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मेअज्ज थूलभद्दो, वयररिसी नंदिसेण सीहगिरी ।
कयवन्नो अ सुकोसल, पुंडरिओ केसि करकंडू ||२||
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९. मेतार्यमुनि: चांडाल के वहाँ जन्म हुआ परंतु श्रीमंत सेठ के घर लालन-पालन हुआ । पूर्वजन्म के मित्र देव की सहायता से अद्भुत कार्य सिद्ध करके राजा श्रेणिक के जामाता बनें देव के प्रयत्न से प्रतिबोधित बनें व ३६ वर्ष की उम्र में चारित्र ग्रहण किया । श्रेणिक राजा के स्वस्तिक के लिए सोने के जव बनाने वाले सुनार के घर गोचरी गये । सुनार भिक्षा देने के लिए खडा हुआ इतने में क्रौञ्च पक्षी आकर वे जव चुग गया । जव न देखकर मुनि के प्रति सुनार शङ्कित बना । पूछने पर भी पक्षी की दया से महात्मा मौन रहें । तब मस्तक पर गीले चमडे की पट्टी खूब कसकर बांधी तथा धूप में खड़े रखा। इस असह्य वेदना से दोनों नेत्र बहार निकल पड़ें और समभाव से सहन करके अंतकृत् केवली बनकर मोक्ष में गये ।
१०. स्थूलभद्र : नंदराजा के मंत्री शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र । यौवनावस्था में कोशा नामकी गणिका के मोहमें फंस गये थे। पिता की मृत्यु से वैरागी बने व आर्य संभूतिविजय के पास दीक्षा ली। आचार्य भद्रबाहु स्वामी के पास अर्थ से दश पूर्व व सूत्र से १४ पूर्व का अध्ययन किया। एक समय कोशा वेश्या के यहाँ गुरु की आज्ञासे चातुर्मास किया। काम के घरमें जाकर काम को पराजित किया । कोशा को धर्ममें स्थिर किया। गुरूमुख से इनके कार्य को "दुष्करदुष्करकारक' बिरूद मिला । ८४ चोबीसी तक नाम अमर किया और कालधर्म होकर प्रथम देवलोक में गये । ११. वज्रस्वामी तुंबवन गाँव के धनगिरि व सुनंदा के पुत्र पिताने जन्मपूर्व ही दीक्षा ली यह ज्ञात होते ही सतत रूदन करके माता का मोह तुडवाया व माता ने धनगिरि मुनि को वहोराया । साध्वीजी के उपाश्रयमें पालने में झूलते-झूलते ११ अंग कंठस्थ किये । माताने बालक वापस लेने हेतु राजसभा में आवेदन किया। संघ समक्ष गुरू के हाथों से रजोहरण लेकर नाचकर दीक्षा ली। राजाने बालक के इच्छानुसार न्याय दिया । संयम से प्रसन्न बने हुए मित्र देवों द्वारा आकाशगामिनी विद्या व वैक्रिय लब्धि प्राप्त की। भयंकर अकाल के समय में सकलसंघ को आकाशगामी पट द्वारा सुकाल क्षेत्रमें लाकर रख दिया। बौद्ध राजा को प्रतिबोधित करने हेतु अन्यक्षेत्रों से पुष्प लाकर शासन प्रभावना की व चरम दश पूर्वधर बनकर अंतमें कालधर्म प्राप्त किया व इन्द्रों ने उनका महोत्सव मनाया ।
१२. नंदिषेण : नंदिषेण नामक दो महात्मा हुए। एक अद्भुत वैयावच्ची नंदिषेण जिन्होंने देवता की परीक्षा अपूर्व समताभाव से उत्तीर्ण की । और दूसरे राजा श्रेणिक के पुत्र जिन्होंने प्रभु महावीर के वचन से प्रतिबोध प्राप्त करके अद्भुत सत्व दिखाकर चारित्र अङ्गीकार किया तथा कर्मवश उत्पन्न होने वाली भोगेच्छाओं का दमन करने हेतु उग्र विहार, विशुद्ध संयम व तपश्चर्या के योगों का सेवन किया जिसके कारण उनको अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई । एक बार गोचरी के प्रसंग से एक वेश्या के वहाँ चले गये जहाँ उन्हें "धर्मलाभ का प्रतिभाव अर्थलाभ की यहाँ जरूरत हैं" इस वाक्य से मिला अभिमान के परवश बनकर मुनिने एक तिनका खींचा जिससे १२|| करोड़ सुवर्ण की वृष्टि हुई । वेश्या के आग्रह से संसारमें रूके परंतु देशनालब्धि के प्रभावसे प्रतिदिन दस आत्माओं को प्रतिबोधते थें । बारह वर्षके बाद एक सुनार ऐसा आया जो प्रतिबोध पाया ही नहीं । अंतमें वेश्या ने "दसवें तुम ही " ऐसी मजाक की, तब मोहनिद्रा तूटी, पुनः दीक्षा ली व आत्मकल्याण किया ।
