म लेते ही साधु के मुख से नवकार मन्त्र श्रवण द्वारा बोधिप्राप्ति की भावना करनी। गाथा ४९ : चार गति के व छः जीवनिकायके जीवों के साथ क्षमापना तथा मैत्रीभाव | सब जीव यथायोग्य संख्यात, असंख्यात या अनंतकी संख्या देखना ।।
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(अनुसंधान पृष्ठ ७५ से चालु) चउत्थे अणुव्वयम्मि, चौथे स्वदारसंतोष परस्त्रीगमन विरमण अणुव्रत के विषय में पांच निच्चं परदारगमणविरईओ । । अतिचार-प्रमाद से या रागादि अप्रशस्त भावों से १) व्रत को मलिन करे आयरियमप्पसत्थे,
वैसी कुंवारी कन्या-विधवादि के साथ, २) रखात अथवा वेश्या के साथ इत्य पमायप्पसंगेणं ||१५|| विषयभोग करना ३) कामवासना जागृत करनेवाली क्रिया करना अपरिग्गहिआ-इत्तर
४) परविवाहकरण और ५) कामसुख की तीव्र अभिलाषा, चौथे व्रत के अणंगविवाह-तिव्वअणुरागे । अतिचार में दिवससंबंधी बंधे हुए सर्व अशुभकर्म से मैं पीछे हटता चउत्थवयस्स-इआरे, हूँ।। १५-१६) पडिक्कमे देसि सव्वं ।।१६।। इत्तो अणुव्वए पंचमम्मि,
अब पांचवे परिग्रह परिमाण अणुव्रत विषय के पांच अतिचार-प्रमाद से आयरियमप्पसत्यम्मि ।
अथवा अप्रशस्त भावों से १) धन-धान्य २) क्षेत्र-वास्तु (खेत और परिमाण-परिच्छेए,
मकान) ३) सोना-चांदी ४) अन्य धातुओं तथा शृंङ्गार-सज्जा और इत्थ पमायप्पसंगेणं ||१७||
५) मनुष्य, पक्षी तथा पशुओं का प्रमाण उल्लंघन करना, इन अतिचारों धण-धन्न-खित्त-वत्यू,
से दिवस संबंधी लगे हुए अशुभ कर्मों का प्रतिक्रमण करता हूँ || १७-१८) रूप्प-सुवन्ने अ कुविअ-परिमाणे । दुपए-चउप्पयम्मि अ, पडिक्कमे देसि सव्वं ||१८||
चित्र (समझ-) गाथा ७ : भोजन समारंभ के दृश्य द्वारा रसोई करनी, करवानी तथा छः कायकी जीवहिंसा बतायी है। गाथा ९-१० : पूर्वकालमें जानवर को संपत्तिरूप गिना जाता था अतः जानवर के चित्र बताये हैं । आज के समय गलीमें भटकते कुत्ते-बिल्ली, घर के नौकर-चाकर आदि के साथ जो व्यवहार होता है वह भी इस में गिन लेना । पाँचवे चित्र में चारा-पानी खाते-पीते घोड़े में से एक-एकका मुंह चमड़े से बाँधा हुआ दिखाया है। गाथा ११-१२ : विवाह योग्य स्त्री, जमीन तथा गाय-बड़े झूठ के ये तीन कारण बताये हैं | न्यासापहार में धनवान व्यक्ति के साथ शालीन व्यवहार करके कमजोर की अमानत को पचाता हुआ शठ व्यापारी बताया है । मोसुवएसेमें गामके चौराहे पर बैठकर व्यर्थ बातें करके झूठी सलाह देनेवाले आदमी बताये हैं। गाथा १३-१४ : चोरी का माल (सस्तेमें मिलता होनेसे) लेनेवाला व्यापारी उसे प्रेरणा देनेवाला बताया है | आजके युगमें चोरबाजार या नीलामी का माल लेनेवालों को सावधान बनना चाहिये । गाथा १५-१६ : वेश्या के घर जाता हुआ कामी पुरूष, विवाह करण, कामचेष्टा आदि में तमाम अतिचारों का समावेश कर लिया है।
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AARADHA
भरहेसर
सिरिओ
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अभयकुमारो
अइमुत्तो
बाहुबली
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अणिआउत्तो
नागदत्तो
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|भरहेसर बाहुबली, अभयकुमारो अ ठंढणकुमारो । सिरिओ अणिआउत्तो, अइमुत्तो नागदत्तो अ ||१||
१. भरत चक्रवर्ती श्री ऋषभदेव भगवान के सबसे बड़े पुत्र व प्रथम चक्रवर्ती । अप्रतिम ऐश्वर्य होने पर भी जागृत साधक थें । ६० हजार ब्राह्मण प्रतिदिन "जितो भवान्, वर्धते भयम्, तस्मात् मा हन ! मा हन् !" सुनाते थें ! ९९ भाइयों की दीक्षा के पश्चात् वैराग्यभावमें रममाण रहते थे। एक बार अरीसा-भवनमें अपने अलंकृत शरीर को देखते एक अंगूली में से अँगूठी निकल गयी । शोभारहित अंगूली को देखकर अन्य अलंकार भी उतारे । देह को शोभारहित जानकर अनित्य भावना से मनको भावित किया व अंतमें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । देवताओं ने दिये हुए साधुवेश का परिधान किया । अंतमें अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुए । २. बाहुबली : भरतचक्रवर्ती के छोटे भाई । भगवान ऋषभदेवने उनको तक्षशिला का राज्य दिया । उनका बाहुबल असाधारण था, तथा ९८ भाईयों के अन्याय का प्रतिकार करने के लिए चक्रवर्ती की आज्ञा का स्वीकार नहीं किया व भयंकर युद्ध हुआ । अति में इन्द्र को सूचन से दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध और दंडयुद्ध किया, जिसमें भरत चक्रवर्ती हार गये व चक्ररत्न फेंका परन्तु चक्ररत्न स्वगोत्रीयका नाश नहीं करता अतः वापिस गया । अत्यंत क्रोधित होकर बाहुबली ने मुझी उठायी परंतु विवेकबुद्धि जागृत हुई। उठायी हुई मुट्टी से केशलुंचन करके दीक्षा ली। केवलज्ञानी अठानवें छोटे भाइयों को वंदन कैसे करूँ ? अतः मैं मी केवलज्ञान प्राप्त करके ही वहां जाऊँ। इस विचारसे वहीं कायोत्सर्गमें स्थित रहे । एक वर्ष पश्चात् प्रभुने ब्राह्मी-सुंदरी बहिन साध्वीजी को भेजा । "वीरा मोरा गज थकी उतरो रे, गज चढ्ये केवल न होय" यह सुनकर बाहुबली चौंक पडे । वंदन करने की भावना से कदम उठाते ही केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान ऋषभदेव के साथ मोक्ष में गये ।
: । ३. अभयकुमार रानी नंदा से प्राप्त
राजा श्रेणिक के पुत्र बाल्यावस्था में ही पिताके गूढवचन को समझकर पिता के नगर
में आकर खाली कुएं में गिरि हुई अंगुठी को अपने बुद्धि चमत्कार से उपर ले आये। राजा श्रेणिक के मुख्यमंत्री बने । औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी व पारिणामिकी बुद्धि के स्वामी थे। उन्होंने अनेक समस्याओं को सहजता से हल किया। अंतमें अंतःपुर जलाने के बहाने पिता के वचन से मुक्त होकर प्रभु महावीर के पास दीक्षा ली व उत्कृष्ट तप द्वारा तपकर अनुत्तर विमान में देव बने। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर चारित्रग्रहण करके मोक्षमें पधारेंगे ।
४. ढणकुमार ये श्रीकृष्ण वासुदेव की ठंढणा नामक राणी के पुत्र थे। इन्होंने बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभुके पास दीक्षा
ली परन्तु पूर्वकृत् कर्म के उदय से शुद्ध भिक्षा नहीं मिलती थी । इस लिए अभिग्रह किया कि "स्वलब्धि से भिक्षा मिले तबही लेनी ।" एक समय द्वारिकामें भिक्षा के लिए फिर रहे थे, उस समय प्रभु नेमिनाथने अपने अठारह सहस्र मुनिवरों में इनको सर्वोत्तम बताया था इसलिए श्री कृष्ण ने हाथी से नीचे उतरकर विशेष भाव से वंदन किया। यह देखकर एक श्रेष्ठि ने उत्तम भिक्षा बहोरायी । परंतु यह आहार "स्वलब्धि'' से नहीं मिला यह प्रभु के मुखसे जानकर उसको कुम्हार की शाला में परठवने हेतु गये । उस समय उत्तम भावना करने से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। विश्वकल्याण करके मोक्षमें पधारे ।
५. श्रीयक शकड़ाल मन्त्री के लघु पुत्र तथा स्थूलभद्र स्वामी व यक्षादि सात बहनों के भाई थे। पिता के मृत्यु पश्चात् नंदराजा के मंत्रीपद का स्वीकार किया। धर्म के अनुराग से सौ जितने जिनमंदिर व तीन सौ जितनी धर्मशालायें बनवायी थी । धर्म के अन्य भी अनेक कार्य किये थे। अंतमें दीक्षा ग्रहण की और यक्षा साध्वीजी के आग्रह से पर्युषण पर्व में उपवास का पच्चक्खाण किया । सुकोमलता के कारण तथा कभी भूख सहन नहीं की थी इस लिए उसी रात्रि में शुभध्यान पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए व स्वर्गलोकमें गये ।
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६. अणिकापुत्र आचार्य : देवदत्त वणिक व अर्णिका के पुत्र । नाम था संधीरण परंतु जनता में वे अर्णिकापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए । जयसिंह आचार्य के पास दीक्षा लेकर क्रमानुसार शास्त्रज्ञ आचार्य बनें । राणी पुष्पचूला को आये हुए स्वर्ग-नरक के स्वप्न का यथावत् वर्णन करके प्रतिबोधित की व दीक्षा दी । अकाल में अन्यमुनि देशांतर गए परंतु वृद्धत्व के कारण वहाँ रहे हुए अर्णिकापुत्र आचार्य की साध्वी पुष्पचूला ने वैयावच्च की । कालांतर से केवलज्ञानी साध्वीजी की वैयावच्च ली उसका ख्याल आते ही पुष्पचूला साध्वीजी से क्षमा माँगी व 'अपना मोक्ष गंगा नदी उतरते होगा' यह जानकर गंगानदी पार उतरते पूर्वभव की वैरी व्यंतरी ने शूली भौंकी । समभाव से अंतकृत् केवली बनकर मोक्षमें सिधायें ।
७. अतिमुक्त मुनि पेढालपुर नगर में विजयराजा व श्रीमती रानी के पुत्र अतिमुक्तने माता पिता की अनुमति से आठ साल की उम्र में दीक्षा ली । 'जे जाणु ते नवि जाणु नवि जाणु ते जाणु'' मृत्यु निश्चित है यह जानता हूँ परंतु कब होगा वह नहीं जानता इस सुप्रसिद्ध वाक्य द्वारा श्रेष्ठि की पुत्रवधू को प्रतिबोधित किया । बाल्यावस्थावश वर्षाऋतुमें जमे हुए पानी में पात्रा की नाव तिराने लगे तब स्थविरोंने साधुधर्म समझाया। प्रभु के पास आकर तीव्र पश्चात्तापपूर्वक इरियावहिया के "दगमट्टी" शब्द बोलते बोलते केवलज्ञान प्राप्त हुआ । मतांतर से ११ अंग पढकर, गुणरत्नसंवत्सर तप तपकर अंतकृत् केवली बने । ८. नागदत्त वाराणसी नगरी के यज्ञदत्त शेठ व धनश्री के पुत्र विवाह नागवसु कन्या के साथ हुआ। नगर का कोतवाल नागवसु को चाहता था। अतः राजा के रस्ते में गिरे हुए कुंडल को कायोत्सर्ग ध्यान में खडे निःस्पृही नागदत्त के पास रखकर राजा समक्ष उस पर चोरी का कलंक चडाया । राजाने नागदत्त को शूली पर चढाने की आज्ञा दी । नागदत्त के सत्य के प्रभावसे शासनदेवता प्रगट हुए। "प्राण जाने पर भी दूसरे की वस्तु का स्पर्श नही करता यह बात प्रमाणित करके। बतायी, सत्य बात की जानकारी दी व यशगान किये। अंत में नागदत्तने दीक्षा अङ्गीकृत की और सर्व कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया तथा मोक्षलक्ष्मी के स्वामी बनें ।
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केशीस्वामी
नंदिसेण
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वयररिसी
सिंहगिरी
पुंडरि
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मेअज्ज थूलभद्दो, वयररिसी नंदिसेण सीहगिरी ।
कयवन्नो अ सुकोसल, पुंडरिओ केसि करकंडू ||२||
