________________
प्रास्ताविक
मानव जीवन ही धर्म द्वारा जन्म-मृत्यु व कर्म की महाविटंबणाओं का अन्त लाने में समर्थ है। ऐसा जीवन पाने पर भी, बिना धर्म, इन विटंबणाओ की धारा अगर चालू रह जाए, पुष्ट हो बढ जाए, तब तारक मानवजीवन कितना भारी मारक बने ? महाविटंबणाओं का अन्त तभी हो सके कि जीवन धर्ममय हो ।
धर्म जिनाज्ञा-प्रतिबद्ध हैं, जिन यानी वीतराग सर्वज्ञ भगवंत के वचन के स्वीकार व पालनस्वरुप धर्म हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ ही समस्त अनंतकाल के सर्व द्रव्य-पर्यायों के यथार्थ द्रष्टा होने से संसार-मोक्ष के ठीक कारणों को देखते हैं, व ठीक मोक्षोपयोगी विधि-निषेध फरमाते हैं । उन वचनों का (१) अश्रद्धान, या (२) विपरीत प्रतिपादन एवं (३) वचन से निषिद्ध कार्यों का आचरण, या (४) वचन-विहित कर्तव्यों की उपेक्षा, ये चार अपराध जीव को अशुभ कर्मों से बांधते हैं, फलतः भव-भ्रमण कर्म व जन्म-मरणादि विटंबणाएँ खडी होती है ।
यहाँ इनसे बचने हेतु प्रतिक्रमण धर्म की महा उच्च उपयोगिता अवसर प्राप्त होती है । प्रतिक्रमण यह दर असल सामायिकादि छः आवश्यकों के अन्तर्गत एक आवश्यक है, और इसका अर्थ है पाप अपराधों से पीछे हटना, उनकी निंदा-गर्हा-पश्चात्ताप करना । यह करने के लिए पहले दिल में 'समभाव, देववंदन व गुरुवंदन आवश्यक हैं। व बाद में प्रतिक्रमण कर के प्रतिक्रमण का कार्य पापनाश सूक्ष्मता से भी हो जाए इस लिए "कायोत्सर्ग व पच्चक्खाण जरुरी है । इसलिए इन छहों आवश्यकों का नाम प्रतिक्रमण भी कहलाता है ।
इससे उन चारों प्रकार के अपराधों की शुद्धि होती हैं। प्रतिक्रमण सूत्रो में ऐसे ऐसे अपराधों के निर्देश के साथ उनकी निंदा-गर्हा-पश्चात्ताप वर्णित है । प्रतिक्रमण की फलश्रुति के बारे में और भी बात है,
'प्रतिक्रमण' अर्थात् आवश्यक क्रिया यह एक मोक्षसाधक महान योग है। जीव मिथ्यादर्शन, पाप-अविरति, कषाय व अशुभ प्रवृत्ति के कारण अनंत काल से इस जन्म मरणादि महा विटंबणा भरे व दुःख-यातना भरे संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इसलिए सहज है कि संसार प्रतिभ्रमण के इन कारणों के प्रतिपक्ष सम्यग्दर्शन, पाप-विरति, उपशम व शुभ प्रवृत्ति का अवलंबन करे तो संसार-कारण छूट जाने से संसार छूट जाय, व मोक्ष प्राप्त हो जाए ।
मोक्ष-साधक इन सम्यग्दर्शनादि की साधना 'प्रतिक्रमण' क्रिया में उत्तम कोटि की होती है। क्योंकि इस में जो सामायिकादि छः आवश्यकों की आराधना करनी होती है उस आराधना में सम्यग्दर्शनादि की साधना 'प्रतिक्रमण' क्रिया में उत्तम कोटि की होती है। क्योंकि इस में जो सामायिकादि छः आवश्यकों की आराधना करनी होती है उस आराधना में सम्यग्दर्शनादि की साधना इस प्रकार समाविष्ट है, -
(१) 'सामायिक' आवश्यक में सर्व सावद्य (सपाप) योगों के त्याग की यानी पापविरति की प्रतिज्ञा की जाती है, व समभाव यानी उपशम की संकल्पपूर्वक आराधना में समाविष्ट है। (२) 'चतुर्विंशति' आवश्यक में चौबीस व अन्य तीर्थंकर भगवंतों की स्तवना व प्रार्थना की जाती है, इससे देवतत्त्वादि के सम्यक् श्रद्धान स्वरुप सम्यग्दर्शन निर्मल होता है । (३) 'वंदन' आवश्यक में गुरु के प्रति विस्तार से सुखशातापृच्छा व गुर्वाशातना की क्षमायाचना स्वरुप वंदन करने से अहंत्वादि-कषायनाश व शुभ प्रवृत्ति होती है । (४) 'प्रतिक्रमण' आवश्यक में समस्त पापों-दोषों की निंदा-गर्हापश्चात्ताप करना होता है। इसमें (i) मिथ्यात्वादिजनित पूर्व पापों का नाश, (ii) पुनः मिथ्यात्वादि के प्रेरक अनुबंधों का व (iii) सम्यग्दर्शन-सर्वविरति के भाव उत्तेजित होते हैं । (५) 'कायोत्सर्ग' आवश्यक में नियत ध्यान के सिवा समस्त मन-वचन-काया के योग (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वह भी प्रतिज्ञापूर्वक, अतः इससे सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्र व कुछ अयोग अवस्था की आराधना होती है । (६) 'प्रत्याख्यान' आवश्यक में उपवास आदि तप का संकल्प किया जाता है । इससे तपधर्म व विरति की साधना होती है ।
नाश,
ऐसे एक ही प्रतिक्रमण में सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग की कई उच्च साधना होती है, इसलिये यह महान योगसाधना है । इसकी भाव से आराधना होवे इस लिए जिनागम में 'तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसाणज्झवसिए, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे' इस प्रकार छः बातें बहुत आवश्यक बताई गई है। इनमें अर्थात् प्रतिक्रमणार्थ जो जो क्रिया की जाती है उस प्रत्येक में (१-२) चित्त का सामान्य-विशेष उपयोग-प्रणिधान रहे, (३-४) सूत्र- क्रियानुसार लेश्या व ध्यान रहना चाहिए। (५) सूत्र के पदार्थ में चित्तोपयोग रहे, व (६) सूत्रोच्चारण व क्रिया में आवश्यक उपकरण मिलाने चाहिए ।