Book Title: Laghu Dandak Ka Thokda
Author(s): Bherodan Jethmal Sethiya
Publisher: Bherodan Jethmal Sethiya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठिया जैन ग्रन्यमाला पुष्प नं० ६० प्रोसिय नेम रिती TOSH श्री वीतरागाय नम: लघुदंडक का थोकडा प्रकाशक भैरोंदान जेठमल सेठिया बीकानेर इस पुस्तक को यत्न से रक्खें और जयणासे पढ़ें। वीर स २४५२ प्रथमावृत्ति न्योछावर -11) विक्रम सं० १९८३ १००० पौने दो आने Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लघुदण्डक का शुद्धिपत्र । अशुद्धि शुद्धि ६गा.१ गब्भयतिरियमणुस्सा, पंचिंदियतियनरा, पंक्ति ___ २० गर्भज. पंचेन्द्रिय. गर्भज मनुष्य मनुष्य शरीर के सब अंगोपांग किसी खास सकल केन । हो (खराब हो) उनका प्रमाण- १-२-३ उनका प्रमाण एक समय में-- १-२-३ इसका प्रमाण-१२-३ इसका प्रमाण ए क समय मे१-२.३. देवता देवता,दण्डक ग्रासरी १२४ दण्डक का श्रावे और २४ दण्डक तथा 1 मोक्ष में जावे समचोरंस इसमचउरंस भवधारणीय शरीर श्रासरी,और उत्तर वैक्रिय शरीर प्रासरी सं ठाण पावे नाना प्रकार का। नारकी और देवता में नारकी में पर्याप्ति पावे छः १४ ४ १८ १४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] . पयाय पावे पांच २ * २० तक ज० . प्रासरी ज० श्रासरी जघन्य और देवता में पयाप्ति पावे पांच तक एक समय में ज० श्रासरीसमय समय में ज० प्रासरी समय समय में जघन्य श्रासरीसमयसमय में ज० प्रासरी समय समय में ज. में एक समय में ज० गर्भज मनुष्य गर्भज मनुष्य * * , ,, आसरी ज० १७ प्रासरी ज० १९ में ज० १-२-३ सन्नी मनुष्य १५-१६ १. M १७-११-२२सन्नी मनुष्य गर्भज मनुष्य ४५ १-३-५-८-81 १०-११-१२ सन्नी मनुष्य १३-१४-१६१ १८-२१ सन्नी मनुष्य ९-११-१३ १ सन्नी मनुष्य १८-१६ ) ५० १ तीन । गर्भज मनुष्य गर्भज मनुष्य तीस * Nepal Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः । लघुदंडक का थोकडा ॥ प्रारंभ ॥ अथ चौवीश दंडक का नाम गाथा - *नेरी असुंराई, पुढबाई बेइंदियादओ चेव । गन्भयतिरियमणुस्सा, वंतर जोइसियै वेमाणी ॥ १ ॥ अर्थ - नेरइया - नारकी सात का एक दंडक ! असुराई - असुर कुमारादिक दश भुवनपति का दश दण्डक । पुढवाई - पृथ्वीकायादि पांच स्थावर का पांच दण्डक । बेइन्दियायओ - बेइंदियादिक तीन विकलेन्द्रिय का तीन दण्डक । गन्भयतिरियमगुस्सा - गर्भज तिर्यच का एक दंडक, तथा गर्भज मनुष्य का एक दण्डक । वंतर - व्यन्तर देव, वाणन्यन्तरे देवका एक दण्डक । जोइसिय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] ज्योतिषी पांच देवताका एक दण्डक । वेमाणी-वैमानिक देवताका एक दंडक । ए चोवीस दण्डक हुए ॥ संग्रहणि गाथे* मरिशेगाहासंघयणमंठाण कसायं तह य हुति सन्नाओ। लेसिदिय समुग्याएं सन्नी वेप य पजत्ती ॥१॥ दिट्टी देसण नाणे जोगुवोगे तहा किमाहारे । उववाय ठिई समुग्याय चवणे गइरागई चेव॥२॥ पाणे "जोगे। चौवीस दण्डक पर शरीरादि पच्चीस द्वार चलते है उनका स्वरूप कहते हैं-- १ शरीर द्वारशरीर किसको कहते हैं? शीण होनेवाला अर्थात् विनाश होनेवाला है इसलिए इसको शरीरकहते हैं, इस के पांच भेद हैं-१औदारिक, वैक्रिय,३आहारक, ४ तैजस, ५ कार्मण। (१) उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलोंसे बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, जिस कर्म से ऐसा शरीर मिले उसे औदारिकशरीर कहते हैं. * ये दो संग्रहणि गाथाएँ जीवाभिगम सूत्र प्रथम प्रतिपत्ति की है Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] तीर्थङ्कर और गणधरी का शरीर प्रधानपुद्गलों से बनता है. और सर्वसाधारण का शरीर स्थूल, असार पुद्गलों से बनता है. मनुष्य और तिर्यञ्च को औदारिकशरीर प्राप्त होता है। (२) जिस शरीर से विविध क्रियाएँ होती हैं, उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं, जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो, उसे वैक्रियशरीर कहते हैं। विविध क्रियाएँ ये हैं:-एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना छोटा शरीर धारण करना; बड़ा शरीर धारण करना; आकाश में चलने योग्य शरीर धारण करना, भूमि पर चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य शरीर धारण करना, अदृश्य शरीर धारण करना, इत्यादि अनेक प्रकार की अवस्थाओं को वैक्रियशरीरधारी जीव कर सकता है। वैक्रियशरीर दो प्रकार का है;-(१)औपपातिक और (२) लब्धिप्रत्यय. देव और नारकों का शरीर औपपातिक कहलाते है अर्थात उनको जन्म से ही वैक्रियशरीर मिलता है. लब्धिप्रत्ययशरीर, तियश्च और मनुष्योंको होता है अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च, तप आदि के द्वारा प्राप्त Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] किये हुए शक्ति-विशेष से वैक्रियशरीर धारण कर लेते हैं. ____३ चतुर्दशपूर्वधारी मुनि अन्य (महाविदेह) क्षेत्रमें वर्तमान तीर्थंकर से अपना संदेह निवारण करने के लिए अथवा उनका ऐश्वर्य देखने के लिए जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्धस्फटिक के समान निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उस शरीरको आहारकशरीर कहते हैं ४ तेजःपुद्गलोंसे बना हुआ शरीर तैजस कहलाता है, इस शरीरकी उष्णतासे खाये हुए अन्न का पाचन होता है और कोई कोई तपस्वी जो क्रोध से तेजोलेश्या के द्वारा औरों को नुकशान पहुँचाता है तथा प्रसन्न होकर शीतलेश्या के द्वारा फायदा पहुंचाता है सो इसी तेजःशरीर के प्रभाव से समझना चाहिये. अर्थात् आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर, वह तैजस शरीर कहलाता है, जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है उसे तैजसशरीर कहते हैं. ५ कर्मो का बना हुआ शरीर कार्मण कहलाता है, जीव के प्रदेशोंके साथ लगे हुए आठ प्रकारके कर्म Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलों को कार्मणशरीर कहते हैं. यह कार्मणशरीर, सब शरीरोंका बीज है,इसी शरीरसे जीव अपने मरणदेशको छोड़ कर उत्पत्तिस्थान को जाता है. जिस कर्म से कार्मणशरीरकी प्राप्ति हो,उसे कामणशरीर कहते हैं। समस्त संसारी जीवों को तैजसशरीर, और कामण शरीर, ये दो शरीर अवश्य होते हैं । २ अवगाहना द्वार-- अवगाहना किसको कहते हैं ? जीव का शरीर जितने आकाश प्रदेशों को अवगाहे (रोके ) उस को अवगाहना कहते हैं । वह जघन्य अंगुल के असंख्यात वें भाग, उत्कृष्ट १००० योजन जाजेरी (कुछ अधिक), उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्य अंगुलके असं. ख्यात वें भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन जाजेरी । ३ संघयण द्वारसंहनन किसको कहते हैं ? जिस कर्म के उदय से हाडोंका बंधन हो, उसको संघयण कहते हैं उसके भेद छह १ वज्रऋषभनाराच- जिसके उदयसे वज्रके हाड, वज्रके बेष्टन और वज्रकी कीलियां हो । