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________________ इरियावहियं (प्रतिक्रमण) सूत्र इच्छाकारेण संदिसह भगवन् हे भगवंत ! आपकी इच्छा से आदेश दें कि मैं ईर्यापथिकी (गमनादि व इरियावहियं पडिक्कमामि ? साध्वाचार में हुई विराधना) का प्रतिक्रमण करूं? (यहां गुरू कहे इच्छं, इच्छामि 'पडिक्कमेह') 'इच्छं ' अर्थात् मैं आप का आदेश स्वीकार करता हूं | पडिक्कमिउं इरियावहियाए ईर्यापथिकी की विराधना से (मिथ्यादुष्कृत द्वारा) वापस लौटना चाहता विराहणाए गमणागमणे । हूं | गमनागमन में, 'पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, १२-३-४ इन्द्रियवाले प्राणी को दबाने में, धान्यादि सचित्त (सजीव) हरियक्कमणे, ओसाउत्तिंग- बीज को दबाने तथा वनस्पति को दबाने में, "ओस (आकाश पतित "पणग-दगमट्टी सूक्ष्म अप्काय जीव), चिंटी के बिल, "पांचो वर्णों की निगोद (फूलन मक्कडा-संताणा-संकमणे काई आदि) पानी व मिट्टी (या जल मिश्रित मिट्टी, सचित्त-मिश्र कीचड) "जे मे जीवा विराहिया व मकडी के जाले को दबाने में, मुझसे जो जीव दुखित हुएँ, (जीव एंगिदिया बेइंदिया इस प्रकार)-एक इन्द्रिय वाले (पृथ्वीकायादि), दो इन्द्रिय वाले (शङ्ख तेइंदिया चउरिंदिया आदि), तीन इन्द्रिय वाले (चिंटी आदि) चार इन्द्रिय वाले (मक्खी पंचिंदिया आदि), पांच इन्द्रिय वाले (मनुष्य आदि) (विराधना इस प्रकार की,) अभिहया वत्तिया, अभिघात किया (लात लगाई या हाथ पैर से ठुकराएँ आदि), धूल से लेसिया, ढके (या उलटाये), भूमि आदि पर घिसा (घसीटे, या कुछ दबाये), संघाइया, संघट्टिया, परस्पर गात्रों से पिण्डरूप किया, स्पर्श किया, परियाविया, किलामिया, संताप-पीडा दी, अङ्ग-भङ्ग किया, उद्दविया, मृत्यु जैसा दुःख दिया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, अपने स्थान से दूसरे में हटाये, जीवियाओ ववरोविया प्राण से रहित किये। तस्स मिच्छामि दुक्कडं उसका मेरा दुष्कृत (जो हुआ वह) मिथ्या हो । चित्र के अनुसार, जैसे खूनी कोर्ट में मेजिस्ट्रेट के आगे अपने से किये गए खून की बडे पश्चात्ताप से क्षमा मांगता है इस प्रकार इस सूत्र में साधकजीव गुरू के आगे अपने से किये गये ज्ञात-अज्ञात जीव-विराधना को गिना कर बडे संताप से उनका मिथ्यादृष्कृत देता है । अतः यह सूत्र मन में खुनी के नाप का भाव तस्स 'उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहिकरणेणं "विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणढ़ाए ठामि काउस्सग्गं । तरस उत्तरीसूत्र (अर्थ) : (जिस अतिचार दोष का पूर्व में 'मिथ्या दुष्कृत' दिया, आलोचना-प्रतिक्रमण किया) इसके 'उत्तरीकरण = स्मृतिरुप संस्कार द्वारा पुनः याद करके आत्मशुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करण द्वारा, (वह भी) प्रायश्चित्त के करने द्वारा, (यह भी अतिचार नाश से) निर्मलता करने द्वारा, (एवं वह भी मायादि) "शल्य हटाने द्वारा, (भवहेतुभूत ज्ञानावरणीयादि) पापकर्मों का उच्छेद करने के लिए मैं कायोत्सर्ग में रहता हूं। Prary.orgia
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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