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________________ अज्जगिरी अज्जरक्खिअ, अज्जसुहत्थी उदायगो मणगो । कालयसूरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ||५|| " ३७-३९. आर्य महागिरि व आर्य सुहस्तिसूरि : ये दोनों श्री स्थूलभद्रजी के दशपूर्वी शिष्य थें । आर्य महार ने गच्छ में रहकर जिनकल्प की तुलना की थी । अत्यंत कठोर चारित्र पलाते थे । अंत में गजपद तीर्थ में 'अनशन'' करके स्वर्गमें गये । आर्य सुहस्तिसूरि ने एक भिक्षुक को अकाल के समय में भोजन निमित्तक दीक्षा दी वही संप्रति महाराजा बने । उन्होंने अविस्मरणीय शासनप्रभावना की । वे भी भव्यजीवों को प्रतिबोधित कर अंतमें स्वर्गवासी बने । ३८. आर्यरक्षित सूरि : ब्राह्मण शास्त्रों में प्रकांड विद्वत्ता हांसिल करके राजसम्मान प्राप्त किया । परंतु आत्महितेच्छु माताने 'दृष्टिवाद' पढने की प्रेरणा दी । आचार्य तोसलिपुत्र के पास आकर चारित्र लिया । उनके पास वज्रस्वामीजी के पास ९।। पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त किया । दशपूर के राजा व पाटलिपुत्र के राजा को जैन बनाया । स्वपरिवार को दीक्षा दी । जैन श्रुतज्ञान को द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग व धर्मकथानुयोग, इस तरह चार अनुयोग में विभाजित किया । अंत में स्वर्गवासी बने । " ४०. उदायन राजर्षि: ये वीतभय नगरी के राजा थे। स्वयं की दासी सहित देवकृत प्रभुवीर की जीवित प्रतिमा का अपहरण करनेवाले उज्जयिनी नगरी के राजा चंडप्रद्योत को युद्ध में पराजित कर बंदी बनाया । संवत्सरी के दिन चंद्रप्रद्योत ने भी उपवास किया अतः उसे साधर्मिक मानकर क्षमापना की व छोड दिया । "प्रभु वीर पधारे तो आज ही दीक्षा लुँ' उनके इस संकल्प को प्रभुने पधारकर सफल बनाया । 'राजेश्वरी ते नरकेश्वरी' ऐसा सोचकर पुत्र को राज्य न देकर अपने भानजे केशी को राज्य देकर अंतिम राजर्षि बने । एक बार विचरते हुए स्वनगर में पधारे तब 'ये तो राज्य वापस लेने आये हैं' ऐसी शंका रख स्वयं के भानजेने ही विष प्रयोग करवाया, दो बार देव प्रभाव से बचे पर तीसरी बार जहर फैलने लगा, शरीरमें असर हुई परंतु शुभध्यानधारामें आरूढ़ होकर कैवल्यलक्ष्मी को वरे । ४१. मनक : शय्यंभवसूरि के पुत्र व शिष्य । उनका आयुष्य सिर्फ छः माह जितना अल्प होने के कारण आचार्यश्रीने दशवैकालिक सूत्रकी रचना की । अल्पसमयमें सुंदर आराधना करके ६ माह चारित्र पालन किया व देवलोक गये । ४२. कालकाचार्य : १) बहन सरस्वती के साथ गणधरसूरि के पास दीक्षा ली । उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्लने अत्यंत स्वरूपवान सरस्वती साध्वीजी पर मोहांध बनकर उन्हें अंतःपुरमें डाल दिया । अनेक तरीके से समझाने पर भी राजा माना नहीं। तब आचार्यश्रीने वेशपरिवर्तन करके ९६ शकराजाओं को प्रतिबोध देकर गर्दभिल्ल पर चढ़ाई करवाई और साध्वीजी को छुड़ाया । आचार्यश्री अत्यंत प्रभावक पुरूष I कालकाचार्य : १) प्रतिष्ठानपुर के राजा शालिवाहन की विनंति से संवत्सरी पाँचम की चोथ प्रवर्तायी । तथा श्री सीमंधरस्वामी भगवान ने इन्द्र के समक्ष कहा कि "ये कालकसूरि निगोद का स्वरूप वर्णन यथार्थ रूपसे कह सकते है ।'' इन्द्र विप्र का रूप धारण कर आया व यथार्थ स्वरूप सुनकर प्रसन्न बना । ४३ + ४४. सांब और प्रद्युम्न: ये दोनों श्रीकृष्ण के पुत्र । सांब की माता जांबुवती व प्रद्युम्न की माता रूक्मिनी । बाल्यकालमें अनेक लीलाएँ करके कौमार्यावस्थामें विविध पराक्रम दिखाकर अंतमें वैराग्यवासित बनें । प्रभु नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर शत्रुंजय गिरि पर मोक्ष सिधायें । 1 ४५. . मूलदेव : कलाकुशल किंतु जुआ खेलने वाले । पिताने देशनिकाल दिया । तबसे उज्जयिनिमें आ बसे । वहाँ देवदत्ता गणिका व विश्वभूति कलाचार्य को पराजित किया । पुण्यबल, कलाबल व मुनि को दानके प्रभावसे विषम परिस्थिति पलट जाने से हाथियों से समृद्ध विशाल राज्य व कलाप्रिय चतुर देवदत्ता के स्वामी बने । वैराग्यपाकर चारित्र पालकर स्वर्गमें गये । बाद में मोक्षमें जायेंगे । ९५
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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