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प्रतिक्रमण की क्रमसर विधि के हेतु
प्रतिक्रमण अर्थात् पीछे हटना । किससे पीछे हटना ? पाप से । अर्थात् अपने से हो चुके गलत कृत्य... दुष्कृत से पीछे हटना, इसका नाम है... प्रतिक्रमण ।
दुष्कृत के चार प्रकार हैं, १) जिनाज्ञा ने जिसका निषेध किया है अथवा स्वयं ने जिसके त्याग की प्रतिज्ञा की है, ऐसा आचरण २) जिनाज्ञा ने जो करने का कहा है, वह न करना अथवा स्वयं ने जो करने की प्रतिज्ञा ली है, वह न करना ३) जिनवचन पर श्रद्धा न रखना, शंका करना, अश्रद्धा करना ४) जिनवचन से विपरीत प्ररूपणा करना.. इन चार में से जो भी दुष्कृत किया हो, उससे पीछे हटना, उसके प्रति हार्दिक रंज व वेदना के साथ स्वयं के प्रति आत्मग्लानि की अनुभूति कि 'अरे अरे ! ऐसे दुष्कृत करनेवाली मेरी अधम आत्मा को धिक्कार हो !' और दिल से चाहे कि 'मिच्छामि दुक्कडं' मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो । इन दुष्कृत पर से मैं अपना ममत्व उठाता हूँ। ऐसा सच्चा 'मिच्छामि दुक्कडं' करना, इसीका नाम प्रतिक्रमण है ।
दिन या रात में इन चार में से किसी न किसी प्रकार से तो दुष्कृत होता ही है और आत्मा पर अशुभ कर्मों का बंध होता ही है । उनके निवारण के लिये अर्थात् दुष्कृत के कुसंस्कार और दुष्कृत जन्य अशुभ कर्म को आत्मा पर से हटाने के लिये दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण करना अति आवश्यक है। नहीं तो ये कुसंस्कार शल्य की तरह आत्मा में रहकर जीव को परभव में पापी बनाते हैं और अशुभकर्म जीव को दुःखी बनाते हैं । १) वर्तमान में जीव जो पाप करता है, उसका कारण है... पूर्व में किये गये दुष्कृतों के कुसंस्कार व २) वर्तमान में आनेवाले दुःखों का कारण है... पूर्व में बांधे गये अशुभ कर्म । पूर्वभव में प्रतिक्रमण के द्वारा उन कर्मों का सफाया न करने से इस जीवन में जीव को दुःखी व पापी बनना पड़ता है । अब यदि आगे भी ऐसा न बनना हो, तो यहाँ के दैनिक दुष्कृत के कुसंस्कार और अशुभ कर्म के भार को रोज के प्रतिक्रमण से उतारते जाना चाहिये। इसके लिये प्रतिक्रमण प्रतिदिन का एक आवश्यक कर्तव्य है ।
दैवसिक प्रतिक्रमण-क्रम के हेतु
दिवस के अन्त में दैवसिक प्रतिक्रमण करने के लिए सर्व प्रथम सामायिक ली जाती है। इसका कारण यह कि पाप-व्यापार का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करके जीव समभाव में आये, तभी उसे पूर्व में किये गये दुष्कृत का सच्चा पश्चात्ताप होने से वह सच्चा 'मिच्छा मि दुक्कडं' अथवा सच्चा प्रतिक्रमण कर सकता है। समभाव की प्रतिज्ञा से हृदय की पापवृत्ति छूटती है । इसके सिवाय पूर्व के पाप दिल को कहाँ से जलायें ? सामायिक से पाप-वृत्ति का त्याग होता है, उसके बाद पच्चक्खाण होता है।
प्र. वैसे तो पच्चक्खाण अंतिम आवश्यक है, तो यहाँ पहले क्यों ?
उ. वैसे आवश्यक के क्रम से पच्चक्खाण करने जायें, तो सूर्यास्त बीत जाय। सूर्यास्त से पूर्व ही दिवसचरिम का पच्चक्खाण करना आवश्यक है । इसीलिये यहाँ सामायिक लेकर तुरन्त दो वांदणा लेकर पच्चक्खाण किया जाता है।
प्र. वांदणा अर्थात् वन्दना । उसकी क्या आवश्यकता है ? वांदणा दो बार क्यों ?
उ. पच्चक्खाण गुरु को वन्दन करके ही लिया जाता है, इसमें विनय है। राजा के पास सेवक जाता है, तब जाते ही नमस्कार करता है। राजा के द्वारा आदेश दिये जाने के बाद लौटते वक्त पुनः नमस्कार करता है। इसी प्रकार यहाँ पर दो बार वांदणे दिये जाते हैं। पहले वांदणा में 'मे मिउग्गहं' कहकर गुरु के मर्यादित अवग्रह (गुरु के विनयः हेतु रखा जानेवाला क्षेत्र का अन्तर) में प्रवेश किया जाता है और आधे वांदणे में 'आवस्सियाए पडिक्कमामि' कहकर अवग्रह से बाहर निकला जाता है। मानों आदेश ग्रहण करके बाहर निकले और आदेश के पालन के अवसर पर दूसरे वांदणे में पुनः अन्दर प्रवेश करके 'आवस्सियाए' न बोलकर अवग्रह में ही रहकर वांदणा पूर्ण होने पर आदेश के पालन के तौर पर पच्चक्खाण किया जाता है ।
प्र. वांदणे कब-कब दिये जाते हैं ?
उ. १) पच्चक्खाण करने से पूर्व २) पापों की आलोचना करते वक्त. ३) अभ्युत्थान वन्दन करते वक्त ४) आचार्यादि की क्षमापना करते वक्त दो-दो वांदणा की विधि है ।