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प्र. पच्चक्खाण तो पहले हो चुका, अब फिर से क्यों ?
पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक घाव पर मरहम-पट्टी जैसा है। घाव तो सूख गया, अब उस पर गुणधारण के लिये शक्ति की दवास्वरुप पच्चक्खाण आवश्यक है। उसे यहाँ याद कर लेना चाहिये ।
इसके बाद छहों आवश्यकों को याद करके हितशिक्षा की कामना के रुप में 'इच्छामो अणुसट्ठि' बोला जाता है । 'नमो खमासमणाणं' कहकर गुरु को नमस्कार करने पूर्व 'अनुशास्ति प्रार्थना' की जाती है। तत्पश्चात् 'नमोऽर्हत्' सूत्र बोलकर 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' सूत्र बोला जाता है ।
प्र. नमोऽस्तु सूत्र क्यों ? वह जोर से क्यों बोला जाता है ?
उ. परमात्मा महावीरस्वामी के शासन को पाकर छ आवश्यक के महान योग की साधना मिली । इसीलिये कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु प्रभु की स्तुति गानी चाहिये । हमें मिला यह षडावश्यक योग दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं, ऐसा अनन्य व अद्भुत योग है । इस आनन्द को अभिव्यक्त करने के लिये यह स्तुति समूह में जोर से बोलनी चाहिये । उसके बाद शुद्ध बनी आत्मा परमात्मा के गुण-गान में लीन हो, इस हेतु से 'नमुत्थुणं' पूर्वक स्तवन बोला जाता है । और 'वरकनक' से उत्कृष्ट से विचरते हुए १७० तीर्थंकरों को वन्दन किया जाता है तथा ४ खमासमण से भगवान-आचार्य आदि को वन्दना की जाती है। तत्पश्चात् दैवसिक प्रायश्चित्त विशुद्धि के लिये ४ लोगस्स का काउस्सग्ग और वह अच्छी तरह से संपन्न होने की कृतज्ञता व खुशी में लोगस्स बोला जाता है ।
प्र. उसके बाद सज्झाय क्यों ?
उ. साधु अथवा श्रावक को रात्रि में स्वाध्याय करना चाहिये, यह कर्तव्य निभाने के लिये सज्झाय है । उसके बाद दुःखक्षय-कर्मक्षय के निमित्त ४ लोगस्स का काउस्सग्ग, तदनन्तर शान्ति के लिये लघुशान्ति स्तव, उसके बाद लोगस्स । अन्त में सामायिक पारते वक्त चउक्कसाय से चैत्यवन्दन करने का कारण यह है कि श्रावक को भी दिन में ७ चैत्यवन्दन करने चाहिये। वे इस प्रकार हैं... १) राई प्रतिक्रमण में जगचिंतामणि चैत्यवन्दन, २-३) सीमंधर- शत्रुंजय चैत्यवन्दन ४-५-६) त्रिकाल जिनमन्दिर में चैत्यवन्दन ७) दैवसिक प्रतिक्रमण के बाद चउक्कसाय का...
रात्रिक प्रतिक्रमण विधि के हेतु
कुछ अंगों के हेतु तो दैवसिक जैसे ही हैं। विशेष इस प्रकार है-सामायिक लेने के बाद नींद में आये हुए कुस्वप्न दुःस्वप्न की शुद्धि के लिये ४ लोगस्स का काउस्सग्ग, उसके बाद सुबह उठकर १) पहला कार्य है- अर्हद्-वन्दनाः इसीलिये 'जगचिंतामणि' से चैत्यवन्दन किया जाता है । इसी हेतु से उसके बाद ४ खमासमण दिये जाते हैं । 2) दूसरा कार्य है- स्वाध्याय । इसीलिये सज्झाय बोली जाती है। उसके बाद प्रतिक्रमण ठाया जाता है और नमुत्थुणं से मंगल करके पहले 'सामायिक' आवश्यक के लिये 'करेमि भंते', तत्पश्चात् क्रमशः चारित्र-दर्शन-ज्ञान की विराधना की शुद्धि के लिये ३ काउस्सग्ग किये जाते हैं। दिन की तुलना में रात को चारित्र की विराधना कम होती है, अतः दो के बदले एक लोगस्स का काउस्सग्ग किया जाता है । उसके बाद बोला जाने वाला लोगस्स दूसरा 'चउवीसत्यो आवश्यक है । ३ काउस्सग्ग के बाद 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र, उसके बाद दैवसिक प्रतिक्रमण की तरह तीसरा-चौथा. आवश्यक है । उसके बाद मुहपत्ति-वांदणा के बाद सकलतीर्थ और तत्पश्चात् पच्चक्खाण छठा आवश्यक है । दैवर्सिक प्रतिक्रमण की तरह ६ आवश्यक का स्मरण करना चाहिये, परन्तु 'विशाल लोचन' से प्रभु महावीर की स्तुति और स्तवन के स्थान पर ४ थोय से देववन्दन । अन्त में ४ खमासमण, 'अड्डाइज्जेसु' से सर्व मुनि-वन्दना, विहरमान प्रभु का चैत्यवन्दन व तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ का चैत्यवन्दन किया जाता है । तत्पश्चात् सामायिक पारी जाती है। तप-चिंतवणी काउस्सग्ग में क्या चिन्तन करना चाहिये ?
'महावीर प्रभु के शासन में गणधर भगवंत ने छ मास तक का तप फरमाया है, तो मैं मेरे योगों को बाधा न पहुँचे
ऐसा तप करूँ ? छ मासी तप करने की शक्ति नहीं है, एक दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं ।
दो दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं। तीन दिन न्यून ? शक्ति नहीं । चार दिन न्यून ? शक्ति नहीं 12 पाँच दिन न्यून ? शक्ति नहीं। इस प्रकार एक-एक दिन कम करते हुए २९ दिन न्यून छ मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं । पंच मासी तप करूँ ? शक्ति नहीं। पंच मासी में १-२-३-४-५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । ६७-८-९-१० दिन न्यून ? शक्ति नहीं । ११-१२-१३-१४-१५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । १६-१७१८-१९-२० दिन न्यून ? शक्ति नहीं । २१-२२-२३-२४-२५ दिन न्यून ? शक्ति नहीं । २६-२७
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