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नमस्कार(नवकार) सूत्र
नमो अरिहंताणं
अर्थ:- मैं नमस्कार करता हूं अरिहंतों को, नमो सिद्धाणं
मैं नमस्कार करता हूं सिद्धों को, नमो आयरियाणं
मै नमस्कार करता हूं आचार्यों को, नमो उवज्झायाणं
मै नमस्कार करता हूं उपाध्यायों को, नमो लोए सब्बसाहूणं
मैं नमस्कार करता हूं लोक में (रहे) सर्व साधुओं को, एसो पंच-नमुक्कारो
यह पांचों को किया नमस्कार, सव-पाव-प्पणासणो
समस्त (रागादि) पापों (या पापकर्मों) का अत्यन्त नाशक है, मंगलाणं च सव्वेसिं
सर्व मंगलों में, पढम हवई मंगलं ||
श्रेष्ठ मंगल है। समझः- यहाँ चित्र में दिखाये अनुसार पहले अनन्त अरिहंत, बादमें सिद्धशिला पर सिद्ध, बाद में अनंत आचार्य... आदि को सूत्रपद पढते समय चित्त के सामने अनन्त-अनन्त लाए, कारण, अरिहंताणं आदि पद बहुवचन में है तो २-४ ही क्यों, अनन्त को नमन करने में भाव बढता है । (जैसे २-४) रत्नों की अपेक्षा बहुत रत्नों के राशि के
बहुत प्रसन्न होता है । ये भी ५ परमेष्टी अपनी अपनी खास अवस्था में दिखाई पडे, जैसे कि (१) अरिहंतदेव समवसरण में छत्र-चंवर आदि ८ प्रातिहार्य से युक्त, ऊपर (२) श्री सिद्ध भगवान सिद्ध-शिला पर ज्योतिस्वरूप तथा स्फटिकवत् निरंजन निर्विकार; नीचे (३) श्री आचार्य महाराज व्याख्यान पीठ पर बैठे आचार-प्रवचन
ए, (४) श्री उपाध्यायजी म. अपनी अपनी शिष्य मण्डली को आगमशास्त्र पढाते हुए; व (५) अनन्त साधु महाराज कायोत्सर्ग - ध्यान में खडे (या योगसाधना-साध्वाचार पालते हुए, परीषह उपसर्ग सहते हुए भी) दिखे।
देखने में भी एकैक पद के चिंतन-समय मात्र वे ही दिखें, जैसे कि सारी पृथ्वी उन ही से भरी हुई है । वहाँ भी मानो हम भी अनन्त शरीर वाले हैं अतः प्रत्येक परमेष्ठी के चरण में हमारा सिर झुका हुआ दिखाई पडे ।
प्रत्येकपद-चिन्तन के समय चित्र के उस भाग पर धारणा की जाए, ताकि इसका अभ्यास हो जाने पर बाद में भले चित्र सामने नहीं है किन्तु जैसे स्वीच दबाते ही लाईट होता है वैसे पद बोलते ही वे अनंत अरिहंत या सिद्ध या आचार्य आदि अपनी मुद्रा में सामने उपस्थित हो जाएँ । ऐसा अभ्यास बना देना चाहिए कि नमो अरिहंताणं बोलते ही अनंत अरिहंत सामने आ जाएँ, नमो सिद्धाणं बोलते ही अनन्त सिद्ध सामने आ जाय...
"एसो पंच...." बोलते समय ऐसा दिखाई पडे कि सामने पांचों परमेष्ठी भगवंत है, और हम प्रत्येक के सामने नमस्कार कर रहे हैं, और हमारी आत्मा में से समस्त रागादि पाप नष्ट हो रहे हैं, और ये पंच नमस्कार इनके पीछे रहे हुए समस्त श्रीफल-वाजिंत्रादि अन्य मंगलों से आगे है, प्रथम है, श्रेष्ठ है । इस पापनाश व प्रथम मंगल का दर्शन भी बडी श्रद्धा से किया जाय । एवं इन दो विशेषताओं के साथ परमेष्ठि-नमस्कार स्वरूप सुकृत की अनुमोदना की जाय, जिससे हमारे नमस्कार-सुकृत का बल (पावर) बढ जाए, व पुन: पुण्यार्जन हो; (करण-करावण- अनुमोदन सरिखा फल निपजायो- करने से, कराने से या सुकृतों की अनुमोदना करने से समान ही फल मिलता है) इन पांच परमेष्ठी में पहले दो इष्टदेव, व बाद में तीन गुरू हैं ।
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