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नमोऽस्तु वमानाय सुत्र (१) नमोऽस्तु "वर्धमानाय (अर्थः-) (१) 'जो कर्म-गण से स्पर्धा (मुकाबला) करते हैं, 'स्पर्धमानाय कर्मणा ।
२(अन्त में) जिन्होंने कर्मगण पर विजय पाने द्वारा मोक्ष प्राप्त 'तज्जयावाप्तमोक्षाय
किया है, व जो मिथ्यादर्शनियों को परोक्ष है (प्रत्यक्ष नहीं, परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ।।
बुद्धिगम्य नहीं), उन श्री वर्धमान स्वामी (महावीरदेव) को मेरा (२) येषां विकचारविन्दराज्या, नमस्कार हो। 'ज्यायःक्रमकमलावलिं दधत्या ।। (२) जिनके 'उत्तम चरणकमल की श्रेणि को धारण करनेवाली सदृशैरिति संगतं प्रशस्यं, विकस्वर कमलपंक्ति ने (मानों) कहा कि समानों के साथ कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः । संगति प्रशस्य है वे जिनेन्द्र भगवान निरुपद्रवता (कल्याण-मोक्ष) (३) कषायतापार्दित-जन्तु-निवृति के लिए हों। करोति यो जैनमुखाम्बुदोदगतः । (३) कषायों के ताप से पीड़ित प्राणियों को जिनेश्वर भगवान के स शुक्रमासोद्भव-वृष्टि-संनिभो मुखरुपी बादल से प्रकटित, ज्येष्ठ मास में हुई वृष्टि के समान जो दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् || वाणी का विस्तार (समूह) शान्ति करता है, वह मुझ पर अनुग्रह करे ।
(समझः) यहां चित्र के अनुसार १ली गाथा में अष्ट प्रातिहार्य सहित महावीर स्वामी को देखते हए सिर नमाकर 'नमोऽस्तु वर्द्ध०' बोलना है । 'स्पर्धमानाय कर्मणा' बोलते समय भगवान को सिर पर कालचक्र के आघात जैसी भयंकर कर्मपीड़ा भी शांति से सहते हुए व कर्मों के साथ विजयी युद्ध करने के रुप में देखना है । उसमें विजय पाकर मोक्ष प्राप्त कर सिद्धशिला पर जा बैठे यह 'तज्जयावाप्तमोक्षाय' बोलते समय दृष्टिसन्मुख आवे । 'परोक्षाय०...' के उच्चारण पर मिथ्यादर्शनियों का मुँह फिर जाता है वे तेजस्वी प्रभु को देख नहीं पाते ऐसा दिखाई पड़े ।
(२) 'येषां विकचार०' गाथा बोलते समय दृष्टि सन्मुख अनंत तीर्थंकर भगवान आवे, उनके चरण-कमल में कमलों की पंक्ति है, उनकी अपेक्षा चरणकमल अधिक सुन्दर है फिर भी दोनों ही कमल होने से सदृश है, समान है। इसलिए मानों कमलपुष्पों की पंक्ति बोल रही है कि 'हमारा समान से योग हुआ है यह अच्छा हुआ है । ऐसे अनंत प्रभु कल्याण के लिए हों।
(३) 'कषायतापा०' गाथा में दृष्टि सन्मुख देशना दे रहे भगवान आवे । उनके मुंह-मेघ से वाणी स्वरुप बारिस गिर रहा है जिससे श्रोताओं के कषायस्वरुप ताप शान्त हो जाता है । ऐसी वाणी का विस्तार हमें अनुग्रह करें ।
चउक्कसायसूत्र
(१) चउक्कसाय पडिमल्लुल्लूरणु, दुज्जयमयण-बाण- मुसुमूरणु । सरस-पियंगु-वण्णु गय-गामिउ, जयउ पासु भुवणत्तय-सामिउ ।
(अर्थः) (१) चार कषाय योद्धाओं का नाश करनेवाले, दुर्जय कामदेव के बाण तोड़नेवाले, सरस प्रियंगुलता समान वर्णवाले, गजगतिवाले, तीनों भुवन के स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान जयवंत हो । (२) जिनका कायिक तेजोमण्डल देदीप्यमान है, जो नागमणि की किरणों से व्याप्त (होने से) मानो बिजली की रेखा से अंकित नवीन मेघ-सा । शोभते हैं, वह पार्श्वनाथ जिन वांछित प्रदान करें।
(२) जसु तणुकंति-कडप्पसिणिद्धउ, सोहइ फणि-मणि-किरणा-लिद्धउ ।। नं नवजलहर तडिल्लयलंछिउ, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ।।
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