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वांदणा (बृहद् गुरुवन्दन) सूत्र एवं विविध मुद्राएँ
इच्छामि खमासमणो
वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि
अ... हो, का... यं,
का... य संफासं,
खमणिज्जो में किलामो
अप्पकिलंताणं
बहुसुमेण मे राइ वइक्कंता ? ज... त्ता..भे ?
ज...व... णि ज्जं च भे ? खामेमि खमासमणो
इयं वइक्कमं आवस्सियाए, पडिक्कमामि
खमासमणाणं राइयाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जंकिंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहा माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए
सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ
तस्स खमासमणो
पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि.
(अर्थ) हे क्षमाश्रमण ! मैं शक्ति समन्वित हो (प्रमाद-पाप क्रिया से शरीर को हटाकर वंदन करना चाहता हूं (गुरु- 'छंदेण) मुझे परिमित (१) अवग्रह (में प्रवेश) की (व २ कायस्पर्श की) अनुज्ञा दें । (गुरु- 'अणुजाणामि ) निसीही यानी सर्व अशुभ व्यापार का त्याग कर मैं प्रवेश करता हूं । (आपकी) नीचे की काया (चरण) को (मेरी) काया (हाथ व सिर) का स्पर्श (करा कर नमस्कार करता हूं।) आप को (स्पर्श से) लगे कष्ट (क्लेश) के लिए आप क्षमा करेंगे (कष्ट आप निभा लेंगे ।) (अब ३ प्रश्न)
(१) अल्प खेद (श्रम) वाले आपकी रात्रि बहुत सुखपूर्वक व्यतीत हुई ? (गुरु- 'तहत्ति') (२) आपकी (संयम) यात्रा (सुखरुप चलती है) ? (गुरु- 'तुब्भं पि वट्टए ?') (३) एवं आपको यापनीय (इन्द्रियमन की व्याकुलता से रहित शरीर उपशान्ततादि से युक्त) हैं ? हे क्षमाश्रमण ! (मेरे) रात्रि संबंधी (कर्तव्य में क्षतिरुप) अपराध की क्षमा मांगता हूं । (गुरु-'अहमवि खामेमि)
आवश्यक क्रिया के लिए (अवग्रह से बाहर जाता हूं।) आप क्षमाश्रमण के प्रति मुझसे हुई रात्रि संबन्धी ३३ में से किसी भी आशातना से मैं वापस लौटता हूं । (विशेषत: असद् आलंबन लेकर) जो कुछ मिथ्या भाव से मन की (प्रद्वेषादि निमित्त) दुष्ट प्रवृत्ति, वचन की (असभ्यभाषण द्वारा) दुष्ट प्रवृत्ति, काया की (निकट जाना, निकट खड़ा रहना इत्यादि द्वारा) दुष्ट प्रवृत्ति स्वरुप, क्रोधयुक्त-मानयुक्त मायायुक्त-लोभयुक्त (आशातना), सर्वकाल संबन्धी (आशातना) सर्व मिथ्या (माया-कपट भरे) आचरण स्वरुप, व सर्व प्रकार के धर्म (८ प्रवचन माता, या सामान्यतः कर्तव्य) के उल्लंघन या विराधनायुक्त आशातना द्वारा जो कुछ मुझ से अतिचार किया गया हो तत्संबन्धी, हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण (फिर सेन किए जाए इस प्रकार वापस लोटना) करता हूं, (दुष्टकर्मकारी मेरी) आत्मा की (भवोद्विग्न प्रशांत चित्त से) निन्दा करता हूं। (आपके समक्ष निन्दारूप) गर्हा करता हूं, उसकी अनुमति छोड़ मेरी दुष्कर्मकारी आत्मा का त्याग करता हूं ।
मुद्रा चित्र-वांदणां देने में पहले इच्छामि खमा०...निसीहियाए तक बोलते समय यथाजात मुद्रा रखनी, इसमें चित्रानुसार दो हाथ योगमुद्रा से जोड़ कुछ सर नमाना । बाद 'अणुजाणह मे... उग्गहं' बोलते समय अवनतमुद्रा, यहाँ • अंजलि ललाट साथ छूए व शरीर कमर से आधा नमे । 'अ... हो का..यं का... य' बोलते ३ आवर्त अर्थात् 'अ' बोलते हाथ की १० उँगली गुरुचरण (रजोहरण) पर छूएँ, वहां से उलटा कर उँचे ले कर 'हो' बोलते समय वे ही ललाट को छूएँ, फिर उलटा कर नीचे लेकर 'का' बोलते गुरुचरण को, 'यं' बोलते ललाट को ... ऐसे 'का'...'य' में । इसी प्रकार 'ज...त्ता...भे' 'ज...व... णि' 'ज्जं ...च...भे' में ३ आवर्त, किन्तु बीच का अक्षर 'त्ता' 'व' 'च' बोलते समय नीचे से उठाये हाथों को बीच में कुछ रुकाना ।
(शेष पृष्ठ ६१ पर)
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