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९. मेतार्यमुनि: चांडाल के वहाँ जन्म हुआ परंतु श्रीमंत सेठ के घर लालन-पालन हुआ । पूर्वजन्म के मित्र देव की सहायता से अद्भुत कार्य सिद्ध करके राजा श्रेणिक के जामाता बनें देव के प्रयत्न से प्रतिबोधित बनें व ३६ वर्ष की उम्र में चारित्र ग्रहण किया । श्रेणिक राजा के स्वस्तिक के लिए सोने के जव बनाने वाले सुनार के घर गोचरी गये । सुनार भिक्षा देने के लिए खडा हुआ इतने में क्रौञ्च पक्षी आकर वे जव चुग गया । जव न देखकर मुनि के प्रति सुनार शङ्कित बना । पूछने पर भी पक्षी की दया से महात्मा मौन रहें । तब मस्तक पर गीले चमडे की पट्टी खूब कसकर बांधी तथा धूप में खड़े रखा। इस असह्य वेदना से दोनों नेत्र बहार निकल पड़ें और समभाव से सहन करके अंतकृत् केवली बनकर मोक्ष में गये ।
१०. स्थूलभद्र : नंदराजा के मंत्री शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र । यौवनावस्था में कोशा नामकी गणिका के मोहमें फंस गये थे। पिता की मृत्यु से वैरागी बने व आर्य संभूतिविजय के पास दीक्षा ली। आचार्य भद्रबाहु स्वामी के पास अर्थ से दश पूर्व व सूत्र से १४ पूर्व का अध्ययन किया। एक समय कोशा वेश्या के यहाँ गुरु की आज्ञासे चातुर्मास किया। काम के घरमें जाकर काम को पराजित किया । कोशा को धर्ममें स्थिर किया। गुरूमुख से इनके कार्य को "दुष्करदुष्करकारक' बिरूद मिला । ८४ चोबीसी तक नाम अमर किया और कालधर्म होकर प्रथम देवलोक में गये । ११. वज्रस्वामी तुंबवन गाँव के धनगिरि व सुनंदा के पुत्र पिताने जन्मपूर्व ही दीक्षा ली यह ज्ञात होते ही सतत रूदन करके माता का मोह तुडवाया व माता ने धनगिरि मुनि को वहोराया । साध्वीजी के उपाश्रयमें पालने में झूलते-झूलते ११ अंग कंठस्थ किये । माताने बालक वापस लेने हेतु राजसभा में आवेदन किया। संघ समक्ष गुरू के हाथों से रजोहरण लेकर नाचकर दीक्षा ली। राजाने बालक के इच्छानुसार न्याय दिया । संयम से प्रसन्न बने हुए मित्र देवों द्वारा आकाशगामिनी विद्या व वैक्रिय लब्धि प्राप्त की। भयंकर अकाल के समय में सकलसंघ को आकाशगामी पट द्वारा सुकाल क्षेत्रमें लाकर रख दिया। बौद्ध राजा को प्रतिबोधित करने हेतु अन्यक्षेत्रों से पुष्प लाकर शासन प्रभावना की व चरम दश पूर्वधर बनकर अंतमें कालधर्म प्राप्त किया व इन्द्रों ने उनका महोत्सव मनाया ।
१२. नंदिषेण : नंदिषेण नामक दो महात्मा हुए। एक अद्भुत वैयावच्ची नंदिषेण जिन्होंने देवता की परीक्षा अपूर्व समताभाव से उत्तीर्ण की । और दूसरे राजा श्रेणिक के पुत्र जिन्होंने प्रभु महावीर के वचन से प्रतिबोध प्राप्त करके अद्भुत सत्व दिखाकर चारित्र अङ्गीकार किया तथा कर्मवश उत्पन्न होने वाली भोगेच्छाओं का दमन करने हेतु उग्र विहार, विशुद्ध संयम व तपश्चर्या के योगों का सेवन किया जिसके कारण उनको अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई । एक बार गोचरी के प्रसंग से एक वेश्या के वहाँ चले गये जहाँ उन्हें "धर्मलाभ का प्रतिभाव अर्थलाभ की यहाँ जरूरत हैं" इस वाक्य से मिला अभिमान के परवश बनकर मुनिने एक तिनका खींचा जिससे १२|| करोड़ सुवर्ण की वृष्टि हुई । वेश्या के आग्रह से संसारमें रूके परंतु देशनालब्धि के प्रभावसे प्रतिदिन दस आत्माओं को प्रतिबोधते थें । बारह वर्षके बाद एक सुनार ऐसा आया जो प्रतिबोध पाया ही नहीं । अंतमें वेश्या ने "दसवें तुम ही " ऐसी मजाक की, तब मोहनिद्रा तूटी, पुनः दीक्षा ली व आत्मकल्याण किया ।
१३. सिंहगिरि : प्रभु महावीर के बारहवें पट्ट पर बिराजित प्रभावशाली आचार्य थे । अनेकविध शासनसेवा के कार्य किये । वे वज्रस्वामी के गुरू भी थे।
१४. कृतपुण्यक ( कयवन्ना सेठ) : पूर्वभवमें मुनिको तीन बार खंडित दान देने से धनेश्वर शेठ के यहाँ अवतरित हु कृतपुण्यक को वर्तमान भवमें वेश्या के साथ, अपुत्रीक ऐसी श्रेष्ठी की चार पुत्रवधुओं के साथ तथा श्रेणिक राजा की पुत्री मनोरमा के साथ इस प्रकार तीन बार खंडित भोगसुख प्राप्त हुए । राजा श्रेणिक का आधा राज्य प्राप्त हुआ। संसार के विविध भोग भोगने के पश्चात् प्रभु महावीर के पास पूर्वभव का वृत्तांत सुनकर दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग में गये ।
१५. सुकौशल मुनि : अयोध्या के कीर्तिधर राजा व सहदेवी रानी के पुत्र । पिता मुनि के पास सुकोशल ने भी चारित्र ग्रहण किया । पति-पुत्र के वियोग से आर्तध्यानमें मृत्यु पाकर सहदेवी कोई जंगलमें बाघिन बनी । एकबार उसी जंगलमें दोनों राजर्षि कायोत्सर्ग ध्यानमें खड़े थें। उस बाघिन ने आकर सुकोशल मुनि पर आक्रमण किया व उनके शरीर को चीर डाला। उपसर्ग को अपूर्व समता के साथ सहते-सहते अंतकृत् केवली बनकर सुकोशलमुनि मोक्ष में पधारें।
१६. पुंडरिक पिता के साथ संयम ग्रहण करने की तीव्र इच्छा थी परंतु छोटे भाई कंडरिक की भी चारित्र की तीव्र तमन्ना देखकर उसे दीक्षा की अनुमति दी व स्वयं वैराग्यपूर्वक राज्यपालन करते थे । हजार साल के संयमपालन बाद कंडरिक मुनि रोगग्रस्त बने । राजा पुंडरिक ने भाई मुनिको उपचार व अनुपानादि से स्वस्थ किया व विहार करवाया । परंतु राजवी भोगों की लालसा से चारित्रभ्रष्ट बनकर कंडरिक घर आते ही राजा पुंडरिकने राजगादी उन्हें सोंपकर स्वयं संयम ग्रहण किया। गुरूभगवंत न मिले तब तक चारों आहार का त्यागकर विहार किया । उत्तम भावचारित्र का पालन कर मात्र तीन ही दिनमें सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवत्व को प्राप्त हुए ।
१७. केशी गणधर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की परम्परा के आचार्य थे। प्रदेशी जैसे महा नास्तिक राजा को प्रतिबोधित किया था । श्री गौतमस्वामी के साथ धर्मचर्चा करके पाँच महाव्रतवाले प्रभु वीर के शासनको स्वीकृत कर सिद्धिपद को प्राप्त हुए । १८. राजर्षि करकंडू : चंपानगरी के राजा दधिवाहन व रानी पद्मावती के पुत्र । उन्मत्त हाथीने गर्भवती रानी को जंगलमें छोड़ दी। उसने साध्वियों के पास दीक्षा ली। कुछ समय बाद पुत्र का प्रसव हुआ, जिसे स्मशान में छोड़ दिया गया । चांडाल के घर वह बडा हुआ। शरीरमें खुजली अधिक चलने के कारण अन्य बालकों के हाथ से खुजलाने के कारण नाम करकंडू पडा । पुण्यप्रभाव से कञ्चनपुर व चंपा के राजा बने । अतिप्रिय रूपवान व बलवान बैल को जराजर्जरित देखकर वैराग्य हुआ। प्रत्येकबुद्ध बनकर दीक्षा ली व मोक्ष में
पधारें ।
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हल्ल विल्ल सुदंसण
साल महासाल
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भद्दो
Beriod
पसन्नचंदो
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सालिमहो
दसन्नभट्टो
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जसभहो
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हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल महासाल सालिभद्दो अ । भद्दो दसणभद्दो, पसण्णचंदो अ जसभद्दो ||३||
१९-२० . हल्ल - विहल्ल : दोनों श्रेणिक की पत्नी चेल्लणा के पुत्र थे । श्रेणिकने सेचनक हाथी इनको देने से कोणिक ने 'युद्ध' किया । मातामह (नानाजी) चेडाराजा की मदद से युद्ध करते थे । रात्रियुद्ध के समय सेचनक हाथी खाई में गिरकर मर जाने से वैराग्य पाकर दीक्षा ली व सर्वार्थसिद्ध विमानमें देव बने ।
२१. सुदर्शन सेठ : अर्हद्दास व अर्हद्दासी माता-पिता के संतान, बारह व्रतधारी श्रावक थे । राजरानी अभयाने पौषधमें काउसग्ग स्थित सुदर्शन को दासी द्वारा उठाकर मंगवाया । विचलित करने के लिए अनेक उपाय किये, परंतु निष्फलता मिली तब रानीने शीलभंग का इन पर मिथ्या आरोप लगाया। राजा द्वारा सत्य हकीकत क्या है पूछने पर भी अभया की अनुकंपा से सुदर्शन श्रावकने जवाब न दिया । राजाने फांसी की सजा दी । स्वयं की आराधना व धर्मपत्नी मनोरमा के काउसग्ग आराधना के प्रभाव से शूली का सिंहासन बना। एक बार प्रभुवीर के पास जाते थे तब नमस्कार महामंत्र के प्रभाव से प्रतिदिन सात की हत्या करनेवाले अर्जुन व माली के देहमें से यक्ष को दूर कर के दीक्षा दीलाई व अंतमें महाव्रत की आराधना कर मोक्ष में पधारें ।
२२-२३. शाल - महाशाल : इस नामके दो भाई थे । परस्पर अत्यंत प्रीति थी । एक बार गौतमस्वामिजी की देशना से प्रतिबोध पाकर भानजे गांगलि को राज्य सोंपकर दीक्षा ग्रहण की। एकबार प्रभु गौतमस्वामी के साथ गांगलि को प्रतिबोधित करने हेतु पृष्ठचंपामें आये । माता-पिता के साथ गांगलिने दीक्षा ली । रास्ते में उत्तम भावना से मन को भावित किया, सब को केवलज्ञान प्राप्त हुआ व अंतमें मोक्ष गये ।
२४. शालीभद्र : पूर्वभवमें संगम नामक भरवाडपुत्र मुनिको खीरदान करने के प्रभाव से राजगृही में गोभद्रशेठ व भद्रा शेठानी के यहाँ पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। ये अतुलसंपत्ति व उच्चकुलीन ३२ सुंदरियों के स्वामी थे । देवलोकमें से नित्य गोभद्रदेव द्वारा भेजी हुई दिव्यवस्त्र अलंकारादि से युक्त ९९ पेटी के भोक्ता थे। एक बार राजा श्रेणिक उनकी स्वर्गीय समृद्धि देखने आये तब "मेरे उपर भी स्वामी है" यह जानकर वैराग्य हुआ । दीक्षा की भावना से प्रतिि १-१ पत्नी का त्याग करने लगे तब बहनोई धन्य शेठ की प्रेरणा से एक साथ सबका त्याग कर चारित्र अंगीकार किया । उग्र तपश्चर्या-संयमादि का पालन कर वैभारगिरि पर्वत पर अनशन कर के सर्वार्थसिद्ध विमानमें देव बने । २५. भद्रबाहु स्वामी : चौदह पूर्वके अंतिम ज्ञाता थे । आवश्यकादि दस सूत्रों के उपर इन्होंने ही निर्युक्ति रची है । महाप्राण ध्यान के साधक इस महापुरूषने वराहमिहिर के अधुरे ज्योतिषज्ञान का प्रतिकार किया । आकाश में से मांडले के अंतमें मछली गिरनी तथा राजपुत्र का सात दिन में बिल्ली के अर्गला से मृत्यु होगी आदि सत्य भविष्य बताकर जिनशासन की प्रभावना की । वराहमिहिर कृत उपसर्ग को शांत करने के लिए उवसग्गहरं स्तोत्र की रचना की । कल्पसूत्र - मूलसूत्र की रचना इन्हों ने की थी ।
२६. दशार्णभद्र राजा : दशार्णपुर के राजा थे । नित्य त्रिकालपूजा का नियम था । एकबार गर्वसहित अपूर्व ऋद्धि के साथ वीरप्रभुको वंदनार्थ गये तब इन्द्रने अपूर्व समृद्धि प्रदर्शन करके इनके गर्व का खंडन किया । अतः बैरागी होकर चारित्र लिया । अंतमें सम्यगाराधना करके मोक्ष में पधारे ।
