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प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला-11
धर्मका मर्म
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हसा पर
डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक
प्रकाशक: प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.)..
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। सम्यग्ज्ञानप्रदा भूयात् भव्यानाम् भक्तिशालिनी॥
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अति प्राचिन श्री अवंति पार्श्वनाथ भगवान
उज्जै ब (म.प्र.)
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सादर समर्पण
अहिंसा अनेकान्त
एवं अपरिग्रह
अविरल दीप से सतत प्रकाशवान जिन शासन
को सादर समर्पित
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मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी
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आतम हितकारी
भगवान आदिनाथ
दादा श्री जिनदत्तसूरिजी
दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी
दादा श्री जिनकुशलसूरिजी
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प्रकाशन सहयोगी
श्री गुलाबचन्दजी फूलचन्दजी झाड़चूर
- शान्तादेवी गुलाबचन्दजी झाड़चूर नेमीचन्द, रिखबचन्द, शीतलचन्द, रमेशचन्द, सुनीलकुमार, श्रीचन्द, विनयचन्द झाड़चूर-जयपुर
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प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला - ११
धर्म का मर्म
(The Essence of Religion)
डॉ. सागरमल जैन
निदेशक
प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
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प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म.प्र.)
| प्रकाशन सहयोग श्री गुलाबचन्दजी फूलचंदजी झाडचूर परिवार
जयपुर
प्रथम संस्करण - १९८६ द्वितीय संस्करण - १९९५ | तृतीय संस्करण - २००७
"मूल्य - २५.०० रुपया
मुद्रक आकृति आफसेट ५, नईपेठ, उज्जैन (म.प्र.) | फोन - २५६१७२०
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भूमिका
धर्म शब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, उसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्त्व है, वह जोड़ता है। रिलीजन शब्द री+ लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता है - पुनः जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन का सूचक है। सम्प्रदाय अलग-अलग करते है । इस प्रकार जहाँ धर्म का कार्य जोड़ना है, वहाँ सम्प्रदाय का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है किन्तु सम्प्रदाय में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता। यदि इसे और अधिक स्पष्ट किया जाये तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं | किन्तु व्यक्ति सम्प्रदाय में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए एक चिन्ता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र के लिए खतरा बन रही है।
धर्म स्वभाव है, वह आन्तरिक है । सम्प्रदाय का सम्बन्ध आचार की बाह्य रूढ़ियों तक सीमित है और इसीलिए वह बाहरी है । सम्प्रदाय यदि धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसा आत्मा से रहित शरीर । सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किन्तु जिस प्रकार शरीर से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो जाता है और परिवेश में सड़ाँध व दुर्गन्ध फैलाता है उसी प्रकार धर्म से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते है, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ाँधयुक्त बनाते है। शायद यहाँ पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर का आधार क्या है ? वस्तुतः धर्म आस्था / निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है। जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रूढ़ क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण त्रैकालिक सत्य हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रूढ़ियों का मूल्य युग विशेष और समाज विशेष में ही होता है। वे सापेक्ष है। जब इन सापेक्षिक सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। वह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा के बीज बोता है । अतः कहा जा सकता है कि जहाँ धर्म आपस में प्रेम करना सिखाता है वहाँ सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्त्व को देखें तो उनमें कोई बहुत बड़ा अन्तर नजर नहीं आता। सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएँ समान ही है। न केवल मूलभूत शिक्षायें ही समान हैं अपितु सभी का व्यावहारिक लक्ष्य भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही
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शन्ति व सुख का अनुभव कर सकें। किसी कवि ने कहा है -
न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है।
बुरा वह है जिसका दिल बुरा है। सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रंग में देखना चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रंग में दिखायी देता है उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आँखों से उस सारभूत तत्त्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है किन्तु सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म-साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह है किन्तु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यहीं है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म को यदि हम केन्द्र-बिन्दु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि बिन्दु को केन्द्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केन्द्र-बिन्दु से परिधि-बिन्दुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखायें खींची जा सकती हैं। यदि वे सभी रेखायें परिधि के बिन्दु को केन्द्र से जोड़ती है तब तो वे एक दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती हैं किन्तु कोई भी रेखा जब केन्द्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे को काटने लगती है यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक धर्म की ओर अन्मुख है तब तक वे एक दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, किन्तु जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परपर सौजन्य एवं सहिष्णुता के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुत: धर्म ही हैं क्योंकि उनके मूल में धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किन्तु जब वे सम्प्रदाय एक दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते है, 'धर्म' नहीं और ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य को जन्म देते हैं।
धर्म के दो पक्ष होते है - एक उसका शाश्वत और सार्वभौम पक्ष होता है तथा दूसरा दैशिक और कालिक पक्षा धर्म का शाश्वत और सार्वभौम पक्ष उसका सार तत्त्व कहा जा सकता है, जबकि दैशिक और कालिक पक्ष उसका बाह्यरूप कहा जा सकता है, जो कि समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है। धार्मिक असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम धर्म के इस रूढ़िगत बाह्य रूप को ही उसका सर्वस्व मान लेते हैं और
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धर्म के मूल उत्स को भूला देते हैं। मनुष्य ने धर्म के सारतत्त्व के आचरण पर बल न देकर रूढ़ियों और कर्मकाण्डों को ही धर्म का सर्वस्व मान लिया। परिणामतः धर्मों की मूलभूत एकता विस्मृत हो गयी और उसके भेद ही प्रमुख बन गये। इसकी फलश्रुति धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के रूप में प्रकट हुई । यदि हम धर्म के मूल उत्स और शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञायें, ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पंचशील, महावीर के पंच महाव्रत, और पंतजलि के पंच यम एक दूसरे से अधिक भिन्न नहीं है। वस्तुतः ये धर्म की मूलभूत शिक्षायें हैं और इन्हें जीवन में जीकर व्यक्ति न केवल एक अच्छा ईसाई, जैन, बौद्ध या हिन्दू बनता है अपितु वह सच्चे अर्थ में धार्मिक भी बनता है ।
दुर्भाग्य से आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ने पुन: मानव समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार अपनी क्षूद्र ऐषणाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये धर्म के नाम पर मानव समाज में न केवल बिखराव पैदा कर रहे हैं, अपितु वे एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरूद्ध उभाड़ रहे है।
आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता है, किन्तु दुर्भाग्य है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है तथा दूसरी ओर वैचारिक संघर्ष पनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। धार्मिक एवं राजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बन रही है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है । सब अपने को मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा कर रहे हैं और दूसरे को भ्रान्त और भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मानव को उन्मादी बनाकर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति की बात करते हैं तो दूसरे ओर मनुष्य- मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करते हैं । 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते है -
फ़िर्केबन्दी है कहीं और कहीं जाते है। क्या जमाने में पनपने की यही बात हैं?
यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों ने आज विश्व की
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दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट रहा है, किन्तु आज मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक दूसरे से कटता चला जा रहा है। आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध हैं। एक ओर इज़रायल और अरब में यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इसलाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया और सुन्नी इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में कहीं हिन्दू और मुसलमानों को, तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक दूसरे के विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है। अफ्रीका में काले और गोरे का संघर्ष चल रहा है तो साम्यवादी रूस और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका एक दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं आज मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है जहाँ से उसने यदि अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इक़बाल' स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं -
अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियाँ से।
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।। विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानवजाति के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा तो कोई भी छोटी सी घटना इस चिता को चिनगारी दे देगी औ तब हम सब अपने हाथों तैयार की गयी इस चिता में जलने को मजबूर हो जायेंगे। असहिष्णुता और वर्ग-विद्वेष फिर चाहे वह धर्म के नाम हो, राजनीति के नाम पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या सम्प्रदायिकता के नाम पर, हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिये जा रहे हैं। आज की इस स्थिति के सम्बन्ध में उर्दू के शायब ‘चक़बस्त' ने ठीक ही कहा है -
मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी।
तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी। अत: आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके।
धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी की गयी और उसे एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धर्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा
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कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहा है। विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भली भाँति जानता है कि असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को एक दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया। शान्ति, सेव और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बना।
___ यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होत। इन सबके पीछे वस्तुत: धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुत: कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसलिए मतान्धता, उन्मादी और स्वार्थी तत्त्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीडित करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे है। किन्तु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्गविद्वेष की जो भावनाएँ उभाड़ी जा रही है, उसका कारण क्या धर्म है? वस्तुतः धर्म नहीं, अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार
और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ में यह धर्म का नकाब डाले हुए अधर्म ही है।
आज पुन: आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के मूल उत्स को समझे और उसे अपने जीवन में उतारे। प्रस्तुत कृति धर्म के मर्म की रचना के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य यही है कि हम साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद से मुक्त होकर एक शन्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की जीवन शैली को विकसित करें। लेखक की इस कृति से यदि समाज को कोई सप्रेरणा मिलती है तो उसके श्रम की सार्थकता होगी।
प्रस्तुत कृति का प्रणयन मूलत: मेरे उन विभिन्न लेखों से हआ है जो समय-समय पर श्रमण में प्रकाशित हुये हैं। इस दिशा में चिन्तन के लिये लेखक को श्री सत्यनारायण जी गोयनका की कृति से बहत कुछ प्रेरणा मिली है और उनके विचारों का प्रभाव भी आया है। अत: उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना वह अपना एक प्रमुख कर्तव्य समझता
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अनुक्रमणिका
९-२२
२२-२७ २७-२९ ३०-३५
मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद/भौतिकवाद
दुःख का मूल ममता ३, ममता का विसर्जन / दुःख का निराकरण ४, धर्म का स्वरूप ६, समता धर्म /
ममता अधर्म १३ मानव धर्म मनुष्य का सामाजिक धर्म साधना का मनोविज्ञान
हमारा निज स्वरूप २५, चेतना के तीन पक्ष और जैन साधना २६, जीवन का साध्य-समत्व का संस्थापन २६, साधना का लक्ष्य-आत्मपूर्णता २८, साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध २८,
साधना पथ और साध्य ३० आत्मा और परमात्मा धर्म साधना का स्वरूप सम्यग्दर्शन का स्वरूप
सम्यक्दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ और साधना
के क्षेत्र में उसकी आवश्यकता ३८ सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं स्थान सम्यक् चारित्र का स्वरूप संयम : जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण धर्म साधना और समाज
३५-३६ ३६-३८ ३८-४५
४५-५० ५०-५१ ५१-६१ ६२-६८
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धर्म का मर्म
मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद / भौतिकवाद आज मनुष्य अशांत, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पायी है। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों के होते हए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मन की माँग को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व की दूरी को कम कर दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी आज ज्यादा हो गयी है। हम कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति एवं वर्ण के नाम पर एक दूसरे से कटते चले आ रहे हैं। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन में अभय का विकास नहीं कर पायी है, आज भी वह उतना ही आशंकित, आतंकित और आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथ उसकी यह आक्रमक वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गयी है और वह शस्त्र-निर्माण की इस दौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार कर रहा है। आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अर्थलोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा। आज मनुष्य की इस अर्थलोलुपता ने मानव जाति को शोष और शोषित ऐसे दो वर्गों में बाँट दिया है, जो एक दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की तैयारी कर रहे है। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल है, तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और विक्षुब्ध। आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू.एस.ए., मानसिक तनावों एवं आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे सम्बन्धित आँकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा
तालीम का शोर इतना, तहज़ीब का गुल इतना।
बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है।। आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के हर क्षेत्र में कृत्रितमा और छड़ों का बाहुल्य है।
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मनुष्य आज न तो अपनी मूल प्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका "पशुत्व" कुलाँचे भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को "सभ्य' दिखाना चाहता है । अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूलप्रवृत्तियाँ और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्षों से गुजर रही है, एक आन्तरिक और दूसरे बाह्य । आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस तानव - युक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण समाज-जीवन अशान्त और अस्त-व्यस्त । आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक असन्तुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके है और नये मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव पीड़ा से गुजर रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है, उसके सामने दो ही विकल्प हैं या तो पुनः अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर लौट जावे या फिर एक नये मानव का सृजन करें, किन्तु पहला विकल्प अब न तो संभव है, और न वरेण्य । अतः आज एक ही विकल्प शेष है - एक नये आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज हम उस कगार पर खड़े हैं, जहाँ मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। यहाँ जोश का यह कथन कितना मौजूँ है -
सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे है मैले । अन्धेरा छा जायेगा जहां में, अगर यही रोशनी रहेगी । ।
इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे वर्तमान संकट से उबार सकता है ? जैनधर्म कहता है कि भौतिकवादी दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तदजनित स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, जो कि आज सम्पूर्ण मानव जाति की त्रासदी है। क्योंकि भौतिकवादी दृष्टि से मनुष्य मूलतः पशु ही है । वह मनुष्य को एक आध्यात्मिक सत्ता (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैनधर्म मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है । भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयस् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक माँगों की सन्तुष्टि में
