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4 सिद्धाणं-सुत्र (भाग-४) (नेमिस्तुति) उज्जित सेल-सिहरे,
(अर्थ:-) उज्जयन्त (गीरनार) गिरि के शिखर पर दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स ।
जिनकी दीक्षा-केवलज्ञान-निर्वाण हुए, तं धम्मचक्कवदि,
उन धर्म-चक्रवर्ती अरिडनेमिं नमसामि ।।
श्री नेमनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ। (समझ:-) चित्र के अनुसार यहाँ गीरनार पर्वत पर सहस्राम्रवन में तीन भाग में हमें तीन कल्याणक देखने है।
(१) नेमनाथ प्रभु केश-लोच कर दीक्षा लेते हुए, (२) उद्यान में केवलज्ञान पाकर समवसरण पर विराजमान हुए, व (३) निर्वाण मोक्ष पाने पर आभूषण से अलंकृत प्रभु के शरीर को देवों द्वारा अग्निसंस्कार कराता दिखाई पडे ।
चित्र में जगह की कमी से नहीं दिखाया, किन्तु दीक्षा-समय वहाँ क्रोड़ो देवताएँ स्त्री-पुरुष, देवों का गीतवाजिंत्र, एक ओर शिबिका इत्यादि दिखाई पड़े । दीक्षा के लोच समय इन्द्र वस्त्र में प्रभु के लुंचित केश को ग्रहण करते हैं । यो समवसरण भी १२ पर्षदा युक्त इत्यादि दिखें । निर्वाण में देवादि शोकयुक्त देखें ।
मन्नह जिणाणं (श्रावक कृत्यकी) सज्झाय मन्नह जिणाणमाणं.
हे भव्यजीवों ! १) तुम जिनेश्वरों की आज्ञा को मानो, २मिथ्यात्व मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं । का त्याग करो, सम्यक्त्व को धारण करो और ४-९)प्रतिदिन छ: छ-विह आवस्सयम्मि, प्रकार के आवश्यक करने में प्रयत्नशील बनो ।।१।। उज्जुत्ता होह पइदिवसं ||१|| पव्वेसु पोसहवयं,
और १०)पर्वके दिनोंमें पौषध करो, ११)दान दो, १२)सदाचार का दाणं सीलं तवो अ भावो अ। पालन करो, १३)तपका अनुष्ठान करो, १४)मैत्री आदि उत्तम प्रकार सज्झाय नमुक्कारो, AILY की भावना करो, १५)पाँच प्रकार के स्वाध्याय में मग्न बनो, परोवयारो अ जयणा अ ||२|| १६)नमस्कार मंत्र की गणना करो, १७)परोपकार परायण बनो और
नमस्कार मंत्र की गणना करा, परोपकार
१८)यथाशक्य दया का पालन करो ||२|| जिणपूआ जिणथुणणं, १९)प्रतिदिन जिनेश्वर की पूजा करो, २०नित्य जिनेश्वर देव की गुरूथुअ साहम्मिआण वच्छल्लं । स्तुति करो, २१निरन्तर गुरूदेव की स्तुति करो, २२)सर्वदा साधर्मिक ववहारस्स य सुद्धी,
भाइओं के प्रति वात्सल्य दिखलाओ, २३)व्यवहार की शुद्धि रखो रह-जत्ता तित्थ-जत्ता य ||३|| तथा २४)रथयात्रा और २५)तीर्थयात्रा करो ||३|| उवसम विवेग संवर, २६)कषायोंको शान्त करो, २७)सत्यासत्यकी परीक्षा करो, २८)संवर भासासमिई छजीवकरूणा य । के कृत्य करो, २९)बोलने में सावधानी रखो, ३०)छ'काय के जीवों धम्मिअ-जण-संसग्गो, के प्रति करूणा रखो, ३१)धार्मिक जनों का संसर्ग-सत्संग करो, करण-दमो, चरण-परिणामो ।।४।। ३२ इन्द्रियों का दमन करो तथा ३३)चारित्र ग्रहण करने की भावना
रखो ||४|| संघोवरि बहुमाणो,
३४)संघ के प्रति बहुमान रखो, ३५)धार्मिक पुस्तके लिखाओ पुत्थय-लिहणं पभावणा तित्थे ।
और ३६)तीर्थकी प्रभावना करो । ये श्रावकों के नित्य कृत्य हैं, सड्ढाण किच्चमेअं, निच्चं सुगुरूवएसेणं ||५||
जो सद्गुरू के उपदेश से जानने चाहिए ।।५।।
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