२७. प्रसन्नचंद्र राजा : सोमचंद्र राजा व धारिणी राणी के संतान । बालकुमार राजपुत्र को राज्यासन देकर चारित्र लिया । एक समय राजगृही के उद्यानमें कायोत्सर्ग में थे तब सैनिकों के मुखसे सुना कि "चंपानगरी का दधिवाहन राजा स्वयं के बालपुत्र को मारकर राज्य ले लेगा ।" अतः पुत्रमोह से मानसिक युद्ध करते-करते सातवीं नरक के योग्य कर्म एकत्रित किये। सभी शस्त्र खतम हो गये जानकर मस्तक पर का लोहे का टोप निकालने के लिए हाथ उपर ले गये, तब मुंडित मस्तक से साधुपन का ख्याल आया, पश्चात्ताप करते-करते केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । २८. . यशोभद्रसूरि : शय्यंभवसूरि के शिष्य और भद्रबाहुस्वामी के गुरूदेव । चौदहपूर्व के अभ्यासी उन्होंने अनेक योग्य साधुओं को पूर्वों की वाचना दी। अंतमें शत्रुंजयगिरि की यात्रा करके कालधर्म पाये व स्वर्ग में पधारें ।
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बंकचूलो
जंबुपहू
Paare
गयसुकुमालो
अवंतिसुकुमालो
इलाइपुत्तो
धन्नो
चिलाइ पुत्तो
बाहुमुणी
Ja
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जंबुपहु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो ।
धन्नो इलाइपुत्तो, चिलाइपुत्तो अ बाहुमुणी ||४|| २९.जबूस्वामी : पिता ऋषभदत्त व माता धारिणी के इस पुत्र को निःस्पृह व वैराग्यवासित होने पर भी माता के आग्रहवश ८-८ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करना पडा । प्रथम रात्रिमें ही सबको उपदेश देकर विरागी बनाया । उस समय ५०० चोरों के साथ चोरी करने आया हुआ प्रभव चोर ने भी प्रतिबोध पाया । दूसरे दिन ५२७ के साथ जंबूकमारने सुधर्मस्वामी के पास दीक्षा ली । इस अवसर्पिणी कालमें भरतक्षेत्र के ये अंतिम केवली बने । ३०.बकचूल : विराटदेश का राजकुमार पुष्पचूल | उसका जीवन बाल्यकाल से ही जुआ-चोरी आदि व्यसनों से व्याप्त होने के कारण लोगों ने उसका नाम वंकचूल रखा । तंग आकर पिताने उसे देश से निकाला दिया । तब वह पत्नी व बहन के साथ जंगलमें जाकर पल्लिपति बना । एक बार ज्ञानतुंगसूरिजी के आगमन समय 'किसी को उपदेश नहीं देना' इस शर्त के साथ चातुर्मास करवाया । विहार करते वक्त वंकचूलकी सरहद उल्लंघन कर आचार्य भगवंतने उसकी इच्छानुसार १) अपरिचित फल नहीं खाना २) प्रहार करने के पहले ७ कदम पीछे हटना ३) राजा की रानी के साथ सांसारिक भोग नहीं भोगना और ४) कौए का मांस नहीं खाना ये चार नियम ग्रहण करवाये । वंकचूल ने इन नियमों का दृढतापूर्वक पालन किया व अनेक लाभों को प्राप्त कर स्वर्गवासी बने । ३१.गजसुकुमाल : सात-सात पुत्र को जन्म देने पर भी एक का भी लालन-पालन न करने से खिन्न बनी हुई देवकी माता की खिन्नता दूर करते हेतु श्रीकृष्ण ने हरिणिगमेषी देव की आराधना की । एक महर्धिक देव देवकी की कुक्षी में आये, वे ही थे गजसुकुमाल | बाल्यवयमें ही वैराग्यवासित बनें परन्तु मोहपाशमें बांधने के लिए माता-पिताने विवाह करवाया । परन्तु युवावय में ही नेमनाथ प्रभु के पास दीक्षा लेकर स्मशानमें कायोत्सर्ग ध्यान में खडे रहे । "बेटी का भव बिगाडा" यह सोचकर श्वसुर सोमिलने मस्तक पर मिट्टी की पाल बांधी और धधकते हुए अंगारे चितामें से लेकर मस्तक पर रख दिये । समताभाव से अपूर्व कर्मनिर्जरा कर के अंतकृत् केवली बनकर मोक्ष में पधारे | ३२.अतिसुकमाल : उज्जयिनी नगरी के निवासी भद्रसेठ व भद्रासेठानी के पुत्र व ३२ पत्नीओं के स्वामी । एकबार आर्यसुहस्तिसूरि को अपनी यानशालामें वसति दी । तब "नलिनीगुल्म' अध्ययन सुनते जातिस्मरण ज्ञान हुआ, चारित्र लिया व स्मशान में कायोत्सर्गध्यानमें मग्न बने । सुकोमल शरीर की सुगंध से सियारनी ने बच्चों के साथ आकर इनके शरीर को काट खाया । किन्तु शुभध्यान में मृत्यु पाकर "नलिनीगुल्म" विमान में देव हुए। ३३.धन्यकुमार : धनसार व शीलवती के पुत्र । भाग्यबल व बुद्धिबल से अक्षय लक्ष्मी उपार्जित की । एक बार साला शालीभद्र की दीक्षा की भावना से पत्नी सुभद्रा रो रही थी तब "वह तो कायर है, एक-एक को छोडता है'' ऐसा उसने उपालम्भ दिया । सुभद्रा बोली की ''कहना आसान है किन्तु करना मुश्किल'' पत्नी का ऐसा बचन सुनते ही धन्यकुमार ने एक साथ तमाम भोगसामग्री त्यागकर शालीभद्र के साथ दीक्षा ली व उत्तम आराधना करके अनुत्तर देवलोकमें गये । ३४. इलाचीपुत्र : इलावर्धन नगर के इभ्य सेठ व धारिणी के पुत्र । वैराग्यवासित देखकर पिताने क्षुद्र मित्रों की दोस्ती करवायी । वह लंखीकार नट की पुत्री पर मोहीत बना । नट ने नाट्यकला में प्रवीण बनाकर राजा को प्रसन्न बनाने की शर्त रखी । अतः उनके साथ बेनातट के राजा महीपाल को नटकला दिखाई । अद्भुत खेल करने लगे, किन्तु नटपुत्री पर मोहित बना हुआ राजा बार-बार खेल करवाने लगा । तब परस्त्रीलंपटता व विषयवासना पर वैराग्य आया । वहाँ अत्यंत निर्विकारभाव से गोचरी वहोरते मुनि को देखकर भक्तिभाव जागृत हुआ व क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया। ३५. चिलातीपुत्र: राजगृहीमें चिलाती दासी के पुत्र | धनसार्थवाह के घर नौकरी करते थे किन्तु अपलक्षण को देखकर इनको निकाला दिया गया । बाद में जंगलमें चोरों का सरदार बना । "धन तुम्हारा, श्रेष्ठी की पुत्री सुष्मा मेरी" यह तय करके चोरों के साथ डाका डाला व सब उठाकर ले चले, कोलाहल मचा, राजा के सिपाही पीछे पडे इसलिए धन की पोटलियाँ वहीं पर छोड दी और सुष्मा का मस्तक काटकर धड भी वहीं छोडकर भागा । रास्ते में मुनिराज मिले मुनिराज को तलवार की धार दिखाकर धर्म पूछा तब "उपशम, विवेक, संवर"ये तीन पद देकर मुनिराज चारणलब्धि से उड गये । तीन पदों का ध्यान करते करते वहीं शुभध्यान मग्न बने थे तब खून की गंध से चिंटीया आ पहुँची व काटने लगी । उपद्रव सहन करके स्वर्गवासी बने । ३६.युगबाहुमुनि : पाटलिपुत्र के विक्रमबाहु राजा व मदनरेखा रानी के पुत्र । सरस्वती देवी व विद्याधरों की कृपा से अनेक विद्याएँ प्राप्त की । चार प्रश्नों के प्रत्युत्तर देने की प्रतिज्ञा पुतली के पास से पूर्ण कर अनंगसुंदरी के साथ विवाह किया । अंतमें चारित्र लेकर ज्ञानपंचमी की आराधना करके केवलज्ञानी बने । भव्य जीवों पर उपकार कर मोक्ष में पधारे।
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अगिरी अज्जसुहत्थी
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अज्जगिरी अज्जरक्खिअ, अज्जसुहत्थी उदायगो मणगो । कालयसूरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ||५||
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३७-३९. आर्य महागिरि व आर्य सुहस्तिसूरि : ये दोनों श्री स्थूलभद्रजी के दशपूर्वी शिष्य थें । आर्य महार ने गच्छ में रहकर जिनकल्प की तुलना की थी । अत्यंत कठोर चारित्र पलाते थे । अंत में गजपद तीर्थ में 'अनशन'' करके स्वर्गमें गये । आर्य सुहस्तिसूरि ने एक भिक्षुक को अकाल के समय में भोजन निमित्तक दीक्षा दी वही संप्रति महाराजा बने । उन्होंने अविस्मरणीय शासनप्रभावना की । वे भी भव्यजीवों को प्रतिबोधित कर अंतमें स्वर्गवासी बने ।
३८. आर्यरक्षित सूरि : ब्राह्मण शास्त्रों में प्रकांड विद्वत्ता हांसिल करके राजसम्मान प्राप्त किया । परंतु आत्महितेच्छु माताने 'दृष्टिवाद' पढने की प्रेरणा दी । आचार्य तोसलिपुत्र के पास आकर चारित्र लिया । उनके पास वज्रस्वामीजी के पास ९।। पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त किया । दशपूर के राजा व पाटलिपुत्र के राजा को जैन बनाया । स्वपरिवार को दीक्षा दी । जैन श्रुतज्ञान को द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग व धर्मकथानुयोग, इस तरह चार अनुयोग में विभाजित किया । अंत में स्वर्गवासी बने ।
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४०. उदायन राजर्षि: ये वीतभय नगरी के राजा थे। स्वयं की दासी सहित देवकृत प्रभुवीर की जीवित प्रतिमा का अपहरण करनेवाले उज्जयिनी नगरी के राजा चंडप्रद्योत को युद्ध में पराजित कर बंदी बनाया । संवत्सरी के दिन चंद्रप्रद्योत ने भी उपवास किया अतः उसे साधर्मिक मानकर क्षमापना की व छोड दिया । "प्रभु वीर पधारे तो आज ही दीक्षा लुँ' उनके इस संकल्प को प्रभुने पधारकर सफल बनाया । 'राजेश्वरी ते नरकेश्वरी' ऐसा सोचकर पुत्र को राज्य न देकर अपने भानजे केशी को राज्य देकर अंतिम राजर्षि बने । एक बार विचरते हुए स्वनगर में पधारे तब 'ये तो राज्य वापस लेने आये हैं' ऐसी शंका रख स्वयं के भानजेने ही विष प्रयोग करवाया, दो बार देव प्रभाव से बचे पर तीसरी बार जहर फैलने लगा, शरीरमें असर हुई परंतु शुभध्यानधारामें आरूढ़ होकर कैवल्यलक्ष्मी को वरे ।
४१. मनक : शय्यंभवसूरि के पुत्र व शिष्य । उनका आयुष्य सिर्फ छः माह जितना अल्प होने के कारण आचार्यश्रीने दशवैकालिक सूत्रकी रचना की । अल्पसमयमें सुंदर आराधना करके ६ माह चारित्र पालन किया व देवलोक गये ।
४२. कालकाचार्य : १) बहन सरस्वती के साथ गणधरसूरि के पास दीक्षा ली । उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्लने अत्यंत स्वरूपवान सरस्वती साध्वीजी पर मोहांध बनकर उन्हें अंतःपुरमें डाल दिया । अनेक तरीके से समझाने पर भी राजा माना नहीं। तब आचार्यश्रीने वेशपरिवर्तन करके ९६ शकराजाओं को प्रतिबोध देकर गर्दभिल्ल पर चढ़ाई करवाई और साध्वीजी को छुड़ाया । आचार्यश्री अत्यंत प्रभावक पुरूष I
कालकाचार्य : १) प्रतिष्ठानपुर के राजा शालिवाहन की विनंति से संवत्सरी पाँचम की चोथ प्रवर्तायी । तथा श्री सीमंधरस्वामी भगवान ने इन्द्र के समक्ष कहा कि "ये कालकसूरि निगोद का स्वरूप वर्णन यथार्थ रूपसे कह सकते है ।'' इन्द्र विप्र का रूप धारण कर आया व यथार्थ स्वरूप सुनकर प्रसन्न बना ।
४३ + ४४. सांब और प्रद्युम्न: ये दोनों श्रीकृष्ण के पुत्र । सांब की माता जांबुवती व प्रद्युम्न की माता रूक्मिनी । बाल्यकालमें अनेक लीलाएँ करके कौमार्यावस्थामें विविध पराक्रम दिखाकर अंतमें वैराग्यवासित बनें । प्रभु नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर शत्रुंजय गिरि पर मोक्ष सिधायें ।
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४५.