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ही है। वह मानव को भोग - लिप्सा की सन्तुष्टि को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है । यद्यपि वह एक आरोपित सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों का नियमन करना अवश्य चाहता है, किन्तु इस आरोपित सामाजिकता का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शान्त और सभ्य होकर भी परोक्ष में अशान्त एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन अवसरों की खोज करता है जब समाज की आँख बचाकर अथवा सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक वृत्तियों के नियन्त्रण का प्रयास तो करता है किन्तु वह उस दृष्टि का उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इन पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास है । वह रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की सन्तुष्टि हो तो स्वार्थ और शोषण का चक्र कभी भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है।
दुःख का मूल ममता
भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक् मार्ग नहीं है, क्योंकि वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते है कि “कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि" अर्थात् समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामांसक्ति है। भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्व बुद्धि को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैनधर्म ने अपितु लगभग सभी धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का परित्याग कर उस आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। हमें यह मानन होगा कि दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य उच्च मूल्य भी है। आध्यात्मदृष्टि अन्य कुछ नहीं अपितु इन उच्च मूल्यों की स्वीकृति है। जैनधर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है, पदार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्मा को परम मूल्य मानना । पदार्थवादी दृष्टि मानवीय दुःखों और सुखों का आधार "वस्तु" या बाह्य
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परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य है। अत: भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैनधर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अत: सुख-दु:ख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते है कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्म तत्त्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न है, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में ममत्व बुद्धि दुःख परम्परा का कारण है, अत: आनन्द की प्राप्ति हेतु इनके प्रति ममत्व बुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्म-विद्या और जैनधर्म का मूल तत्त्व है और यही मानव जाति के मंगल का मार्ग है। क्योंकि इसी के द्वार आधुनिक मानव को आन्तरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त कर निराकुल बनाया जा सकता
ममता का विसर्जन / दुःख का निराकरण
आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जावे। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक है। निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सारसम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौंका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का हार्द है। यह वह विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म और भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन है। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन
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में समत्व के संस्थापन का है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती है, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और जहाँ तक वे उसमें बाधक है, वहाँ तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते है कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ य अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोमों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं। अत:
जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं। क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दु:खों का निराकरण सम्भव है।
धर्म साधना का उद्देश्य है व्यक्ति को शान्ति प्रदान करना, किन्तु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे हैं एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा है। शान्तिप्रदाता धर्म ही आज अशान्ति का कारण बन गया है। वस्तुत: इसका कारण धर्म नहीं अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गये है। आयें देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है? धर्म का स्वरूप
धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है? इस प्रश्न के आज तक अनेक उत्तर दिये गये हैं किन्तु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करत है। वे कहते है -
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार क है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है, आयें जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। सामान्यता धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है तो
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यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता है। किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का धर्म है तो यहाँ धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार जब हम यह कहते है कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाइ है, तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं, यहाँ धर्म का मतलब है किसी दिव्य-सत्ता, सिद्धान्त या साधना पद्धति के लिए हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरूढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित है। हमारा सच्चा धर्म तो वही है जो हमारा निज स्वभाव है। इसीलिये जैन आचार्यों ने 'वस्थु सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के लिये जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिये धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। इसीलिये गीता में कहा गया है 'स्वधर्मे निधनं श्रेय' परधर्मो भयावहः (गीता, ३.३५) परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिये भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिये स्वभाव न होकर विभाव होगा और जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होग। अत: आपका धर्म वही है जो आपका निज स्वभाव है। किन्तु आप सोचते होंगे कि बात अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या है? वस्तुतः हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या अपनी प्रकृति को जानना होगा। किन्तु यहाँ यह बात भी समझ लेना होगा कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गणों को भी अपना स्वभाव या प्रकृति मान लेते है। अत: हमें स्वभाव और विभाव में अन्तर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वत: (अपने आप) होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी में शीतलता स्वाभाविक है, किन्तु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके लिये उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जिसे होने के लिये किसी बाहरी तत्त्व की अपेक्षा है वह सब विभाव है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म है। पुन: जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म नहीं हो सकता। किन्तु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप में वह जलावेगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना भी गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी के धर्म की इस चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पावेंगे? यहाँ इस चर्चा की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अन्तर समझ लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की भूल कर बैठते है, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी
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है। प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध ‘स्वभाव' है या हो भी सकता है? बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शान्ति के दो गणों को कसिये और देखिये, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वत: नहीं होता, बिना किसी बाहरी कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं, गुस्से या क्रोध का कोई न कोई बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है साथ ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरूरी है, गुस्सा या क्रोध बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वत: नहीं होता है, अकेले में नहीं होता है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइये, आप देखेंगे उसका गुस्सा धीरे-धीरे शान्त हो रहा है - गुस्से के बाह्य कारणों एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सकता है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता किन्तु शान्त रह सकता है। अत: मनुष्य के लिये क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शान्ति स्वधर्म है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी पद्धति से सम्भव है।
हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिये मानव प्रकृति या मानव स्वभाव को जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वहीं मनुष्य के लिये धर्म होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या है? मानव अस्तित्व द्विआयामी (TwoDimensional) है। मनुष्य विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो पक्ष है किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई मूल्य नहीं है। शरीर का महत्त्व तो है किन्तु वह उसकी चेतनजीवन से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वत: मूल्यवान् है और शरीर परत: मूल्यवान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य नहीं होता, उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक जीवन है। चेतना के अभाव में शरीर 'शव' कहा जाता है। चेतन ही एक ऐसा तत्त्व है जो 'शव' को 'शिव' बना देता है। अत: जो चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने 'धर्म' को समझने के लिये 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान महावीर और गौतम के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते है - भगवन् ! आत्मा क्या है? और
आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर उत्तर देते है - गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतन जीव का लक्षण आन्तरिक और
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बाह्य संतुलन को बनाये रखना है । फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन हैचैत्त जीवन और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्वों से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मनः स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है।
विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि 'समभाव' या 'समता' को धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है । आचारांग सूत्र में 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१/८/ ३) कहकर धर्म को 'समता' के रूप में पारिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वे सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न करते हैं अर्थात् चेतना के सन्तुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक हैं और इसीलिये अधर्म है। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, तृष्णा, काम, क्रोध, अहंकार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के तथ्य जहाँ हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य उस आकुलता, विक्षोभ या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। पूर्वोक्त गाथा के क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार यही है।
मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिये नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते है, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता । पुन: राग, आसक्ति, ममत्व, अहंकार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके विषय 'पर' है। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहंकार की अभिव्यक्ति भी दूसरे के लिये है । इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते हैं, ये स्वतः नहीं होते हैं, परत: होते हैं। इसीलिये ये आत्मा के विभाव कहे जाते हैं, और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म है। जबकि जो स्वभाव है या विभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म हैं, 'धर्मो धारयते प्रजा' इस रूप में धर्म को पारिभाषित किया जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि से जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है । उदाहरण
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के लिये विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो मनुष्य मनुष्य है।
यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का अर्थ होगा- जो हमारी समाज व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो समाज जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती है, समाज जीवन में अव्यवस्था और शान्ति में कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिये तृष्णा विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को अधर्म और परोपकार, करूणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामजिकता की स्वाभाविक वृत्ति का रक्षण करते हैं वे धर्म है और जो उसे खण्डित करते हैं वे अधर्म है । यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के संदर्भ में है, इसे समाज धर्म कह सकते हैं।
स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्त्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता है, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है । जैसे आग के संयोग के हटते पानी स्वतः शीतल हो जाता है। धर्म के लिये कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, विभावदशा को दूर करना होता है। क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा जा सकता है जो आरोपित होता है और वह विभाव होगा, स्वभाव नहीं धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हो, वे सब अधर्म को त्यागने के लिये है, विभाव दशा को मिटाने के लिये है। धर्म तो आत्मा की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल विषय कषाय रूप मल को हटाता है। जैसे बादल के हटते प्रकाश स्वतः प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या स्वभाव प्रकट हो जाता है । इसीलिये धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत करता है क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहरे होते हैं। अधार्मिक जन दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के प्रति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना चाहता है इसीलिये धर्म की कसौटी 'आत्मवत् व्यवहार माना गया। ' आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है निश्छलता, सरलता, स्पष्टता, जहाँ भी इनका अभाव होगा, वहाँ धर्म को जीया नहीं जावेगा अपितु ओढ़ा जावेगा। वहाँ धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि यह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दीखता धर्म है, किन्तु होता है अधर्म । मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिये धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डो से जोड़ दिया गया है, क्या पहने और
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क्या नहीं पहनें, क्या खावें और क्या नहीं खावें, प्रार्थना के लिये मुँह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा के द्रव्य क्या हों ? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किन्तु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है समाधि, शान्ति, निराकुलता । धर्म तो सहज और स्वाभाविक है दुर्भाग्य यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर तो रहे हैं मात्र अधर्म या विभाव दशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है और इसीलिये आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गन्ध के ढेर को स्वच्छ सुगन्धित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाहर से प्रतीति से सुन्दर होती है किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म (So called religion) ही धर्म के लिये सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिये धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसी ही है जैसे कोई रोगी दवा तो ले किन्तु कुपथ्य को छोड़े नहीं । धर्म के नाम पर आत्म प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्त्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते है किन्तु धर्म को नहीं जानते
हैं।
आज हमने आत्मधर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे है। हमारे धर्म चौके-चूल्हे में, मन्दिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गये हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क ही नहीं है । इसीलिये वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर ठीक ही कहा है
-
मस्जिद तो बना दी पल भर में इमां की हरारत वालों ने। मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका।।
आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बन्ध परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किन्तु याद रखिये वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल है। भगवान् बुद्ध ने किसी से पूछा कि धर्म का फल इस लोक में मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था - धर्म का फल तो उसी समय मिलता है । जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और चिन्ता कम हो जाती है, मन शान्ति और आनन्द से भर जाता है, यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि हम क्या चाहते हैं ? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिये, शान्ति चाहिये, समाधि या निराकुलता चाहिये और जो कुछ आपकी अन्तरात्मा आपसे माँगती है वही तो आपका
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स्वभाव है, आपका धर्म है। जहाँ मोह होगा, राग होगा, तृष्णा होगी, आसक्ति होगी, वहाँ चाह बढ़ेगी, जहाँ चाह बढ़ेगी, वहाँ चिन्ता बढ़ेगी और जहाँ चिन्ता होगी वहाँ मानसिक असमाधि या तनाव होगा और जहाँ मानसिक तनाव या विक्षोभ है वही तो दुःख है, पीड़ा है। जिस दुःख को मिटाने की हमारी ललक है उसक जड़ें हमारे अन्दर हैं, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि हम उसे बाहर के भौतिक साधनों से मिटाने का प्रयास करते रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे घाव कहीं और हो और मलहम कहीं और लगायें। अपरिग्रहवृत्त या अनासक्ति को जो धर्म कहा गया, उसका आधार यही है कि वह ठीक उस जड़ पर प्रहार करता है, जहाँ से दु:ख की विषवेल फूटती है, आकुलता पैदा होती है। वह धर्म इसीलिये है कि वह हमें आकुलता से निराकुलता की दिशा में विभाव से स्वभाव की दिशा में ले जाती है। किसी कवि ने कहा है -
चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआ भया बेपरवाह।
