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। (नमुत्थुणं-सुत्र (शकस्तव) (भाग-४) (द्रव्यजिन-वंदन) । जे अ अइया सिद्धा,
(अर्थ ) जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व जे अ भविस्संति णागए काले ।
जो भविष्य काल में होंगे, संपइ अ वट्टमाणा
एवं (जो) वर्तमान में विद्यमान हैं, सवे तिविहेण वंदामि ।।
(उन) सब को मन-वचन-काया से वंदन करता हूं | (समझ ) यहाँ त्रिकाल के तीर्थंकर भगवन्तों को वंदना है । (आगे भविष्य में होनेवालों को भी उनकी वर्तमान अवस्था-रुप में नहीं, किन्तु भावी भावतीर्थंकर अवस्था याद कर के वंदना करनी है । इसी रुप में अतीत सिद्ध हुए को भी)
चित्र के अनुसार बायीं ओर अनन्त भगवान को समवसरणस्थ देखते हुए 'जे अ अइया सिद्धा' बोलना, एवं दायी ओर भी अनन्त जिनेन्द्र देवों को समवसरणस्थ देखते हुए 'जे अ भविस्संति णागए काले' बोलना व 'संपइ अ वट्टमाणा' बोलते समय सामने वर्तमान श्री सीमंधर भगवान आदि २० प्रभु समवसरण पर विराजमान दिखाई पड़े । उन सब के प्रत्येक के चरण में दो हाथ जोड़ अपना सिर झुकता हुआ दिखाई पड़े । कल्पना में अपने अनन्त सिर झुकते दिखें । चित्र मे नहीं बताया फिर भी सभी भगवान समवसरण-ऋद्धि युक्त देखें ।
नमोऽहत सुत्र नमोऽर्हत्-सिद्धा-ऽऽचार्यो-पाध्याय-सर्वसाधुभ्यः । अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय एवं समस्त
- साधु भगवंतो को मैं नमस्कार करता हूं |
चित्रसमझ : यहां बहुवचन होने से QUAON
हम एक-दो नहीं किन्तु अनन्त अरिहंत देव आदि को, सूत्र बोलते समय दृष्टि समक्ष कर सकते हैं।
चित्र में दिखाये अनुसार (१) अनंत अरिहंत देवों को समवसरणस्थ, (२) सिद्ध भगवंतों को सिद्धशिला पर शरीर रहित स्फटिकवत् ज्योतिर्मय, (३) आचार्य महाराजों को प्रवचन देकर पंचाचार प्रचारते हुए, (४) उपाध्याय महाराजों को शिष्यमंडली समक्ष शास्त्र पढाते हुए, एवं (५) साधु मुनिराजों को ध्यान में खड़े दृष्टि समक्ष लावें ।'
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भगवानहंसत्र
भगवानहं, आचार्यहं, उपाध्यायहं, सर्वसाधुहं ।
भावार्थ : ४ खमासमण देते समय चित्र में दिखाये अनुसार 'भगवानहं' पद से अनन्त तीर्थंकर भगवान को, वैसे 'आचार्यहं...' आदि बोलते समय अनंत आचार्य-उपाध्याय-साधु को दृष्टि समक्ष लावें ।
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