. मूलदेव : कलाकुशल किंतु जुआ खेलने वाले । पिताने देशनिकाल दिया । तबसे उज्जयिनिमें आ बसे । वहाँ देवदत्ता गणिका व विश्वभूति कलाचार्य को पराजित किया । पुण्यबल, कलाबल व मुनि को दानके प्रभावसे विषम परिस्थिति पलट जाने से हाथियों से समृद्ध विशाल राज्य व कलाप्रिय चतुर देवदत्ता के स्वामी बने । वैराग्यपाकर चारित्र पालकर स्वर्गमें गये । बाद में मोक्षमें जायेंगे ।
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अद्दकुमारो
पभवो
विण्हुकुमारो
सिज्जंस
दढपहारी
सिज्जंभव
जेसिं नामग्गहणे वापबंधा विलयं जंति।।
कूरगडू अ
mameraniani
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पभवो विण्हुकुमारो, अद्दकुमारो दढप्पहारी अ |
सिज्जंस कूरगडू अ, सिज्जंभव मेहकुमारो अ ||६|| ४६.प्रभवस्वामी: जंबूस्वामी के यहाँ ५०० चोरों के साथ चोरी करने गये । पति-पत्नी के बीच वैराग्य प्रेरक संवाद सुनकर ५०० चोरों के साथ दीक्षा ली । जंबुस्वामी के बाद शासन को संभालने वाले पूज्यश्री चौदपूर्व के ज्ञाता थे । जैनशासन की धुरा को सौंपने के लिए श्रमण तथा श्रमणोपासक संघमें लायक व्यक्तित्व न दिखने से शय्यंभव विप्र को प्रतिबोध देकर चारित्र दिया व शासन का नायक बनाया । ४७.विष्णकुमार : पद्मोत्तर राजा व ज्वालादेवी के कुलदीपक, महापद्म चक्रवर्ती के भाई । दीक्षा लेकर कठोर तप तपकर अनेक लब्धियों के स्वामी बने । शासन द्वेषी नमुचिने श्रमणसंघ को षट्खंड की सीमा छोड़कर जाने का कहा तब विष्णुमुनिने पधारकर नमुचि को बहुत समझाया पर वह नहीं माना तब आखिरमें उसके पाससे तीन कदम भूमि मांगी । एक लाख योजन का विराट उत्तर वैक्रिय शरीर बनाया । एक कदम समुद्र के पूर्वतीर पर और दूसरा कदम समुद्र के पश्चिम तीर पर रखा व 'तीसरा कहाँ रखं?' यह कहकर तीसरा नमुचि के मस्तक पर रखा व श्री संघ को उपद्रवमुक्त बनाया । आलोचना से शुद्ध बनकर उत्तम चारित्र पालकर अंतमें मोक्षमें गये । ४८. आर्द्रकुमार : आर्द्रक नामक अनार्य देश के राजकुमार | पिता आर्द्रक व श्रेणिकराजा की मैत्री को दृढ बनाने हेतु अभयकुमार के साथ मित्रता बढ़ाई । लघुकर्मी जानकर अभयकुमारने रत्नमय जिनप्रतिमा भेजी । प्रभुदर्शन से जातिस्मरण ज्ञान हुआ । आर्यदेश में आकर चारित्र लिया । सालों तक चारित्र का पालन किया । बादमें भोगवली कर्म उदय में आये और संसारवास स्वीकारना पडा । पुत्रस्नेह के कारण अन्य १२ वर्ष संसार में रहकर वापिस दीक्षा ली । अनेक आत्माओं को प्रतिबोधित कर आत्मकल्याण किया । ४९.दटप्रहारी: यज्ञदत्त ब्राह्मण के पुत्र | कुसंगसे बिगडकर प्रसिद्ध चोर बने । एकबार चोरी करते विप्र, गाय, सगर्भा स्त्री याने स्त्री व गर्भस्थ बालक ऐसे कुल चार की महाहत्या की । पश्चात् हृदय द्रवित बना व संयम ग्रहण किया। उसके बाद जहाँ तक पूर्व पाप की स्मृति हो वहाँ तक कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करके हत्यावाले गाँव के पास ध्यानमग्न बने । वहाँ लोगों ने इन पर पत्थर, कूडा डालकर असह्य कठोर शब्द कहे परंतु ये ध्यान से किञ्चित् भी विचलित न हुए । सारे उपसर्ग समताभावसे सहन करके छ मास के अंत में केवलज्ञान प्राप्त किया । ५०. श्रेयासकुमार : बाहुबली के पौत्र व सोमयशा राजा के पुत्र | श्री आदिनाथ प्रभु को वार्षिक तप पश्चात् इक्षुरस से पारणा करवाया । आत्मसाधना करके सिद्धि पद पाये । ५१.कूरगडुमुनि : धनदत्त श्रेष्ठि के पुत्र | धर्मघोषसूरि के पास छोटी उम्रमें बालदीक्षित बने । अद्भुत क्षमागुण किंतु तपश्चर्या बिल्कुल कर नहीं सकते थे। एक बार पर्व के दिन प्रातः कालमें घड़ा भरकर भात लेकर आये व साथ में रहे तपस्वी चार मुनिओं को दिखाने गये । गुणरत्नों से भृत कूरगडु मुनि की देवी भी सेवा कर रही थी अतः ईर्ष्या व द्वेषभाव से भरे चारों मुनिवरों ने बलगम (कफ) पात्रमें डाल दिया । कूरगडुमुनिने अद्भुत क्षमा रखी व स्वनिंदा करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया । ५२.शव्यभवसूरि : पूर्वावस्थामें कर्मकांडी ब्राह्मण थे, किंतु उनकी पात्रता देखकर प्रभवस्वामीने दो साधु भेजकर प्रतिबोध देकर चारित्र दिया । समस्त जैनशासन का भार इनको सोंपा | बालपुत्र मनक चारित्र मार्ग पर आया तब उसका छ माह जितना अल्पायु जानकर सिद्धांतोमें से सार संग्रह निकालकर दशवैकालिक सूत्र की रचना की। ५३. मेधकुमार : श्रेणिक राजा की धारिणी राणी के पुत्र । ८ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । फिर भी प्रभुवीर की देशना सुनकर प्रतिबोध पाकर चारित्र ग्रहण किया । नवदीक्षित मुनि का संथारा अंतिम और द्वार के समीप आया । रात्रिमें साधुओं की आवन-जावन में धूल उडने से निद्रा न आयी । अतः चारित्र नहीं पाल सकूँगा ऐसा समझकर रजोहरण प्रभु को वापस देने का विचार किया । प्रातःकालमें प्रभुने सामने से बुलाया व रात्रिमें किया हुआ दुर्ध्यान बताया । पूर्व के हाथी के भवमें खरगोश को बचाने के लिए किस प्रकार कष्ट सहे थे वह बताया । प्रतिबोधित होकर आँख व पाँव को छोडकर शरीर के किसी भी अवयवों का उपचार नहीं कराउंगा ऐसी कठोर प्रतिज्ञा ग्रहण करके निर्मल चारित्र पालनकर स्वर्गगामी बने ।
एमाइ महासत्ता, दितु सुहं गुण-गुणेहिं संजुत्ता ।। जेसिं नामग्गहणे, पावप्पबंधा विलयं जंति ॥७॥
जिनका नाम लेने से पापके दृढबंध नष्ट हो जाते हैं ऐसे गुणके समूह से युक्त उपरोक्त और उनके जैसे महासात्विक पुण्यात्माओं सुख प्रदान करें।
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दमयंती
सुलसा
भद्दा
मणोरमा
सीया
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सुभद्दा
चंदनबाला
नमयासुंदरी
गोवा
मयणरेहा
नंदा
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सुलसा चंदणबाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती ।
नमयासुंदरी सीया, नंदा भद्दा सुभद्दा य ||८|| १.सुलसा : राजा श्रेणिक की सेना के मुख्य सारथि (रथिक) नागरथ की धर्मपत्नी । प्रभु महावीर के प्रति परमभक्ति व श्रद्धा धारण करती थी । देव की सहायता से ३२ पुत्र हुए थे जो श्रेणिक की रक्षा करते समय एकसाथ मृत्यु पाए । भवस्थिति का विचार कर स्वयं शोकमग्न न बनी व पति को भी शोकातुर बनने न दिया । प्रभुवीर ने अम्बड़ के साथ सुलसा को "धर्मलाभ" कहलाया। तब अम्बडने इन्द्रजाल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा तीर्थंकर के समवसरण की ऋद्धि प्रसारित की, किन्तु सुलसा धर्म से तनिक भी विचलित न बनी । अतः घर आकर "धर्मलाभ" पहुँचाए । देवने सम्यक्त्व परीक्षा में लक्षपाक तेल के ४ बोतल फोड़ दिये फिर भी क्रोधित न बनी । मृत्यु बाद देवलोक में गई । आनेवाली चोबीसी में निर्मम नामक पंद्रहवें तीर्थंकर बनेगी। २.चंदनबाला : चंपापुरीके दधिवाहन राजा व धारिणी रानी की कुलदीपिका | कौशांबी के राजा शतानिक की चढाई से पिताजी भाग चले । माताने शीलरक्षणार्थे बलिदान दिया । चंदना बाजारमें बिकी | धनावह शेठ ने खरीदकर बेटी की तरह घरमें रखा परंतु श्रेष्ठि की पत्नी मूला को शंका हुई कि सेठ इसे अपनी पत्नी बना दे तो ? अतः चंदना का सिर मुंडवाया, पाँव में बेडियाँ डाली व एक तलघर में बंध कर दी । तीन दिन के बाद शेठ को पता चला तब उसे बाहर निकाला व सूपड़े में उड़द के बाकले (उबाले हुए उड़द) देकर बेडियाँ तुडवाने के लिए लुहार को बुलाने गया । वहाँ तो प्रभुवीर के अभिग्रह की पूर्ति हुई व प्रभु को बाकले वहोराते पंच दिव्य प्रगट हुए । अंत में प्रभुवीर के हाथों से दीक्षित बनकर ३६,००० साध्वियों की प्रधान साध्वी बनी व क्रमश: केवली बनकर मोक्ष में गई। ३.मनोरमा: सुदर्शन सेठ की प्रतिव्रता पत्नी जिनके काउसग्ग ध्यानने शासनदेवता को सहाय के लिए आकर्षित किया । ४.मदनरेखा : मणिरथ राजा के लघुबंधु युगबाहु की अत्यंत स्वरूपवती सुशील पत्नी । मणिस्थ ने मदनरेखा को विचलित करने के लिए अनेक प्रयत्न किये पर वे व्यर्थ गये । अंत में युगबाहु का खून करवाया । अंत समय में पति को अद्भूत समाधि दी व स्वयं भाग गयी । अरण्यमें जाकर एक पुत्र को जन्म दिया जो आगे जाकर नमि राजर्षि बने । पश्चात् मदनरेखाने चारित्र ग्रहण करके आत्मकल्याण किया । ५.दमयंती: विदर्भ नरेश भीमराज की पुत्री व नलराजा की धर्मपत्नी । पूर्वभवमें अष्टापद तीर्थ पर २४ भगवान को सुवर्णमय तिलक चढाये थे इसलिए जन्म से ही उसके कपालमें भी स्वयं प्रकाशित तिलक था । नलराजा जुएमें हार जाने से दोनों ने बनवास में रहना पसंद किया । वहाँ दोनो के बीच बारह साल का वियोग हुआ । अनेक संकटों के बीच शीलपालन किया व अंतमें नल के साथ मिलन हुआ | चारित्र अंगीकार कर स्वर्गवासी बनी । दूसरे भवमें कनकवती नामक वसुदेव की पत्नी बनकर मोक्षमें गई। ६.नर्मदासुंदरी: सहदेव की पुत्री व महेश्वरदत्त की पत्नी । स्वपरिचय से सास-श्वसुर को दृढ़ जैनधर्मी बनाया । साधु पर पानका थूक गिरने से पतिवियोग की भविष्यवाणी हुई । पतिवियोग से शील पर अनेक आपत्तियाँ आयी किन्तु सब कष्टों का सामना करके शीलरक्षा की | चारित्र लेकर अवधिज्ञानी बनी व प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ बनी । ७.सीता : विदेहराजा जनक की पुत्री और श्री रामचंद्रजी की पत्नी । सौतेली सास कैकयी को दशरथ ने दिये हुए वरदान पालन हेतु पति के साथ वनवास स्वीकारा । रावण ने अपहरण किया । विकट परिस्थिति में भी शीलरक्षा की । लंका के युद्ध के बाद अयोध्या वापस लौटे, वहाँ लोकापवाद (लोकनिंदा) होनेसे रामचंद्रजीने सगर्भावस्थामें जंगलमें छोड दी । दो संतानों को जन्म दिया । संतानोने पिता और चाचा के साथ युद्ध करके पराक्रम दिखाकर पितृकुल को ज्ञात किया, फिर अग्निपरीक्षा दी । विशुद्ध शीलवती जाहिर होते ही तुरंत चारित्र लेकर बारहवे देवलोकमें पधारी । बादमें रावण का जीव जब तीर्थंकर बनेगा तब गणधर बनकर मोक्षमें पधारेंगे। ८.नंदा: श्रेणिकराजा पितासे रूठकर गोपाल नाम धारण कर बेनातट गये तब धनपति श्रेष्ठि की पुत्री नंदा से विवाह किया । नंदा का पुत्र था अभयकुमार | जिसने सालों के वियोग बाद माता-पिता का मिलन करवाया । अखंड शीलपालन कर आत्मकल्याण किया । ९.भद्रा : शालीभद्र की माता-जैनधर्मकी परमानुरागी । पति-पुत्र वियोगमें विशुद्धशील का पालन करके आत्मकल्याण किया। १०.सुभद्रा : जिनदास पिता व तत्त्वमालिनी माता की धर्मपरायण सुपुत्री । इनके ससुरालवाले बौद्धधर्मी होने के कारण इन्हें अनेक प्रकार से सताया करते थे किन्तु ये अपने धर्म से तनिक सी भी विचलित न बनी । एकबार जिनकल्पी मुनि की आंख में गिरे हुए तिनके को निकालने से इन पर कलंक लगा । जिसको दूर करने के लिए शासनदेवी की आराधना की । दूसरे दिन नगर के सब द्वार बंद हो गये । आकाशवाणी हुई कि "जब कोई सती स्त्री कच्चे सूत के तार से बंधी चालनी द्वारा कुएँ में से जल निकालकर छाँटेगी तब इस चम्पा नगरी के द्वार खुलेंगे । नगर की सभी स्त्रियों के प्रयत्न से द्वार न खूले, अंतमें सुभद्रा ने यह कार्य कर दिखाया । फिर दीक्षा लेकर मोक्षमें पधारे।