१३. सिंहगिरि : प्रभु महावीर के बारहवें पट्ट पर बिराजित प्रभावशाली आचार्य थे । अनेकविध शासनसेवा के कार्य किये । वे वज्रस्वामी के गुरू भी थे।
१४. कृतपुण्यक ( कयवन्ना सेठ) : पूर्वभवमें मुनिको तीन बार खंडित दान देने से धनेश्वर शेठ के यहाँ अवतरित हु कृतपुण्यक को वर्तमान भवमें वेश्या के साथ, अपुत्रीक ऐसी श्रेष्ठी की चार पुत्रवधुओं के साथ तथा श्रेणिक राजा की पुत्री मनोरमा के साथ इस प्रकार तीन बार खंडित भोगसुख प्राप्त हुए । राजा श्रेणिक का आधा राज्य प्राप्त हुआ। संसार के विविध भोग भोगने के पश्चात् प्रभु महावीर के पास पूर्वभव का वृत्तांत सुनकर दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग में गये ।
१५. सुकौशल मुनि : अयोध्या के कीर्तिधर राजा व सहदेवी रानी के पुत्र । पिता मुनि के पास सुकोशल ने भी चारित्र ग्रहण किया । पति-पुत्र के वियोग से आर्तध्यानमें मृत्यु पाकर सहदेवी कोई जंगलमें बाघिन बनी । एकबार उसी जंगलमें दोनों राजर्षि कायोत्सर्ग ध्यानमें खड़े थें। उस बाघिन ने आकर सुकोशल मुनि पर आक्रमण किया व उनके शरीर को चीर डाला। उपसर्ग को अपूर्व समता के साथ सहते-सहते अंतकृत् केवली बनकर सुकोशलमुनि मोक्ष में पधारें।
१६. पुंडरिक पिता के साथ संयम ग्रहण करने की तीव्र इच्छा थी परंतु छोटे भाई कंडरिक की भी चारित्र की तीव्र तमन्ना देखकर उसे दीक्षा की अनुमति दी व स्वयं वैराग्यपूर्वक राज्यपालन करते थे । हजार साल के संयमपालन बाद कंडरिक मुनि रोगग्रस्त बने । राजा पुंडरिक ने भाई मुनिको उपचार व अनुपानादि से स्वस्थ किया व विहार करवाया । परंतु राजवी भोगों की लालसा से चारित्रभ्रष्ट बनकर कंडरिक घर आते ही राजा पुंडरिकने राजगादी उन्हें सोंपकर स्वयं संयम ग्रहण किया। गुरूभगवंत न मिले तब तक चारों आहार का त्यागकर विहार किया । उत्तम भावचारित्र का पालन कर मात्र तीन ही दिनमें सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवत्व को प्राप्त हुए ।
१७. केशी गणधर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की परम्परा के आचार्य थे। प्रदेशी जैसे महा नास्तिक राजा को प्रतिबोधित किया था । श्री गौतमस्वामी के साथ धर्मचर्चा करके पाँच महाव्रतवाले प्रभु वीर के शासनको स्वीकृत कर सिद्धिपद को प्राप्त हुए । १८. राजर्षि करकंडू : चंपानगरी के राजा दधिवाहन व रानी पद्मावती के पुत्र । उन्मत्त हाथीने गर्भवती रानी को जंगलमें छोड़ दी। उसने साध्वियों के पास दीक्षा ली। कुछ समय बाद पुत्र का प्रसव हुआ, जिसे स्मशान में छोड़ दिया गया । चांडाल के घर वह बडा हुआ। शरीरमें खुजली अधिक चलने के कारण अन्य बालकों के हाथ से खुजलाने के कारण नाम करकंडू पडा । पुण्यप्रभाव से कञ्चनपुर व चंपा के राजा बने । अतिप्रिय रूपवान व बलवान बैल को जराजर्जरित देखकर वैराग्य हुआ। प्रत्येकबुद्ध बनकर दीक्षा ली व मोक्ष में
पधारें ।
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Bain B
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