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सिद्धान्तमहोदधि सुविशालगच्छाधिपति पू.आचार्यदेव श्रीमद विजय प्रेमसरीधरजी महाराज
आप एक अप्रतिम युगपुरूष जन्मसिद्ध वैराग्यवान थे | आप मूल राजस्थान-पिंडवाडा निवासी श्रावक भगवानदासजी व कंकुबाई के सुपुत्र थे, जिनका जन्मत: शुभ नाम प्रेमचन्दभाई था |
भाप साधुदीक्षा-ग्रहण हेत व्यारा से लगभग ३६ मील पैदल चल कर रेलगाडी से पालीताणा आ पहंचे सकलागमरहस्यवेदी प्रौढगीतार्थ आचार्यदेव श्रीमद् विजय दानसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य मुनिश्री प्रेमविजयजी बने । चारित्रजीवन में नित्य एकाशन, गुरूजनों की सेवा, अप्रमत्त साधुचर्या व स्वाध्याय-ध्यान आत्मसात् किया । प्रकरणशास्त्रों व दर्शनशास्त्रों के साथ आगमशास्त्रों का गहरा चिं य व्यवसाय बन गया था । आश्चर्य यह था कि आप पंडितों के पास कम पढे फिर भी स्याद्वादरत्नाकर आदि महादर्शनशास्त्रों का अध्ययन स्वयं किया व पूर्वधर महर्षि विरचित गंभीर व जटिल शास्त्र कम्मपयडी व पंचसंग्रह महाशास्त्र का स्वकीय प्रज्ञा से सूक्ष्म अध्ययन कर स्वयंने सक्रमकरण, मार्गणाद्वार आदि शास्त्रों की रचना की । एवं शिष्यों को पढा कर उनके पास १५-१५, १८-१८ हजार श्लोक प्रमाण 'खवगसेढी' 'ठिइबन्धो' 'रसबंधो' 'पएसबंधो' आदि महाशास्त्रों की रचना करवाई।
पू. आचार्यदेवश्री का संयम-जीवन काफी प्रशंसनीय था | आपमें कडा ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, मात्र अन्तर्मुखता, मौनपूर्वक नीची दृष्टि से चलना इत्यादि कई विशिष्ट साधनाएं थी । अंतिम समय पर शारीरिक गाढ अस्वस्थता देख साधु शीतलता हेतु पंखा झुलाने लगे तो खट् से वे बोल उठे, 'भाई ! वायुकाय जीवों की हिंसा होती है, पंखा बन्द करो ।' विहार में कहीं भी दोषित भीक्षा न लेनी पडे इस वास्ते १५-१७ मील तक का विहार करते थे।
शासनप्रभावक आचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरिजी महाराज, आचार्यश्री विजयजंबूसूरिजी महाराज आदि विशाल संख्यामें आपका शिष्य प्रशिष्यों का परिवार है । व्यर्थ विकल्पों आदि से बचाने हेतु पू. आचार्यदेवश्री उन्हें शास्त्रव्यवसाय में ही मग्न रखते थे।
आपने पैदल संघयात्रा, उपधान, उद्यापन, अंजनशलाका महोत्सव, प्रतिष्ठा, पौषधशाला-ज्ञानमन्दिर उदघाटन आदि कई शासन-प्रभावक कार्य करवाये | बम्बई द्विभाषी राज्य में विधानसभा में उपस्थित प्रतिबन्धक बिल के विरोध में आंदोलन जगाया, फलतः बिल पास न हो सका । इस पर मुख्यमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने 'क्या शैतान निर्माण के विरूद्ध कोई कानून नहीं ? और संत निर्माण पर रोक ?...' इत्यादि ऐतिहासिक भाषण कर विशिष्ट बहमति से बिल को उडाया ।।
पू. आचार्यदेवश्री को कई वर्षों तक छाती में वायु की व्याधि रही व अन्तिम ४-५ साल प्रोस्टेट ग्रन्थि के शोथ की व्याधि रही, किन्तु आपकी सहिष्णुता व समाधि अद्भुत थी । खंभात में सं. २०२४ वै.कृ.११ रात को व्याधि बढ गई, हार्ट पर चोट आई। करीब ८० मुनियों का परिवार साथ में था, नमस्कार मंत्रोच्चारण की धुन चली । पूज्यश्री खूब समाधि में थे । रातको १०-१० बजने पर 'वीर ! वीर ! खमा छु' कह कर स्वर्ग में चले गए । सारे भारत के संघोमें पूज्यश्री के वियोग पर वज्राघात सा दुःख हुआ | पूज्यश्री के सद्गुणसुकृत-साधना व शासनप्रभावना की अनुमोदना में भारतभर में जिनेन्द्र-भक्तिमहोत्सवों व वियोग शोकसभाएँ हुई।
पूज्यश्री की कृपासे जैन व इतर दर्शनों के शास्त्रो में जो गति प्राप्त हुई इसके आधार पर प्रतिक्रमण सूत्रों को चित्रों मे साकार किया गया है ।
शिष्याणु पंन्यास भानुविजय (प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.)