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राइमई
रिसिदत्ता
पउमावई
अंजणा
सिरिदेवी
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मिगावई
सुजिट्ठ
चिल्लणादेवी
पभावई
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राइमई रिसिदत्ता, पउमावइ अंजणा सिरिदेवी ।
जिट्ठ सुजिङ मिगावइ, पभावई चिल्लणादेवी ||९||
११. राजिमती उग्रसेन राजाकी सौंदर्यवान पुत्री व नेमिनाथ प्रभु की वाग्दत्ता । हिरणों की पुकार सुनकर नेमिकुमार वापिस लौट गये। मनसे उनका ही शरण स्वीकारकर सतीत्व का पालन किया व चारित्र लिया। श्री नेमिनाथ प्रभु के लघुबंधु रथनेमि गुफामें इनको निर्वस्त्र अवस्थामें देखकर चलित बने तब सुंदर हितशिक्षा देकर संयममें पुनः स्थिर किया निर्मल संयमपालन कर कर्मक्षय करके मुक्तिपद प्राप्त किया ।
१२. ऋषिदत्ता : हरिषेण तापस की अत्यंत सौंदर्यवती पुत्री व राजा कनकरथ की धर्मपत्नी । पूर्वकृत कर्म के उदयसे शोक्यने सुलसा योगिनी द्वारा डाकिनी का कलंक चढ़वाया। उसके कारण बहुत कष्ट सहने पड़े परंतु प्रभुभक्ति व शीलधर्म के प्रभाव से तमाम कष्टों में से पार उतरी व अंतमें संयमी बनकर सिद्धिपद की स्वामिनी बनी ।
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१३. पद्मावती : चेटकराजा की पुत्री व चंपापुरी के महाराजा दधिवाहन की धर्मपत्नी सगर्भावस्थामें "हाथी की अंबाडी पर बैठकर राजाके पास छत्र पकडाउं व स्वयं वनविहार करूँ'' ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ। उसे पूर्ण करने हेतु राजा हाथी पर बिठाकर वनविहार कराने गया परंतु अरण्य को देखकर हाथी भागने लगा। राजा तो एक वृक्ष की डाली को पकडकर लटक गये किंतु रानी वैसा कर न पायी । हाथी पानी पीने खडा रहा तब उतरकर तापस के आश्रममें गई । वहाँ श्रमणियों का परिचय होते गर्भ की बात बताये बिना दीक्षा ले ली। फिर गुप्त रीत से बालक को जन्म देकर स्मशानमें छोड़ दिया। वही प्रत्येकबुद्ध करकंडू बने । एकबार पिता-पुत्र का युद्ध हो रहा है यह जानकर पद्मावती ने सत्य बात बताकर युद्धविराम करवाया । निर्मल चारित्र पालकर आत्मकल्याण किया ।
१४. अंजनासुंदरी : महेन्द्र राजा व हृदयसुंदरी रानी की पुत्री, पवनंजयकी धर्मपत्नी । छोटीसी बात को बड़ा स्वरूप देकर विवाह से लगातार बाईस वर्ष तक पवनंजय ने इन्हें छोड़ दिया था। फिर भी अखंड शीलपालन व धर्मध्यान किया । युद्धमें गये हुए पति को चक्रवाक मिथुन की विरह-विह्वलता देखकर पत्नी की स्मृति हुई । गुप्तरीत से अंजना के पास आये परंतु उस मिलन का परिणाम आपत्तिजनक निकला । गर्भवती बनते ही "कुलकलंकिनी है ऐसा जाहिर कर सास श्वसुर ने पिताके घर भेज दिया। वहाँ से भी वनमें भिजवायी वनमें तेजस्वी "हनुमान" पुत्र को जन्म दिया। शीलपालनमें तत्पर सती को खोजने निकले हुए पति को वरसों बाद अति परिश्रम द्वारा पत्नी-पुत्र का मिलन हुआ। अंतमें दोनों ने चारित्र लेकर मुक्तिपद पाया । १५. श्रीदेवी : श्रीधरराजाकी परम शीलवती स्त्री । विद्याधर व देव ने अपहरण करके शीलसे डगाने की बहुत कोशिश की परंतु वे पर्वत की तरह निश्चल रही अंतमें चारित्र लेकर पाँचवे देवलोक में गयी।
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१६. ज्येष्ठा : चेटक महाराजा की पुत्री, प्रभुवीर के बड़े भाई नंदीवर्धन राजा की धर्मपत्नी व प्रमुवीर की बारहव्रतधारी श्राविका । उनके अटल शील की प्रशंसा शक्रेन्द्रने की एक देवने शील से डगाने की बहुत ही भयंकर कसौटी की, परंतु शुद्धतासे पार उतरने से महासती जाहिर हुई। दीक्षा लेकर कर्मक्षय करके शिवनगर (मोक्ष) में पधारी ।
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१७. सुज्येष्ठा चेटक की पुत्री संकेतानुसार इन्हें लेने आया हुआ श्रेणिक राजा भूल से इनकी बहन चेल्लणा को लेकर चला गया । अतः वैराग्य पाकर श्री चंदनबालाजी के पास दीक्षा ली। एक बार छत पर आतापना ले रहे थे तब उनके रूप में मोहित बने हुए पेढाल विद्याधर ने भ्रमर का रूप धारण करके योनिप्रवेश किया। उसमें अनजानपन से शुक्र रखने से गर्भ रहा परंतु ज्ञानी महात्माओं ने सत्य बात प्रकाशित कर शंका का निवारण किया। तीव्र तपश्चर्या करके कर्मों का क्षय करके मोक्ष में गये । १८. मृगावती चेटकराजा की पुत्री व कौशांबी नरेश शतानीक की धर्मपत्नी रूपलुब्ध चंडप्रद्योत ने चढ़ाई की तब शतानिक का उसी रात्रिमें अपस्मारक रोग में मृत्यु हो गया। भोग की आशा दिखाकर चंडप्रद्योत के पास से ही अत्यंत दृढ दुर्ग बनवाया, धन-धान्य भरवाया बाद में दुर्ग के दरवाजे बंध करवा दिये और प्रभुवीर का इन्तजार करने लगी। प्रभु के पधारते दरवाजे खुलवा दिये । देशना सुनकर वैराग्य पाकर दीक्षा ली। एकबार सूर्य-चंद्र मूल विमान से भगवान का दर्शन के लिए आये तो प्रकाश के कारण रात्रि का ध्यान न रहा व वस्ती में आते देर हो गई। आर्या चन्दनबाला ने उपालम्भ दिया तब पश्चात्ताप करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया।
१९. प्रभावती चेटकराजा की पुत्री व सिंधु सौवीर के राजर्षि उदायन की धर्मपत्नी कुमारनंदी देव द्वारा बनायी हुई प्रतिमा जीवितस्वामी की पेटी इनके हाथों से खुली । परमात्मा को मंदिरमें रखकर प्रतिदिन अपूर्व जिनभक्ति करती थी । एकबार दासी के पास मंगवाये हुए वस्त्र मंगवाये हुए वर्ण के होने पर भी अन्य वर्ण के दिखे तथा नृत्यभक्ति करते समय शरीर मस्तक बिना का देखने से मृत्यु नजदीक है यह जानकर प्रभुवीर के पास दीक्षा लेकर देवलोकमें गयी । २०. वेल्लणा चेटक राजा की पुत्री व श्रेणिकराजा की पत्नी प्रभु महावीर की परम धर्मानुरागी श्राविका । एकबार ठंडी की मौसम में तीव्र ठंड थी उस वक्त तालाब के किनारे खुल्ले बदन से संपूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग ध्यान में रहनेवाले साधु की चिंता की तब श्रेणिक को चेल्लणा के शील पर शंका हुई किन्तु प्रभुवीर के वचन से अखंड शीलवती जानकर संदेह दूर हुआ । सुंदर आराधना कर आत्मकल्याण किया ।
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कुंती
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भयणीओ थूलभद्दस्स जक्खदिन्ना सेणा, REC
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बभी सुदरी रूप्पणी, रेवइ कुती सिवा जयती अ । देवइ दोवई धारणी, कलावई पुप्फचूला य ||१०|| पउमावई अ गोरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । जंबूवई सच्चभामा, रूप्पिणी कण्हट्ठ महिसीओ ||११|| जक्खा य जक्खदिन्ना, भूआ तह चेव भूअदिना य । सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलभद्दस्स ||१२|| २१-२२. ब्राह्मी-सुंदरी : श्री ऋषभदेव भगवान की विदुषी पुत्रियाँ । एक लीपिज्ञान में व दूसरी गणितज्ञान में प्रवीण थी | सुंदरी ने चारित्रप्राप्ति के लिए ६० हजार वर्ष तक आयंबिल का तप किया था । दोनों बहनोंने दीक्षा लेकर जीवन उज्ज्वल बनाया था । बाहुबलि को उपदेश देने दोनों साध्वी बहनें साथमें गयी । अंतमें मोक्षमें पधारी । २३.रूक्मिणी : कृष्ण की पटरानी से भिन्न | विशुद्ध शीलवती सन्नारी थी। २४.रेवती : भगवान महावीरस्वामी की परम श्राविका | गोशालक की तेजोलेश्यासे हुई अशाताके समयमें भक्तिभावसे कुष्माण्डपाक (कोहलापाक) वहोराने से प्रमुवीर को शाता देकर तीर्थंकर नामकर्म बांधा । आगामी चौबीसी में समाधि नामक सत्रहवें तीर्थंकर बनेंगे। २५.कुती : पाँच पांडवों की माता | अनेक प्रकारके इतिहास प्रसिद्ध कष्टों के बीच भी धर्मश्रद्धा की ज्योत जलती रखी थी । अंत में पुत्रों व पुत्रवधुओं के साथ चारित्र लेकर मोक्ष में गये। २६.शिवादेवी: चेटकराजा की पुत्री व चंडप्रद्योत राजा की परम शीलवती पट्टरानी । देवकृत उपसर्ग में भी अचल रही । उज्जयिनी नगरी में प्रज्वलित अग्नि इस सती के हाथों से पानी छिटकाने से शांत हो गया । अंतमें चारित्र लेकर सिद्धपदकी प्राप्ति की। २७.जयंती : शतानिक राजा की बहन व रानी मृगावती की नणंद । तत्त्वज्ञ व विदुषी इस श्राविकाने प्रभुवीर को तात्त्विक अनेक प्रश्न पूछे थे व प्रभुवीरने उनके प्रत्युत्तर भी दिये थे । अन्ततः दीक्षा लेकर सिद्धिगति को प्राप्त किया। २८. देवकी: वसुदेव की पुत्री व श्रीकृष्ण की माता | "देवकी का पुत्र तुझे मारेगा" यह बात मुनि कथन से ज्ञात होने पर कंसने देवकी के ६ पुत्र मारने के लिए ले लिये व सातवाँ पुत्र कृष्ण । अपने छ पुत्र मुनिओं को अजब के संयोग से एक ही दिन घर वहोरने के लिये आना हुआ तब देवकी अत्यधिक प्रसन्न हुई । देवकी को पुत्रपालन की तीव्र इच्छा हुई, तब कृष्ण ने हरिणिगमेषी देवको प्रसन्न कर गजसुकुमाल पुत्रकी प्राप्ति करवायी । उन्होंने कोमलवयमें दीक्षा ली तब "मुझे इस भवचक्र की अंतिम माँ बनाना" ऐसे आशीर्वाद दिये । देवकी ने सम्यक्त्व सहित बारहव्रत का पालन कर आत्मकल्याण किया । २९.