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समणेण सावएण य, अवस्सकायव्वयं इवइ जम्हा।
अन्ते अहोणिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम । दिन व रात्रि के अन्त में साधु व श्रावक के द्वारा अवश्य करने योग्य है,
अतः वह (प्रतिक्रमण) आवश्यक कहलाता है। आवस्सएण एएण सावओ जइ वि बहुरओ होइ।
दुकवाणमंतकिरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥ यद्यपि श्रावक बहुत कर्म-रज वाला होता है, फिर भी इस आवश्यक से कर्मरज को हटाकर अल्प समय में ही दुःखों का अन्त करता है ।
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुयह ।
इक्केण विणा तित्थं छिज्जइ, अमेण उ तच्च ॥
यदि आप जैन-सिद्धान्त को स्वीकारते हो, तो व्यवहार व निश्चय... दोनों में से एक को भी मत छोड़ो । क्योंकि एक (व्यवहार) के बिना शासन का
उच्छेद होता है और दूसरे (निश्चय) के बिना तत्त्व का उच्छेद होता है |
न च प्राणायामादिहठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे
परमेन्द्रियजये च निश्चित उपायोऽपि, 'उसासं न निसंभई' (आव०नि० गाथा १७१०) इत्याद्यागमेन योगसमाधान-विघ्नत्वेन
बहुलं तस्य निषिद्धत्वात । चित्तनिरोध और श्रेष्ठ इन्द्रियजय के लिये प्राणायाम-श्वासनिरोध
आदि हठयोग कारणभूत होने का नियम नहीं है, क्योंकि 'उसास न निरंभइ' इत्यादि आगम-वचन से (कायोत्सर्ग में सांस को नहीं
रोकना चाहिये, ऐसा कहकर) श्वास-निरोध का निषेध किया गया है । यह इसी लिये कि श्वासनिरोध
योगसमाधि के लिये विघ्नभूत है।
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