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इसके लिए मात्र मंदिर-उपाश्रय में ही चित्र नहीं किन्तु कथाचित्रों के आल्बम भी बहुत उपयोगी है।
यह चित्रावलि पुस्तक चैत्यवन्दनादि के सूत्रों के पदार्थों को हुबहु व्यक्त करता है । प्रत्येक चित्र को ध्यान में लाने से सूत्र का भाव मनके सामने दिखाई पड़ता है । उदाहरणार्थ 'नमो अरिहंताणं' पद बोलते या याद करते समय उसके भाव की आकृति रुप में सामने अनंतानंत अरिहंत भगवान समवसरण पर बैठे हुए व अष्ट प्रातिहार्य युक्त दिखाते है । एवं 'नमो सिद्धाणं के वक्त सामने शुद्ध-बुद्ध-निर्विकार अनंत सिद्ध भगवान दिखाई पड़े । वहां मन तन्मय व भावोल्लास भरा क्यों न बने ? मात्र क्रियाएँ नहीं किन्तु असद विचारों को रोकने के लिए व ध्यान करने के हेत भी ये चित्र अत्यन्त उपयुक्त हैं।
पूज्य आचार्यश्री विजयभुवनभानुसूरिजी महाराज ने अपनी क्रियाएँ ऐसी बनाने के लिए सोचते सोचते इन चित्रों की कल्पना की थी, व चित्रकार उद्धवराव, कैलास शर्मा एवं श्यामसुन्दर शर्मा के पास इनको आकार दिलाया था । पूर्व की आवृत्तिमें इन चित्रों के ४ कलर ब्लोक कलकत्तापुष्पा परफ्युमरीवाले श्री जयसुखभाई ने बहुत परिश्रम लेकर मुद्रित किये थे । उस पूर्वावृत्ति के संपादन में पू. पंन्यासजीश्री पद्मसेनविजयजी म. ने काफी परिश्रम किया था । वर्षों से पुस्तक अनुपलब्ध बन चूका था । पुस्तक की अतीव उपयुक्तता देखकर तथा लोगों की मांग के कारण पुनः मुद्रण का निश्चय किया गया । नूतन कोम्प्युटर टेकनोलोजी चित्रों के रुप को काफी निखार दे सकती है ऐसा जानकर चित्र-कल्पना तथा संयोजन वैसा ही रखकर, पूज्यश्री के विचार तथा भाव के अनुरुप ही सब चित्रों के रुप-रंग बदल दिये गये हैं। नूतन आवृत्तिमें चित्रकला संयोजन तथा संपादन में वैराग्यदेशनादक्ष परम पूज्य आचार्यदेव श्री विजयहेमचंद्रसूरिजी महाराज साहेब के शिष्य पूज्य मुनिराजश्री संयमबोधिविजयजी म. का बहुत योगदान रहा है । चित्रसंपादन में विद्वदग्रणी शासनप्रभावक पूज्य पंन्यासजी श्री अजितशेखरविजयजी महाराज का भी सहयोग मिला है। अन्य कइ महात्माओं का भी मार्गदर्शन मिला है । उन सबके प्रति कृतज्ञभाव व्यक्त करते हैं ।
पुनर्मुदित नूतन आवृत्ति भी अल्प समयमें ही अनुपलब्ध हो जाने से वंदित्तु सूत्र और भरहेसर सूत्र के भावानुवाद और चित्रसंयोजन सह नूतनतम आवृत्ति प्रकाशित हो रही है । दोनों सूत्रों के भावानुवाद और चित्रों की कल्पना-संकलन और संपादन प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजयजयघोषसूरीश्वरजी महाराज साहेब के अमूल्य मार्गदर्शन से प.पू. वैराग्यदेशनादक्ष आचार्यदेव श्रीमद् विजयहेमचंद्रसूरिजी महाराज साहेब के शिष्य पू. मुनिश्री संयमबोधिविजयजी महाराज ने किया है । हम उनके ऋणी है ।
राजुल आर्ट्सवाले कीर्तिभाई, राजुभाई और उनके सहयोगीयों ने कडी महेनत कर पुस्तक को अच्छी तरह निखारा है । उनके भी हम आभारी हैं | पुनर्मुद्रण में इस पुस्तक में क्षतियां रह गइ हो तो सुबुद्ध जन हमें ज्ञात करें ताकि उसे परिमार्जित की जाए। आशा है चतुर्विध संघ इस पुस्तक का सदुपयोग करे।
दिव्यदर्शन ट्रस्ट की ओर से
कुमारपाल वि. शाह
dan Edogal
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