द्रौपदी : पूर्वकृत निदानके प्रभावसे पाँच पांडवों की पत्नी बनी । नारदने निश्चित की हुई बारी के अनुसार जिस दिन जिस पति के साथ रहना हो उस दिन उनसे अन्य के साथ भ्रातृवत् व्यवहार करने का अतिदुष्कर कार्य किया इसलिए महासती कहलायी । अनेक कष्टों के बीच भी शील अखंड रखा व चारित्र लेकर देवलोक में गयी। ३०.धारिणी: चंदनबाला की माता । एक बार शतानिक राजाने नगर पर चढाई की तब धारिणी रानी अपनी पुत्री वसुमति के साथ भाग गयी परंतु सेनापति के हाथ से पकड़ी गयी । वन में उसने अनुचित मांग की । उस समय शीलरक्षा हेतु जीभ खींचकर प्राण त्याग कर दिये । ३१.कलावती : शंखराजा की शीलवती स्त्री । भाई द्वारा प्रेषित कंकणों की जोड़ी पहनकर प्रशंसा के वाक्यसे मति-विभ्रम द्वारा पति को इनके शील पर संदेह हुआ व कंकण सहित हाथ काटने की आज्ञा दी । वधिकोंने जंगलमें जाकर ऐसा किया किंतु शील के दिव्य प्रभावसे इनके हाथ जैसे थे वैसे के वैसे आ गये । जंगलमें पुत्र को जन्म दिया व तापसों के आश्रम का आश्रय लिया । कंकण उपर के नाम पढ़कर जब संदेह दूर हुआ तब राजा बहुत पछताया । बहुत सालों बाद पुनः दोनों का मिलन हुआ परंतु तब जीवनरंग पलट चुका था । गुरूदेव के पास दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया व मोक्षमें गयी । ३२.पुष्पचूला : पुष्पचूल-पुष्पचूला दोनों जुडवा भाई-बहन का परस्पर अतिशय स्नेह देखकर दोनों को पिताने विवाहित किया । अघटित घटना को देखकर माता को आघात लगा । दीक्षा लेकर स्वर्गमें गयी । वहाँ से स्वर्ग-नरक के स्वप्न दिखाकर पुष्पचूला को प्रतिबोधित किया । अर्णिकापुत्र आचार्य के पास दीक्षा दिलाई । स्थिरवासमें स्थित अर्णिकापुत्र आचार्य की बहुमानपूर्वक सेवा-भक्ति करते हुए एक दिन केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर भी जब तक आचार्य को पता न चला तब तक वैयावच्च करती रही । अंतमें मोक्षमें पधारे। ३३-४० पद्मावती-गौरी-गाधारी-लक्ष्मणा-सुसीमा-जबूवती-सत्यभामा वरूक्मिणी : ये आठ श्री कृष्ण की अलगअलग देश में जन्मी पट्टरानियाँ थीं । इन आठों की शीलपरीक्षा पृथक् पृथक समयमें हुई किंतु ये प्रत्येक उसमें पार उतरी । अंतमें आठों पट्टरानियों ने दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया । ४१-४७ यक्षा-यक्षदत्ता-भूता-भूतदत्ता-सेणा-वेणा-रेणा : ये सात स्थूलभद्रजी की बहनें । स्मरणशक्ति अत्यंत तीव्र थी। क्रमशः एक दो-तीन-चार यावत् सात बार सुनने से याद हो जाता था । सातोंने दीक्षा अङ्गीकार की थी । यक्षा साध्वीजीने एकबार भाई मुनिराज श्रीयकमुनिको प्रेरणा करके शारीरिक प्रतिकूलता होने पर भी पर्वतिथी के दिन उपवास करवाया । रात्रि में श्रीयक कालधर्म पाने से लगे आघात को दूर करने के लिए संघ की सहाय से शासनदेवी श्री सीमंधरस्वामि के पास ले गई, वहां प्रभुजीने निर्दोषता ज्ञापित कर शोक दूर करने के लिये चार चूलिकासूत्र दिये । एकबार स्थूलभद्रजी को वंदन करने गए तब अहंकार से उन्होंने सिंह का रूप धारण किया । गुर्वाज्ञा से वापस वंदन करने गये तब मूल स्वरूपमें आ गये । निर्मल संयमजीवन का पालनकर आत्मकल्याण किया ।
इच्चाई महासईओ, जयंति अकलंकसीलकलिआओ ।
अज्जवि वज्जइ जासिं, जसपड़हो तिहुअणे सयले ।।१३।।। इत्यादिक निष्कलंक शील को धारण करनेवाली अनेक महासतियाँ जय को प्राप्त होती हैं जिनके यश
का पटह आज भी समग्र त्रिभुवनमें बज रहा हैं। dalni Eduatic buternational
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प्रतिक्रमण की क्रमसर विधि के हेतु
प्रतिक्रमण अर्थात् पीछे हटना । किससे पीछे हटना ? पाप से । अर्थात् अपने से हो चुके गलत कृत्य... दुष्कृत से पीछे हटना, इसका नाम है... प्रतिक्रमण ।
दुष्कृत के चार प्रकार हैं, १) जिनाज्ञा ने जिसका निषेध किया है अथवा स्वयं ने जिसके त्याग की प्रतिज्ञा की है, ऐसा आचरण २) जिनाज्ञा ने जो करने का कहा है, वह न करना अथवा स्वयं ने जो करने की प्रतिज्ञा ली है, वह न करना ३) जिनवचन पर श्रद्धा न रखना, शंका करना, अश्रद्धा करना ४) जिनवचन से विपरीत प्ररूपणा करना.. इन चार में से जो भी दुष्कृत किया हो, उससे पीछे हटना, उसके प्रति हार्दिक रंज व वेदना के साथ स्वयं के प्रति आत्मग्लानि की अनुभूति कि 'अरे अरे ! ऐसे दुष्कृत करनेवाली मेरी अधम आत्मा को धिक्कार हो !' और दिल से चाहे कि 'मिच्छामि दुक्कडं' मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो । इन दुष्कृत पर से मैं अपना ममत्व उठाता हूँ। ऐसा सच्चा 'मिच्छामि दुक्कडं' करना, इसीका नाम प्रतिक्रमण है ।
दिन या रात में इन चार में से किसी न किसी प्रकार से तो दुष्कृत होता ही है और आत्मा पर अशुभ कर्मों का बंध होता ही है । उनके निवारण के लिये अर्थात् दुष्कृत के कुसंस्कार और दुष्कृत जन्य अशुभ कर्म को आत्मा पर से हटाने के लिये दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण करना अति आवश्यक है। नहीं तो ये कुसंस्कार शल्य की तरह आत्मा में रहकर जीव को परभव में पापी बनाते हैं और अशुभकर्म जीव को दुःखी बनाते हैं । १) वर्तमान में जीव जो पाप करता है, उसका कारण है... पूर्व में किये गये दुष्कृतों के कुसंस्कार व २) वर्तमान में आनेवाले दुःखों का कारण है... पूर्व में बांधे गये अशुभ कर्म । पूर्वभव में प्रतिक्रमण के द्वारा उन कर्मों का सफाया न करने से इस जीवन में जीव को दुःखी व पापी बनना पड़ता है । अब यदि आगे भी ऐसा न बनना हो, तो यहाँ के दैनिक दुष्कृत के कुसंस्कार और अशुभ कर्म के भार को रोज के प्रतिक्रमण से उतारते जाना चाहिये। इसके लिये प्रतिक्रमण प्रतिदिन का एक आवश्यक कर्तव्य है ।
दैवसिक प्रतिक्रमण-क्रम के हेतु
दिवस के अन्त में दैवसिक प्रतिक्रमण करने के लिए सर्व प्रथम सामायिक ली जाती है। इसका कारण यह कि पाप-व्यापार का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करके जीव समभाव में आये, तभी उसे पूर्व में किये गये दुष्कृत का सच्चा पश्चात्ताप होने से वह सच्चा 'मिच्छा मि दुक्कडं' अथवा सच्चा प्रतिक्रमण कर सकता है। समभाव की प्रतिज्ञा से हृदय की पापवृत्ति छूटती है । इसके सिवाय पूर्व के पाप दिल को कहाँ से जलायें ? सामायिक से पाप-वृत्ति का त्याग होता है, उसके बाद पच्चक्खाण होता है।
प्र. वैसे तो पच्चक्खाण अंतिम आवश्यक है, तो यहाँ पहले क्यों ?
उ. वैसे आवश्यक के क्रम से पच्चक्खाण करने जायें, तो सूर्यास्त बीत जाय। सूर्यास्त से पूर्व ही दिवसचरिम का पच्चक्खाण करना आवश्यक है । इसीलिये यहाँ सामायिक लेकर तुरन्त दो वांदणा लेकर पच्चक्खाण किया जाता है।
प्र. वांदणा अर्थात् वन्दना । उसकी क्या आवश्यकता है ? वांदणा दो बार क्यों ?
उ. पच्चक्खाण गुरु को वन्दन करके ही लिया जाता है, इसमें विनय है। राजा के पास सेवक जाता है, तब जाते ही नमस्कार करता है। राजा के द्वारा आदेश दिये जाने के बाद लौटते वक्त पुनः नमस्कार करता है। इसी प्रकार यहाँ पर दो बार वांदणे दिये जाते हैं। पहले वांदणा में 'मे मिउग्गहं' कहकर गुरु के मर्यादित अवग्रह (गुरु के विनयः हेतु रखा जानेवाला क्षेत्र का अन्तर) में प्रवेश किया जाता है और आधे वांदणे में 'आवस्सियाए पडिक्कमामि' कहकर अवग्रह से बाहर निकला जाता है। मानों आदेश ग्रहण करके बाहर निकले और आदेश के पालन के अवसर पर दूसरे वांदणे में पुनः अन्दर प्रवेश करके 'आवस्सियाए' न बोलकर अवग्रह में ही रहकर वांदणा पूर्ण होने पर आदेश के पालन के तौर पर पच्चक्खाण किया जाता है ।
प्र. वांदणे कब-कब दिये जाते हैं ?
उ. १) पच्चक्खाण करने से पूर्व २) पापों की आलोचना करते वक्त. ३) अभ्युत्थान वन्दन करते वक्त ४) आचार्यादि की क्षमापना करते वक्त दो-दो वांदणा की विधि है ।
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प्र. मुहपत्ति का पडिलेहण क्यों किया जाता है ?
उ. वांदणा हाथ आदि अंग हिलाकर व स्पर्श करके देने होते हैं, इसीलिये वांदणा से पूर्व अंग का पडिलेहण करने के लिये मुहपत्ति का पडिलेहण किया जाता है।
मुहपत्ति पडिलेहण, वांदणा के बाद पच्चक्खाण करके चैत्यवन्दन तथा ४ थोय की जाती है | प्र. ४ थोय क्यों की जाती हैं ?
उ. प्रतिक्रमण की शुभ क्रिया का शुभारंभ करने से पूर्व मंगलस्वरुप देववन्दन करना चाहिये । मंगल करने से शुभ कार्य निर्विघ्नतया परिपूर्ण होता है। 2
एप्र. कायोत्सर्ग, थोय उन्हीं सूत्रों के बाद क्यों ? पहले क्यों नहीं ? २ उ.४ थोय में पहली थोय का कायोत्सर्ग प्रभु का चैत्यवन्दन-स्तवना करके किया जाता है, क्योंकि कायोत्सर्ग से सैकड़ों हजारों लोगों के द्वारा प्रभु को किये जानेवाले वन्दन-पूजन-सत्कार-सन्मान की अनुमोदना का लाभ लेना है। उससे पहले स्वयं वन्दन करके लाभ लेना उचित है ।
प्र. पहली थोय निकट में स्थित अरिहंत की मूर्ति के लिये क्यों ? उ. इसका कारण यह है कि वह हमें दर्शनादि का लाभ देकर समाधि देती है । प्र. दूसरी थोयों के काउस्सग्ग क्यों ?
उ. दूसरी थोय का काउस्सग्ग समस्त लोक के अरिहंत चैत्यों की भक्तों के द्वारा होनेवाले वन्दन-पूजनादि की अनुमोदना के लाभ हेतु है । तीसरी थोय का काउस्सग्ग अरिहंत के बाद उपकारी श्रुत-आगम को होने वाले वन्दनपूजनादि की अनुमोदना हेतु है । चौथी थोय का काउस्सग्ग शान्ति-समाधि के प्रेरक सम्यग्दृष्टि देवों के स्मरण हेतु है ।
प्र. ४ थोय के बाद नमुत्थुणं व खमासमण क्यों ?
उ. अब छ आवश्यक शुरु करने हैं, तो निकट के मंगल के रुप में 'नमुत्थणं' से अर्हत् स्तवना व ४ खमासमण से भगवान-आचार्य-उपाध्याय व साधु को वन्दना कर लेनी चाहिये ।
प्र. उसके बाद प्रतिक्रमण क्यों ठाना चाहिये ?
