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पंचिंदिय (गुरुस्तुति-गुरूस्थापना) सूत्र
(१) पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेरगुत्तिधरो । चउव्विह-कसायमुक्को,
इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो ॥ (२) पंच- महव्वय-जुत्तो,
(अर्थ) : (१) पांच इन्द्रियों को (विषयों से) रोकनेहटानेवाले, तथा ९ प्रकार की ब्रह्मचर्य की मेढ का पालन करने वाले व चार प्रकार के कषायों से मुक्त, इस प्रकार १८ गुणों से सु-संपन्न ।
(२) (अहिंसादि) ५ महाव्रतों से युक्त, पांच प्रकार के (ज्ञानाचारादि) आचार के पालन में समर्थ, ५ (ईर्यासमिति आदि) समिति वाले, (व मनोगुप्ति आदि) ३ गुप्तिवाले, (ऐसे) ३६ गुणवाले मेरे गुरू हैं ।
समझ:- यह सूत्र बोलते समय आचार्य महाराज दिखाई पडे, वे १८ निवृत्तिगुण- १८ प्रवृत्तिगुण वाले हैं। यह इस प्रकार दिखे ।
१८ निवृत्तिगुण
१८] प्रवृत्तिण
पंचविहायार- पालण समत्यो ।
पंच-समिओ ति-गुत्तो, छत्तीस-गुणो गुरू मज्झ ।।
५ इन्द्रिय
९ ब्रह्मचर्य मेढभङ्ग
४ कषाय
इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए
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निवृत्ति
निवृत्ति निवृत्ति
१८
१८
जैनशासन का शिरस्ता है कि धर्म का अनुष्ठान देवाधिदेव या गुरू की निश्रा यानी संनिधान में किया जाता है । अतः जहाँ गुरूयोग नहीं वहां गुरू की स्थापना की जाती है। यह गुरूस्थापना किसी पुस्तक या माला आदि के सामने स्थापना-मुद्रासे हाथ रख कर नवकार व पंचिंदिय सूत्र बोल कर की जाती है। क्रिया समाप्त होने पर उत्थापन मुद्रा से १ नवकार पढ कर स्थापित गुरू को ऊठाने को न भूलें । अन्यथा स्थापित आचार्य हीलने से आशातना होती है ।
खमासमण- स्तोभवंदन सूत्र
५ महाव्रत
५ आचार
५ समिति
३ गुप्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
प्रवृत्ति
अर्थ- मैं इच्छता हूं हे क्षमाश्रमण ! वंदन करने के लिए, सब शक्ति लगा कर व दोष त्याग कर । मस्तक नमा कर मैं वंदन करता हूं ।
मत्थएण वंदामि
समझ :- इस वंदन प्रणिपात में ध्यान रहे कि दो हाथ, दो पेर के घुटने व मस्त ये पांच अंग भूमि पर स्पर्श करें। इसके लिए दो हाथ की अंजलि दो घुटने के बीच में भूमि पर छूने से सिर आसानी से जमीन पर छूता है (चित्र देखो) । 'इच्छामि... निसीहियाए' तक खड़ा रह कर योगमुद्रा से हाथ जोड कर बोलना; बाद में पांच अंग भूमि पर छूते समय 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिये । मुद्रा ३ : योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा, जिनमुद्रा (देखो चित्र) (१) योगमुद्रा में दो हाथ ऐसे जोड़े जाते हैं कि साम-सामने उंगली के अग्रभाग सामने वाली के अग्रभाग के बीच में रहें। सभी सूत्र-स्तुति-स्तवन योगमुद्रा से पढे जाते हैं। जिनाज्ञा है, 'थयपाढो होइ जोगमुद्दाए' (२) मात्र मुक्ताशुक्ति मुद्रा से 'जावंति चेइ०', 'जावंत के वि' व 'जयवीयराय', इन तीन सूत्रों का उच्चारण होता है । इसमें उंगलियों के अग्रभाग आमने-सामने वाली के बीच-बीच में नहीं किन्तु परस्पर सामने रहती है; अतः हाथ की अंजलि मुक्ताशुक्ति (मोती के शीप) की तरह पोली रहती है। (३) कायोत्सर्ग जिनमुद्रा से किया जाता है। इसमें सिर झुका हुआ नहीं किन्तु सीधा, दृष्टि आधखुली व नासिका के अग्रभाग पर स्थापित हो, दो हाथ सहज नीचे झुकते, एवं दो पेर के बीच में आगे के भाग में ४ उंगली का, व पिछले भाग में इससे कुछ कम अंतर रखा जाता है। जिनेश्वर भगवंत चारित्र साधना में प्राय: इस मुद्रा से ध्यानस्थ रहते थे। अतः यह जिनमुद्रा कही जाती है ।
माला गिनने में भी दृष्टि ऐसी ही रखी जाती है व दाया हाथ हृदय के सामने रख कर इसके अंगूठे पर माला रख वह प्रथम उंगली से फिराइ जाती है, व बाकी तीन उंगली छाते की तरह माला के ऊपर रहती है।
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