________________
कल्लाणकंदंसूत्र (१) कल्लाणकंदं पढमं जिणिंदं, (अर्थः-) (१) कल्याण के कन्द (मूल) रुप प्रथम जिनेंद्र (श्री ऋषसंतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं। भदेव) को, (व) श्री शान्तिनाथ को, बाद में मुनिओं में श्रेष्ठ श्री पासं पयासं सुगुणिक्कठाणं, नेमिनाथ को, ज्ञानप्रकाशरुप श्री पार्श्वनाथ को, (व) सद्गुणों के एक भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं || स्थानभूत विभूतियुक्त श्री वर्धमान स्वामी को मैं भक्ति से वन्दना करता हूं | (२) अपार संसार-समुद्दपारं, (२) अनन्त संसार सागर के पार को प्राप्त. पत्ता सिवं दिंतु सुइक्कसारं ।। देवसमूह से वंदनीय (व) कल्याण की लत्ताओं के सवे जिणिंदा सुरविंदवंदा, विशाल कन्दरुप समस्त जिनेन्द्रदेव कल्लाणवल्लीण विसालकंदा || शास्त्रों-श्रुतियों (या शुचि-पवित्र वस्तुओं) के एक सारभूत मोक्ष दें। (३) निव्वाणमग्गे वरजाणकप्पं, (३) मोक्षमार्ग में श्रेष्ठ जहाज समान, पणासियासेस-कुवाइदप्पं । समस्त कुवादियों के अभिमान को जिसने नष्ट किया है, ऐसे व मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, पण्डितों को शरणभूत , (तथा) त्रिभुवन में श्रेष्ठ, (एवं) जिनेश्वर देवों नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं || से कथित ऐसे सिद्धांत (आगम) को हमेशा नमस्कार करता हूं | (४) कुंदिंदु-गोक्खीर-तुसारवन्ना, (४) वागीश्वरी (सरस्वती) मुचुकुन्द (मोगरा), चन्द्र, गाय के दूध व सरोजहत्था कमले निसण्णा। बर्फ के समान (शुक्ल) वर्णवाली, हाथ में कमलवाली, कमल पर वाईसरी पुत्थयवग्गहत्था, बैठी हुई, हाथ में पुस्तक धारण करनेवाली (पुस्तकव्यग्रहस्ता अथवा सुहाय सा अम्ह सया पसत्था || पुस्तक-वर्ग-हस्ता, पुस्तक-समूह युक्त हस्तवाली) है | उत्तम (या
प्रशंसा प्राप्त) वह सदा हमारे सुख के लिये हो । (चित्र समझ:-) चित्रखण्ड-१ में प्रथम जिनेन्द्र श्री ऋषभदेव को कल्याण (दर्शन-ज्ञान-चारित्र-क्षमादि) के मूलरुप बताया है तो यह सूत्रपद बोलते समय सामने प्रभु वैसे दिखाई पड़ने चाहिये । बाद में चित्र के मुताबिक प्रथम प्रभु के नीचे श्री शान्तिनाथ-नेमिनाथ देखें । पीछे, बाजू में श्री पार्श्वनाथ प्रभु सु-गुणों के ही आश्रय रुप में एवं नीचे श्री महावीर प्रभ दिखाई दे, और हम वंदन करते हुए दिखाई दे ।
चित्रखण्ड २ के अनुसार 'अपार...' गाथा में देवसमूह से वन्द्य अनन्त जिनेन्द्रदेव को संसारसागर पार कर ऊँचे मोक्ष के प्रति जाते हये देखना है । वे भी ऐसे दिखें कि उन के (चिंतन के) प्रभाव से विशाल कल्याण हमारे में ऊगते हैं, और वे हमें सब शास्त्रों के सारभूत व सब से शुचि (पवित्र) मोक्ष दें।
चित्रखण्ड-३ से जिनोक्त विश्वश्रेष्ठ सिद्धांत को जहाज के रुप में देखना है, इससे कुवादी निस्तेज हो डूबे हुए व प्राज्ञ जनों द्वारा शरण-आश्रय कराये हुए दिखें ।
चित्रखण्ड-४ से वागीश्वरी सरस्वती को सफेद वर्ण में देखना है । वह एक हाथ में कमलवाली व कमल पर बिराजमान एवं दूसरे हाथ में पुस्तकवाली तथा उत्तम दिखे, व उससे सदा सुख की प्रार्थना करनी ।
(पेज ५५ का शेष-) प्रक्षालमुद्रा में दो हाथ से कलश को पकड़ कर प्रभु के सर पर राज्याभिषेक की तरह अभिषेकधारा की जाए । पूजा-मुद्रा में दाये हाथ की 'अनामिका' (कनिष्ठा के पहले) की उंगली का अग्रभाग प्रभुअंग को ऐसे छूए की नाखून प्रभु को छू न पावे | स्वस्तिक करने में, पहले अक्षत का भरा वर्तुल बनाया जाए, ऊपर तीन छोटे वर्तुल, उनके ऊपर एक वर्तुल किया जाए । तत्पश्चात् नीचे के बड़े वर्तुल में चित्रानुसार उंगली से चार लकीर खिंचे और स्वस्तिक की चार पंखुडी ठीक बनाई जाए । सब से ऊपर के वर्तुल में अष्टमी की चंद्ररेखा ऊपर सीधी रेखा खींची जाए।
melibrary