उ. यदि प्रतिक्रमण यानी छ आवश्यक करने का संकल्प दिल में हो, तो प्रतिक्रमण प्रणिधानपूर्वक होता । है । प्रणिधान पूर्वक किया गया अनुष्ठान ही सफल होता है और संकल्प होने से प्रतिक्रमण पूर्ण न हो, तब तक मन कहीं नहीं जाता । दैवसिक प्रतिक्रमण ठाया जाय, तब जघन्य से सर्व दुष्कृतों का संक्षेप में 'मिच्छा मि दुक्कडं' किया जाता है। यह प्रतिक्रमण स्थापना है।
2 छ आवश्यक में सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यक है-प्रतिक्रमण । यह प्रतिक्रमण आवश्यक पहले बताया गया उस प्रकार चित्त को समभाव में रखकर किया जाता है । इसीलिये पहले 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है।
उसके बाद दिन में किये गये जिन-जिन पापों का प्रतिक्रमण करना है, उनका स्मरण करना चाहिये । यह स्मरण कायोत्सर्ग में शान्ति से होता है, इसीलिये इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ बोलकर कायोत्सर्ग किया. जाता है और उसमें 'नाणम्मि' सूत्र से दुष्कृत व अतिचारों का स्मरण किया जाता है।
प्र. काउस्सग्ग के बाद 'लोगस्स' क्यों बोला जाता है ?
उ. अब प्रतिक्रमण की उत्तम क्रिया करनी है, तो वह अरिहंत-स्तवना व गुरुवन्दन का मांगलिक करके करनी चाहिये । इसीलिये पूर्वोक्त प्रथम आवश्यक सामायिक सूत्र...कायोत्सर्ग के बाद दूसरा आवश्यक 'लोगस्स' सूत्र.. यानी चतुर्विंशति स्तव बोला जाता है और मुहपत्ति से अंग का पडिलेहण करके गुरुवन्दना की जाती है । यह तीसरा AP आवश्यक है।
प्र. चौथा 'प्रतिक्रमण' आवश्यक तरन्त क्यों नहीं ?
उ. प्रतिक्रमण गुरु की साक्षी में करने से गुरु के द्वारा प्रायश्चित्त के रुप में प्रतिक्रमण का आदेश मिलता है.te जिससे विधिवत् प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है और पाप धुलते हैं । इसके लिये पहले गुरु के आगे अपने दुष्कृत्यों का प्रकाशन यानी आलोचना करनी चाहिये । वन्दन-विनय करके आलोचना करनी चाहिये । इसीलिये दो वांदणे, उसके बाद देवसि आलोउं, सात लाख, अठारह पापस्थानक सूत्र बोला जाता है और 'सव्वस्स वि' सूत्र से 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' अर्थात् 'हे भगवंत ! मेरे समस्त दुश्चिंतित-दुर्भाषित-दुश्चेष्टित का क्या करूँ ? आपकी इच्छा से फरमाईये ।' तब गुरु कहते हैं-'पडिक्कमेह', अर्थात् प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त कर ।
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तब हम संक्षेप में 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहते हैं, यह प्रतिक्रमण का आदेश मिला । अब विस्तार से एक-एक दुष्कृत का प्रतिक्रमण निन्दा-गर्दा से करने के लिये वंदित्तु सूत्र है। IS 'वंदित्तु सूत्र' आत्मा को पाप से हल्का बनाने वाला महान और मुख्य सूत्र है । इसीलिये धीर-वीर-उपशान्त बनकर वीरासन में बैठकर प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र से मंगल करके 'करेमि भंते' से समभाव में आना चाहिये और संक्षेप में प्रतिक्रमण रुप 'इच्छामि पडिक्कमिउं' सूत्र बोलकर 'वंदित्तु सूत्र' बोलना चाहिये । वंदित्तु सूत्र के एक-एक पद का उच्चारण करते हुए पाप की वेदना, संवेग-वैराग्य की भावना झलकती है । अन्त में 'आलोयणा बहुविहा' गाथा से प्रतिक्रमण में याद नहीं आये हुए दुष्कृत की भी निन्दा-गर्दा करके आराधना के लिये तत्पर बनने हेतु 'तस्स धम्मस्स...आराहणाए' बोलते हुए खड़े होना चाहिये । 'विरओ मि विराहणाए' बोलते हुए विराधना से बाहर निकलना है, पीछे हटना है । उसके बाद 'अब्भुडिओ' से गुरु के प्रति हुए अविनय-अपराध की क्षमा मांगी जाती है । 'आयरिय उवज्झाए' से आचार्यादि के प्रति हुए कषायों की क्षमा मांगी जाती है और वह गुरु को वन्दन करके मांगनी चाहिये, इसीलिये उससे पूर्व दो वांदणे दिये जाते हैं।
प्र. प्रतिक्रमण सूत्र (वंदित्तु) में विस्तार से दोष-गर्हा तो हो गयी, अब फिर से 'अब्भुडिओ' बोलने की क्या आवश्यकता है?
उ. प्रतिक्रमण सूत्र से चारों प्रकार के दुष्कृत्यों से तो पीछे हटे, परन्तु परमोपकारी गुरु भगवंत के प्रति जो अविनय-अपराध हुए हो, उन्हें विशेष रुप से याद करके गुरु-साक्षी में गर्दा करने के लिये गुरु को वन्दनरुप दो वांदणे देने के साथ 'अब्भुडिओ सूत्र' से 'मिच्छा मि दुक्कडं' किया जाता है।
प्र. अब तो सब दुष्कृत्यों का प्रतिक्रमण हो गया, फिर 'आयरिय उवज्झाय' बोलने की क्या आवश्यकता है?
उ. सब दोषों का मूल है-राग-द्वेष, कषाय । इन कषायों को उखाड़ फेंकने के लिये दो वांदणे देकर 'आयरिय उवज्झाय' सूत्र बोलना चाहिये । जैनशासन में कषाय-निवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कषाय से संसार है और कषाय-मुक्ति से मोक्ष । इसीलिये बाकी सब जगह दूसरा वांदणा पूर्ण होने पर अवग्रह में ही रहकर वह कार्य किया जाता है, परन्तु यहाँ द्वितीय वांदणा पूर्ण होने पर कषाय से बाहर निकलने का स्मरण करते हुए तुरन्त ही अवग्रह से बाहर निकलना है । बाद में 'आयरिय उवज्झाए' सूत्र बोलते हुए आचार्य से लेकर सर्व जीवों के प्रति सेवन किये गये कषाय की क्षमा मांगनी है, वह भी ललाट पर अंजलि जोड़कर इसलिए कि कषायों का सेवन करते हुए अभिमान आया हो, तो उसे रद्द करने के लिये अति नम्रता चाहिये । यहाँ चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक पूरा होता है । अब पांचवाँ कायोत्सर्ग: आवश्यक शुरु होता है।
प्र. कायोत्सर्ग आवश्यक क्यों?
उ. अतिचारों से आत्मा पर लगे घाव पर मरहम जैसा कायोत्सर्ग है । इसमें प्रतिक्रमण से भी शुद्ध न हुए सूक्ष्म र अतिचारों का विशुद्धीकरण है और उसके शल्य भी न रहें, ऐसा विशल्यीकरण भी है । इसके अलावा चारित्र, दर्शन व ज्ञान की विराधना का परिमार्जन है।
- यह सब कार्य समभाव रखकर ही हो सकता है, इसीलिये यहाँ पहले 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है | उसके । बाद क्रमशः चारित्र-विराधना, दर्शन-विराधना व ज्ञान-विराधना के पाप-निवारण हेतु २-१-१ लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है । दिन में समिति-गुप्ति के भंग से चारित्र में दोष लगने की संभावना अधिक होने से उसकी विशुद्धि के लिये २ लोगस्स का काउस्सग्ग, जब कि दर्शन-ज्ञान में उससे कम विराधना की संभावना होने से १-१ लोगस्स का काउस्सग्ग बताया गया है । यह कार्य सुन्दर ढंग से संपन्न होने की खुशी में 'सिद्धाणं-बुद्धाणं' सूत्र से सिद्ध-स्तुति, नमस्कारादि । प्र. सामायिक में-विरति में बैठे हुए को देव-देवी का काउस्सग्ग करना उचित है ?
HAR उ. औचित्य के पालन हेतु यह कायोत्सर्ग किया जाता है । विघ्न-निवारण आदि के द्वारा देवी-देवता आराधना में मदद करते हैं | उन्हें ऐसी प्रेरणा देने हेतु उनका कायोत्सर्ग करना उचित है | कायोत्सर्ग करनेवाले को ऐसे शुभ(कम) का उपार्जन होता है कि जो देव-देवी को प्रेरित करता है | उदाहरण के लिये हमारा यश का शुभ हमारा यश-गान करते को प्रेरित करता है न? कायोत्सर्ग के बाद उन्हीं देव-देवी की थोय भी इसी हेतु से है । अन्त में मंगलस्वरुप नवकार बोलकर मुहपत्ती पडिलेहण, वांदणा पूर्वक छठा पच्चक्खाण आवश्यक किया जाता है ।
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प्र. पच्चक्खाण तो पहले हो चुका, अब फिर से क्यों ?
पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक घाव पर मरहम-पट्टी जैसा है। घाव तो सूख गया, अब उस पर गुणधारण के लिये शक्ति की दवास्वरुप पच्चक्खाण आवश्यक है। उसे यहाँ याद कर लेना चाहिये ।
इसके बाद छहों आवश्यकों को याद करके हितशिक्षा की कामना के रुप में 'इच्छामो अणुसट्ठि' बोला जाता है । 'नमो खमासमणाणं' कहकर गुरु को नमस्कार करने पूर्व 'अनुशास्ति प्रार्थना' की जाती है। तत्पश्चात् 'नमोऽर्हत्' सूत्र बोलकर 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' सूत्र बोला जाता है ।
प्र. नमोऽस्तु सूत्र क्यों ? वह जोर से क्यों बोला जाता है ?
उ. परमात्मा महावीरस्वामी के शासन को पाकर छ आवश्यक के महान योग की साधना मिली । इसीलिये कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु प्रभु की स्तुति गानी चाहिये । हमें मिला यह षडावश्यक योग दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं, ऐसा अनन्य व अद्भुत योग है । इस आनन्द को अभिव्यक्त करने के लिये यह स्तुति समूह में जोर से बोलनी चाहिये । उसके बाद शुद्ध बनी आत्मा परमात्मा के गुण-गान में लीन हो, इस हेतु से 'नमुत्थुणं' पूर्वक स्तवन बोला जाता है । और 'वरकनक' से उत्कृष्ट से विचरते हुए १७० तीर्थंकरों को वन्दन किया जाता है तथा ४ खमासमण से भगवान-आचार्य आदि को वन्दना की जाती है। तत्पश्चात् दैवसिक प्रायश्चित्त विशुद्धि के लिये ४ लोगस्स का काउस्सग्ग और वह अच्छी तरह से संपन्न होने की कृतज्ञता व खुशी में लोगस्स बोला जाता है ।
प्र. उसके बाद सज्झाय क्यों ?
उ. साधु अथवा श्रावक को रात्रि में स्वाध्याय करना चाहिये, यह कर्तव्य निभाने के लिये सज्झाय है । उसके बाद दुःखक्षय-कर्मक्षय के निमित्त ४ लोगस्स का काउस्सग्ग, तदनन्तर शान्ति के लिये लघुशान्ति स्तव, उसके बाद लोगस्स । अन्त में सामायिक पारते वक्त चउक्कसाय से चैत्यवन्दन करने का कारण यह है कि श्रावक को भी दिन में ७ चैत्यवन्दन करने चाहिये। वे इस प्रकार हैं... १) राई प्रतिक्रमण में जगचिंतामणि चैत्यवन्दन, २-३) सीमंधर- शत्रुंजय चैत्यवन्दन ४-५-६) त्रिकाल जिनमन्दिर में चैत्यवन्दन ७) दैवसिक प्रतिक्रमण के बाद चउक्कसाय का...
रात्रिक प्रतिक्रमण विधि के हेतु
कुछ अंगों के हेतु तो दैवसिक जैसे ही हैं। विशेष इस प्रकार है-सामायिक लेने के बाद नींद में आये हुए कुस्वप्न दुःस्वप्न की शुद्धि के लिये ४ लोगस्स का काउस्सग्ग, उसके बाद सुबह उठकर १) पहला कार्य है- अर्हद्-वन्दनाः इसीलिये 'जगचिंतामणि' से चैत्यवन्दन किया जाता है । इसी हेतु से उसके बाद ४ खमासमण दिये जाते हैं । 2) दूसरा कार्य है- स्वाध्याय । इसीलिये सज्झाय बोली जाती है। उसके बाद प्रतिक्रमण ठाया जाता है और नमुत्थुणं से मंगल करके पहले 'सामायिक' आवश्यक के लिये 'करेमि भंते', तत्पश्चात् क्रमशः चारित्र-दर्शन-ज्ञान की विराधना की शुद्धि के लिये ३ काउस्सग्ग किये जाते हैं। दिन की तुलना में रात को चारित्र की विराधना कम होती है, अतः दो के बदले एक लोगस्स का काउस्सग्ग किया जाता है । उसके बाद बोला जाने वाला लोगस्स दूसरा 'चउवीसत्यो आवश्यक है । ३ काउस्सग्ग के बाद 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र, उसके बाद दैवसिक प्रतिक्रमण की तरह तीसरा-चौथा. आवश्यक है । उसके बाद मुहपत्ति-वांदणा के बाद सकलतीर्थ और तत्पश्चात् पच्चक्खाण छठा आवश्यक है । दैवर्सिक प्रतिक्रमण की तरह ६ आवश्यक का स्मरण करना चाहिये, परन्तु 'विशाल लोचन' से प्रभु महावीर की स्तुति और स्तवन के स्थान पर ४ थोय से देववन्दन । अन्त में ४ खमासमण, 'अड्डाइज्जेसु' से सर्व मुनि-वन्दना, विहरमान प्रभु का चैत्यवन्दन व तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ का चैत्यवन्दन किया जाता है । तत्पश्चात् सामायिक पारी जाती है। तप-चिंतवणी काउस्सग्ग में क्या चिन्तन करना चाहिये ?