जिसको कुछ न चाहिये, वह शहंशाहों का शंहशाह। निराकुलता एवं आकुलता ही धर्म और अधर्म की सीधी और साफ कसौटी है। जहाँ आकुलता है, तनाव है, असमाधि है वहाँ अधर्म है और जहाँ निराकुलता है, शान्ति है, समाधि है, वहाँ धर्म है। जिन बातों से व्यक्ति में अथवा उनके सामाजिक परिवेश में आकुलता बढ़ती है, तनाव पैदा होता है, अशान्ति बढ़ती है, विषमता बढ़ती है, वे सब बातें अधर्म हैं, पाप हैं। इसके विपरीत जिन बातों से व्यक्ति में और उसके समाजिक परिवेश में निराकुलता आवे, शान्ति आवे, तनाव घटे, विषमता समाप्त हो, वे सब धर्म है। धार्मिकता के आदर्श के रूप में जिस वीतराग वीततृष्णा और अनासक्त जीवन की कल्पना की गई है उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शान्ति और समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं -
धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन। धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शान्ति सुख चैन।। कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय। विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय।। यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप।
जन-मन का मंगल करे, दूर करे सन्ताप।। जिस प्रकार मलेरिया मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आध्यात्मिक विकृतियाँ हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध है। यदि क्रोध हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशपन भी
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हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार विकार है और स्वास्थ्य स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं है। जिन्हें हम हिन्दू, जैन, बौद्ध अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते है, वह विकारों के उपचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी, होम्योपेथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। समता धर्म / ममता अधर्म
धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है, कि वह सब धर्म है, जिससे मन की आकुलता समाप्त हो, चाह और चिन्ता मिटे तथा मन निर्मलता, शान्ति, समभाव और आनंद से भर जावे। इसीलिये महावीर ने धर्म को समता या समभाव के रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्ण होने में जो धार्मिक आदर्श की परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की निराकुलता या शान्ति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक या समता कहा जाता है। हमारे जीवन में धर्म है या नहीं है इसको जानने की एक मात्र कसौटी यही है कि सुख-दु:ख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो, चाह और चिन्ता बनी रहे और प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ लेना चाहिये कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा सम्बन्ध हमारी जीवनदष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि मनुष्य के लिये यह सम्भव नहीं कि जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आवे। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही हैं। बाह्य परिस्थितियों पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन में, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाये रखें, मानसिक समता और शांति को भंग नहीं होने देवें। यही धर्म है। श्री गोयनका जी के शब्दों में -
सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन।
तू क्यों खोवे बावला अपने मन की चैन।। यह मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो व्यक्ति जीवन की अनुकूलता और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी चित्त की शान्ति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शांत है और किसका अशांत।
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जिसका चित्त या मन अशांत है यह अधर्म में जी रहा है, विभाव में जी रहा है और जिसका मन या चित्तवृत्ति शांत है वह धर्म में जी रहा है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुन्दर चित्र उर्दू शायर ने खींचा है, वह कहता है -
लायी हयात आ गये कजा ले चली चले चले।
न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये। जिन्दगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुल और शांत बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन में हुआ है। धार्मिक की कसौटी यह नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं अपित् यही है कि तुम्हारा मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह और चिन्ता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह चाह और चिन्ता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और दुकान की हो, मठ और मन्दिर की, धनसम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है।
जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन की भट्टी सुलग रही है। धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, विद्वेष और तृष्ण की आग शान्त हो। इसीलिये गीता कहती है -
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतराग भयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। गीता २/५६ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन से ममता, भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थिर बुद्धि है, मुनि है। वस्तुत: चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखमता और निराकुलता का मतलब है 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति। इसीलिये जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म और आत्मपरिणाति को धर्म कहा गया
है
चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक मांग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिन्ता आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती
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है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि ममता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म है, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वहीं आनन्द को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनन्द और शान्ति कहाँ? यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थों के प्रति ममत्व भाव और उनके उपभोग में अन्तर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना और मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते है। इसे ही शास्त्रों में अनात्म में आत्म बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली ही नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना यही दुःख का कारण है और जो दुःख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है
सुख दुःख दोनों एक से, मान और अपमान। चित विचलित होवे नहीं, तो सच्चा कल्याण।।
जीवन में आते रहे पतझड और बसंत मन की समता न छूटे, तो सुख-शांति अनंत।। विषम जगत में चित्त की, समता रहे अटूट।
तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों से छूट।। समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छूटेगी तो समता अपने आप आ जावेगी। स्वभाव बाहरी नहीं है अत: उसे लाना भी नहीं है. मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बिमारी हटेगी तो स्वस्थता तो आवेगी ही। इसलिए प्रयत्न बीमारी को हटाने के लिए करना है। जिस प्रकार बीमारी बनी रहे और आप पुष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जावेगा। जब मोह और ममता की चट्टानें टूटेगी तो समता के शीतल जल का झरना स्वतः ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल हो जावेगा।
मानव धर्म धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या हैं? अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है ? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक
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आधारों से हम अलग कर सकते हैं वे है - आत्मचेतना, विवेकशीलता और आत्मसंयम। मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है, उसकी विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति को अथवा अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम की भाव-दशा में होता है तब भी वह यह जानता है कि मुझे क्रोध हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किन्तु वह यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूँ। उसका व्यवहार काम से प्रेरित होता है किन्तु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार को प्रेरित कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है, वह अंध प्रेरणा मात्र है, किन्तु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है।
मनुष्य और पशु में सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर आत्म-चेतनता के संबंध में है। जहाँ भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल प्रवृत्ति या अन्ध प्रेरणा से चालित होता है व हाँ मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता रही हुई हो। यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता रही हुई है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा और पशु दोनों ही उपस्थित है। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अन्ध प्रवाह में बहता है, पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशता के निकट ले जाता है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते है कि एक मनुष्य के रूप में आत्म-चेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी आत्म-चेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है क्योंकि यह आत्मचेतन होना या आत्मदृष्टा होना ऐसा आधार है जिसे मानवीय विवेक और सदाचरण का विकास संभव है। बीमारी से छुटकारा पाने के लिए पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरूरी है। यही आत्म-चेतनता
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अथवा साक्षी भाव या दृष्टा भाव ही एक ऐसा तत्त्व है जिस पर धर्म की आधार-शिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद का सीधा और साफ अर्थ है आत्म चेतनता या आत्म-जागृति का अभाव। अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का दृष्टा है। मनुष्य की मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में रही हुई है कि वह सदैव अपने आचार और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना सजग होना चाहिये। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति यदि आप पूरी तरह से आत्म-चेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हैं। जिसे हम सम्यक् दर्शन कहते हैं, मेरी धारणा में उसका अर्थ यही आत्म-दर्शन या आत्म-जागृति अथवा दृष्टा एवं साक्षी भाव की स्थिति है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मदृष्टा होने का मतलब है खुद के अन्दर झांकना, अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता है वही आत्मदृष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं बन सकता है। भगवान बुद्ध ने इसी आत्म-चेतनता की स्मृति के रूप में पारिभाषित किया है। सम्यक् स्मृति बौद्ध धर्म के साधना मार्ग का एक महत्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाये रखो। धम्मपद में वे कहते हैं - अपमादो अमत पदं पमादो मच्चूनो पदं' अर्थात् अप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। स्मृतिवान होना सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की आवश्यक कसौटी है। आचारांग में भगवान महावीर ने एक बहुत ही सुन्दर बात कही है, वे कहते - 'सत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् जो सोया हुआ है, सजग या आत्मेतन नहीं है वह अमुनि है और जो सजग है, जागृत है आत्म-चेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, अपने अन्दर झाँक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी गन्दगी को देख सकता है। आत्मदृष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब यही है। हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, भावावेशों, विषय-विकारों राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों के प्रति सजग रहे, सावधान रहें, उन्हें देखते रहे। समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे ऐसे विचाकर हैं, जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता 'सेल्फ अवेयरनेस' ही एक ऐसी स्थिति है जिसे किसी कर्म की नैतिकता
और अनैतिकता की कसौटी माना जा सकता है। यद्यपि यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हिंसादि कर्म
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धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुत: इस सम्बन्ध में हमें एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से ऊपर उठता जाता है। पूर्ण आत्मचेतनता की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पावेंगे, और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है अत: आत्मचेतनता के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएं, बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही संभव होते हैं। वासना का आवेग जितना तीव्र है आत्मचेतनता उतनी ही धूमिल होती है, कुठिण्त होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव होता है। रागभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप और अधर्म के मूल माने गये हैं क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्मृत होता है, अपना आपा खो बैठता है, बेमान हो जाता है अत: वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती हैं पाप मानी गई है अधर्म मानी गयी हैं। वस्तुतः धर्म और अधर्म की एक कसौटी यह है कि जहाँ आत्म-विस्मृति है वहाँ अधर्म है और जहाँ आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है वहाँ धर्म है।
दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अन्तर कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता है वह है विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो यह विवेक या ज्ञान का तत्त्व ही एक ऐसा तत्त्व है जो इसे पशु से पृथक् कर सकता है। कहा भी गया है -
___ आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणां।
ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नर पशुभिः समानः। हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? वस्तुतः यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने के पर्व उसके संभावित अच्छे और बरे परिणमों पर विचार कर लेना यही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका परिणाम हमारे लिये या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस बात पर विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण को सम्पादित करने के पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के साथ विचार करते हैं तो ही आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वही विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों के हिताहितों पर पूर्व से विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक नहीं कहला सकता।
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यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना यह मनुष्य का एक महत्त्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुतः जहां जीवन में विवेकशीलता होगी वहां धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछद्म अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडंबर अपने आप ही समाप्त हो जाएंगे। यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहां भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है वहीं अधर्म की संभावनाएं है। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक्दर्शन कहे तो विवेकशीलता को सम्यक्ज्ञान कहा जा सकता है । जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा ।
विवेक एक ऐसा तत्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के संदर्भ में सम्यक् मूल्यांकन करता है। विवेक व्यक्ति की मूल्यांकन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्यांकन करती है। जीवन में जब विवेक का विकास होता है तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्यांकन होता है। स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकता का आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है।
आप धार्मिक हैं या नहीं ? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं? क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्यांकन करते है ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक है। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत् दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है।
मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण अन्तर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है। यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। किन्तु पशु के लिए यह संभव नहीं है कि भूखा होने पर खाद्य सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खावे । किन्तु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इन्कार कर देगा, दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी संभव है कि भरपेट
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भोज के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेगा। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्म-संयम की संभावनाएँ हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित होकर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते है कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म-नियंत्रण या संयम की सामर्थ्य है। इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत है, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियंत्रित किया जाय? जैविक आवेगों के अनियंत्रत का जीवन अधर्म का जीवन है । मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करें। यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धर्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियंत्रित करता
रहे।
मनुष्य का सामाजिक धर्म
धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या हैं ? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है ? वह कौन सा तत्त्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है ? इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awareness), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्त्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं।
इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना । पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है। सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) । वैसे तो समूह - जीवन पशओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की यह समूह - जीवन की शैली उनसे कुछ भिन्न है । पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन्हें उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है । मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व-बोध और कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु वह एक अन्ध मूलप्रवृत्ति है। पशु विवश होता है, उस अन्ध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतंत्र होती है। उसमें अपने दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शाय ने कहा भी है
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वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो ! पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं !
जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - "परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।” एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें। दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचारांगसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि -
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“सवे सत्ता ण हंतव्वा,
एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए"
" अर्थात् भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत् होंगे, वे सभी एक ही सन्देश देते हैं कि किसी प्राणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसका घात नहीं करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं. पहुँचानी चाहिए, यही एकमात्र शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है।" इस धर्म की लोककल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है और यही धर्म का सार-तत्त्व है। कहा है
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यही है इबादत, यही है, दीनो इमाँ । कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसा ।
दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यहीं धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है
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परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।
अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोक-मंगल की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है, वस्तुतः वह न धर्म है और न अहिंसा । अहिंसा केवल दूसरों को पीडा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें लोक-मंगल और लोककल्याण का अजस्र-स्त्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है,
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तभी धार्मिकता का स्त्रोत अन्दर से प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हंतों और बुद्धों ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोक-कल्याण के लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है तब लोक-कल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है -
खंजर चले किसी पे, तड़फते हैं हम अमीर। सारे जहाँ का दर्द, हमारे जिगर में है ||
जब सारे जहाँ का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह लोक-कल्याण के मंगलमय - मार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना बाहरी नहीं होता है । उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे ही दायित्व बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है । जब यह दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है।
यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों को पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति से जाग्रत दायित्व - बोध ही अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक् - दर्शन जो कि धार्मिकता की आधार भूमि है - के जो पाँच अंग माने गये है, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है । आचारांग सूत्र में कहा गया है कि “जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता हूँ उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ उसी प्रकार विश्व के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।” यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास होता है।
जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव - समानता का भाव, जाग्रत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजूं है -
ईमां ग़लत उसूल ग़लत, इदुआ गलत। इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके।
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साधना का मनोविज्ञान
धर्म साधना का लक्ष्य साध्य की उपलब्धि या सिद्धि है। वह हमें यह बताती है कि हमें क्या होना है। किन्तु हमें क्या होना है, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या है ? हमारी क्षमतायें एवं सम्भावनायें क्या हैं? ऐसा साध्य या आदर्श, जिसे उपलब्ध करने की क्षमतायें हममें न हो, जिसका प्राप्त करना हमारे लिए सम्भव नहीं हो, एक छलना ही होगा। जैन दर्शन ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को अधिक गम्भीरता से समझा है और अपनी साधना-पद्धति को ठोस मनोवैज्ञानिक नींव पर खड़ा किया है।
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हमारा निज स्वरूप - जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? और आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है ? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उतर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है । महावीर ने कहा था 'आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है । " " वस्तुतः जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँवहाँ समत्व संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में जीवन गतिशील सन्तुलन है । र स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के सन्तुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता है । यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समयोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्ण है । समायोजन और सन्तुलन के प्रयास (प्रोसेस आफ एडजस्टमेन्ट) ही जीवन है और उसका अभाव मृत्यु है। · मृत्यु और कुछ नहीं, मात्र शारीरिक स्तर पर सन्तुलन बनाने की इस प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है।' अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है और न मृत्यु | जन्म उसका किसी शरीर में प्रारंभ बिन्दु है तो मृत्यु उस शरीर में उसके अभाव की उद्घोणा करने वाला तथ्य। जीवन इन दोनों से ऊपर है, जन्म और मृत्यु तो एक शरीर में उसके आगमन
१. आयाए सामाइए आय समाइस्स अट्ठे। भगवतीसूत्र।
२. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि पृ. २५९ ।
३. फर्स्ट प्रिन्सपल्स - स्पेन्स्ट, पृ. ६६ ।
४. Five Types of Ethical Theories, p. 16
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और चले जाने की सूचनायें भर है, वह इनसे अप्रभावित हैं। सच्चा जीवन तो आत्म चेतनता है, अप्रमत्त दशा है, समभाव में अवस्थिति है। जैन दर्शन में इसे ही स्वरूप में रमण या आत्म-रमण कहा गया है। यही ज्ञाता द्रष्टाभाव है, अपने आप में होना है।
चेतना के तीन पक्ष और जैन-साधना - मनोवैज्ञानिकों ने चेतना का विश्लेषण कर उसके तीन पक्ष माने हैं, ज्ञान, अनुभूति और संकल्प। आत्मा/चेतना को अपने इन तीन पक्षों से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता है। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन जीवन ज्ञान अनुभूति और संकल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैन विचारकों की दृष्टि में चेतना के ये तीनों पक्ष साधना मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन में चेतना के इन तीन पक्षों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण किया गया है। जैन धर्म का आदर्श मोक्ष है और मोक्ष अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को उपलब्धि है। वस्तुत: मोक्ष चेतना के इन तीनों पक्षों की पूर्णता का द्योतक है। जीवन के ज्ञानात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त ज्ञान एवं दर्शन में, जीवन के भावात्मक या अनुभूत्यात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त सौख्य में और संकल्पात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त शक्ति में मानी गई है। जैन साधना पथ भी चेतना के इन्हीं तीन तत्त्वों - ज्ञान, भाव और संकल्प के साथ सम्यक् विशेषण का प्रयोग करके निर्मित किया गया है। ज्ञान से सम्यक् ज्ञान, भाव से सम्यक् दर्शन और संकल्प से सम्यक् चारित्र का निर्माण हुआ है। इस प्रकार जैन दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ इन तीनों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार हुआ है। जीवन का साध्य-समत्व का संस्थापन
हमारी साधना का लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न मनोविज्ञान और धर्म दर्शन दोनों की ही दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन में इसे मोक्ष कहकर अभिव्यक्त किया गया है किन्तु यदि हम जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का विश्लेषण करें तो मोक्ष वीतरागता की अवस्था है और वीतरागता चेतना के पूर्ण समत्व की अवस्था है। इस प्रकार जैन दर्शन में समत्व को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है क्योंकि यह ही हमारा स्वभाव है और जो स्व-स्वभाव है वहीं आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन एवं मार्क्स प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जाता। जैन दर्शन के अनुसार नित्य और निरापवाद वस्तु धर्म ही स्वभाव है। यदि हम इस कसौटी पर कसें, तो संघर्ष जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के
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अनुसार मनुष्य-स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है? संघर्ष मिटाने के लिए होता है, जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का, उसके विभाव का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं। मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की अवस्था है क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं। सच्चा मानव इतिहास संघर्ष की कहानी नहीं, संघर्षों के लिए निराकरण की कहानी है।
संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनके समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समत्व की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। समत्व धर्म और विषमता अधर्म है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी जीवन की विषमता, असन्तुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं, अत: जैन दर्शन में इन्हें अधर्म या पाप माना गया है। इसके विपरीत वासना-शून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही नैतिक शुभ है, धर्म है, वही जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। जैन दर्शन के अनुसार समत्व एक आध्यात्मिक सन्तुलन है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती है। अत: उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुतः समत्व की उपलब्धि जैन दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है।
साधना का लक्ष्य-आत्मपूर्णता - जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मपूर्णता की अवस्था है और पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता भी आवश्यक है क्योंकि अपूर्णता या अभाव भी एक मानसिक तनाव है। हमारे व्यावहारिक जीवन में हमारे सम्पूर्ण प्रयास हमारी चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक शक्तियों के विकास के निमित्त होते हैं। हमारी चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील होती है कि वह अपने इन तीन पक्षों की देश कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सके। व्यक्ति अपनी ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक क्षमता की पूर्णता चाहता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी सीमितता और अपूर्णता से छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुत: मानव मन की इस स्वाभाविक इच्छा की पूर्ति ही जैन दर्शन में मोक्ष के प्रत्यय के रूप में अभिव्यक्त हुई है। सीमितता और अपूर्णता, जीवन की वह प्यास है जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। हमारी चेतना में जो अपूर्णता का बोध है वह स्वयं ही हमारे अन्तस में निहित पूर्णता की चाह का संकेत भी है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन
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है कि चेतना अनन्त है क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमतायें सान्त एवं सीमित है। सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण का बोध भी आवश्यक है। जब हमारी चेतना यह ज्ञान रखती है कि वह सान्त, सीमित एवं अपूर्ण है, तो उसका सीमित होने का यह ज्ञान ही स्वयं उसे इस सीमा के परे ले जाता है। इस प्रकार ब्रेडले स्व में निहित पूर्णता की चाह का संकेत करते हैं। आत्मा पूर्ण है अर्थात् अनन्त चतुष्टय से युक्त है यह बात जैन दर्शन के एक विद्यार्थी के लिए नई नहीं है। वस्तुत: जैन धर्म के अनुसार पूर्णता हमारी क्षमता है, योग्यता नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमे अपनी अपूर्णता का बोध होता है, यह अपूर्णता का बोध पूर्णता की चाह का संकेत अवश्य है, लेकिन पूर्णता की उपलब्धि नहीं। यह आत्मपूर्णता ही हमारा साध्य है। जैन दर्शन की दृष्टि से हमारी ज्ञान, भाव और संकल्प की शक्तियों का अनन्त ज्ञान अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में विकसित हो जाना ही आत्मपूर्णता है। आत्मशक्तियों का अनावरण एवं उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति में ही आत्मपूर्णता है और यही नैतिक जीवन का साध्य है। इस प्रकार जैन धर्म का आत्मपूर्णता का साध्य मानवीय चेतना के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर ही आधारित है।
साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध - जैन धर्म में साध्य और साधक में अभेद माना गया है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि परद्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है। अध्यात्मतत्त्वालोक में मुनि न्यायविजयजी कहते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है। जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार हैं, और उनकी ही जब अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन धर्म का साध्य अर्थात् मोक्ष और साधक दोनों ही आत्मा की दो अवस्थाएँ (पर्याय) हैं। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषय
और कषायों के वशीभूत होता है तब तक बन्धन में होता है और जब उन पर विजय लाभ कर लेता है तब वही मुक्त बन जाता है। आत्मा की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती है और विशुद्ध आत्म-तत्त्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति मानना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है।
१. Ethical Studies, Chapter ll. २. समयसार टीका, ३०५। ३. योगशास्त्र, ४५। ४. अध्यात्मतत्त्वालोक, ४६।
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जैन धर्म में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की विभाव दशा ही साधक की अवस्था है और आत्मा की स्वभाव दशा ही सिद्धावस्था है। जैन साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही निजरूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर ही है। साधक को उसे पाना भी नहीं है क्योंकि पाया तो वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो। धर्म साधना का साध्य बाह्य उपलब्धि नहीं, आन्तरिक उपलब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपना ही अनावरण है, अपने आपको उघाड़ना है, अपने निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित है, साधक को केवल उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है। जैसे बीज वृक्ष के रूप में विकसित होता है वैसे ही मुक्तावस्था में आत्मा के निज गुण पूर्णरूप में प्रकटित हो जाते हैं। साधक आत्मा के ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह आत्मा जो कषाय और राग-द्वेष से युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, वही आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमरमनिजी के शब्दों में जैन साधना के स्व में स्व को उपलब्ध करना है, निज में निज की शोध करना है, अनन्त में पूर्णरूपेण रममाण होना है-आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन विचारणा में तात्त्विक दृष्टि से साध्य और साधक दोनों एक ही है यद्यपि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्यवहारनय से उनमें भेद माना गया है। आत्मा की स्वभाव पर्याय या स्वभाव दशा साध्य है और आत्मा की विभावपर्याय की अवस्था ही साधक है और विभाव से स्वभाव की ओर आना यही साधना है।
साधना पथ और साध्य - जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी प्रकार साधना मार्ग और साध्य में भी अभेद है। जीवात्मा अपने ज्ञान, अनुभूति
और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है, उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना पथ बन जाते हैं, वहाँ जब अपनी पूर्णता को प्रकट कर लेते हैं तो हम सिद्ध बन जाते है। जैन धर्म के अनुसार सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-तप यह साधना पथ है और जब सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-चारित्र और सम्यक्-तप यह साधना पथ हैं और जब सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्
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दर्शन, सम्यक्-चारित्र और सम्यक्-तप क्रमश: अनन्त ज्ञान,अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति की उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्धि बन जाती है। आत्मा का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ज्ञान की साधना के द्वारा अनन्त ज्ञान को प्रकट कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष सम्यक्-दर्शन की साधना के द्वारा अनन्तदर्शन की उपलब्धि कर लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक पक्ष सम्यक्-चारित्र की साधना के द्वारा अनन्त सौख्य की उपलब्धि कर लेता है और आत्मा की क्रियाशक्ति सम्यक्-तप की साधना के द्वारा अनन्त शक्ति को उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक चेतना का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना बन जाता है और उसी की पूर्णता साध्य होती है। साधना पथ और साध्य दोनों ही आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं।
आत्मा की विभावदशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में आसक्ति या रागभाव उसका बन्धन है, अपने इस रागभाव आसक्ति या ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वह साधना है और उस आसक्ति, ममत्व या रागभाव का टूट जाना ही मुक्ति है, यही आत्मा का परमात्मा बन जाना है। जैन साधकों ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी है१. बहिरात्मा , २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा।
सन्त आनन्दघन जी कहते हैं - त्रिविध सकल तनधर गत आतमा, बहिरातम अघ रूप सुज्ञानी।
बीजो अन्तर आतमा तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी।। विषय-भोगों में उलझा हुआ आत्मा बहिरात्मा है। संसार के विषय-भोगों में उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो विषय-विकार से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित है वह परमात्मा है।
आत्मा और परमात्मा आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा गया है . 'अप्पा सो परमप्पा'। आत्मा ही परमात्मा है। प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक चेतनसत्ता परमात्मा स्वरूप है।
मोह और ममता के कोहरे में हमारा वह परमात्म स्वरूप छुप गया है। जैसे बादलों के आवरण में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता है और अन्धकार घिर जाता है, उसी प्रकार
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मोह-ममता और राग-द्वेष रूपी आवरण से आत्मा का अनन्त स्वरूप तिरोहित हो जाता है और जीवन दुःख और पीड़ा से भर जाता है।
आत्मा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान और चावल एक ही है, अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण (छिलके) सहित है और दूसरा निरावरण (छिलके रहित)। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल कर्म रूप आवरण का है।
जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त हो सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जावे, उसी प्रकार अपने ही परमात्म स्वरूप की अनुभूति तभी सम्भव है जब हम अपनी चेतना से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार फेकें। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में जकड़ी हुई चेतना आत्मा है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है। कहा है -
सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोय सिद्ध होय।
कर्म मैल का आंतरा, बूझे बिरला कोय।। मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही परमात्मा स्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रयत्न परमात्मा को पाने का नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो उपस्थित है ही। हमारी गलती यही है कि हम परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना तो चाहते हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों की दिशा यदि सही हो तो अपने में ही निहित परमात्मा का दर्शन दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी ही दास बना हआ है। हमें अपनी हस्ती का अहसास ही नही है। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है -
इन्सा की बदबख्ती अंदाज से बाहर है। कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।
धर्मसाधना का स्वरूप धर्म के स्वरूप की इस चर्चा के पश्चात् यह आवश्यक है कि हम इस प्रश्न पर भी विचार करें कि धर्म की साधना क्या हैं? धर्म को जीवन में किस प्रकार जीया जा सकता है? क्योंकि धर्म साधना का तात्पर्य धर्म को जीवन में जीना है। धर्म जीवन जीने की एक कला है और उससे अलग होकर उसका न तो कोई अर्थ है और न कोई मूल्य
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ही। धर्म के स्वरूप की चर्चा में हमने जो कुछ निष्कर्ष रूप में पाया था वह यह कि 'समता धर्म है और ममता अधर्म है। इसके साथ हमने यह भी देखा कि मनुष्य की व्यक्तिगत या सामाजिक जो भी पीड़ाएँ है, दुःख है, वे सब उसकी ममत्व बुद्धि, रागभाव और आसक्ति का परिणाम है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते है कि 'ममता दुःख का मूल है और समता सुख का मूल' । जीवन में ममता जितनी छूटेगी और समता जितनी प्रकटित होगी, उतना ही दुःख कम होगा और व्यक्ति आनन्द का अनुभव करेगा। ममता और तृष्णा को छोड़ने से ही जीवन में समा और सुख को पाया जा सकता है और दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म को जीवन में जीया जा सकता है । किन्तु ममता या रागभाव का छूटना या छोड़ना अत्यन्त दुरूह या कठिन कार्य है। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हमारे जीवन में ममता और तृष्णा के तत्त्व इतनी गहराई तक पैठे हुए हैं कि उन्हें निकाल पाना सहज नहीं है। वीतराग, आसक्ति या वीततृष्ण होने की बा कही तो बड़ी सरलता से जा सकती है, किन्तु जीवन में उसकी साधना करना अत्यन्त कठिन है । अनेक बार यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कोई व्यक्ति वीतराग, वीततृष्ण या अनासक्त होकर कैसे जीवन जी सकेगा? जब जीवन में ममता नहीं होगी, अपनेपन का बोध नहीं होगा, चाह नहीं होगी, तो व्यक्ति को जीवन जीने का कौन सा आकर्षण रह जाएगा। ममता और चाह (तृष्णा) वस्तुत: हमारे जीवन-व्यवहार के प्रेरक तत्त्व हैं। व्यक्ति किसी के लिए भी जो कुछ करता है, वह अपने ममत्व या रागभाव के कारण करता है, चाहे वह राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त । अथवा वह फिर अपनी किसी इच्छा (तृष्णा) की पूर्ति के लिए करता है। यदि राग और तृष्णा के ये दोनों तत्त्व जीवन से निकल जाये तो जीवन नीरस और निष्क्रिय हो जायेगा। क्योंकि राग या ममता के कारण रस है और चाह के कारण सक्रियता, यद्यपि बौद्धिक दृष्टि से अनेक बार यह कहा जाता है कि आसक्ति, ममत्व या तृष्णा के अभाव में भी कर्तव्य-भाव और विवेक- युक्त करूणा के आधार पर जीवन जीया जा सकता है। एक ओर यह भी सत्य है कि अनासक्त होकर मात्र कर्तव्यबोध या निष्काम भाव से जीवन जीना कुछ बिरले लोगों के लिए सम्भव हो सकता है, जन सामान्य के लिए यह सम्भव नहीं है। किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि ममता, आसक्ति या तृष्णा ही सभी दुःखों की जड़ है, संसार के सारे संघर्षों का कारण है । उसे छोड़े या उस पर नियंत्रण किये बिना न तो व्यक्तिगत जीवन में और न सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति आ सकती है। यही मानव-जीवन का विरोधाभास है । एक ओर ममत्व और कामना (चाह) सरस एवं सक्रिय जीवन के अनिवार्य तत्त्व हैं तो दूसरी ओर वे ही दुःख और संघर्ष के कारण भी है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में जीवन को जो दुःखमय कहा गया है उसका कारण यही है। ममत्व और कामना (तृष्णा) के बिना जीवन चलता नहीं है और जब तक ये उपस्थित हैं जीवन में सुख-शान्ति सम्भव नहीं है ।
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चाहे एक बार हम इस बात को मान भी लें कि जीवन में पूर्णतया अनासक्ति या निर्ममत्व लाया नहीं जा सकता, किन्तु साथ ही हमें यह भी मानना ही होगा कि यदि हम अपने जीवन को और मानव समाज को दुःख और पीड़ाओं से ऊपर उठाना चाहते है, तो ममता और कामना के त्याग अथवा उन पर नियंत्रण के अतिरिक्त, अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। जीवन में जब तक ममता की गाँठ टूटती नहीं है, आसक्ति छूटती नहीं है, कामना (तृष्णा) समाप्त नहीं होती है, तब तक आत्मिक शान्ति और सुख सम्भव नहीं है। यदि हमें सुख और शान्ति की अपेक्षा है, तो निश्चित रूप से आसक्ति और ममता की गाँठ को खोलना होगा और जीवन में समभाव और अनासक्ति को लाना होगा। कर्मकाण्ड साधना का लक्ष्य नहीं
सामान्यतया धर्म साधना का सम्बन्ध कुछ विधि-विधानों, क्रियाकाण्डों, आचारव्यवहार के विधि-निषेधों के साथ जोड़ा जाता है। हमसे कहा जाता है यह करों, यह मत करों किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि ये धार्मिक साधन के मूल-तत्त्व नहीं है, यद्यपि मेरे कहने का यह तात्पर्य भी नहीं है कि धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं है। आचार व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं है। आचार-व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन के सदैव से ही आवश्यक अंग रहे है और सदैव रहेंगे। किन्तु हमें एक बात का स्मरण रखना होगा कि यदि हमारे इन धार्मिक कहे जाने वाले क्रियाकाण्डों, विधि-विधानों या आचारनियमों से हमारी आसक्ति या ममता छूटती नहीं है, चाह और चिन्ता में कमी होती नहीं है, आकुलता समाप्त होती नहीं है, जीवन में विवेक एवं आनन्द का प्रस्फुटन नहीं है, तो ये सब निरर्थक है, उनका कोई मूल्य नहीं है। इनकी कोई उपादेयता नहीं। ये साधन हैं और साधन का मूल्य तभी तक है जब तक ये साध्य की उपलब्धि में सहायक होते हैं। आइये परखें और देखें कि धर्म साधना के उपाय कौन से हैं और इनकी मूल्यवत्ता क्या है?
