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'जय वीयराय (प्रणिधान) सुत्र जय वीयराय जगगुरु !
(अर्थ:-) [१-२] हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! (मेरी होउ ममं तुह पभावओ भयवं !
आत्मामें) आप की जय हो । हे भगवन् ! आपके (अचिंत्य) १भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ
प्रभाव से मुझे (१) संसार के प्रति वैराग्य इठ्ठ-फलसिद्धी ॥
हो, (२) तत्त्वानुसारिता हो, (धर्माराधना स्वस्थता से चले "लोगविरुद्धच्चाओ,
ऐसी) (३) इष्ट फल की सिद्धि हो (४) लोकसंक्लेश"गुरुजणपूआ परत्थकरणं च
कारी प्रवृत्ति का त्याग हो, (५) मातापितादि) पूज्यजनों "सुहगुरुजोगो
की सादर सेवा हो, (६) परहितकरण (परोपकार) हो । 'तब्बयणसेवणा आभवमखंडा ।।
(७) सच्चारित्र संपन्न गुरु की प्राप्ति हो । (८) उनकी वारिज्जइ जइवि नियाण-बंधणं
आज्ञा का पालन हो । ये ८ संसार पर्यन्त हो । वीयराय ! तुह समये ।
[३] हे वीतराग ! यद्यपि आपके आगम में नियाणा (आशंतह वि मम हुज्ज सेवा,
सा) करने का निषेध किया है, तथापि (यह मेरी इच्छा भवे भवे तुम्ह चलणाणं ।।
है कि) (९) जन्म-जन्म मुझे आपके चरणों की सेवा हो । १ दुक्खक्खओ ११कम्मक्खओ,
[४] हे नाथ ! आप को प्रणाम करने से मुझे १२समाहिमरणं च १३बोहिलाभो अ।
(१०) दुःखक्षय, (११) कर्मक्षय, (१२) समाधिमरण संपज्जउ मह एयं, तुह नाह ! पणामकरणेणं । व (१३) बोधिलाभ प्राप्त हो। सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणं । [५] सर्व मङ्गलों की मङ्गलतारुप, समस्त कल्याणों का प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ।। कारण (व) सर्व धर्मो में श्रेष्ठ जैनशासन जयवन्त है।
(समझः-) यह सूत्र पढ़ते समय प्रभु सामने दिखें, व ये १३ वस्तु हमें खास चाहिए ऐसी उत्कट अभिलाषा हो । चित्र में दिखाये अनुसार (१) 'भवनिव्वेओ' में नरामरसुख व जन्मादि विटंबणा दिखें, उनके प्रति ग्लानि इष्ट है। (२) 'मग्गाणुसारिआ'=तत्वानुसारिता में तत्त्वहीन बातों में रस नहीं, एवं कलह-निर्दयता-अनीति-इर्ष्यादि छोड़ मैत्रीदया-दान-नीति-शुभेच्छा आदि मार्ग का ग्रहण दिखे। (३) 'इट्ठफल' में चित्तसमाधि-प्रेरक आजीविकादि द्वारा सुलभ शान्तिभरे देवदर्शनादि दिखे । (४) 'लोगविरुद्ध०' में निन्दा-जूआ-खरकर्म-मस्करी आदि दिखें, उनका त्याग इष्ट है । (५) 'गुरुजण' में माता-पितादि व विद्यागुरु-धर्मगुरु के आदर सहित विनय-सेवा-आज्ञापालन दिखे । (६) 'परत्थ०' में दान-धर्मशालानिर्माण-हितोपदेश-परदुःखनिवारणादि परोपकार दिखे । (७) 'सुहगुरु०' में कंचन-कामिनी के त्यागी पंचमहाव्रतधारी मुनि गुरु का योग, व (८) तब्बयणं में उनके उपदेश के अनुसार जिनभक्ति-सामायिक-दया-दानादि की साधना दिखे । 'वारिज्जइ०' गाथा में (९) राजा-देव-धनिक आदि बनने की आशंसा का शास्त्रनिषेध दिखे व उत्तरोत्तर भवो में प्रभुचरण-सेवा दिखे एवं उसकी कामना की जाए । 'दुक्खक्खओ०' गाथा में (१०) ईर्ष्या-दीनता-गर्व-चिंता-काम-शोक-धनमानादितृष्णा-प्रमुख दुःख दिखे, इनका क्षय व (११) गजसुकुमाल-खंधक मुनि की भाँति सम्यक् परीसह-उपसर्गसहन द्वारा कर्मक्षय देख वह मांगा जाए । (१२) जीवन के अन्तकाल में परमेष्ठि ध्यान-सर्वमैत्री आदि युक्त अत्यन्त चित्तसमाधि के साथ मृत्यु दिखाई पड़े, और (१३) परलोक में बोधिलाभ यानी दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरुप जैनधर्म की प्राप्ति व साधना दिखे, ये माँगी जाए । चित्र में १३ अभिलषित के प्रतीकरुप प्रसङ्ग दिये गए हैं, सूत्रपदोच्चारण के साथ वैसे प्रसंग सामने दिखे इनमें से अप्रशस्त की अनिच्छा व प्रशस्त की इच्छा होने की प्रार्थना करे । 'सर्वमङ्गल०' गाथा में अन्य मङ्गलों को माङ्गल्य देनेवाला, समस्त कल्याणों का कारण, व सर्वधर्मश्रेष्ठ जैनशासन देख देख 'अहो ! क्या जैन धर्म !' इत्यादि रुप आहलाद-अनुमोदना होवे, एवं वह पाने की धन्यता का अनुभव होवे, व शासन की जयवंतता की घोषणा की जाए ।
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