________________
२८-२९ दिन न्यून ? शक्ति नहीं | चार मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं । (यहाँ भी आगे पंच मासी की तरह ५-५ दिन कम करते जावें ।) तीन मासी ? शक्ति नहीं । पुनः ५-५ दिन कम करते हुए, दो मासी ? शक्ति नहीं । फिर से ५५दिन कम करते हुए मासक्षमण करूँ ? शक्ति नहीं । एक उपवास न्यून करूँ ? शक्ति नहीं । १-१ उपवास कम करते हुए १३ उपवास न्यून मासक्षमण करूँ ? शक्ति नहीं । ३४ अभत्तट्ट करूँ? ३२ अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । इस प्रकार २-२ कम करते हुए ३०-२८-२६-२४-२२-२०-१८-१६-१४-१२-१० अभत्तट्ट की शक्ति की चिंतन करना । अट्टम अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । छट्ठ अभत्तट्ट करूँ ? शक्ति नहीं । चउत्थ अभत्तट्ट करूँ ? आयंबिल-एकासगुं-बेसणुंपुरिमुड्ड करूँ ? 'साढपोरिसी-पोरिसी-नवकारशी करूँ ?' इसमें जो तप पहले किया हो, वहाँ से 'शक्ति है, परन्तु परिणाम नहीं'...ऐसा चिन्तन करें व आज जो तप करना है, वहाँ शक्ति है और परिणाम भी है, ऐसा चिन्तन करके काउस्सग्ग पारें।
प्रतिक्रमण से संबंधित वर्तमानकालीन प्रमों के उत्तर प्र. प्रतिक्रमण करने में वख्त बहुत लगता है और क्रिया भी काफी बड़ी होने से कई लोग ऊब जाते हैं । इसके बजाय परमात्मा की संगीतमय भक्ति की जाय, तो क्या हर्ज है ?
उ. जो विषयासक्त, विकथा आदि प्रमाद में रत तथा अनुकूलता के प्रेमी होते हैं, उन्हें मनुष्य जीवन में ही लभ्य विशिष्ट कर्तव्यों का भान नहीं होता । इसीलिये एक कर्तव्य की बात आने पर उसमें से छूटने के लिये दूसरे कर्तव्य की बात आगे करते हैं, परन्तु वह भी ज्यादा समय नहीं चलता | वह भी छोड़कर फिर से विषय विकथा आदि में मस्त बन जाते हैं। बाकी दैनिक जीवन में होने वाले अनगिनत पापों का भार चढ़ता है, इसकी जिन्हें खेद हो, उन्हें तो प्रतिक्रमण की क्रिया कभी निरस नहीं लगती।।
प्र. सूत्रों के अर्थ जाने बिना तोता-पाठ की तरह प्रतिक्रमण करने से क्या फायदा?
उ. इस प्रश्न से ही सूचित होता है कि अर्थ का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । अर्थ जानने के बाद प्रतिक्रमण करने से महान लाभ होता है । दसरी बात यह है कि अर्थ न जानने पर भी मंत्राक्षर की तर
सरी बात यह है कि अर्थ न जानने पर भी मंत्राक्षर की तरह सूत्रों पर पूर्ण श्रद्धा के साथ तल्लीनता रखकर पाप-पश्चात्ताप की भावना से प्रतिक्रमण किया जाय, तो महान लाभ होता है।
प्र. प्रतिक्रमण के सूत्र प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा के बजाय मातृभाषा में हों, तो तुरन्त समझे जा सकते हैं न 778
उ. समझे तो जा सकते हैं परन्तु १) समय के साथ मातृभाषा बदलने पर सूत्र भी बदलने पड़ते हैं । २) अधिक ) अच्छी रचना वाले सूत्र बनने पर लोक में एकसूत्रता नहीं रहेगी । ३) गणधर-रचित सूत्रों जैसा बहुमान-भाव न रहेगा। ४) तीर्थ-यात्रा, उपधानादि प्रसंगों पर एकत्र हुए विभिन्न मातृभाषाओं वालों की प्रतिक्रमण क्रिया में भिन्नता रहेगी. गणधर-कृत सूत्रों में ऐसी कोई आपत्ति नहीं और शासन चिरकाल तक व्यवस्थित रुप से चलता है।
Ek म प्र. प्रतिक्रमण की क्रिया निरस लगती हैं, तो ऐसी क्रिया तो व्यर्थ मजूरी ही हुई न ?
उ. रुचि का संबंध वस्तु से नहीं, परन्तु भावना, समझ व विवेक से है । उदा. के लियेः भोजन समारंभ में जाने। पर पहले मिठाई के प्रति प्रेम होता है, चावल के प्रति नहीं । हटकर मिठाई खाने के बाद मिठाई पर से दिल उठ जाता है और चावल खाने की इच्छा होती है । हाँ, जिसने समझ रखा है कि शक्ति माल से मिलती है, चावल से नहीं, उसे चावल परोसे जाते वक्त भी मिठाई के प्रति रुचि रहती है । इस प्रकार रुचि का संबंध वस्तु के साथ है ही नहीं । यदि
उपयोगिता और महालाभ समझ आ जाये, और उसके आगे सैर-सपाटा, गप्पेबाजी असार होने का विवेक आ जाये, तो प्रतिक्रमण के प्रति भी रुचि अवश्य जग जाएगी । बिना दिल से गाडी में बैठा हुआ भी गन्तव्य तक, तो पहुँचता ही है, बिना इच्छा से प्रतिक्रमण करनेवाला भी इतने समय के लिये पाप से तो बचता ही है और शुभ क्रिया के संस्कार पाता है, जो उसे भविष्य में उपयोगी सिद्ध होते हैं।
ww.datsoraty.org