सम्यग्दर्शन का स्वरूप धर्म साधना के तीन मुख्य अंग हैं - भक्ति, ज्ञान और कर्म। जैन परम्परा में इन्हें ही क्रमशः सम्यक-ज्ञान सम्यक्-चारित्र कहा गया है। इनमें सबसे पहले हम सम्यक दर्शन के स्वरूप पर विचार करेंगे। वस्तुतः सम्यक्-दर्शन शब्द सम्यक्+दर्शन - इन दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका सीधा और सरल अर्थ है - सही ढंग से या अच्छी
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प्रकार से देखना। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि अच्छी प्रकार से देखने का क्या तात्पर्य है? अच्छी प्रकार से देखने का तात्पर्य तो यह है कि विकार-रहित दृष्टि से देखना। आँख की विकृति हमारी चक्षु-इन्द्रिय के बोध को विकृत कर देती है। यथापीलिया का रोगी सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में राग-द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं, उनकी उपस्थिति के कारण हम सत्य का उसके यथार्थ रूप में दर्शन नहीं कर पाते हैं। जिस पर हमारा राग होता है उसके दोष नहीं दिखाई देते हैं और जिससे द्वेष होता है उसके गुण दिखाई नहीं देते है। रागद्वेष आँख पर चढ़े रंगीन चश्मों के समान हैं जो सत्य को विकृत करके प्रस्तुत करते हैं। अतः सामान्य रूप से सम्यक् दर्शन का अर्थ है - राग और द्वेष अर्थात् पूर्वाग्रह के घेरे के ऊपर से उठकर सत्य का दर्शन करना। राग और द्वेष के कारण ही आग्रह और मतान्धता पनपती है और वही हमारे सत्य के बोध को रंगीन या दूषित बना देती है। अत: आग्रह और मतान्धता से रहित दृष्टि ही सम्यक्-दृष्टि है। सत्य के पास उन्मुक्त भाव से जाना होता है। जब तक हम राग-द्वेष, मतान्धता, आग्रह आदि से ऊपर उठकर सत्य को देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं तब तक सत्य का यथार्थ स्वरूप हमारे सामने प्रकट नहीं होता है। अतः आग्रह और पक्षपात से रहित दृष्टि ही सम्यक् दर्शन है।
जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन शब्द तत्त्व, श्रद्धा तथा देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूढ़ है। लेकिन हमें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक दृष्टि के निर्दोष और निर्विकार होने पर सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन होगा और उस यथार्थ बोध पर जो श्रद्धा या आस्था होगी वही सम्यक्-श्रद्धा होगी।
सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ उसका परवर्ती अर्थ है और भक्तिमार्ग के प्रभाव से जैनधर्म में आया है। मूल अर्थ तो दृष्टिपरक ही है। लेकिन श्रद्धापरक अर्थ भी साधना के लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यथार्थत: आत्म-बोध और अपनी विकृतियों को समझने के दो ही रास्ते हैं। या तो हम स्वयं आग्रह, मतान्धता और राग-द्वेष के घेरे से ऊपर उठकर तटस्थ भाव से उनके द्रष्टा बने, स्वयं अपने में झाँके और अपने को देखे अथवा फिर जिसने वीतराग दृष्टि से सत्य को देखा है उसके वचनों पर विश्वास करें। वीतराग के वचनों पर विश्वास या श्रद्धा - यह सम्यक् दर्शन का दूसरा अर्थ है। जिस प्रकार हमें अपनी बीमारी को समझने के लिए दो ही मार्ग होते है, एक तो जीवन के पूर्वापर अनुभवों की तुलना के द्वारा स्वयं यह निश्चय करें कि हमारे स्वास्थ्य में कोई विकृति है या फिर जो डॉक्टर या विशेषज्ञ हैं उनकी बात पर विश्वास करें। उस प्रकार जीवन के सत्य का या तो स्वयं अनुभव करें या फिर जिन्होंने उसे जाना है उसके वचनों पर विश्वास करें। अत: सम्यक् दर्शन का यह दूसरा अर्थ हमें यह बताता है कि यदि हम स्वयं जीवन के सत्य को और अपनी विकृतियों को समझने में सक्षम नहीं हैं तो हमें
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वीतराग के वचनों पर श्रद्धा के सत्य को और अपन विकृतियों को समझने में सक्षम नहीं है तो हमें वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखकर उन्हें जान लेना चाहिए। क्योंकि एक बात निश्चित है कि जो रोग को रोग के रूप में जान लेता है वही रोग की चिकित्सा करवाता है और वही रोग से मुक्त होता है।
वस्तुत: आध्यात्मिक विकृतियों को जानने के लिए हमें तटस्थ भाव से अपने अन्दर झाँकना होता है, अपनी विकृतियों को देखना होता है। यही सम्यक् दर्शन है। वस्तुत: कोई व्यक्ति सम्यक् दृष्टि है या नहीं - इसकी पहचान उसका बाह्य जीवन नहीं है अपितु इसकी पहचान है कि वह अपनी विकृतियों को, अपनी कषायों को और अपनी राग-द्वेष की वृतियों को कितना और किस रूप में जान पाया है। वस्तुत: अपनी वृत्तियों का द्रष्टा ही सम्यक द्रष्टा है। सम्यक् दर्शन अपने आपका दर्शन है। अपनी वृत्तियों का
और अपनी भावनाओं का दर्शन है। वह अपने आपको पढ़ना और देखना है। वस्तुतः मैं सम्यक दृष्टि हूँ या नहीं - इसकी पहचान इतनी ही है कि मैं अपनी मनोवत्तियों को
और कमियों को कहाँ तक और कितना जान पाया हूँ। क्या मैं यह देख पाया हूँ कि मुझमें क्रोध, मान, माया और लोभ के तत्त्व अथवा राग-द्वेष के भाव कहाँ तक छिपे बैठे हैं।
वस्तुत: द्रष्टा या साक्षी भाव ही एक ऐसी अवस्था है जो हमें आध्यात्मिक विकृतियों से मुक्त कर सकता है। सम्यक्-दर्शन को साधना का मूल आधार कहने का तात्पर्य यही है कि जब तक व्यक्ति को अपनी वासनाओं और विकारों का बोध नहीं होगा तब तक उनके प्रति उसके हृदय में एक ग्लानि उत्पन्न नहीं होगी तब तक उनसे छुटकारा सम्भव नहीं है। क्योंकि मनोविकृतियाँ तभी पनपती है जबकि हम उनके द्रष्टा नहीं बनते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि 'सम्यक् द्रष्टा कोई पाप नहीं करता। किन्तु यह बात हमारे सामने कुछ उलझन भी पैदा कर देती है क्योंकि शास्त्रों में अविरक्त सम्यक्-दृष्टि का भी उल्लेख है। अविरत सम्यक्-दृष्टि वह है जो अपनी विषय वासनाओं या मनोविकृतियों को जानकर भी उनसे अपने को मुक्ता नहीं कर पाता है। वैसे यह एक आनुभविक तथ्य भी है कि सत्य को जानकर भी अनेक बार उसका आचरण सम्भव नहीं होता। महाभारत में दुर्योधन कहता है - "मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उसका आचरण नहीं कर पाता हूँ। मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे छुटकारा नहीं पा सकता हूँ।' किन्तु यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा जानना केवल औपचारिक जानना है। क्या कोई विष को विष के रूप में जानते हए भी उसका भक्षण कर सकता है? वस्तुतः बुराई को बुराई के रूप में जानते हुए भी उसमें लिप्त रहना, कम से कम उसका सही रूप में जानना तो नहीं का जा सकता। वह उस सत्य के प्रति हमारी निष्ठा का सूचक तो किसी भी स्थिति में नहीं माना जा सकता। यदि हम सत्य के प्रति निष्ठावान् हैं तो उसे हमारे जीवन व्यवहार में अभिव्यक्त होना चाहिए।
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वैसे जो आगम में यह कहा गया है कि सम्यक् दृष्टि कोई पाप नहीं करता - उसका भी अपना एक अर्थ है। देखना और करना -ये दोंनो ही मन की ही प्रवृत्तियाँ हैं और दोनों एक साथ सम्भव नहीं है। जिस समय मैं अपनी दुष्प्रवृत्तियों या अपने विषय-विकारों या वासनाओं का द्रष्टा होता है उसी समय मैं उनका कर्ता नहीं रह सकता है। इस बात को एक सामान्य उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। मान लीजिए हम क्रोधित हैं। यदि उसी समय हम उस क्रोध के भाव को देखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दें, उसके कारणों का विश्लेषण करना प्रारंभ कर दें, तो निश्चित ही हमारा क्रोध समाप्त हो जाएगा। क्रोध को देखना और क्रोध करना, यह एक साथ सम्भव नहीं है। जब भी व्यक्ति अपने मनोभावों का द्रष्टा बनता है, उस समय वह उनका कर्ता नहीं रह जाता है। जब भी हम वासनाओं में होते हैं, आवेश में होते हैं तब हम द्रष्टा भाव में नहीं होते हैं, अप्रमत्त नहीं होते है, आत्मचेतन नहीं होते है, और जब आत्मचेतन होते है, द्रष्टा होते हैं तो क्रोधादि विकारों के कर्ता नहीं होते। आत्मचेतन होना, द्रष्टा होना, अप्रमत्त होना, निष्पाप होना है। यही सम्यक् दर्शन है। जीवन में जब इस प्रकार का द्रष्टाभाव आता है तो वासनाएँ, विकार और आवेश अपने आप दूर होने लगते है। व्यक्ति निष्पाप और निर्विकार बनने लगता है। आवेश और तनाव शान्त होने लगते हैं। जीवन में शान्ति और आनन्द प्रकट हो जाते हैं। सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ और साधना के क्षेत्र में उसकी आवश्यकता
यदि हम सम्यक् दर्शन को तत्त्वश्रद्धान् या देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ के रूप में लें तो भी साधना के क्षेत्र में उसकी उपयोगिता स्पष्ट है। साधना के क्षेत्र में श्रद्धा या आस्था के सम्बल के बिना प्रगति सम्भव नहीं है। व्यक्ति अपने गन्तव्य नगर के मार्ग को जानता हो किन्तु यदि उसे विश्वास न हो कि यही मार्ग उसे गन्तव्य तक पहुँचाएगा तो सम्भव है कि वह अपने पथ से विचलित हो जाए। आज हमारे जीवन के सारे व्यवहार और पारस्परिक सम्बन्ध आस्था के बल पर ही टिके हुए हैं। यदि मनुष्य समाज में पारस्परिक आस्था और विश्वास न हो तो उसके अनेक दुष्परिणम होते हैं। परिवार में पारस्परिक विश्वास न रहने पर परिवार भंग हो जाता है। यदि समाज में पारस्परिक अविश्वास का भाव न हो तो न केवल समाज टूटता है, अपितु उसमें पारस्परिक संघर्ष और हिंसा की दावाग्नि भी भड़क उठती है। आज विश्व के राष्टों में पारस्परिक विश्वास का अभाव ही हमारी विध्वंसक अस्त्रों की दौड़ का मूलभूत कारण है। आज मानव समाज में जो भी भय और आतंक का वातावरण बना हुआ है। उसका मूल कारण भी परस्पर एक-दूसरे के प्रति विश्वास का अभाव ही है। आस्था की औषधि मनुष्य के तनाव और भय को दूर कर सकती है।
