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प्रकाशकोय
साधु एवं श्रावक के जीवन में नवकार-जाप-ध्यान स्मरण, २४ तीर्थंकर स्तुति, चैत्यवन्दन एवं प्रतिक्रमण क्रिया व कायोत्सर्गादि नित्य कर्तव्य हैं । इनके सूत्रों का स्मरण या उच्चारण अर्थ-चिंतन के साथ करने पर भी मन ऐसा गद्गद भावभीगा व स्थिर नहीं होता है । इसको स्थिर व भावभिंगा करने का एक प्रबल साधन चित्र है । सूत्रों के पद-गाथाओं के पदार्थचित्र मन के सामने आने पर मन इन्हें देखने में पूरा लग जाने से स्थिर होता है व हुबहु दृश्य सामने आने से भाव से भिंग जाता है |
आज के चित्रमय जगत में चित्रों पर से भाव पैदा करना बहुत प्रचलित है । सो शब्द जो काम नहीं करते हैं वह एक चित्र करता है । शाला की किताबों में बच्चे लोगों को चित्रों से भावान्वित किया जाता है | व्यापारी वर्ग लोगों को अपने माल के भाव से भावित करने हेतु सचित्र विज्ञापन करते है, और विज्ञापन के चित्र से जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता है । अहिंसा मद्यनिषेध आदि का प्रचार करना हो तो भी चित्रों के द्वारा लोगों को भावित किया जाता है, व इससे प्रचार अच्छा होता है । मात्र कथा सुनते हुए जो भाव नहीं आता वह उसका सिनेमा-चित्रपट देखते हुए तथाविध भाव उत्पन्न होते दिखाई पड़ता है । चित्रपट की कथानक मात्र सुनने से जो असर नहीं होता वह चित्रपट देखने के बाद भी गहरा व दीर्घकाल तक का असर अनुभव सिद्ध है | मतलब, चित्र अच्छा भावोत्पादक होता है
चैत्यवंदन-प्रतिक्रमणादि साधना में भी यही सिद्धान्त क्यों न काम करे ? वहां भी सूत्रार्थ का विस्तार शब्दों से कितना भी दिखाओ, किन्तु इसकी अपेक्षा 'सो शब्द व एक चित्र' के हिसाब से सूत्र के अर्थ का चित्र यदि सामने आ जाय तो वह भाव पैदा करने में अधिकतर व अद्भुत काम करेगा । आज जब भौतिक व वैषयिक चित्रों द्वारा प्रजा के भाव भौतिकता-मग्न व विषय-विलासी बनाये जाते हैं तब क्या यह आवश्यक नहीं कि प्रजा में आध्यात्मिक चित्रों द्वारा गहरे अध्यात्मिक भाव पैदा किये जाए? अगर ऐसा नहीं किया, तो भौतिकता व विषयविलास के पोषक चित्रों द्वारा प्रभावित किये गए व ठोस भौतिकता भरे लोगों के दिल में धार्मिक-आध्यात्मिक भाव का साम्राज्य होना मुश्किल है, एवं धार्मिक क्रिया व सूत्रअर्थ मात्र से दिलचस्पी व हृदयकंपी संवेदन हो सकना भी कठिन है।
इसीलिए आज के युग में मात्र सूत्रचित्र ही नहीं, किन्तु धर्मकथा चित्रों का निर्माण भी बहुत आवश्यक बन गया है । जिनमंदिर व उपाश्रय कितना भी भव्य हो, किन्तु बिना ऐसे चित्रों से अलंकित किए गए वे, आज के चित्र-चित्रपटों द्वारा केवल भौतिक भावभरे लोगों को, ऐसे आध्यात्मिक भावभरे कैसे कर सके ? और छोटा भी मंदिर, चित्रों से अलंकृत हो, तो दिल को गद्गद कर देता है व भावभरा बनाता है, यह दिखाई पडता है । देवद्रव्यादिका संग्रह करने के बजाय उस मंदिर को ऐसे सोनरी एम्बोस्ड व काचकाम युक्त भगवान के जीवन के चित्रों से सुशोभित व इन्द्रभवन तुल्य बनाने में क्यों न लगाया जाए ? इस से जैन संस्कृति व जैन इतिहास का भी संरक्षण रहेगा।
एक और भी महान लाभ यह है कि आजकल जैन बच्चों को धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती है, इससे वे बड़े होने पर भी जैन संस्कृति व जैन प्राचीन महापुरुषों के ज्ञान से बिलकुल वंचित रहते हैं । उनके सामने अगर ऐसे धार्मिक चित्र रखे जाए तब वे उन्हें दिलचश्पी से देखेंगे व बोध पाएँगे और आध्यात्मिक भाव का संवेदन करेंगे ।
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