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जगचिन्तामणि सूत्र (भाग-2) (१) जगचिन्तामणि ! जगनाह ! (अर्थ-) हे जगत के चिंतामणिरत्न ! हे जगत के नाथ ! जगगुरु ! जगरक्खण !
हे जगत के गुरु ! हे जगत के रक्षक ! जगबंधव ! जगसत्थवाह !
हे जगत के बन्धव ! (सगे !) हे जगत के सार्थवाह ! जगभाव-वियक्खण !
हे जगत के भावों के ज्ञाता ! (२) अद्वावय-संठवियरुव !
हे अष्टापद पर स्थापित बिंबवाले ! कम्मट्ट-विणासण !
हे आठ कर्मों के विनाशक ! चउवीसं पि जिणवर !
हे चौबीश भी जिनेन्द्र ! जयंतु अप्पडिहयसासण !
हे अबाधित (धर्म-तत्त्व) शासनवाले ! आप जयवंत रहें । (समझ-) गणधरदेव श्री गौतमस्वामीजी महाराज ने अष्टापद पर्वत पर जा कर वहां भरत चक्रवर्ती स्थापित २४ जिनेश्वर भगवंत के बिम्ब के आगे यह स्तुति की । इसमें भगवान के ९ विशेषण है, हे जगत के १ चिन्तामणि-२ नाथ३गुरु-४ रक्षक-५ बंधव-६ सार्थवाह-७ भावज्ञाता, हे ८ अष्टकर्मनाशक-९ अबाधितशासनक
इसमें प्रत्येक पद का भाव मन में लाने के लिए चित्र में दायी ओर से क्रमशः दिखाये अनुसार भगवान को वैसे वैसे देखना है, जैसे कि, (१) भगवान 'चिन्तामणिरत्न' के समान अचिंत्य प्रभाव से जगत के मनुष्य-स्वर्गलोक एवं मोक्ष के सुख के दाता हैं । (२) 'नाथ', जगत को अप्राप्त सम्यग्दर्शनादि के प्रापक व रक्षक हैं। (३) 'गुरु', जगत को सम्यकतत्त्व के उपदेशक हैं । (४) 'रक्षक' जगत का कषाय लूटेरों से रक्षण करनेवाले हैं। (५) 'बंधव', विश्व के जीवों को 'अभयदान दो व मैत्री करो' यह सिखाने से उनके बंधव=निजी सगे है। (६) जगत के जीवों को मोक्षमार्ग पर ले चलनेवाले सार्थवाह हैं। (७) 'जगभावः', जगत यानी समस्त लोक-अलोक के भावों के कुशल ज्ञाता हैं । ऐसे अष्टापद स्थित २४ भगवान (८) 'कम्मट्ठ.' -आठों कर्मों के विध्वंसक हैं । (९) 'अप्पडिहय.'-त्रिकालाबाध्य व समस्त इतर दर्शनों से अबाधित तत्त्वशासन-धर्मशासन के प्ररुपक हैं ।
भुवनदेवता स्तुति ज्ञानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानां ।
विद्धातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्व साधूनाम् ।। अर्थ : ज्ञानादिगुणों से युक्त, सदाकाल स्वाध्याय संयम में तत्पर सर्वसाधुओं का कल्याण भवनदेवता सदाकाल करें।
| क्षेत्रदेवता स्तुति यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया ।
सा क्षेत्रदेवता नित्यं, भूयान्नः सुखदायिनी ।। अर्थ : जिनके क्षेत्र का आश्रय लेकर साधु आत्महितकर क्रिया साधते हैं वह क्षेत्रदेवता सदाकाल हमें
सूखदायिनी हो।
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