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धार्मिक साधना के क्षेत्र में आस्था के अनेक रूप दृष्टिगत होते हैं। मुख्यतया हम तीन प्रकार की आस्थाओं की चर्चा करना चाहेंगे। एक आस्था अपने आप के प्रति होती है। दूसरी आस्था अपने सहयोगियों एवं संघ के सदस्यों के प्रति होती है। तीसरी आस्था परमसत्ता या परमात्मा के प्रति। पहली आस्था जो आवश्यक है वह अपने प्रति होनी चाहिए। यदि हम अपने प्रति और अपनी क्षमताओं के प्रति आस्थावान् नहीं हैं तो सम्भवतः हम जीवन में कुछ भी नहीं कर पायेंगे। आत्मविश्वास ही एक ऐसा सम्बल है, जो मनुष्य को कठिनाइयों में साहस देता है और उसे सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ाता है। जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास नहीं होगा वह पग-पग पर खिन्न होगा. निराश होगा और इस प्रकार न केवल अपनी प्रगति से वंचित रहेगा अपित् निराश और अविश्वास के कारण उसका स्वयं का जीवन भी अशान्त और विषादपूर्ण बन जाएगा। मन की क्षमता और शान्ति के लिए अपने आप के प्रति आस्था व विश्वास का होना आवश्यक है। निराशा से मुक्ति के लिए आस्था आवश्यक है क्योंकि आस्था से आत्मशक्ति का प्रकटन होता है। आस्था के कारण ही आत्मा की अनन्त-शक्ति का अहसास होता है।
जहाँ तक हमारे सामाजिक शान्ति और सद्भाव का प्रश्न है, वहाँ समाज में पारस्परिक विश्वास व सद्भाव का होना आवश्यक है। यदि समाज के सदस्यों में या इससे आगे बढ़कर कहें कि मानव समाज में परस्पर सद्भाव व आस्था नहीं होगी, यदि प्रत्येक मनुष्य में निहित मानवीय गुणों के प्रति हमारा विश्वास नहीं जायेगा तो निश्चित ही अनावश्यक भय तथा आतंक से ग्रस्त होंगे। जैन चिन्तकों के अनुसार व्यक्ति में अपने आपके प्रति आस्था और समाज के प्रति वात्सल्य-भाव का होना आवश्यक है। ये दोनों सम्यक् दर्शन के अंग माने गये हैं।
जहाँ तक परमात्मा के प्रति श्रद्धा या आस्था का प्रश्न है। जैन धर्म में इसे वीतराग देव के प्रति श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। यद्यपि जैनधर्म को अनीश्वरवादी कहा जाता है और इसी आधार पर कभी-कभी यह भी मान लिया जाता है कि उसमें श्रद्धा या भक्ति का कोई स्थान नहीं है। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। चाहे जैन विचारक संसार के स्रष्टा और नियामक के रूप में किसी ईश्वर को न मानते हो किन्तु आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्म स्वरूप मानकर वे उसके प्रति आस्था एवं श्रद्धा को अवश्य मानते हैं।
पुनः किसी पराशक्ति या परानियम के प्रति आस्था को भी उन्होंने जीवन में आवश्यक माना है। इसे वे कर्म का नियम कहते हैं। उनके अनुसार यही एक ऐसा नियम है जो मनुष्य को दुःख और निराशा के क्षणों में शान्ति प्रदान कर सकता है और व्यक्ति में आशा की एक किरण प्रदान कर सकता है। क्योंकि इसमें होनहार के साथ पुरुषार्थ
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को भी स्थान दिया गया है। यह मानता है कि भूत हमारे हाथ में नहीं था किन्तु अपने भविष्य के निर्माता तो हम स्वयं ही हैं। एक परानियमक के रूप में कर्म सिद्धान्त में जैनों की आस्था अटूट है और वही उन्हें दुःख और पीड़ा के क्षणों में समभाव और शान्ति का सम्बल प्रदान करती है। एक जैन कवि कहता है -
रे जीव साहस आदल्हे, मत थावो तुम दाहहहह
हुखदुःख यापद-सम्पदा, पसब करम अधीन।। कर्म नियम के प्रति यह अटूट आस्था ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी समता को विचलित होने से बचा सकता है। इसी बात को एक अन्य रूप में इस प्रकार कहा गया
है -
ज्ञानी देखी ज्ञान में निश्चय वर्ते सोय।
जो जो पदगल फरसना निश्चय फरसे सोय।। अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु ने जो अपने भावी के ज्ञान में जान लिया है वह भवितव्यता घटित होती ही है। ऐसी स्थिति में हमें सुख हो या दुःख अपने मन की समता को विचलित नहीं होने देना चाहिए।
आस्था चाहे वह परानियम के प्रति हो या पराशक्ति के प्रति, निश्चित ही वह दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में मनुष्य को एक शान्ति और शक्ति प्रदान करती है। जिन धर्मों में ईश्वर के प्रति आस्था या श्रद्धा को आवश्यक माना गया है वे सभी यही उपदेश देते हैं कि व्यर्थ की दुश्चिन्ताओं और तनावों से तभी बचा जा सकता है जब वह अपनी समस्त इच्छाओं और आकांक्षाओं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दे और अपने को उस देवी योजना का एक अंग मानकर अपना जीवन -व्यवहार चलाये। जिस प्रकार एक छोटा बालक अपने को अपने माता-पिता की शरण में समस्त भावी दुःख और चिन्ताओं से मुक्त अनुभव करता है और आनन्द से जीवन व्यतीत करता है उसी प्रकार एक सच्चा साधक ईश्वर कर्म नियम या प्रकृति की व्यवस्था - चाहे हम उसे कुछ भी कहें - पर अटल विश्वास रखकर अपने मन की शान्ति को बनाये रख सकता है। भक्ति और श्रद्धा का जो महत्त्व है वह इसीलिए कि उसके माध्यम से हम एक निश्चिन्त और शान्त जीवन जी सकते हैं। जीवन में जो कुछ अच्छा या बुरा घटित होता है, सम्पदा और विपदा आती है, उसे प्रभुः इच्छा या कर्म नियम की अटल व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर हम अपने मन की शान्ति को बनाये रख सकते हैं। मेरी दृष्टि में श्रद्धा और भक्ति की साधना के क्षेत्र में यही उपयोगिता है कि वह हमें आकांक्षाओं से, विक्षोभो से, तनावों से और अशान्त मनोदशाओं से मुक्त करके वह समता, समाधि और शान्ति प्रदान करती है।
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फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस श्रद्धा और भक्ति का अर्थ अन्धश्रद्धा या अन्धविश्वास नहीं है । वह मात्र विपदा के क्षणों में आत्म- संतोष के लिए है। कर्म सिद्धान्त या ईश्वर के प्रति समर्पण का यह अर्थ भी नहीं है कि हम जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ को छोड़कर भाग्यवादी और अकर्मण्य बन जायें। हमें स्पष्ट रूप से इस बात को विश्वास में रखना होगा कि हम अपने नियामक हैं । कर्तव्य को करना यह हमारा दायित्व है। जैनधर्म में आस्था और विश्वास का अर्थ कर्तव्य विमुख होना नहीं है। जिस प्रकार समुद्र में भटकते हुए जहाज के लिए स्वयं कुछ न करके भी प्रकाश स्तम्भ एक त्राणदाता होता है । उसी प्रकार दुःख के सागर में उतराते हम पामर प्राणियों के लिए वीतराग प्रभु हमारे लिए कुछ नहीं करता हुआ भी त्राणदाता होता है। वह एक प्रकाश - स्तम्भ है, मार्गदर्शक है, आदर्श है, जिसके आलोक में हम अपनी यात्रा कर सकते है । किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि यात्रा स्वयं हमें करना है। विष्णुपुराण में
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स्वधर्मकर्मविमुखः कृष्ण कृष्णेति वा दिन: । ते हरिद्वेषिणो मूढाः धर्मार्थ जन्म यद्धरेः ॥
जो लोग अपने कर्तव्य को छोड़ बैठते हैं और केवल कृष्ण-कृष्ण कहकर भगवान् का नाम जपते है वे वस्तुतः भगवान् के शत्रु और पापी है। क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान् ने भी जन्म लिया था। भक्ति में त्याग कर्म-फल का करना है, कर्म (कर्तव्य) का नहीं। बाइबिल में भी कहा गया है कि हर कोई जो ईशा - ईशा पुकारता है स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पायेगा अपितु वह पायेगा जो परमपिता के इच्छा के अनुसार काम करता हैं (बाइबिल जोन २.९ - ११) | महावीर ने कहा है कि 'एक मेरा नाम स्मरण करता है, दूसरा मेरी आज्ञाओं का पालन करता है । उनमें जो मेरी आज्ञाओं का पालन करता है, वही सच्चे रूप में मेरी उपासना करता हैं' ।
वस्तुतः श्रद्धा या भक्ति आवश्यक तो है किन्तु वह कर्तव्यविमुखता की सूचक नहीं है । जिस प्रकार अपने पथ पर यह दृढ़ आस्था रखकर कि यह मुझे गन्तव्य तक पहुँचायेगा, कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है । उसी प्रकार आस्था का सम्बल लेकर जो व्यक्ति जीवन में कर्तव्य करता है वही जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। सन्त आनन्दघन ने स्पष्ट रूप से कहा है
सुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी छारपर लीपनो तेह जानो रे।
जिस प्रकार राख पर लीपना निरर्थक होता है उसी प्रकार श्रद्धा के अभाव में धर्म क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं है। किन्तु आचरण के अभाव में श्रद्धा का भी मूल्य नहीं
है।
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जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं -
अज-कुल-गत केशरी लहे रे निज पद सिंह निहाल।
तिम प्रभु भक्ति भवी लहे रे आतम शक्ति सभाल।। जिस प्रकार भेड़-बकरियों के साथ पला हुआ सिंह का बच्चा वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थंकर के गुण-कीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिन व को शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है।
जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। मात्र यही नहीं, वह हमें उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी देती है। जैन विचारकों ने यह स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि इसमें प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है लेकिन साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त अवश्य होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शन विशुद्धि होती है। उसका दृष्टिकोण सम्यक् बनता है और परिणामस्वरूप वह आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है। यद्यपि जैनधर्म में यह माना गया है कि भगवद् भक्ति के फलस्वरूप पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है, तथापि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं वरन व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आवश्यक नियुक्ति में जैनाचार्य भद्रबाहु ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि भगवान् के नामस्मरण से पाप क्षीण होते हैं (१०७६)। आचार्य विनयचंद्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं -
पाप-पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरू आकारो।
ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो।। हे प्रभु आपकी नामरूपी अग्नि में इतनी शक्ति है कि उससे मेरू समान पाप समूह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु यह प्रभाव प्रभु के नाम का नहीं अपितु साधक की आत्मिक शक्ति है। जैसे मालिक के जागने पर चोर भाग जाते है, उसी प्रकार प्रभु के स्वरूप के ध्यान से आत्म-चेतना या स्वशक्ति का भान होता है और पाप रूपी चोर भाग जाते हैं।