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] २ ऋषभनाराच - जिसके उदयसे वज्र के हाड और वज्रकी कीली हो । ३ नाराच - जिसके उदय से बेष्टन और कीली सहित हाड हो । ४ अर्धनाराच - जिसके उदय से हाडोंकी संधि अर्ध कीलित हो । ५ कीलक (कीलिका) - जिसके उदयसे हाड परस्पर कीलित हो । ६ अप्रापाटिका ( छेवह) - जिसके उदय से जुदे २ हाड नसोंसे बंधे हों- परस्पर कीले हुए न हों। ४ संठाण द्वार- संस्थान किसको कहते हैं ? जिस कर्मके उदय से शरीर की आकृति ( शकल) बने उसको संस्थान कहते हैं । उसके भेद छह:-- १ समचतुरस्त्र (समचोरस) -- जिसके उदय से शरीर की शकल ऊपर नीचे तथा बीचमें सम भागसे सुन्दराकार बने । २ न्यग्रोध परिमण्डल - जिसके उदय से जीवका शरीर बड़के वृक्ष की तरह हो, अर्थात् जिसके नाभिसे उपर का भाग त्रिकलक्षणोपेत पूर्ण प्रमाण हो और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभि के नीचे का भाग हीन हो। ३स्वाति(मादि)-ऊपर वाले जवाबसे बिलकुल विपरीत हो,जैसे माप की बॉमी, अर्थात् नाभि से नीचे का भाग उत्तम प्रमाणवाला हो और नाभि से ऊपर का भाग हीन हो। ४ कुब्जक (कुबड़ा)-जिसके उदय से हाथ पांव मुख और ग्रीवादिक उत्तम हो और हृदय पेट पीठ अधम (हीन) हो। ५वामन-जिसके उदयसे बौना (बावना) शरीर हो अर्थात् जिसका हाथ पग आदि अवयव हीन हो और छाति पेट आदि पूर्ण उत्तम हों। शरीर के सब अंगोपांग किसी खास शकल के न हो (खराब हो)। ६ हुण्डक-जिसके उदयसे शरीरके सब अङ्गोपाङ्ग किमी खास शकल के न हो (खराब) हों। ५ कषाय द्वारकपाय किसको कहते हैं क्रोधादिरूप आत्मा के विभाग परिणामों को कषाय कहते हैं, इस के चार भेद हैं- क्रोध,रमान ३माया,४लोभ । ६ संज्ञा द्वारसंज्ञा किसको कहते हैं ? आहारादि की अभि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 ] लाषा करने को संज्ञा कहते हैं, उस के चार भेद हैं१ आहार संज्ञा, २ भय संज्ञा, ३ मैथुन संज्ञा, ४ परिग्रह संज्ञा । ७ लेश्या द्वार लेश्या किसको कहते हैं? कषाय के उदद्य सहित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, उस के छह भेद हैं । १ कृष्णलेश्या, २ नीललेश्या, ३ कापोतलेइया, ४ तेजोलेश्या, ५ पद्मलेश्या, ६ शुक्ललेश्या । ८ इंद्रिय द्वार इंद्रिय किसको कहते हैं? आत्माके चिह्नको इंद्रिय कहते हैं, उसके पांच भेद हैं --- १ श्रोत्र इन्द्रिय (कान), २ चक्षु इंद्रिय (आंख), ३ घाण इंद्रिय (नाक), ४ रसना इंद्रिय ( जीभ ), ५ स्पर्श इंद्रिय, (संपूर्ण शरीर व्यापी त्वचा) । ९ समुद्धात द्वार समुद्रात किसको कहते हैं ? मूल शरीर को बिना छोड़े जीवके प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्धात कहते हैं, जिसके भेद ७ हैं- १ वेदनीय, २ कषाय, ३ मारणान्तिक, ४ वैक्रिय, ५ तैजस, ६ आहारक, ७ केवली । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सन्नी(संज्ञी)द्वारमंजी किसको कहते हैं? जिसके मन हो उसे संज्ञी और जिसके मन न हो उसे असंज्ञी कहते हैं। ११ वेद द्वारवेद किसको कहते हैं-- जिस कर्म के उदय से जीवके शरीर का आकार स्त्री पुरुष नपुंसक रूप हो उसे द्रव्यवेद कहते हैं और जिस कर्म के उदयसे जीव के विषय भोगकी अभिलाषा हो उसे भाववेद कहते हैं। उस के तीन भेद हैं-१ स्त्रीवेद, २ पुरुषवेद, ३ नपुंसकवेद। १२ पज्जत्ति(पर्याप्ति) द्वारपर्याप्ति किसको कहते हैं? आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाषा और मन,इन छह प्रकारके पुद्गलोंको यथायोग्य परिणमाने की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। इस के छह भेद हैं-आहारपर्याप्ति,२ शरीरपर्याप्ति, ३ इन्द्रियपर्याप्ति, ४ श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ५ भाषापर्याप्ति, ६ मन:पर्यापि। १३ दृष्टि द्वारदृष्टि किसको कहते हैं? तत्व विचारणा की चि को दृष्टि कहते हैं, इसके तीन भेद हैं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] १ सम्यग्दृष्टि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम क्षय क्षयोपशम होने पर जो जीवादि तत्वों की भर उत्पन्न होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । २ मिध्यादृष्टि-दर्शन मोहनीयकर्म के उदय होने से जो जीवादि तत्वों की विपरीत श्रद्धा होती है, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । ३ सम्परिमदृष्टि (मिश्र) - मिश्रमोहिनीयकर्म के उदय से जो कुछ सम्यक्त्व कुछ मिथ्यात्वरूप मिश्रित परिणाम होता है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। गुड़ मिले हुए दहीं के खाने से जैसे खटमीठा मिश्ररूपत्वाद आता है वैसे ही सम्यक्त्व और मि ध्यात्व दोनोंसे मिला हुआ परिणाम होता है उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं । १४ दर्शन द्वार दर्शन किस को कहते हैं ? जिस में महा सत्ता सामान्य का प्रतिभास (निराकाराझलक) हो, उसको दर्शन कहते हैं । दर्शन के प्यार भेद १ चक्षुदर्शन - नेत्रजन्य मतिज्ञान से पहिले होने वाले सामान्य प्रतिभास या अवलोकन को चक्षुदर्शन कहते हैं । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] २ चक्षुदर्शन - नेत्र के सिवाय दूसरी इन्द्रियों और मन सम्बन्धी मतिज्ञान के पहले होने वाले सामान्य अबलोकन को प्रचक्षु दर्शन कहते हैं । ३ अवधिदर्शन - अवधिज्ञान से पहिले होने वाले सामान्य अवलोकन को अवधि दर्शन कहते हैं । ४ केवलदर्शन- केवलज्ञान के बाद होने वाले सामान्य धर्म के अवलोकन ( उपयोग ) को केवल दर्शन कहते हैं । १५ नाण द्वार - ज्ञान किसको कहते हैं ? किसी विवक्षित पदार्थ के विशेषधर्म को विषय करने वाले को ज्ञान कहते हैं। उसके दो भेद हैं- सम्यग्ज्ञान । मिथ्याज्ञान, सम्यग ज्ञान के पांच भेद हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि - ज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान । १ मतिज्ञान- इन्द्रिय और मनकी सहायता से जो ज्ञान हो, उसको मतिज्ञान कहते हैं । २ श्रुतज्ञान- मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध लिये हुए किसी दूसरे पदार्थ के ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते है, जैसे- "घट" शब्द सुननेके अनन्तर उत्पन्न हुआ कंबुग्रीवादि रूप घट का ज्ञान । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] ३ अवधिज्ञान - द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादा लिये जो रूपी पदार्थको स्पष्ट जाने । ४ मनः पर्यवज्ञान द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादा को लिये हुए जो दूसरे के मनमें तिष्ठते (ठहरे हुए रूपी पदार्थ को स्पष्ट जाने । ५ केवल ज्ञान - जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् ( एक साथ ) स्पष्ट जाने । मिथ्याज्ञान के तीन भेद हैं- १ मतिज्ञान, २ श्रुतअज्ञान, ३ विभंगज्ञान। ये तीन घ्यज्ञान हैं । १६ योग द्वार - योग किसको कहते हैं ? मन वचन काय की प्रत्ति को योग कहते हैं, इसके पन्द्रह भेद हैं- ४मनके, ४ वचन ( भाषा) के, ७ कायाके। मन के चार भेद इस प्रकार हैं- १ सत मनयोग, २ असत महयोग, ३ मिश्र मनयोग, ४ व्यवहार मनयोग | बचन ( भाषा) के चार भेद इस प्रकार हैं- १ सन वचन योग, २ असत वचन योग, ३ मिश्रबचन योग, ४ व्यवहार वचन योग । काय के सात भेद इस प्रकार हैं-१ औदारिकशरीरकाययोग, २ औदारिक मिश्रशरीरका प्रयोग, ३वैक्रियशरीरकाययोग, ४ वैक्रीयमिश्रशरीरकाययोग, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ५आहारशरीरकाययोग, ६ अाहारकमिश्रशरीरकाययोग, ७ कार्मणशरीरकाययोग। १७ उपयोग द्वारउपयोग किसको कहते हैं? ज्ञान दर्शनकी प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं, उसके बारह भेद हैं-५ ज्ञान, ३ अज्ञान, ४ दर्शन । १८ किमाहार द्वारजीव किस प्रकारके पुद्गलों का आहार करता है? २८८ प्रकार के पुद्गलों का आहार करता है। १९ उववाय द्वारउपपात किसको कहते हैं? जीव पूर्व भव से प्रा कर उपजे उसे उपपात कहते हैं, उनका प्रमाण१.२.३ जावसंख्याता, असंख्याता, अनन्ता। २० ठिई द्वारस्थिति किसको कहते हैं?जीव जितना काल तक जिस भवकी पर्याय को धारण करे उसे स्थिति कहते हैं, उसका प्रमाण- जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट ३३ सागर। १ विशेष खुलासा देखो जीवाभिगमसूत्र प्रथम प्रतिपत्ति । पत्र ११।२।३ (जीवा० ) देवचद लालभाई Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] २१ समोहया असमोहया द्वार-- समोहया असमोहया मरण किसको कहते हैं? समोहया मरण- जो ईलिका गति समुद्धात कर के मरे, अर्थात् कीडीकी कतार की तरह जीव के प्रदेश अलग अलग निकले उसे समोहया मरण कहते हैं । असमोहयामरण-जो गेंद (दडी) गति समुद्धात कर के मरे अर्थात् बन्दूककी गोलीके माफक जीवके प्रदेश एक साथ निकले उसे असमोहयामरण कहते हैं। २२ चवण द्वारच्यवन किसको कहते हैं? जीव वर्तमान भव को छोड़ कर के अन्य भव की पर्याय को धारण करे उसे च्यवन कहते हैं, इस का प्रमाण-- १-२-३, जाव संख्याता असंख्याता अनन्ता। २३ गइआगई द्वारगल्यागति किसको कहते हैं? जीव मर कर भवा. न्तर में जावे उसे गति कहते हैं,हमका पांच भेद हैं१ नारकी, २ तिर्यच, ३मनुष्य, ४देवता, सिद्धगति । और जो जीव भवान्तर मे आ कर उत्पन्न होवे उसे आगति कहते हैं। उसके चार भेद हैं-- १ नारकी, २ तिर्यच, ३ मनुष्य, ४ देवता । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] २४ प्राण द्वार - प्राण किस को कहते हैं? जीवन के आधारभूत पदार्थों को प्राण कहते हैं, इसके दश भेद हैं- पांच इंद्रिये १ श्रोतेन्द्रिय, २ चक्षुरिन्द्रिय, ३ घ्राणेन्द्रिय, ४ जिह्वेन्द्रिय, ५ स्पर्शनेन्द्रिय, दमनोबल, ७चचनबल, ८ कायबल ९ श्वासोच्छ्वास, १० आयुष । २५ योग द्वार योग किस को कहते हैं? लक्षण पूर्ववत्, उस के तीन भेद हैं-१ मनयोग, २ वचनयोग, ३ काययोग । अब एक दंडक नारकी का, तेरह दंडक देवता के (भुवनपति का १० दंडक, वानव्यन्तर का १ दंडक, ज्योतिषी का १ दण्डक, वैमानिक का १ दण्डक ) ये • १४ दंडक ऊपर २५ द्वार कहते हैं— १ शरीर - शरीर पावे तीन वैक्रिय, तैजस कार्मण । २ अवगाहना - पहली नारकी से सातमी नारकी तक भवधारिणी शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग । उत्कृष्टी पहली नारकी की ७ ||| धनुष ६ अंगुल की, दुजी नारकी की १५ || धनुष १२ अंगुल की तीजी ३१/ चौथी ६२॥ 35 "" 55 "" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचमी ,, १३५ ,, ट्ठी , २०० ,, मातमी ,, ५०० ,, . उत्तरवैक्रिय करे तो जघन्य अंगुल के संख्यातमें भाग, उत्कृष्टी आप आपके अवगाहनासे दूनी जैसेसातमी नारकीरी भवधारणी शरीर की ५०० धनुषकी उत्तरवैक्रिय करे तो १००० धनुषकी । भुवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, पहिले दूजे देव लोककी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग,उत्कृष्टी हाथकी। तीजे देवलोक से सर्वार्थसिद्ध तक जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी अलग अलग तीजे, चौथे, देव लोककी ६ हाथकी पांचवे छठे , . ५,, सातवे आठवे ,, ,, नवमें से बारमें ,, ,, नव ग्रैवेयक की ,, २,, पांच अनुत्तर विमानमें एक हाथकी । उतर वैक्रिय करे तो जघन्य अंगुलके संख्यात में भाग, उत्कृष्टी बार में देव लोकतक लाख जोजन की । नवौवेयकका तथा अनुत्तर विमान का देवता वैक्रिय करे नहीं। " to ex Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] ३ संघयण - संघण नहीं, नारकी में अशुभ पुद्गल परीणने और देवता में शुभ पुद्गल परीणमें । ४ संठाण - नारकी में संठाण पावे एक हुण्डक, देवता में संठागा पावे एक समचोरंस | ५ कषाय- नारको देवता के १४ दंडक में कषाय पावे च्याऊं ही । ६ मंज्ञा- नारकी देवता के १४ दण्डकमें संज्ञा पाये १ व्या ही । I ७ लेश्या - पहिली दुजी नारकी में लेश्या पावे एककापोत। तीसरी नारकी में लेश्या पावे दोय-कापोत और नील | चौधी नारकी में लेश्या पावे एक-नील पांचमी नारकी में लेश्या पावे दोय नील और कृष्ण । छटी नारकी में लेापावे एक- कृष्ण । सातमी नारकी में लेश्या पावे एक महाकृष्ण । दश भुवनपति और वाणव्यन्तर देवता में लेश्या पावे च्यार पहेलड़ी। ज्योतिषी तथा पहिले दजे देवलोक में लेइया पावे एक तेजो। तीजे चोथे पांच में देवलोक में लेश्या पावे एक पद्म । छठे देवलोक में नववेक तक लेश्या पावे एक शुक्ल । पांच अनुत्तर विमागणा में लेइया पावे एक परम शुक्ल । ८ इन्द्रिय- नारकी और देवता में इन्द्रिय पावे पांच२ ९ समुद्घात - नारकी में समुद्घात पावे च्यार ३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] वेदनी, कषाय, मरणांतिक, वैक्रिया भुवनपतिसे जाव बार में देवलोक तक समुद्घात पावे पांच अनुकर्म की । नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान में समुद्घात पावे पांच, परंतु समुद्घात करे तीन, वेदनी कषाय और मरणान्तिक। १० सन्नी-पहिली नारकी, भुवनपति, वाणव्यंतर में सन्नी असन्नी दोनों उपजे । दुजी नारकी से सातमी नारकी तक तथा ज्योतिषी से पांच अनुत्तर विमान तक सन्नी उपजे। ११ वेद-नारकी में वेद पावे एक- नपुंसक । भुवनपति, वाणव्यंतर, जोतिषी, पहिले दूजे देवलोक में वेद पावे दोय-स्त्रीवेद, पुरुष वेद । तीसरे देवलोक से सर्वार्थसिद्धि विमाण तक वेद पावे एक-पुरुषवेद ।। १२ पन्जति- नारकी और देवता में पर्याय पावे पांच२ कारण भाषा और मन दोनों सामिल बंधती हैं । १३ दृष्टी- नारकी और भुवनपति से बारमें देवलोक तक दृष्टी पावे तीनही । नवौवेयक में दृष्टी पावे दोय-सम्यग्दृष्टी मिथ्यादृष्टी । पांच अनुत्तर विमान में दृष्टी पावे एक सम्यग्दृष्टी । १४ दर्शन-नारकी,और देवतामें दर्शन पावे तीन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन । १५ नाण- नारकी, और देवता में ज्ञान पावे तीन मति ज्ञान श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान । १६ अनाण - नारकी और भुवनपतिसे नवग्रैवेयक तक अज्ञान पावे तीन, मति अज्ञान, श्रुत ज्ञान, विभंगज्ञान | पांच अनुतर विमान में अज्ञान पावे नहीं | १७ योग - नारकी और देवता में योग पावे इग्यारे ४ मन का, ४ वचन का, ३ काया का, (वैक्रियशरीरकाययोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग और कार्मणशरीरकाययोग | ) १८ उपयोग - नारकी और देवतामें नवग्रैवेयक तक उपयोग पावे नव - ३ ज्ञान ३ अज्ञान ३ दर्शन । पांच अनुत्तर विमानमें उपयोग पावे छह । तीन ज्ञान और तीन दर्शन । १९ आहार - नारकी और देवता आहार लेवे २८८ बोल का । जिसमें दिशि आसरी नियमा छह दिशिका आहार लेवें । २० उबवाय - नारकी और भुवनपतिसे लगा कर यावत् आठमें देवलोक तक एक समय में ज०१-२-३जाव Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] संख्याता उ० असंख्याता उपजे । नवमें देवलोक से लगा कर यावत् सर्वार्थसिद्ध तक ज० १.२.३ जाव उ० संख्याता उपजे | २१ स्थिति - समुच्चय नारकीका नेरियाकी स्थिति ज० दश हजार वर्ष की उत्कृष्टी ३३ सागरोपम की । १ पहिली नारकी का नेरिया की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की उ० १ सागरोपम की । २ दुसरी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० एक सागरोपमकी उ० ३ सागरोपम की । ३ तीसरी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० ३ सागरोपमकी उ० ७ सागरोपम की । ४ चौथी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० ७ सागरोपमकी उ० १० सागरोपम की । ५ पांचमी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० १० सागरोपमकी उ० १७ सागरोपमकी | ६ छुट्टी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० १७ सागरोपमकी उ० २२ सा रोपम की । ७ सातमी नारकी का नेरिया की स्थिति ज० २२ सागरोपमकी उ० ३३ साग़रोपम की । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] भुवन पति देवता के विषे असुरकुमार की जाति के विषे दो इंद्र हैं चमरेन्द्र और बलेन्द्र। चमरेन्द्र जी के रहेवास की चमर चंचा राजधानी जंबूद्वीप का मेरु पर्वत से दक्षिण दिशी अधोलोक में है। बलेन्द्र जी के रहेवास की बलचंचा राजधानी जंबूद्वीप का मेरु पर्वत से उत्तर दिशी अधोलोक में है। चमरेन्द्र जी का भवनवासी देवता की स्थिति, ज. दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी एक सागरोपमकी और उनकी देवी की स्थिति । ज० दश हजार वर्ष की उत्कृष्टी ३॥पल्यापम की। बाकी के नव जाति के दक्षिण दिशाका भक्नपति देवता की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की उत्कृष्टी १॥ पल्यापम और उनकी देवीकी स्थिति ज. दश हजार वर्ष उत्कृष्टी ।। पल्यापम की । बलेन्द्रजी के भवनवासी देवता की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी एक सागरोपम जाझेरी । उनकी देवी की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी ४॥ पल्योपम की बाकी के नव जाति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] के उत्तरदिशिका भवनपति देवता की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी देशउणा २ पल्योपम की । उनकी देवी की स्थिति ज०दश हजार वर्षकी । उत्कृष्टी देशउणा १ पल्योपम की । बाणमत्तर देवता की स्थिति ज०दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी ९पल्योपम की । उनकी देवी की स्थिति ज० दश हजार वर्ष की । उत्कृष्टी अर्द्ध पल्कोपमकी | YOJTHICK ज्योतिषी देवता की स्थिति इनके पांच भेद - १ चन्द्रमा, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, ५ तारा । चन्द्रविमानवासी देवताकी स्थिति ज०पाव पल्योपम की उ०१ पाल्योपम और एक लाख वर्ष की । उनके देव्यां की स्थिति ज० पाव पल्योपमकी उ० आध पल्योपम और ५० हजार वर्ष की । सूर्यविमान वासी देवता की स्थिति ज० पात्र पल्योपमकी उ० १ पल्योपम और १ हजार वर्षकी । उनकी देव्यांकी स्थिति ज०पावपल्योपमकी उ० आाधापल्योपम और ५००वर्ष की। ग्रहविमाणवासी देवताकी स्थिति ज०पाव पल्योपमकी उ० १ पल्योपमकी, उनके देव्यांकी स्थिति ज० पाव पल्योपम की उ० आधा पल्योपमकी | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] नक्षत्र बिमान वासी देवता की स्थिति - ज० पाव पल्योपमकी उ० आधा पल्योपम की । इनके देव्यांकी स्थिति ज० पाव पल्योपम की उ० पाव पल्योपम जाझेरी । ताराविमानवासी देवताकी स्थिति ज०पल्योपमके आठमें भागकी उ०पाव पल्योपमकी उनकी देव्यांकी स्थिति 'ज० पल्योपमके आठमें भागकी उ०पल्योपमके आाउमें भाग जारी । वैमानिक देवता की स्थिति — १ पहिले देवलोक के देवता की स्थिति ज० १ पल्योपमकी उ०२ सागरोपम की । उनके देवीयां दोय प्रकारकी - १परिगृहीता और अपरिगृहीता; परिगृहीता देवीयां की स्थिति ज० १ पल्योपम की उ० ७ पल्योपम की । अपरिगृहीता देवीयां की स्थिति ज० १ पल्योपम की उ० ५० पत्योपम की । २ दूसरे देवलोक के देवता की स्थिति ज० १ पल्योपम जारी उ० २ सागरोपम जारी, उनके देवीयां दो प्रकार की- १ परिगृहीता और अपरिगृहीता । परिगृहीता देवीयां की स्थिति ज०१ पल्योपम जारी उ०९ पल्योपम की । अपरिगृहीता देवीयां की स्थिति ज०१ पल्योपम जाभेरी उ०५५ पल्योपमकी । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तीसरे देवलोकके देवताकी स्थिति ज०२ सागरोपम की . उत्कृष्टी ७ सागरोपम की ४ चौथे देवलोक के देवताकी स्थिति ज०२ सागरोपम् की जाझेरी उत्कृष्ठी ७ सागरोपम की जाझेरी। ५ पांचमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज० ७ सागरोपम की उत्कृष्टी १० सागरोपम की ६ छठे देवलोक के देवताको स्थिति ज० १० सागरोपम को . उत्कृष्टी १४ सागरोपम की ७ सातमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज० १४ सागरोपम की उत्कृष्टी १७ सागरोपम की ८ आठमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज०१७ सागरोपम की उत्कृष्टी १८ सागरोपम की ६ नवमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज० १८ सागरोपम की उत्कृष्टी १९ सागगेपम की १० दसमे देवलोकके देवत.की स्थिति ज०१६ सागरोपम की उत्कृष्टी २० सागरोपम की ११ ग्यारहमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज०२० सागगेपन की उत्कृष्टी २१ सागरोपम की १२ बारहमे देवलोकके देवताकी स्थिति ज० २१ सागरोपम की उ.कृष्टी २२ सागरोपम की। १३ पहिले ग्रैवेयक का देवता की स्थिति ज० २२ सागरोपमकी उत्कृष्टी २३ सागरोपम की १४ दुसरे ग्रेवेयक का देवता की स्थिति ज० २३ मागगेपम की उन्कृष्टी २४ सागरोपम की १५ तीसरे ग्रैवेयक का देवता की स्थिति ज०२४ सागरोपम की उत्कष्टी २५ सागरोपम की Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ चौथे ग्रैवेयक का देवता की स्थिति जैगर सागरोपस की, उत्कृष्टी २६ सागरोपम की. STAsaan, AHEN १७ पांचमे ग्रैवेयक का देवता की स्थिति जन्द सागरोपम की . उत्कृष्टी २७ सागरोपम की १८ छठे ग्रैवेयक का देवता की स्थिति ज० २७ सागरोपम की उत्कृष्टी २८ सागरोपम की १९ सातमें अवेयक का देवता की स्थिति ज०२८ सागरोपम की उत्कृष्टी २६ सागरोपम की । २० अाठमें ग्रैवेयक का देवता की स्थिति ज०२६ सागरोपमकी उत्कृष्टी ३०सागरोपम की २१नव में ग्रैवेयक का देवता की स्थिति ज० ३० सागरोपम की उत्कृष्टी ३१ सागरोपम की २२ चार अनुत्तर विमान का देवता की स्थिति ज० ३१ सागरोपम की उ०३३ सागरोपम की। २३ सर्वार्थसिद्ध विमान का देवता की स्थिति अजघन्य अनुत्कृष्टी ३३ सागरोपम की। २१ समोहया असमोहया मरण-नारकी और देवता दोनों प्रकार के मरण मरते हैं। ___ २२ चवण-- नारकी और भुवनपति देवता से लगाकर यावत् आठवां देवलोक तक ज० १-२-३ यावत् संख्याता उ० असंख्याता च्यवे । नवमां देवलोक से लगाकर यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान तक ज० १-२-३ उत्कृष्ट संख्याता च्यवे । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] २३ गह--पहेली नारकी से लगाकर यावत् छठी नारकी तक दोय गतिसे ग्रावे और दोय गतिमें जावे। तिर्यंच गति और मनुष्य गति । दण्डक आसरी दोय दण्डक से आवे और दोय दण्डकमें जावे । तिर्यंचपंचे. न्द्रियका और मनुष्यको । मातमी नारकीमें दोय गति से आवे, तिर्यच गति का और मनुष्य गतिका, और जावे एक तिर्यंच गतिमें । दण्डक आसरी दोय दण्डक, का आवे(२०-२१वांदण्डक)का, जावे एक तिर्यचपंचेन्द्रियका(२०वांदण्डक)में। भुवनपति वाणव्यंतर,ज्योतिषी और पहिले दुजे देवलोकका देवता दोय गतिसे भावे और दोय गतिमें जावे-तिथच गति और मनु. ष्य गति । दण्डक आसरी दोय दण्डक का आवे, तिर्यचपंचेन्द्रिय का और मनुष्य का और जावे पांच दण्डक में-- पृथ्वीकोय का, अपकायको, वनस्पतिकीय का, तिर्यचपंचेंद्रियकों और मनुष्यका । तीजा देवलोक से लगाकर यावत् आठवां देवलोक तक गत्यागति पहेली नरकवत् । नवमां देवलोक से लगाकर यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान का देवता एक गति से आवे और एक गति में जावे. मनुष्य गति । दण्डक आसरी एक दण्डकसे आवे और एक दण्डकमें जावे,मनुष्यका दण्डक। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] २४प्राण-नारकी और देवतामें प्राण पावेदश दश। २५योग-नारकी और देवतामें योग पावे तीन ही ५ स्थावर और असन्नी मनुष्य का अधिकार कहते हैं १शरीर-चार स्थावर-१ पृथ्वीकाय २ - 'पकाय, ३तेउकाय, ४ वनस्पतिकाय और प्रसन्नी मनुष्य, इन पांचों में शरीर पावे तीन औदारिक, तैजस और काण । वायुकाय में शरीर पावे चार.. औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण । २ अवगाहना-- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, और प्रसन्नी मनुष्य इन पांचों की अव. गाहना ज० अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी अंगुल के असंख्यात में भाग , ज० से उत्कृष्टी असंख्यात गुणी । वनस्पति काय की अवगाहना- ज. अंगुलके असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी १००० जोजन जाझेरी कमलादि की अपेक्षा से। ३ संघयण- पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में संघयण पावे एक छेवट । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] ४ संठाण - पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में संठाण पावे एक हुंडक । ५ कषाय - पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में कषाय पावे चार चार । ६ संज्ञा - पांच स्थावर और सन्नी मनुष्य में संज्ञा पावे चार चार । ७ लेश्या - पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय । इन तीनों में लेश्या पावे चार२, कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या और तेजो लेश्या । तेउकाय, वायुकाय और असन्नी मनुष्य में लेश्या पावे तीन २ -- कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या । ८ इन्द्रिय- पांच स्थावर में इन्द्रिय पावे एक स्पर्शेन्द्रिय । सन्नी मनुष्य में इन्द्रिय पावे पांचुंही । ९ समुद्घात - चार स्थावर में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय वनस्पतिकाय और असन्नी मनुष्य इन पांचों में समुद्घात पावे तीन तीन वेदनी समुद् घात, कषाय समुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात । वायुकाय में समुद्घात पावे चार वेदनी समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और वैक्रिय समुद्घात । -- Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] १० सन्नी-पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य असन्नी हैं सन्नी नहीं। ११ वेद.. पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में वेद पावे एक-नपुंसक। १२ पजत्ति- पांच स्थावर में पर्याप्ति पावे चार चार, आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोश्वास पर्याप्ति । असन्नी मनुष्य में चारों पर्याप्ति का अपर्याप्ता। १३ दृष्टी-पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में दृष्टी पावे एक-मिथ्या दृष्टी । १४ दर्शन--पांच स्थावर में दर्शन पावे एक, अचक्षु दर्शन । असन्नी मनुष्य में दर्शन पावे, दोय चक्षु दर्शन और अचक्षु दर्शन। १५ नाण-- पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में ज्ञान नहीं। अन्नाण-- पांच स्थावर और असन्नी मनुष्य में अज्ञान पावे दोय दोय। मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान । १६ योग-चार स्थावर- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वनस्पतिकाय और असन्नी मनुष्य इन पांचों Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] में योग पावे तीन तीन । औदारिक शरीर काय योग, औदारिक मिश्र शरीर काय योग और कार्मण शरीर काय योग । वायुकाय में योग पावे पांच, औदारिक शरीर काय योग, औदारिक मिश्र शरीर काय योग, वैक्रिय शरीर काय योग, वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग और कार्मण शरीर काय योग। १७ उपयोग- पांच स्थावर में उपयोग पावे तीन तीन-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और अचक्षु दर्शन। असन्नी मनुष्य में उपयोग पावे चार-- मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, चक्षु दर्शन और अचक्षु दर्शन। १८ आहार-- पांच स्थावर में आहार २८८ बोलों का लेते हैं, जिसमें व्याघात प्रासरी सिय तीन दिशि का, सिय चार दिशि का, सिय पांच दिशि का, और निर्व्याघात प्रासरी नियमा छह दिशि का । असन्नी मनुष्य में आहार लेवे २८८ बोल का, जिस में दिशि आसरी नियमा छह दिशि का । १६ उववाय-- चार स्थावर में स्वस्थान आसरी समय समय असंख्याता उपजे और परस्थान आसरी ज०१.२-३संख्याता, उत्कृष्ट असंख्याता उपजे, वनस्पति काय में स्वस्थान आसरी समय समय अनंता उपजे । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] और परस्थान ग्रासरी जघन्य १.२-३संख्याता,उत्कृष्ट असंख्याता उपजे। असन्नी मनुष्यमें ज०१-२-३यावत् संख्याता, उत्कृष्ट असंख्याता उपजे । २०स्थितिपृथ्वीकायकी स्थिति ज० अंतर्मुहर्त की उ० २२००० वर्ष की, अपकाय ७००० ,, तेउकाय तीन अहोरात्री की वायुकाय , ,, ,, ३००० वर्ष की, वनस्पतिकाय ,, १०००० ,, असन्नी मनुष्य की , ,, अंतर्मुहूर्त की २१ समोहया असमोहया मरण- पांच स्थावर और प्रसन्नी मनुष्य दोनों प्रकार के मरण मरते हैं । २२ चवण-चार स्थावर में स्वस्थान प्रासरी समय समय असंख्याता च्यवे, और परस्थान आसरी ज० १-२-३ यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याता च्यवे, वनस्पति काय में स्वस्थान प्रासरी समय समय अनंता च्यवे और परस्थान आसरी ज० १ - २-३ यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याता च्यवे । असन्नी मनुष्य में ज० १ - २ -- ३ यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याता च्यवे। २३गई-पृथ्वीकाय,अपकाय, और वनस्पति काय Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] में तो तीन गति का आवे तिर्यचगति का मनुष्य गति का, और देवगतिका, और दोय गति में जावे, तिर्यंच गति में और मनुष्य गति में । दण्डक आसरी २३दण्डकका आवे--भुवनपति, ५स्थावर,३बिकलेन्द्रिय, १तिर्यचपंचेन्द्रिय, १मनुष्य, श्वाणव्यन्तर, १ज्योतिषी, १ वैमानिक का; और दस दण्डक में जावे ५ स्थावर , ३ विकलेन्द्रिय,१तिर्यंचपंचेन्द्रिय और १ मनुष्य का । तेउकाय वायुकाय में दो गतिका आवे-तिर्यंच गति का और मनुष्य गतिका, और जावे एक तिर्यंच गति में। दण्डक आसरी दस दण्डक से आवे औदारिक का दस दण्डक उपरोक्त । जावे नव दण्डक में.-५ स्थावर ३ विकलेन्द्रिय और तिर्यचपंचेन्द्रियका, और असन्नी मनुष्य दोय गति का आवे-तियचगति से और मनुष्य गति से, और दो गति में जावे- तिर्यच गति में और मनुष्य गति में और दण्डक आसरी आठ दण्डक का आवे- १पृथ्वीकाय, १ अपकाय, और वनस्पति काय, ३ विकलेन्द्रिय, तिर्यचपंचेन्द्रिय और मनुष्यका, जावे दस दण्डक में उपरोक्त औदारिक का। ____२४ प्राण-पांच स्थावर में प्राण पावे चार, स्पर्शेन्द्रिय प्राण, कायबल प्राण, श्वासोश्वास प्राण, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] और आयुष्य प्राण और असन्नी मनुष्य में प्राण पावे आठ पंचेन्द्रिय के, कायवल प्राण श्वासोश्वास प्राण और आयुष्य प्राण । २६ योग-पांच स्थावर और प्रसन्नी मनुष्य में योग पावे एक काया का तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचे न्द्रिय का अधिकार कहते हैं १ शरीर- तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में शरीर पावे तीन तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण। २ अवगाहना-बेइन्द्रिय की अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी १२ योजन की। तेइन्द्रिय की अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी ३ गाउ ( कोस ) की। चोइन्द्रिय की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी ४ गाउ की। असन्नी तिर्यचपंचेन्द्रिय के पांच भेद- . जलचर,स्थलचर,खेचर,उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प । जलचर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी १००० जोजन की। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] स्थलचर की अवगाहना जघन्य अंगुलके असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी प्रत्येक गाउ की । खेचर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी प्रत्येक धनुष कीं । उरपरिसर्पको अवगाहना जघन्य अंगुलके असंख्यात में भाग, उत्कृष्टी प्रत्येक जोजन की । भुजपरिसर्पको अवगाहना जघन्य अंगुलके असंख्यात में भाग, उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष की । ३ संघपण - तीन विकलेन्द्रिय और सन्नीतिर्यच पंचेन्द्रिय में संघयण पावे एक छेवट्ट । ४ संठाण - तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में संठाण पावे एक- हुंडक । ५ कषाय - तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी निर्यच पंचेन्द्रिय में कषाय पाये चार चार । ६ संज्ञा- तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में संज्ञा पावे चार चार । ७ लेश्या - तीन बिकलेन्द्रिय और असन्नी तिथेच पंचेन्द्रिय में लेइया पावे तीन २ - कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेहया । ८ इन्द्रिय- बेइन्द्रिय में इन्द्रिय पावे दोरसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय । तेइंद्रिय में इंद्रिय पावे तीन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] घाणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय । चौरिन्द्रिय में इंद्रिय पावे चार-- चक्षुइंद्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शन्द्रिय । असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में इंद्रिय पावे पांच-- श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइंद्रिय, घ्राणेन्द्रिय,रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय । समुद्घात-तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में समुद्घात पावे तीन तीन- वेदनी, कषाय और मारणान्तिक । १० सन्नी- सन्नी तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में सन्नी नहीं, असन्नी हैं। ११ वेद- तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिच पंचेन्द्रिय में वेद पावे एक-नपुंसक । १२ पजत्ति - तीन विकलेन्द्रिय और असन्त्री तिर्यंच पंचेन्द्रिय में पर्याप्ति पाचे पांच पांच- आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति,श्वासोश्वास पर्याप्ति और भाषा पर्याप्ति । १३दृष्टि-तीन विकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दृष्टि पावे दोय दोय ---- सम्यग दृष्टि और मिथ्यादृष्टि । १४दर्शन--बेइन्द्रिय और तेहन्द्रिय में दर्शन पावे एक अचक्षु,चोरिन्द्रिय और असन्नी तियेच पंचेंद्रियमें Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] दर्शन पावे दोय दोय- चक्षु दर्शन और अचक्षु दर्शन । १५ नाण-- तीन विकलेन्द्रिय और प्रसन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में ज्ञान पावे दोय दोय- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ।अन्नाण-तीन बिकलेन्द्रिय और प्रसन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में अज्ञान पावे दोय दोय- मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान । १६ योग -तीन बिकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय में योग पावे चार चार-व्यवहार वचनयोग, औदारिक शरीर काययोग, औदारिक मिश्रशरीर काययोग और कार्मणशरीर काययोग ।। १७ उपयोग--बेइंद्रिय और तेइंद्रिय में उपयोग पावे पान पांच-दो ज्ञान, दो अज्ञान और एक अचक्षु दर्शन, चौरिन्द्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में उपयोग पावे छह छह-दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन। १८ आहार-- तीन विकलेंद्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय में आहार २८८ बोल का लेते हैं, जिसमें दिशी आसरी नियमा छह दिशी का। १६ उववाय--तीन विकलेंद्रिय और असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में एक समय में जघन्य एक, दो तीन यावत् संख्याता, उत्कृष्ट असंख्याता उपजे। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ [३७] २० स्थिति-बेइंद्रिय की स्थिति जघन्य अन्त - हूत की उत्कृष्टी १२ वर्ष की । तेइंद्रिय की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्तकी उत्कृष्टी४६अहोरात्रीकी।चौरिंद्रियकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्तकी उत्कृष्टी छह महीना की। __असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय का पांच भेदजलचर,स्थलचर,खेचर, उरपरिसर्प, और भुजपरिसर्प। जलचर की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी एक कोड पूरव की। स्थलचरकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहर्तकी उत्कृष्टी ८४ हजार वर्ष की । खेचर की स्थिति जघन्य अन्तमुहर्तकी उत्कृष्टी ७२ हजार वर्ष की । उरपरिसर्प की स्थिति जघन्य अंतर्मुहत की उत्कृष्टी ५३ हजार वर्ष की । भुजपरिसप की स्थिति जघन्य अंतमुहर्त की उत्कृष्ठी ४२ हजार वर्ष की। ___ २१ समोहया असमोहया मरण-तीन विकलेन्द्रिय और प्रसन्नी तियच पंचेन्द्रिय दोनों प्रकार के मरण मरते हैं। २२ चरण-- तीन विकलेन्द्रिय और असन्त्री तिर्यच पंचेंद्रिय में एक समय में जघन्य १.२.३यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याता च्यवे। २६ गइ-तीन विकलेंद्रिय में दो गति का प्राचे और दो गति में जावे-तिर्यंच गति और मनुष्यगलि। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] दण्डक प्रासरी दस दण्डक का आवे और दस दण्डक में जावे- दस दण्डक औदारिक का, और असन्नी तियच में दोय गति का आवे- तिथंच गति और मनुष्य गति का और जावे चार गति में- नरकगति तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देवगति में; और दण्डक आसरी दस दण्डक का आवे- दस दण्डक औदारिक का; और जावे २२ दण्डक में-१ नारकी, १० भवनपाति, ५ स्थावर, ३ विकलेन्द्रिय, १ तिर्यच पंचेन्द्रिय, १ मनुष्य और १ वागव्यन्तर का। २४ प्राण-बेइद्रिय में प्राण पावे छह-रसेन्द्रिय प्राण, स्पर्शन्द्रिय प्राण, वचनबल प्राण, कायबल प्राण, श्वासोश्वासप्राण और आयुष्य प्राण । तेइन्द्रिय में प्राण पावे सात- घ्राणेन्द्रिय प्राणा रसेन्द्रिय प्राण स्पर्शन्द्रिय प्राण, वचनबल प्रागण, कायबल प्राण, श्वासोश्वास प्राण और आयुष्य प्राण । चोरिन्द्रिय में प्राण पावे आठ चक्षुरिन्द्रिय- प्राण और सात पूर्वोक्त । असन्नी तियेच पंचेन्द्रिय में प्राण पावे नव- श्रोतेंद्रिय प्राण और आठ पूर्वोक्त। २५ योग-तीन बिकलेन्द्रिय और असन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में योग पावे दोय दोय- वचन का और काया का। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय का अधिकार कहते हैं १ शरीर- सन्नी तिथंच पंचेन्द्रिय में शरीर पावे चार- औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण । २ अवगाहना-सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय के पांच भेदजलचर,स्थलचर,खेचर,उरपरिसर्पऔर भुजपरिसर्प. जलचर, की अवगाहना ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी १००० जोजन की। थलचर की अवगाहना ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी ६ गाउ की। खेचर की अगाहना ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी प्रत्येक धनुष की। उरपरिसर्प की अवगाहनाज अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी १००० जोजन की। भुजपरिसर्प की अवगाहना ज० अंगुल के अतं. ख्यात में भाग उत्कृष्टी प्रत्येक गाउ की। सन्नी तिर्यंच पंचन्द्रिय वैक्रिय शरीर करे तो अवगाहना ज० अंगुलके संख्यातमें भाग उत्कृष्टी पृथक सौ (ज० २०० उत्कृष्टी ९००) योजन की। ३ संघयण- सन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय में संघयण पावे छउं ही। ४ संठाण-~ सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में संठाण पावे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] छउँ ही। ५ कषाय-सन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय में कषाय पावे चारूं ही। संज्ञा- सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में मंज्ञा पावे चारं ही। ७ लेश्या-सन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में लेझ्या पावे छउं ही। ८ इंद्रिय-मन्त्री तिर्यच पंचेन्द्रिय में इंद्रिय पावे पांचं ही। समुद्घात--सन्नी तिर्यचपंचेन्द्रिय में समुद्घात पावे पांच-वेदनी,कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तैजस । १० सन्नी-तियचपंचेन्द्रिय सन्नी है असन्नी नहीं। ११ वेद-सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में वेद पावे तीन ही। १२ पजति- सन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में पर्याप्ति पावे छउं ही। १३ दृष्टी- सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दृष्टी पावे तीन ही। १४ दर्शन-सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में दर्शन पावे तीन-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन । १५ नाण- सन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय में ज्ञान पावे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१] तीन-मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान और अवधि ज्ञान । ___अन्नाण- सन्नी तियेच पंचेन्द्रिय में अज्ञान पावे तीनुं ही। १६ जोग- सन्नी तियच पंचेन्द्रिय में योग पावे १३- ४ मन का, ४ वचन का और ५ काया का। औदारिक शरीर काय योग, औदारिक मिश्रशरीर काययोग, वैक्रिय शरीर काययोग, वैक्रिय मिश्र शरीरकाययोग और कार्मण शरीर काययोग । १७ उपयोग- सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय में उपयोग पावे नव-३ ज्ञान, ३ अज्ञान और ३ दर्शन । ' १८ आहार- सन्नी तियच पंचेंद्रिय आहार २८८ बोल का लेते हैं जिसमें दिशी आसरी नियमा छह दिशी का। - १९ उववाय-- सन्नी तियचय पंचेन्द्रि एक समन में ज०१-२-३ यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याता उपजे। २० स्थिति-सन्नी तियेच पंचेन्द्रिय के पांच भेदजलचर, थलचर, खेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प । जलचर की स्थिति ज० अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी एक क्रोड़ पूर्व की। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] थलचर की स्थिति ज० अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी तीन पल्योपम की। खेचर की स्थिति ज. अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी पल्योपम के असंख्यात में भाग की। उरपरिसर्प की स्थिति ज. अंतर्मुहर्तकी उत्कृष्टी एक क्रोड़ पूर्व की। भुजपरिसर्प की स्थिति ज० अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी एक क्रोड़ पूर्व की। २१ समोहया असमोहया मरण- सन्नी तिच प्रनेन्द्रिय दोनों प्रकार के मरण मरते हैं। - २२ चवण- सन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय एक समय में ज०१-२-३ यावत् संख्याता उत्कृष्ट असंख्याताच्यवे। २३ गह-सन्नी तिर्यच पंचेंद्रिय गति ग्रासरी पारों गति से ग्रावे और चारों गति में जावे, और दण्डक आसरी २४ दण्डक का आवे और २४ दण्डक में जावे। ___ २४ प्राण-सन्नी तिथंच पंचेंद्रिय में प्राण पावे दसुं ही। २५ जोग- सन्नी तिथंच पंचेंद्रिय में योग पावे तीनुं ही। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३ ] सन्नी मनुष्य का अधिकार को कहते हैं १ शरीर - सन्नी मनुष्य में शरीर पावे पांच ही । २ अवगाहना – सन्नी मनुष्य की अवगाहना ज० अंगुल के असंख्यात में भाग. उत्कृष्टी तीन गाउ की। छह आरों की अपेक्षा से मनुष्यों की अवगाहना को कहते हैं अवसर्पिणी काल में लागते पहिले आरे की अवगाहना जοतीन गाउ देसऊणी, उत्कृष्टी तीन गाउ पूरी । पहिले आरे उतरते ज० दो गाउ देसऊणी, उत्कृष्टी दो गाउ पूरी । दूजे आरे लागते ज० दो गाउ देसऊणी, उत्कृष्टी दो गाउ पूरी । दूजे आरे उतरते ज०एक गाउ देसऊगी, उत्कृष्टी एक गाउ पूरी । तीजे मारे लागते ज० एक गाउ देसऊणी, उत्कृष्टी एक गाउ पूरी । तोजे आरे उतरते ज० ५०० धनुष देसणी, उत्कृष्टी ५०० धनुष की पूरी । चौथे मारे लागते ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी ५०० धनुष की पूरी । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] चौथे पारे उतरते ज. अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी सात हाथ की। पांचवें आरे लागते ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी सात हाथ की। पांचवें आरे उतरते ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी दोय हाथ की। छट्टे मारे लागते ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी दोय हाथ की। छट्टै पारे उतरते ज० अंगुल के असंख्यात में भाग उत्कृष्टी एक हाथ की। उत्सर्पिणी काल के छहों ग्रारों की अवगाहना इनसे उलटी यथायोग्य समझ लेनी चाहिए । मनुष्य में वैक्रिय शरीर करे तो अवगाहना जघन्य अंगुलके सं०भाग उत्कृष्टी एक लाख योजन जाझेरी। ३ संघयण--सन्नी मनुष्यमें संघयण पावे छहं ही। ४ संठाण- सन्नी मनुष्य में संठाण पावे छहं ही ५ कषाय---सन्नी मनुष्य में कषाय पावे चारही तथा अकषाई। ६ संज्ञा-- सन्नी मनुष्य में संज्ञा पावे चारूं ही तथा नोसन्नोवउत्ता। ७ लेश्या-सन्नी मनुष्य में लेझ्या पावे छहं ही; तथा अलेशी। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] ८ इन्द्रिय-सन्नी मनुष्य इन्द्रिय पावे पांचं ही; तथा अनिन्द्रिय। ९ समुद्घात-सन्नी मनुष्य में समुद्घात पाये सातों ही १. सन्नी-सन्नी मनुष्य मन्नी हैं, असन्नी नहीं तथा तेरवां चवदां गुणस्थान आसरी नोसन्नी नोअसन्नी है। ११वेद-सन्नी मनुष्य में वेदपावे तीनुं ही,तथा अवेदी है १२ पाजति--सन्नी मनुष्य में पर्याप्ती पावे छहुंही। १३ दृष्टी- सन्नी मनुष्य में दृष्टी पावे तीनही । १४ दर्शन--सन्नी मनुष्य में दर्शन पावे चारुं ही। १५ नाण-- सन्नी मनुष्य में ज्ञान पावे पांचुं ही। अन्नाण--सन्नी मनुष्य में अज्ञान पावे तीन ही। १६ योग--- सन्नी मनुष्य में योग पावे पन्द्रह, तथा अयोगी। १७ उपयोग-- सन्नी मनुष्य में उपयोग पावे बारह ही। १८ आहार---- सन्नी मनुष्य २८८ बोलों का आहार लेते हैं, जिन में दिशी आसरी नियमा छहुं दिशी का तथा अनाहारीक । १६ उववाय- सन्नी मनुष्य एक समय में Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज० १.२-३ उत्कृष्ट संख्याता उपजे। २० स्थिति- सन्नी मनुष्य की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी ३ पल्योपम की। छह पारों की अपेक्षासेसन्नी मनुष्यों की स्थिति को कहते हैं-अवसर्पिणी काल के पहिले आरे लागते ज० ३ पल्योपम देसऊगी उत्कृष्टी ३ पल्योपम पूरी । पहिले आरे उतरते ज०२ पल्पोपम देसऊगी उत्कृष्टी २ पल्योपम पूरी दजे आरे लागते ज० २ पल्यापम देसऊणी उत्कृष्टी २ फ्ल्योपम पूरी दूजे आरे उतरते ज० १ पल्यापम देसऊणी उत्कृष्टी १ पल्योपम पूरी तीजे आरेलागते ज०१ पल्योपम देसऊणी उत्कृष्टी १ पल्योपम पूरी तीजे मारे उतरते ज० कोड़ पूर्व देसऊगी उत्कृष्टी क्रोड पूर्व पूरी चौथे आरे लागते ज० अन्तर्मुहर्तकी उत्कृष्टी एक क्रोड पूर्व पूरी चौथे आरे उतरते ज० अंतर्मुहत की उत्कृष्टी १०० वर्ष जाझेरी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] पांचवें आरे लागते ज० अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट १०० वर्ष जारी पांचवें आरे उतरते ज० अंतर्मुहूर्त को उत्कृष्टी २० वर्ष की छट्ठे आरे लागते ज० अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्टी २० वर्ष की छट्टे आरे उतरते ज० तर्मुहूर्त की उत्कृष्टी १६ वर्ष की उत्सर्पिणी कालके छहों आरोंकी स्थिति यथायोग्य उलटी समझ लेना । २१ समोहया असमोहया मरण-सन्नी मनुष्य में दोनों प्रकार के मरण मरते हैं । २२ चवण - सन्नी मनुष्य एक समय में ज०१२- ३ उत्कृष्टा संख्याता च्यवे । २३ गइ – सन्नी मनुष्य चार गति से आवेनरक गति, तिथेच गति, मनुष्य गति और देव गति । और जावे पांच गति में- नरक गति, तिर्यच गति मनुष्यगति देवगति और मोक्षगति । दण्डक यसरी २४दण्डकसे वे और २४दण्डकमें तथा मोक्षमें जावे २४ प्राण – सन्नी मनुष्य में प्राण पावे दसुं ही । २५ जोग- सन्नी मनुष्य में योग पावे तीनुं हो तथा अयोगी । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] ८६ जुगलिया के अधिकार को कहते हैं जुगलिया के ८६ भेद हैं५ हैमवत, ५ हैरण्यवत, ५ हरिवास, ५ रम्यकवास, ५ देवकुरु ५ उत्तरकुरु और ५६ अंतीप। १ शरीर- छयांसी जुगलियों में शरीर पावे तीन औदारिक, तैजस और कार्मण। २अवगाहना-पांच हैमवत और पांच हैरगयवत इन दसों क्षेत्रके मनुष्योंकी अवगाहना ज०देसऊणा एकगाउ की उत्कृष्टी एकगाउ पूरी। पांचहरिवास और पांच रम्यकवास इन दसों क्षेत्रके मनुष्योंकी अवगाहना जल्देसऊणा दोगाउकी उत्कृष्टी दोगाउ पुरी । पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु इन दसोंकी क्षेत्रके मनुष्यों अवगाहना ज०देस. ऊणा तीन गाउकी उत्कृष्टी तीन गाउ पूरी। छप्पन अंतीपोंके मनुष्यों की अवगाहना ज० देसऊणा आठ सौ धनुषकी, उत्कृष्टी आठ सौ धनुष की पूरी । ३ संघयण- छयांसी जुगलिया में संघयण पावे एकवज्रऋषभनाराच। ४ संठाण-- छयांसी जुगलिया में मंठाण पावे एक समचउरंस। