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________________ सम्मदिट्ठी जीवो, सम्यग्दृष्टि जीव (आत्मा) यद्यपि किंचित् पापमय प्रवृत्ति को जीवन जइ वि हु पावं समायरइ किंचि। निर्वाह के लिए करता है, फिर भी उसे कर्मबन्ध अल्प होता है अप्पो सि होइ बंधो, क्योंकि वह उसे निर्दयतापूर्वक नहीं करता ||३६।। जेणं न निद्धंधसं कुणइ ||३६।। तं पि हु सपडिक्कमणं, जैसे सुशिक्षित वैद्य व्याधि का शीघ्र शमन कर देता है वैसे ही सप्परिआवं सउत्तरगुण च । सम्यग्दृष्टि श्रावक उस अल्प कर्मबंध का भी प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप खिप्पं उवसामेइ, व प्रायश्चित्त-पच्चक्खाण आदि उत्तरगुण द्वारा शीघ्र नाश कर देता वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो ||३७|| है ||३७|| जहा वीसं कुट्ठगयं, जैसे पेट में गये हुए झहर को मंत्र और जडीबूटी के निष्णात वैद्य मंत-मूल-विसारया । मंत्रों से (झहर को) उतारते हैं व उससे वह विषरहित होता है वैसे विज्जा हणंति मंतेहिं, ही प्रतिक्रमण करनेवाला सुश्रावक अपने पापों की आलोचना व तो तं हवइ निविसं ||३८|| निंदा करता हुआ राग और द्वेष से उपार्जित आठ प्रकार के कर्म एवं अट्ठविहं कम्म, को शीघ्र नष्ट करता है ||३८||३९।। राग-दोस-समज्जिअं । आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ||३९|| कयपावो वि मणुस्सो, जैसे मजदूर भार उतारते ही बहुत हल्का हो जाता है, वैसे पाप आलोइअ निंदिअ गुरूसगासे । करने वाला मनुष्य भी अपने पापों की गुरू समक्ष आलोचना व होइ अइरेग-लहुओ, निंदा करने से एकदम हल्का हो जाता है ।।४०।। ओहरिअ-भरूव्व भारवहो ||४०|| आवस्सएण एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होइ । यद्यपि श्रावकने (सावध आरम्भादि कार्य द्वारा) बहुत कर्म बांधे हुए दुक्खाण मंतकिरिअं, होते हैं तथापि इस छ आवश्यक द्वारा अल्प समय में दुःखों का काही अचिरेण कालेण ॥४१।। अंत करता है ||४१|| आलोअणा बहुविहा, (पाँच अणुव्रतरूप) मूलगुण व (तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत रूप) न य संभरिआ पडिक्कमणकाले । उत्तरगुण संबंधी बहुत प्रकार की आलोचना होती है वे सब प्रतिक्रमण मूलगुण उत्तरगुणे, के समय याद नहीं आई हो उनकी यहाँ मैं निंदा करता हूँ, मैं गर्दा तं निंदे तं च गरिहामि ||४२|| करता हूँ ||४२|| तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुढिओमि आराहणाए, मैं केवली भगवंतो द्वारा प्ररूपित (गुरूसाक्षी से स्वीकृत) श्रावक विरओ मि विराहणाए । धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हुआ हुँ और विराधना से तिविहेण पडिक्कतो, विरत हुआ हूँ । अतः मन वचन और काया द्वारा संपूर्ण दोषों से / वंदामि जिणे चउव्वीसं ||४३|| पापों से निवृत्त होता हुआ चोबीसो जिनेवरों को मैं वंदन करता हूँ ।।४३।। चित्र (समझ-) गाथा ३७ : बैद दर्दी को दवाई देकर स्वस्थ करता है वैसे गुरूसाक्षी प्रायश्चित्त लेकर श्रावक का भावरोग दूर होता है। गाथा ३८-३९ : मांत्रिक पुरूष मंत्रक्रिया द्वारा पेटमें रहे हुए झहर को वमन द्वारा बाहर निकालता है, वैसे ही आलोचना व आत्मा निंदा द्वारा श्रावक आत्मामें प्रवेश किये हुए कर्म को बाहर निकालता हुआ देखना । आदखना | [ ८३ | Binelibras org
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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