'महावीर प्रभु के शासन में गणधर भगवंत ने छ मास तक का तप फरमाया है, तो मैं मेरे योगों को बाधा न पहुँचे
ऐसा तप करूँ ? छ मासी तप करने की शक्ति नहीं है, एक दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं ।
दो दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं। तीन दिन न्यून ? शक्ति नहीं । चार दिन न्यून ? शक्ति नहीं 12 पाँच दिन न्यून ? शक्ति नहीं। इस प्रकार एक-एक दिन कम करते हुए २९ दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं । पंच मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं। पंच मासी में १-२-३-४-५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । ६७-८-९-१० दिन न्यून ? शक्ति नहीं । ११-१२-१३-१४-१५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । १६-१७१८-१९-२० दिन न्यून ? शक्ति नहीं । २१-२२-२३-२४-२५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । २६-२७
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२८-२९ दिन न्यून ? शक्ति नहीं | चार मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं । (यहाँ भी आगे पंच मासी की तरह ५-५ दिन कम करते जावें ।) तीन मासी ? शक्ति नहीं । पुनः ५-५ दिन कम करते हुए, दो मासी ? शक्ति नहीं । फिर से ५५दिन कम करते हुए मासक्षमण करूँ ? शक्ति नहीं । एक उपवास न्यून करूँ ? शक्ति नहीं । १-१ उपवास कम करते हुए १३ उपवास न्यून मासक्षमण करूँ ? शक्ति नहीं । ३४ अभत्तट्ट करूँ? ३२ अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । इस प्रकार २-२ कम करते हुए ३०-२८-२६-२४-२२-२०-१८-१६-१४-१२-१० अभत्तट्ट की शक्ति की चिंतन करना । अट्टम अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । छट्ठ अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । चउत्थ अभत्तट्ट करूँ ? आयंबिल-एकासगुं-बेसणुंपुरिमुड्ड करूँ ? 'साढपोरिसी-पोरिसी-नवकारशी करूँ ?' इसमें जो तप पहले किया हो, वहाँ से 'शक्ति है, परन्तु परिणाम नहीं'...ऐसा चिन्तन करें व आज जो तप करना है, वहाँ शक्ति है और परिणाम भी है, ऐसा चिन्तन करके काउस्सग्ग पारें।
प्रतिक्रमण से संबंधित वर्तमानकालीन प्रमों के उत्तर प्र. प्रतिक्रमण करने में वख्त बहुत लगता है और क्रिया भी काफी बड़ी होने से कई लोग ऊब जाते हैं । इसके बजाय परमात्मा की संगीतमय भक्ति की जाय, तो क्या हर्ज है ?
उ. जो विषयासक्त, विकथा आदि प्रमाद में रत तथा अनुकूलता के प्रेमी होते हैं, उन्हें मनुष्य जीवन में ही लभ्य विशिष्ट कर्तव्यों का भान नहीं होता । इसीलिये एक कर्तव्य की बात आने पर उसमें से छूटने के लिये दूसरे कर्तव्य की बात आगे करते हैं, परन्तु वह भी ज्यादा समय नहीं चलता | वह भी छोड़कर फिर से विषय विकथा आदि में मस्त बन जाते हैं। बाकी दैनिक जीवन में होने वाले अनगिनत पापों का भार चढ़ता है, इसकी जिन्हें खेद हो, उन्हें तो प्रतिक्रमण की क्रिया कभी निरस नहीं लगती।।
प्र. सूत्रों के अर्थ जाने बिना तोता-पाठ की तरह प्रतिक्रमण करने से क्या फायदा?
उ. इस प्रश्न से ही सूचित होता है कि अर्थ का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । अर्थ जानने के बाद प्रतिक्रमण करने से महान लाभ होता है । दसरी बात यह है कि अर्थ न जानने पर भी मंत्राक्षर की तर
सरी बात यह है कि अर्थ न जानने पर भी मंत्राक्षर की तरह सूत्रों पर पूर्ण श्रद्धा के साथ तल्लीनता रखकर पाप-पश्चात्ताप की भावना से प्रतिक्रमण किया जाय, तो महान लाभ होता है।
प्र. प्रतिक्रमण के सूत्र प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा के बजाय मातृभाषा में हों, तो तुरन्त समझे जा सकते हैं न 778
उ. समझे तो जा सकते हैं परन्तु १) समय के साथ मातृभाषा बदलने पर सूत्र भी बदलने पड़ते हैं । २) अधिक ) अच्छी रचना वाले सूत्र बनने पर लोक में एकसूत्रता नहीं रहेगी । ३) गणधर-रचित सूत्रों जैसा बहुमान-भाव न रहेगा। ४) तीर्थ-यात्रा, उपधानादि प्रसंगों पर एकत्र हुए विभिन्न मातृभाषाओं वालों की प्रतिक्रमण क्रिया में भिन्नता रहेगी. गणधर-कृत सूत्रों में ऐसी कोई आपत्ति नहीं और शासन चिरकाल तक व्यवस्थित रुप से चलता है।
Ek म प्र. प्रतिक्रमण की क्रिया निरस लगती हैं, तो ऐसी क्रिया तो व्यर्थ मजूरी ही हुई न ?
उ. रुचि का संबंध वस्तु से नहीं, परन्तु भावना, समझ व विवेक से है । उदा. के लियेः भोजन समारंभ में जाने। पर पहले मिठाई के प्रति प्रेम होता है, चावल के प्रति नहीं । हटकर मिठाई खाने के बाद मिठाई पर से दिल उठ जाता है और चावल खाने की इच्छा होती है । हाँ, जिसने समझ रखा है कि शक्ति माल से मिलती है, चावल से नहीं, उसे चावल परोसे जाते वक्त भी मिठाई के प्रति रुचि रहती है । इस प्रकार रुचि का संबंध वस्तु के साथ है ही नहीं । यदि
उपयोगिता और महालाभ समझ आ जाये, और उसके आगे सैर-सपाटा, गप्पेबाजी असार होने का विवेक आ जाये, तो प्रतिक्रमण के प्रति भी रुचि अवश्य जग जाएगी । बिना दिल से गाडी में बैठा हुआ भी गन्तव्य तक, तो पहुँचता ही है, बिना इच्छा से प्रतिक्रमण करनेवाला भी इतने समय के लिये पाप से तो बचता ही है और शुभ क्रिया के संस्कार पाता है, जो उसे भविष्य में उपयोगी सिद्ध होते हैं।
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जैन चित्रजगत के भीष्मपितामह प.पू.आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा का कल्पना विश्व
(जैन ज्योतिर्धर चित्र आल्बम से साभार उद्धृत)
1) अतिमुक्तक (अइमुत्ता)
(पूर्व संस्कार)
(१) छ: साल के अतिमुक्तक गौतम स्वामी को मोदक बेहराते है। (२) बाद में साथ जाते हैं ज्यादा बोझ देखकर पात्रा पकडने को माँगा गौ० दीक्षा लो तब दीया जाय । (३) दीक्षा ली स्थंडिल गये वहाँ बरसात का बहता पानी देख मिट्टी की पाल बांध कर छोटा पात्रा तिराते बडी खुशीसे नाचने कूदने लगे साधुओं ने ऐसा न करने को कहा, साधु जाकर भग० से कहते है अप्काय का हिंसक जीवरक्षा कैसे करेगा? भग० इसका ऐसा तिरस्कार मत करो वह तुमसे पहले केवली होगा। यह सुनकर उन्होंने क्षमा माँगी । (४) एक बार स्थंडिल से लौटते वक्त बालकों को पानीमें पत्तों की नाव बनाकर तैराते खेलते देखा अपनी पहले की जलक्रीडा याद आनेसे । (५) समवसरण में इरियावहिय (पणग दग मट्टी०) बोलते तीव्र पश्चात्ताप होनेसे ९ वे वर्ष में केवल ज्ञान और मुक्ति प्राप्त की। 2) इलाचीकुमार (स्वदोषदर्शन) (१) ब्राह्मण ब्राह्मणीने दीक्षा ली । ब्राह्मणी शरीर कपडे की बहुत साफसफाई करते रहने से और जातिमद करने पर भी । (२) दोनों ने संयम का फल स्वर्ग सुख पाया । (३) तीसरे भवमें इलाचीकुमार और नर्तकी बने, नाचती नर्तकी को देख कुमार मोहित हुआ माँबापके बहुत समजाने पर भी उसके साथ चला और नाचना सीखा। (४) एक नगरमें राजारानी और बहत लोगोके आगे पैसे के लिये वह न मीले तब तक नाचते हैं वह नाचते हुओ गीर पडे मर जाय तो मुझे मिले । नाचते इलाची कुमारनें दान देने वाली स्त्री के आगे खडे हुए शांत मुनि को देख अपनी स्त्री लंपटता का धिक्कार और मुनिको अविकारिता की प्रसंशा करते केवलज्ञान पाया, देशना दी, पूर्वभव सुनकर नटीने अपने अनर्थ कारक रुपको धिक्कारते हुए और राजारानीने भोगलालसा को धिक्कारते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया।
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समणेण सावएण य, अवस्सकायव्वयं इवइ जम्हा।
अन्ते अहोणिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम । दिन व रात्रि के अन्त में साधु व श्रावक के द्वारा अवश्य करने योग्य है,
अतः वह (प्रतिक्रमण) आवश्यक कहलाता है। आवस्सएण एएण सावओ जइ वि बहुरओ होइ।
दुकवाणमंतकिरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥ यद्यपि श्रावक बहुत कर्म-रज वाला होता है, फिर भी इस आवश्यक से कर्मरज को हटाकर अल्प समय में ही दुःखों का अन्त करता है ।
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुयह ।
इक्केण विणा तित्थं छिज्जइ, अमेण उ तच्च ॥
यदि आप जैन-सिद्धान्त को स्वीकारते हो, तो व्यवहार व निश्चय... दोनों में से एक को भी मत छोड़ो । क्योंकि एक (व्यवहार) के बिना शासन का
उच्छेद होता है और दूसरे (निश्चय) के बिना तत्त्व का उच्छेद होता है |
न च प्राणायामादिहठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे
परमेन्द्रियजये च निश्चित उपायोऽपि, 'उसासं न निसंभई' (आव०नि० गाथा १७१०) इत्याद्यागमेन योगसमाधान-विघ्नत्वेन
बहुलं तस्य निषिद्धत्वात । चित्तनिरोध और श्रेष्ठ इन्द्रियजय के लिये प्राणायाम-श्वासनिरोध
आदि हठयोग कारणभूत होने का नियम नहीं है, क्योंकि 'उसास न निरंभइ' इत्यादि आगम-वचन से (कायोत्सर्ग में सांस को नहीं
रोकना चाहिये, ऐसा कहकर) श्वास-निरोध का निषेध किया गया है । यह इसी लिये कि श्वासनिरोध
योगसमाधि के लिये विघ्नभूत है।
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________________ व्यापार में माल से ज्यादा किंमत भाव की होती है, अतिथि सत्कार में द्रव्यों से ज्यादा जरुरत आदरभाव की होती है, सेवा में अनुकूलता से ज्यादा किंमत सद्भाव की होती है, उसी तरह आराधना में क्रिया के साथ भाव की महत्ता विशिष्ट रहती है। अज्ञान और गतानुगतिकता के कारण वर्षों की आराधना के बावजूद भी कई आराधक भाव की अनुपस्थिति में मंझिल से दूर ही रहते हैं। शवकर मुंहमें, फिर भी मुंह मीठा नहीं ? पानी पेटमें, फिर भी प्यास बुझती नहीं ? ऐसी शिकायत कहीं सुनी है ? तो आत्मकल्याणकर क्रिया जीवन में, फिर भी अहोभाव नहीं, यह शिकायत क्यों ? उपरोक्त समस्याओं का समाधान सकलसंघहितचिंतक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहेबने दिया है। प्रतिक्रमण सूत्रों (जिन में सामायिक, चैत्यवन्दन आदि क्रियाओं के सूत्र समाविष्ट ही है) के प्रत्येक पद या गाथा के अर्थों और भावार्थों को अपनी सूझबूझ से चित्रों में परिवर्तित करके हमारी आराधना को आराधक भाव बनाने में योगदान दिया है। अत्यंत उत्कृष्ट और भाववाही उन चित्रों से समृद्ध, पूज्यश्री के कल्पनावैभव और कलावैभव से समृद्ध, क्रियामें भाव और प्रभु प्रति सद्भाव उत्पन्न करती हुई, अनुष्ठान से आराधना और आराधना से आत्मकल्याण की ओर आगे बढाती... अजोड, अनुपम और अद्भुत किताब श्री प्रतिक्रमण-सूत्र-चित्र-आल्बम... आप स्वाध्याय कीजीये और साधना में सिध्धि प्राप्त कीजीये | RAJUL 0022-25149863 022-25110056 For Private &Parome Only