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९] ५ कषाय-छयांसी जुगलिया में कषाय पावे चारों ही। ६ संज्ञा-छयांसी जुगलिया में संज्ञा पावे चारोंही। ___ ७ लेश्या-ज्यांसी जुगलिया में लेश्या पावे चारकृष्ण, नील, कापोत और तेजो। ८ इन्द्रिय- छयांसी जुगलिया में इन्द्रिय पावे पांचों ही। ९ समुद्घात- छयांसी जुगलिया में समुद्घात पावे तीन- वेदनी, कषाय और मारणांतिक । १० सन्नी- छयांसी जुगलिया सन्नी है,असन्नी नहीं। ११ वेद- छयांसी जुगलिया में वेद पावे दोयस्त्रीवेद और पुरुषवेद । ___१२ पजत्ति-च्यांमी जुगलिपा में पर्याप्ति पावे छहों ही। . १३ दृष्टी- तीस अकर्मभूमी में दृष्टी पावे दोय- सम्यकदृष्टी और मिथ्यादृष्टी; और छप्पन अंतदीपोंमें दृष्टी पावे एक मिथ्यादृष्टी। १४ दर्शन- छयांसी जुगलिया में दर्शन पावे दोय-चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५० ] १५ नाण - तीन अकर्म भूमी में ज्ञान पावे दोय - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान; और छप्पन अंतद्वीपों में ज्ञान नहीं । अन्नाण-- छ्यांसी जुगलिया में अज्ञान पावे दोयमतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान । १६ जोग - छयांसी जुगलिया में योग पावे इग्यारह - ४ मनका, ४ वचन का औदारिक- शरीर काययोग, औदारिक-मिश्रशरीर- काययोग और कार्मण शरीर- काययोग | १७ उपयोग — तीस अकर्मभूमि में उपयोग पावे छह - दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन । और छप्पन अंतद्विपों में ४- दोय अज्ञान और दोय दर्शन । १८ आहार- दयांसी जुगलिया में २८८ बोलका आहार लेते हैं, जिसमें दिशी आसरी नियमा छह दिशी का । १९ उववाय - इयांसी जुगलिया में एक समय में ज० १-२-३ उत्कृष्टा संख्याता उपजे । -- २० स्थिति - पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत इन दसों क्षेत्रों के मनुष्यों की स्थिति ज०देसऊणा एक पल्योपम की उत्कृष्टी एक पल्योपम की। पांच हरीवास और पांच रम्यकवास इन दसों क्षेत्रों के मनुष्यों Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] की स्थिति ज० देसऊणा दो पल्योपम की उत्कृष्टी दो पल्योपम की। पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु इन दसों क्षेत्रों के मनुष्यों की स्थिति ज० देसऊणा तीन पल्योपम की उत्कृष्टी तीन पल्योपम की । छप्पन द्वीपों के मनुष्यों की स्थिति ज०वल्योपमके असंख्यात में भाग जिस में पल्घोषम के असंख्यात में भाग कणी उत्कृष्टी पल्योपम के असंख्यात में भाग । २१ समोहयासमोहया मरण- छ्यांसी जुगलिया दोनों प्रकार के मरण मरते हैं। २२ चवण-यांसी जुगलिया एक समय में ज १-२.३ उत्कृष्ट संख्याता च्यवे । २३ गह - छ्यांसी जुगलिया दो गति से आवे तिर्यच गति से और मनुष्य गति से और जावे एक देवगति में । दण्डक आसरी तीस अकर्मभूमि में दो दण्डक का आये-तियेच पंचेंद्रिय का और मनुष्य का; और जावे तेरह दण्डक में - १० भुवनपति, १ वाणच्यन्तर १ ज्योतिषी और१वैमानिक । छप्पन अंतद्वयों · में दो दण्डक का आवे - तियेच पंचेंद्रियका औरमनुव्यका, और जावे इग्वाराह दण्डक में-- १० भुवनपति और १ वाणव्यन्तर । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] २४ प्राण- छयांसी जुगलिया में प्राण पावे दशों ही। २५ जोग- छयांसी जुगलिया में योग पावे तीनों ही। सिद्ध भगवान का अधिकार को कहते हैं१शरीर-सिद्ध भगवान में शरीर नहीं; अशरीर है। २ अवगाहना-सिद्ध भगवान के आत्म प्रदेशों की अवगाहना ज० एक हाथ और अष्ट अंगुलकी मध्यम चार हाथ और सोलहअंगुल की उत्कृष्टी ३३३ धनुष और ३२ अंगुल की। ३संघयण - सिद्ध भगवान में संघयण नहीं, असंघयणी है। ४ संठाण-सिद्ध भगवान में छह संठाण नहीं और अनवस्थितसंठाण हैं । ५कषाय-सिद्ध भगवानमें कषाय नहीं अकषायी है। ६ संज्ञा-सिद्ध भगवान में संज्ञा नहीं, नोसनोवउत्ता हैं। ७लेश्या--सिद्ध भगवान में लेश्या नहीं, अलेशी है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ८ इन्द्रिय-- सिद्ध भगवान में इन्द्रिय नहीं, अनिद्रिय हैं। समुद्घात-सिद्ध भगवान में समुद्घात नहीं। १० सन्नी---. सिद्ध भगवान सन्नी और प्रसन्नी नहीं, नोसन्नी नोऽसन्नी हैं। ११ वेद--- सिद्ध भगवान में वेद नहीं अवेदी हैं ! १२ पज्जत्ति-सिद्ध भगवान में पर्याप्ति और अपर्याप्ति नहीं, नोपर्याप्तनोऽपर्याप्ता हैं। १३ दृष्टी--- सिद्ध भगवान में दृष्टी पावे एक सम्यादृष्टी । १४ दर्शन-सिद्ध भगवान में दर्शन पावे एक केवल दर्शन । १५ नाण-सिद्ध भगवान में ज्ञान पावे एककेवल ज्ञान, अज्ञान पावे नहीं। १६ जोग-सिद्ध भगवान में योग नहीं, अयोगी हैं। १७ उपयोग-सिद्ध भगवान में उपयोग पावे दोय- केवलज्ञान और केवलदर्शन । १८ आहार- सिद्ध भगवान आहारिक नहीं, अनाहारिक हैं। १९ उववाय-सिद्ध भगवान एक समय में ज Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५४] १-२-३ उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होवें । २० स्थिति- एक सिद्ध भगवान आसरी सादी अनंत और घणा सिद्धभगवान प्रासरी अनादिअनंत। २१ समोहया असमोहया मरण-सिद्ध भगवान में मरण नहीं। २२ चवण- सिद्ध भगवान में चवण नहीं २३ गह-सिद्ध भगवान में आगती एक मनुष्य गति की और गति नहीं । दगडक आसरी एक मनुष्य का आवे और गति नहीं। २४ प्राण-- सिद्ध भगवान में द्रव्य प्राण नहीं और भाव प्राण चार है। सुख सत्ता, चैतन्य और बोध । २५जोग-सिद्ध भगवान में योग नहीं अयोगी है। ॥ इति लघुदण्डक समाप्तम् ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैयार पुस्तकें सम्यक्त्व-पराक्रम- (संस्कृत-छाया तथा हिन्दी अनुवाद सहित ) यह उत्ताध्ययन का उनतीसवाँ अध्ययन है । इसमें संवेग निर्वेद धर्मश्रद्धा आदि ७३ विषयों के प्रश्नोत्तर हैं । इसका संस्कृत छाया सहित सरल हिन्दी अनुवाद करवा कर छपाया है, प्रत्येक मनुष्य के पढ़ने योग्य है । पृ० ५६ न्योछावर =) मुखविपाक-सूत्र--- ( हिन्दी अनुवाद सहित ) यह सूत्र विपाकसूत्र का द्वितीय स्कन्ध है। पुण्य से कैसा शुभ फल मिलता है, और अन्त में पुण्य करने वाला मोक्ष पाता है, इन बातों का वर्णन इसमें बड़ी सुन्दरता से किया गया है । इस सूत्र में जिन २ सूत्रों का प्रमाण आया है, वहां का पाठ लेकर इसे पूरा कर दिया है, इसलिए यह विस्तृत और सुन्दर हो गया है । इसका सरल हिन्दी में अनुवाद हो जाने से इसकी सुन्दरता और उपयोगिता और भी बढ़ गई है ! सुबाहुकुमार का वर्णन करने वाला इसका पहला अध्ययन १२८ पृष्ट में समाप्त हुआ है । इसके कुल पृ० १३६ हैं। न्योछावर सिफ ॥) नैतिक और धार्मिक-शिक्षा-- इस में व्यवहार-उप. योगी नैतिक तथा धार्मिक उत्तमोत्तम ३२२ शिक्षाएँ दी गई हैं, जो प्रत्येक स्त्री पुरुष के लिए और सब मत वालों के लिए हितकारी हैं । पृ० ५६ न्यो०-) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचा दहेज ( माता का पुत्री को उमदेश)- कन्या को ससुराल में जाकर किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, भोजन बनाना आदि गृहस्थ के कामों में कैसी सावधानी रखनी चाहिए इत्यादि स्त्री उपयोगी प्राय: सब बातौ की शिक्षा इसमें आगई है। यह स्त्री शिक्षा की बहुत उपयोगी पुस्तक है, और कन्या पाठशालाओं के पठन क्रम मै रखने योग्य है । पृ० ३६ न्यो० =) हिन्दी-बाल-शिक्षा- पहला भाग, जैन पाठशालाओं में पढ़ाने योग्य पुस्तकों का प्राय: अभाव देख कर हमने हिन्दीबाल शिक्षा सिरीज निकालना प्रारंभ किया है । उसके दो भाग छप गये हैं, आगे के भाग भी जल्दी छपने वाले हैं। पहला भाग पृष्ट २४ न्योछावर .... .... ) दूसरा भाग पृष्ट ४६ न्योछावर . ... -॥ धर्म बोध-संग्रह- यह जैनधर्म की प्रथम-शिक्षा के लिए अति उपयोगी पुस्तक है । इसमें तीर्थकर विहरमान, गणधर और सतियों के नाम, सम्यक्त्व का सविस्तर स्वरूप, दयापालने का स्वरूप, श्रावक के तीन मनोरथ, ४ गति के बंध के कारण तथा छुटकरे बोल, शिक्षा के बोल, विनीत और अविनीत के बोल, कालका प्रमाण, रुचि (श्रद्धा) के १० भेद का तथा १२ प्रकार के तप का लक्षण, तीर्थकर गोत्र बांधने के २० बोल, २५ क्रिया, महामोहनीय कर्म बांधने क ३० बोल, मिथ्यात्व के भेद इत्यादि ४० विषयों का वर्णन है । पृष्ट ५६ न्योछावर -) __इसके सिवा और भी पुस्तकें हमारे यहां छपी हैं और छपने वाली हैं। हमारा सूचीपत्र मँगा कर देखिये । सारचन्द भैरोंदान सेठिया, बीकानेर. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलने का पता अगरचंद भैरोंदान सेठिया जैन लाइब्रेरी (शास्त्रभण्डार) थीकानेर CHRIVI Printed at the Sethia Jain Printing Press, BIKANER.मि Rajputana 30-7-25