SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशाल-लोचनदल सूत्र (१) विशाल-लोचनदलं, (अर्थः) (१) विशाल नेत्ररुप पत्रवाला, प्रोद्यद्दन्तांशु-केसरम् । अत्यन्त देदीप्यमान दांतों की किरण स्वरुप केसरवाला, प्रात:रजिनेन्द्रस्य, श्री महावीर जिनेन्द्रदेव का वदनकमल मुखपद्मं पुनातु वः || आपको प्रातःकाल में पवित्र करे । (२) येषामभिषेककर्म कृत्वा, (२) जिन का अभिषेक-कार्य करके, भरसक हर्षवश मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः ।। मस्त सुरेन्द्र स्वर्गसुख को तृणमात्र भी नहीं गिनते हैं, तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, वे जिनेन्द्र भगवान प्रातःकाल में प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ।। शिवसुख (निरुपद्रवता-कल्याण) के लिये हों । (३) (असत्स्थापन-सनिषेधादि) कलङ्क से रहित, (सर्व नयों (३) कलङ्कनिर्मुक्त-ममुक्तपूर्णतं, से) पूर्णता को कभी न छोड़नेवाले, कुतर्क स्वरुप राहु का कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् । ग्रास करनेवाले, हमेशा उदयवाले, विद्वज्जनों से वंदित, अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितम्, जिनेश्वर-भाषित, जिनागम स्वरुप अपूर्व (नये) प्रकार के चन्द्र दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥ का दिवस के आगमन (प्रातःकाल) में नमस्कार करता हूं | (समझः-) चित्र में नीचे दिये अनुसार गाथा (१) 'विशाल.' बोलते हुए हमें वीरप्रभु के मुख को कमल जैसा देखना है जिसमें नयन तो पत्र समान हैं, व दांत से ऊछलती किरण पराग शी हैं । (२) 'येषां विकचार०' बोलने पर पूर्व पूर्वकाल की अनंत मेरु-अवस्था पर अनंत भगवान को इन्द्र जन्माभिषेक करते हुए दिखाई पड़े । वहाँ इन्द्र अभिषेककार्य के अत्यन्त सुख के वश हो स्वर्ग सुख को तृण से भी तुच्छ मान रहे हैं । (३) 'कलंक.' गाथा बोलते समय जिनागम को दुनिया के चन्द्र से विलक्षण चन्द्र स्वरुप देखना है । दुन्यवी चन्द्र कलंकयुक्त है, छोटा बड़ा होता है, राह से ग्रसित होता है व उदय बाद अस्त भी पाता है, तब जिनवचन स्वरुप चन्द्र निष्कलंक, स का ग्रास करनेवाला, हमेशा उदयवाला कभी अस्त नही होनेवाला है, पंडितमान्य है। अटाइजेसुसूत्र अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु, (अर्थ:-) ढाइ द्वीप-समुद्र संबन्धी १५ भूमि में पनरससु कम्मभूमिसु जावंत केवि साहू, रजोहरण-गुच्छा-पात्र को धारण करनेवाले, रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह धारा, पंचमहब्बयधारा, पंचमहाव्रतधर, १८००० शीलाङ्ग धरनेवाले, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग धारा, अभग्न पंचाचार व सर्वविरति-चारित्रभाववाले अक्खुयायार-चरित्ता, जितने कोइ साधु हैं उन सबको 'सिरसा' ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वन्दामि ! (बहुत आदर सहित) 'मणसा' (भावपूर्वक) मस्तक झुकाकर वंदन करता हूं। (समझः) यहां भी 'जावंत के वि०' अनुसार वंदना करनी है । द्वीप २।। है-जंबूद्वीप, धातकी खण्ड और अर्ध पुष्कर द्वीप । बीचमें २ समुद्र लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्र है । 'रजोहरण' यह उनी दशी प्रमार्जन हेतु साधु-चिह्न हैं | 'गुच्छा' यह भोजनार्थ रखे गये काष्ठपात्र को स्थापन करने के लिए उनी वस्त्र का टूकड़ा है । ५ महाव्रत ये जीवनभर हिंसा-जूठ-अदत्तादान-मैथुन-परिग्रह पापों के सर्वथा त्याग की प्रतिज्ञा है । १८००० शीलाङ्ग इस प्रकार-पृथ्वीकायादि ५, द्वींद्रियादि ४, इन ९ प्रकार के जीवो व अजीव एवं १० का, १० क्षमादि यतिधर्म पालते हुए, आरम्भ-समारम्म करने का त्याग है । वह भी ५ इन्द्रियनिग्रह व ४ संज्ञानिग्रह पूर्वक ३ मनोयोगादि से त्याग है । १०x१०४५४४४३ = ६००० यह भी त्याग करण-करावण-अनुमोदन रुप से करना है । अतः ६००० x ३ = १८००० शीलाङ्ग के पालनवाले मुनि है । |५९ weluray.one
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy