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तब हम संक्षेप में 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहते हैं, यह प्रतिक्रमण का आदेश मिला । अब विस्तार से एक-एक दुष्कृत का प्रतिक्रमण निन्दा-गर्दा से करने के लिये वंदित्तु सूत्र है। IS 'वंदित्तु सूत्र' आत्मा को पाप से हल्का बनाने वाला महान और मुख्य सूत्र है । इसीलिये धीर-वीर-उपशान्त बनकर वीरासन में बैठकर प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र से मंगल करके 'करेमि भंते' से समभाव में आना चाहिये और संक्षेप में प्रतिक्रमण रुप 'इच्छामि पडिक्कमिउं' सूत्र बोलकर 'वंदित्तु सूत्र' बोलना चाहिये । वंदित्तु सूत्र के एक-एक पद का उच्चारण करते हुए पाप की वेदना, संवेग-वैराग्य की भावना झलकती है । अन्त में 'आलोयणा बहुविहा' गाथा से प्रतिक्रमण में याद नहीं आये हुए दुष्कृत की भी निन्दा-गर्दा करके आराधना के लिये तत्पर बनने हेतु 'तस्स धम्मस्स...आराहणाए' बोलते हुए खड़े होना चाहिये । 'विरओ मि विराहणाए' बोलते हुए विराधना से बाहर निकलना है, पीछे हटना है । उसके बाद 'अब्भुडिओ' से गुरु के प्रति हुए अविनय-अपराध की क्षमा मांगी जाती है । 'आयरिय उवज्झाए' से आचार्यादि के प्रति हुए कषायों की क्षमा मांगी जाती है और वह गुरु को वन्दन करके मांगनी चाहिये, इसीलिये उससे पूर्व दो वांदणे दिये जाते हैं।
प्र. प्रतिक्रमण सूत्र (वंदित्तु) में विस्तार से दोष-गर्हा तो हो गयी, अब फिर से 'अब्भुडिओ' बोलने की क्या आवश्यकता है?
उ. प्रतिक्रमण सूत्र से चारों प्रकार के दुष्कृत्यों से तो पीछे हटे, परन्तु परमोपकारी गुरु भगवंत के प्रति जो अविनय-अपराध हुए हो, उन्हें विशेष रुप से याद करके गुरु-साक्षी में गर्दा करने के लिये गुरु को वन्दनरुप दो वांदणे देने के साथ 'अब्भुडिओ सूत्र' से 'मिच्छा मि दुक्कडं' किया जाता है।
प्र. अब तो सब दुष्कृत्यों का प्रतिक्रमण हो गया, फिर 'आयरिय उवज्झाय' बोलने की क्या आवश्यकता है?
उ. सब दोषों का मूल है-राग-द्वेष, कषाय । इन कषायों को उखाड़ फेंकने के लिये दो वांदणे देकर 'आयरिय उवज्झाय' सूत्र बोलना चाहिये । जैनशासन में कषाय-निवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कषाय से संसार है और कषाय-मुक्ति से मोक्ष । इसीलिये बाकी सब जगह दूसरा वांदणा पूर्ण होने पर अवग्रह में ही रहकर वह कार्य किया जाता है, परन्तु यहाँ द्वितीय वांदणा पूर्ण होने पर कषाय से बाहर निकलने का स्मरण करते हुए तुरन्त ही अवग्रह से बाहर निकलना है । बाद में 'आयरिय उवज्झाए' सूत्र बोलते हुए आचार्य से लेकर सर्व जीवों के प्रति सेवन किये गये कषाय की क्षमा मांगनी है, वह भी ललाट पर अंजलि जोड़कर इसलिए कि कषायों का सेवन करते हुए अभिमान आया हो, तो उसे रद्द करने के लिये अति नम्रता चाहिये । यहाँ चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक पूरा होता है । अब पांचवाँ कायोत्सर्ग: आवश्यक शुरु होता है।
प्र. कायोत्सर्ग आवश्यक क्यों?
उ. अतिचारों से आत्मा पर लगे घाव पर मरहम जैसा कायोत्सर्ग है । इसमें प्रतिक्रमण से भी शुद्ध न हुए सूक्ष्म र अतिचारों का विशुद्धीकरण है और उसके शल्य भी न रहें, ऐसा विशल्यीकरण भी है । इसके अलावा चारित्र, दर्शन व ज्ञान की विराधना का परिमार्जन है।
- यह सब कार्य समभाव रखकर ही हो सकता है, इसीलिये यहाँ पहले 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है | उसके । बाद क्रमशः चारित्र-विराधना, दर्शन-विराधना व ज्ञान-विराधना के पाप-निवारण हेतु २-१-१ लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है । दिन में समिति-गुप्ति के भंग से चारित्र में दोष लगने की संभावना अधिक होने से उसकी विशुद्धि के लिये २ लोगस्स का काउस्सग्ग, जब कि दर्शन-ज्ञान में उससे कम विराधना की संभावना होने से १-१ लोगस्स का काउस्सग्ग बताया गया है । यह कार्य सुन्दर ढंग से संपन्न होने की खुशी में 'सिद्धाणं-बुद्धाणं' सूत्र से सिद्ध-स्तुति, नमस्कारादि । प्र. सामायिक में-विरति में बैठे हुए को देव-देवी का काउस्सग्ग करना उचित है ?
HAR उ. औचित्य के पालन हेतु यह कायोत्सर्ग किया जाता है । विघ्न-निवारण आदि के द्वारा देवी-देवता आराधना में मदद करते हैं | उन्हें ऐसी प्रेरणा देने हेतु उनका कायोत्सर्ग करना उचित है | कायोत्सर्ग करनेवाले को ऐसे शुभ(कम) का उपार्जन होता है कि जो देव-देवी को प्रेरित करता है | उदाहरण के लिये हमारा यश का शुभ हमारा यश-गान करते को प्रेरित करता है न? कायोत्सर्ग के बाद उन्हीं देव-देवी की थोय भी इसी हेतु से है । अन्त में मंगलस्वरुप नवकार बोलकर मुहपत्ती पडिलेहण, वांदणा पूर्वक छठा पच्चक्खाण आवश्यक किया जाता है ।
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