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प्र. मुहपत्ति का पडिलेहण क्यों किया जाता है ?
उ. वांदणा हाथ आदि अंग हिलाकर व स्पर्श करके देने होते हैं, इसीलिये वांदणा से पूर्व अंग का पडिलेहण करने के लिये मुहपत्ति का पडिलेहण किया जाता है।
मुहपत्ति पडिलेहण, वांदणा के बाद पच्चक्खाण करके चैत्यवन्दन तथा ४ थोय की जाती है | प्र. ४ थोय क्यों की जाती हैं ?
उ. प्रतिक्रमण की शुभ क्रिया का शुभारंभ करने से पूर्व मंगलस्वरुप देववन्दन करना चाहिये । मंगल करने से शुभ कार्य निर्विघ्नतया परिपूर्ण होता है। 2
एप्र. कायोत्सर्ग, थोय उन्हीं सूत्रों के बाद क्यों ? पहले क्यों नहीं ? २ उ.४ थोय में पहली थोय का कायोत्सर्ग प्रभु का चैत्यवन्दन-स्तवना करके किया जाता है, क्योंकि कायोत्सर्ग से सैकड़ों हजारों लोगों के द्वारा प्रभु को किये जानेवाले वन्दन-पूजन-सत्कार-सन्मान की अनुमोदना का लाभ लेना है। उससे पहले स्वयं वन्दन करके लाभ लेना उचित है ।
प्र. पहली थोय निकट में स्थित अरिहंत की मूर्ति के लिये क्यों ? उ. इसका कारण यह है कि वह हमें दर्शनादि का लाभ देकर समाधि देती है । प्र. दूसरी थोयों के काउस्सग्ग क्यों ?
उ. दूसरी थोय का काउस्सग्ग समस्त लोक के अरिहंत चैत्यों की भक्तों के द्वारा होनेवाले वन्दन-पूजनादि की अनुमोदना के लाभ हेतु है । तीसरी थोय का काउस्सग्ग अरिहंत के बाद उपकारी श्रुत-आगम को होने वाले वन्दनपूजनादि की अनुमोदना हेतु है । चौथी थोय का काउस्सग्ग शान्ति-समाधि के प्रेरक सम्यग्दृष्टि देवों के स्मरण हेतु है ।
प्र. ४ थोय के बाद नमुत्थुणं व खमासमण क्यों ?
उ. अब छ आवश्यक शुरु करने हैं, तो निकट के मंगल के रुप में 'नमुत्थणं' से अर्हत् स्तवना व ४ खमासमण से भगवान-आचार्य-उपाध्याय व साधु को वन्दना कर लेनी चाहिये ।
प्र. उसके बाद प्रतिक्रमण क्यों ठाना चाहिये ?
उ. यदि प्रतिक्रमण यानी छ आवश्यक करने का संकल्प दिल में हो, तो प्रतिक्रमण प्रणिधानपूर्वक होता । है । प्रणिधान पूर्वक किया गया अनुष्ठान ही सफल होता है और संकल्प होने से प्रतिक्रमण पूर्ण न हो, तब तक मन कहीं नहीं जाता । दैवसिक प्रतिक्रमण ठाया जाय, तब जघन्य से सर्व दुष्कृतों का संक्षेप में 'मिच्छा मि दुक्कडं' किया जाता है। यह प्रतिक्रमण स्थापना है।
2 छ आवश्यक में सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यक है-प्रतिक्रमण । यह प्रतिक्रमण आवश्यक पहले बताया गया उस प्रकार चित्त को समभाव में रखकर किया जाता है । इसीलिये पहले 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है।
उसके बाद दिन में किये गये जिन-जिन पापों का प्रतिक्रमण करना है, उनका स्मरण करना चाहिये । यह स्मरण कायोत्सर्ग में शान्ति से होता है, इसीलिये इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ बोलकर कायोत्सर्ग किया. जाता है और उसमें 'नाणम्मि' सूत्र से दुष्कृत व अतिचारों का स्मरण किया जाता है।
प्र. काउस्सग्ग के बाद 'लोगस्स' क्यों बोला जाता है ?
उ. अब प्रतिक्रमण की उत्तम क्रिया करनी है, तो वह अरिहंत-स्तवना व गुरुवन्दन का मांगलिक करके करनी चाहिये । इसीलिये पूर्वोक्त प्रथम आवश्यक सामायिक सूत्र...कायोत्सर्ग के बाद दूसरा आवश्यक 'लोगस्स' सूत्र.. यानी चतुर्विंशति स्तव बोला जाता है और मुहपत्ति से अंग का पडिलेहण करके गुरुवन्दना की जाती है । यह तीसरा AP आवश्यक है।
प्र. चौथा 'प्रतिक्रमण' आवश्यक तरन्त क्यों नहीं ?
उ. प्रतिक्रमण गुरु की साक्षी में करने से गुरु के द्वारा प्रायश्चित्त के रुप में प्रतिक्रमण का आदेश मिलता है.te जिससे विधिवत् प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है और पाप धुलते हैं । इसके लिये पहले गुरु के आगे अपने दुष्कृत्यों का प्रकाशन यानी आलोचना करनी चाहिये । वन्दन-विनय करके आलोचना करनी चाहिये । इसीलिये दो वांदणे, उसके बाद देवसि आलोउं, सात लाख, अठारह पापस्थानक सूत्र बोला जाता है और 'सव्वस्स वि' सूत्र से 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' अर्थात् 'हे भगवंत ! मेरे समस्त दुश्चिंतित-दुर्भाषित-दुश्चेष्टित का क्या करूँ ? आपकी इच्छा से फरमाईये ।' तब गुरु कहते हैं-'पडिक्कमेह', अर्थात् प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त कर ।
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