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(पुक्खरवर-दीवड्ढे सुत्र (श्रुतस्तव) पुक्खरवर-दीवड्ढे,
(अर्थ-) (१) पुष्करवर द्वीप के अर्ध भाग में, धातकी खण्ड में, धायइसंडे अ जंबूदीवे य ।
व जम्बूद्वीप में (स्थित) भरत-ऐरवत-महाविदेह (क्षेत्र) में धर्म भरहेरवय-विदेहे,
प्रारंभ करनेवाले (तीर्थंकरदेवों) को मैं नमस्कार करता हूं। धम्माइगरे नमसामि ||१||
(२) अज्ञानांधकार के समूह को नष्ट करनेवाले, देव (४ निकाय) तमतिमिरपडल-विद्धंसणस्स,
समूह व राजाओं से पूजित, मोहजाल को अत्यन्त तोड़नेवाले सुरगणनरिंद-महियस्स ।
श्रुत को मैं वंदन करता हूं। सीमाधरस्स वंदे,
(३) जन्म-जरावस्था-मृत्यु व शोक का अत्यंत नाशक, कल्या
णभूत ('कल्य' यानी भावारोग्य के निमन्त्रक), संपूर्ण व विस्तृत पप्फोडियमोहजालस्स ||२||
सुख का प्रापक, देव, दानव व राजाओं के समूह से पूजित जाइ-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स,
(ऐसे) श्रुतधर्म का सामर्थ्य जानकर कौन (सुज्ञ श्रुताराधनकल्लाण-पुक्खल-विसाल-सुहावहस्स |
श्रुतोक्ताचरण में) प्रमाद करे ? को देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स,
(४) हे (अतिशयज्ञानी ! देखिए कि इतना काल, मैं) प्रतिष्ठित धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ।।३।।
(व सर्वनय-व्यापिता एवं कष-छेद-ताप आदि त्रिकोटिपरिशुसिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए, द्धता से प्रख्यात) जिनमत में यथाशक्ति प्रयत्नशील हूँ | जिनमत णंदी सया संजमे,
को मेरी वंदना है । (जिससे मुख्यतया प्रतिपादित एवं) वैमादेवं नाग-सुवन्न-किन्नरगणस्सब्भूय- निक देव-नागकुमार-सुपर्णकुमार-किन्नर (आदि देवों के) समूह भावऽच्चिए ।
द्वारा सच्चे भाव से पूजित संयम में मुझे सदा समृद्धि-वृद्धि लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं हो । जिस जिनमत में लोक (आलोक-ज्ञान) प्रतिष्ठित (आश्रित) तेलुक्कमच्चासुरं,
है, एवं त्रैलोक्य-मनुष्य-असुरलोक स्वरुप यह जगत प्रतिष्ठित धम्मो वड्ढउ सासओ
(प्रतिपादित) है, (ऐसा) श्रुतधर्म (परप्रवादी पर) विजय द्वारा विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ||४||
हमेशा बढ़ता रहे, (वह भी 'धर्मोत्तर') चारित्र धर्म प्रधान हो
इस प्रकार वृद्धिमान रहे । (पुनः 'वड्ढउ' पद से सूचित है कि सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं ।
मोक्षार्थी प्रतिदिन ज्ञानवृद्धि करता रहे ।) यशो-माहात्म्यादि
युक्त श्रुत (प्रवचन) के वंदना निमित्त, पूजन निमित्त....मैं (वंदणवत्तियाए)
कायोत्सर्ग करता हूं। (चिन समझ-) गाथा-१ के लिए चित्र में दिये अनुसार अर्ध पुष्कर०, धातकी. जंबू के भरत. ऐर० महावि० में श्रुतधर्म (तत्त्वशास्त्र बोध) के प्रारम्भक अनन्त तीर्थंकर भगवान दृष्टि में आवे | वे भी गणधरों को त्रिपदी दे रहे दिखें। गाथा-२ के लिए गाथापाद के क्रम से चित्रानुसार आगम से अज्ञानांधकार-नाश, आगम का देव-राजा द्वारा पूजन, गणधर हृदयस्थ आगमज्ञान व आगम को वंदन और मिथ्यात्वादि मोहजाल का नाश नजर में आवे | गाथा-३ पढ़ते समय चित्रानुसार जन्मादि के प्रतीक देख जन्म-जरा-मृत्यु-शोक का श्रुतधर्म से नाश व दर्शन-ज्ञान-चारित्र रुपं कल्याण के प्रतीक मंदिरादि देख उस कल्याणवाही पुष्कल=विस्तृत सुख का श्रुत से निर्माण और वह श्रुतधर्म इतना सारभूत यानी समर्थ है यह देखकर निर्णय करे कि कोई सुज्ञ इस की आराधना में प्रमाद नहीं करे | गाथा-४ चित्र में दिखाये अनुसार 'सिद्ध जिनमत' यानी सभी तीर्थंकर देवों का एक ही श्रुतप्रकाश, वह प्रतिष्ठित और व्यापक दिखे, उसे 'नमो' नमस्कार करें, व संयम की समृद्धि की प्रार्थना की जाए | चित्र में संयम के ध्यान-कायोत्सर्ग-उपसर्ग सहनईर्यासमिति आदि कतिपय प्रतीक देख ऐसी संयम वृद्धि मांगनी है । इस संयम को 'देवं-नाग...'देवों से पूजित देखना । 'लोगो जत्थ.' यहाँ जिनमत में (१) 'लोक'=आलोक=५ ज्ञान आश्रित व (२) 'लोक'='जगत्' त्रैलोक्यरुप वर्णित देखना है । 'धम्मो०...वड्ढउ' से प्रार्थना-आशंसा की जाए कि ऐसे जिनमत के रटणरुप मेरा श्रुतधर्म हमेशा बढो व परवादि-विजय द्वारा चारित्र धर्म प्रधान हो इस लगाह बनो।
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