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सिद्धाणं सुत्र (भाग-१) चत्तारि-अट्ठ० चत्तारि-अठ्ठ-दस-दोय,
(अर्थ-) (अष्टापद पर) ४-८-१०-२, (इस क्रम से) वंदिया जिणवरा चउवीसं ।
वंदन किए गए चौबीस जिनेश्वर भगवंत, परम-निट्टिअट्ठा,
परमार्थ से (वास्तव में) इष्ट पूर्ण हो गए हैं जिनके, सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु |
(कृतकृत्य) ऐसे सिद्ध हुए भगवंत मुझे मोक्ष दें । (समझः) चित्र के अनुसार यहां अष्टापद पर्वत पर चतुर्मुख मंदिर में चारों दिशा में प्रत्येक में बिराजमान अपने अपने शरीर की ऊँचाई के मानवाले क्रमशः ४-८-१० व २ भगवान दिखाई पड़े। उन्हें हमें वन्दन करना है । इसके बाद में हमें उपर देख सिद्धिशिला पर वे २४ एवं अन्य सिद्ध भगवान को हाथ जोड़ प्रार्थना करनी है कि हमें वे मोक्ष दें । उन सिद्ध भगवन्तो का समस्त इष्ट अब वास्तव में पूर्ण हो गया है अब कुछ भी अभीष्ट शेष नहीं है तृप्त हो बैठे हैं ऐसा देखना है | नमन समय प्रत्येक प्रभु के चरण में अलग-अलग हमारा सिर झुकता है ऐसा कल्पना में लाया जाय । अनंत सिद्धों के अनंत चरण में हमारे अनंत मस्तक झूक रहे दिखाइ पड़ें।
वेयावच्चगराणं सूत्र वेयावच्चगराणं
(अर्थ:-) वैयावृत्य करने वालों के निमित्त, (उपद्रवों की) संतिगराणं सम्मदिट्ठिसमाहिगराणं
शान्ति करने वालों के निमित्त, सम्यग्दृष्टियों को समाधि करेमि काउस्सग्गं (अन्नत्थ०)
करने वालों के निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। (इस कायोत्सर्ग का तात्पर्य यह है कि इससे कायोत्सर्ग करनेवाले को एक ऐसा शुभ (पुण्य) उत्पन्न होता है जिससे उन देवताओं को वैयावृत्त्य-शांति-समाधि करने की प्रेरणा मिलती है । इस लिए यह सूत्र पढ़ते समय वैयावृत्यादि-कारक देवों को वैयावृत्यादि करने का भाव हो ऐसा उद्देश रख कर सूत्रोच्चारण व कायोत्सर्ग किया जाए । ललितविस्तरा में कहा है कि ऐसा पुण्य उत्पन्न होने में यही सूत्र प्रमाण है ।
लघुशान्तिस्तव सूत्र शांति शांति-निशांतं, शांतं शांताशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शांतिनिमित्तं, मंत्रपदैः शांतये स्तोमि ।।१।। ओमिति निश्चितवचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजा । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ।।२।। सकलातिशेषक-महा-संपत्तिसमन्विताय शस्याय । त्रैलोक्य-पूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ।।३।। सर्वामरसुसमूह-स्वामिक संपूजिताय न जिताय । भुवनजनपालनोद्यत-तमाय सततं नमस्तस्मै ।।४।। सर्व-दुरितौघनाशन-कराय सर्वाशिवप्रशमनाय । दुष्ट-ग्रह-भूत-पिशाच-शाकिनीनां प्रमथनाय ||५|| यस्येति नाममंत्र-प्रधान वाक्योपयोग-कृततोषा । विजया कुरुते जनहित-मिति च नुता नमत तं शान्तिम् ।।६।। भवतु नमस्ते भगवति, विजये सुजये परा परैरजिते । अपराजिते जगत्यां, जयतीति जयावहे भवति ।।७।। सर्वस्यापि च संघस्य, भद्र-कल्याण-मंगल-प्रददे । साधूनां च सदाशिव-सुतुष्टि-पुष्टिप्रदे जीयाः ।।८।। भव्यानां कृतसिद्धे, निवृत्ति-निर्वाण-जननि ! सत्त्वानाम् । अभयप्रदाननिरते, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे तुभ्यम् ।।९।। भक्तानां जंतूनां शुभावहे नित्यमुद्यते देवि । सम्यगदृष्टिनाम् धृति-रति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ||१०|| जिन-शासन-निरतानां शान्तिनतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसंपत्कीर्तियशो-वर्द्धनि | जय देवि ! विजयस्व ||११|| सलिलानलविषविषधर-दुष्ट-ग्रह-राज-रोग-रणभयतः । राक्षसरिपुगणमारी-चौरेतिश्चापदादिभ्यः ।।१२।। अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वं ।।१३।। भगवति ! गुणवति ! शिवशान्ति-तुष्टि पुष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं हूं ह्रः यःक्षः ह्रीं फट् फट् स्वाहा ।।१४।। एवं यन्नामाक्षर-पुरस्सरं संस्तुता जयादेवी । कुरुते शान्ति नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ।।१५।। इति पूर्वसूरिदर्शित-मंत्रपद-विदर्भितः स्तवः शान्तेः । सलिलादिभयविनाशी, शान्त्यादिकरच भक्तिमतां ||१६|| यक्षेनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम्, स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्री मानदेवश्च ।।१७।। उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिचंते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ।।१८।। सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याणकारणं, प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ।।१९।।
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