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं स्थान बन्धन या दुःख के कारणों की विवेचना में लगभग सभी विचारकों ने अज्ञान को एक प्रमुख तत्त्व माना है और इसलिए दु:ख-विमुक्ति के उपायों में ज्ञान को प्रमुखता
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दी गयी है। बन्धन या दुःख के कारण इस अज्ञान को मोह के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। वस्तुतः अज्ञान के कारण अनात्म या पर में आत्म-बुद्धि या अपनेपन का भाव उत्पन्न होता है, राग या ममता का सृजन होता है और यही समस्त दु:खों एवं बुराइयों क जड़ है। अतः आसक्ति, राग या अनात्म में आत्म-बद्धि को समाप्त करने के लिए ज्ञान आवश्यक है। जैन परम्परा में ऐसे ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और ऐसे ज्ञान की प्रक्रिया को भेद-विज्ञान कहा गया है। वस्तुत: भेद-विज्ञान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा साधक आत्म और अनात्म में या स्व या पर में भेद स्थापित करता है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार की टीका में कहा है कि जो कोई भी सिद्ध हुए हैं वे सभी इसी भेद-विज्ञान से हुए हैं और जो कोई बन्धन में हैं वे सभी इसी भेद-विज्ञान में अभाव के कारण हैं। आत्मज्ञान भारतीय और पाश्चात्य सभी चिन्तकों का मूलभूत उद्देश्य रहा है। अपने और पराये या स्व और पर में भेद स्थापित कर लेना यही आसक्ति और ममत्व को तोड़ने को एकमात्र उपाय है। यद्यपि यह कहना तो सहज है कि 'स्व' को स्व के रूप में और पर को पर के रूप में जानो किन्तु यही साधना की सबसे कठिन प्रक्रिया भी है। स्व को जानना तो अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योंकि जो भी जाना जायेगा वह तो पर ही होगा। जानना हमेशा पर का ही हो सकता है स्व तो वह है जो जानता है, ज्ञाता है। जो जानने वाला या ज्ञाता है वह ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। जिस प्रकार आँख समस्त विश्व को देख सकता है, लेकिन स्वयं अपने आपको नहीं देख पाती है, नट स्वयं अपने कंधे पर नहीं चढ़ पाता है, उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह तो ज्ञान का विषय होने से उससे भिन्न होगा इसीलिए उपनिषद के ऋषियों को कहना पड़ा था कि “विज्ञाता को कैसे जाना जावे, जिससे सब कुछ जाना जाता है उसे कैसे जाना जाये।" वास्तविकता तो यह है कि जो सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है जो स्वयं जानने वाला है उसे कैसे जाना जा सकता है। मैं जिस भाँति पर को जान सकता हूँ उसी भाँति स्वयं को नहीं जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सहज घटना भी दुरूह बनी है। वस्तुत: आत्मज्ञान वह ज्ञान नहीं है जिससे हम परिचित हैं। सामान्यज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का जानने वाला और जो कुछ जाना जाता है, उसका भेद बना रहता है। जबकि आत्मज्ञान में यह भेद सम्भव ही नही है। उसमें जो जानता है और जिसको जाना जाता है वे दोनों अलग-अलग नहीं होते। वस्तुत: आत्मज्ञान की प्रक्रिया एक निषेधात्मक प्रक्रिया है, उसमें हम इस बात से प्रारंभ करते हैं कि मैं क्या नहीं हूँ। “पर” से या जो ज्ञान का विषय है उससे अपनी भिन्नता स्थापित करते जाना यही आत्मज्ञान की प्रक्रिया है। इसे ही भेद-विज्ञान कहा गया है। अन्य दर्शनों में इसे आत्म-अनात्म विवेक के नाम से जाना जा सकता है।
आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में इस भेदविज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए
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लिखते है - रूप आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है ऐसा जिन कहते हैं।
वर्ण आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है ऐसा जिन कहते हैं।
गंध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: गंध अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
रस आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रस अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
स्पर्श आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: स्पर्श अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
कर्म आत्मा नहीं है क्योंकि कर्म कुछ नही जानते अत: कर्म अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
अध्यवसाय आत्मा नहीं है क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं वे स्वत: कुछ नहीं जानते, यथा क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है) अत: अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है। ___अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। अपने शुद्ध स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं है।
वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होता है संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह 'पर' को पर के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथकता का बोध कर लेता है तब उसकी ममता या रागभाव समाप्त हो जाता है और वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है, यही वह अवसर होता है जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में जान लिया है तो उसके लिए ममत्व या राग के लिये कोई स्थान नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
भेदविज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सबसे पहले वस्तुओं एवं पदार्थों से अपनी
१. देखिये - समयसार - ३९२-४०२। २. देखिये - नियमसार - ७७-८१॥
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भिन्नता का बोध करता है। चाहे अनुभूति के स्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो किन्तु ज्ञान के स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है। क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है अतः पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद, क्रमश: उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादिक भावों से अपनी भिन्नता का बोध करना होता है, जो अपेक्षाकृत रूप से कठिन और कठिनतर हैं क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता है फिर भी हमे यह जान लेना होगा कि जो कछ पर के निमित्त से है वे हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त से ही है अत: वे हममें होते हुए भी हमारा निजस्वरूप नहीं हो सकते हैं। यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उसका निजरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण है वैसे ही रागादि भाव आत्मा में होते हुए भी उसका अपना स्वरूप नहीं है। यह स्व स्वरूप का बोध ही जैन साधना का सार है जिसकी विधि है भेदविज्ञान अर्थात् जो स्व से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में जानकर उसमें रही हई तादात्म्यता के बोध को तोड़ देना। ममता का बन्धन शिथिल हो जाता है। वस्तुत: जब साधक इस भेदविज्ञान के द्वारा यह जान लेता है कि पर क्या है तो उस पर के प्रति उसका अपनेपन का भाव भी समाप्त हो जाता है। वस्तुत: जो कुछ भी पर है अपने से भिन्न है वह सब सांयोगिक है अर्थात् संयोगवश ही हमें मिला है जो संयोगवश मिला है उसका वियोग भी अनिवार्य है, जिसका वियोग होना है वह हमारे लिए दुःख का कारण ही है, इसीलिए बौद्ध परम्परा में भी कहा गया है जो अनात्म है अर्थात् पराया है वह अनित्य है, अर्थात् उसका वियोग या नाश अपरिहार्य है और जिसका वियोग या नाश अपरिहार्य है वह दुःख रूप ही है। वस्तुतः हमारा बन्धन और दुःख इसीलिए है कि हम पहले अनात्म में आत्मबुद्धि स्थापित करते हैं फिर उसके वियोग या नाश से अथवा नाश की सम्भावना से दुःखी होते हैं। जैसा कि हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं दुःख या पीड़ा वहीं तक है जहाँ तक पर में आत्मभाव है। हमारे जीवन का एक सामान्य अनुभव है कि हम प्रतिदिन अनेकों को मरता हुआ देखते हैं या सुनते हैं,किन्तु उनकी मृत्यु हमारे हृदय को विचलित नहीं करती, हम सामान्यतया दुःखी नहीं होते क्योकि उन पर हमारा कोई राग-भाव या ममत्व बुद्धि नहीं है, किन्तु जहाँ भी राग-भाव जुड़ जाता है, ममत्वबुद्धि स्थापित हो जाती है, हम किसी को अपना मानने लगते है, वहीं पर उसकी मृत्यु या वियोग हमें सताता है। अतः दुःख की निवृत्ति का कोई उपाय हो सकता है तो वह यही कि संसार की वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति हमारा राग-भाव समाप्त हो और यह राग-भाव समाप्त हो सकता है जबकि हम सम्यग् ज्ञान के द्वारा आत्म-अनात्म के विवेक को प्राप्त कर सकते हैं। सम्यग् ज्ञान क्या हैं इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
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एगो मे ससदो अप्पा णाणसण संजुओ।
सेसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।। अर्थात् मैं ज्ञाताद्रष्टारूप अकेला आत्मा हूँ। शेष सभी मुझसे भिन्न हैं और सांयोगिक हैं।
हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारी जो भी सांसारिक उपलब्धियाँ है चाहे वह धन-सम्पदा के रूप में हो या पत्नी-पुत्र-पुत्री आदि परिवार के रूप में हो वह सभी केवल संयोगजन्य उपलब्धि है। व्यक्ति के लिए पत्नी सबसे निकट होती है, अन्यतमा होती है किन्तु हम जानते हैं कि वह केवल एक संयोगिक उपलब्धि है, दो प्राणी कहीं किसी परिस्थिति के कारण या संयोग के वश एक दूसरे के निकट जा जाते हैं और एक दूसरे को अपना मान लेते हैं, यही अपनापन या ममता ही संसार है जो उसे बन्धन, दुःख तथा दुश्चिन्ताओं से जकड लेता है, वह उसके लिए अच्छा बुरा क्या-क्या नहीं करता। वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का अर्थ है जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप को पहचानना। वस्तुतः हम सम्यग्ज्ञान के अभाव में अनित्य को नित्य मान बैठते हैं, पराये को अपना मान बैठते हैं और इसी कारण फिर दुःखी होते हैं। हमारे यहाँ सम्यग्दृष्टि या ज्ञानी की एक स्पष्ट पहचान बतायी गयी है, कहा गया है कि -
सम्यकदृष्टि जीवडा करे कदम्ब प्रतिपाल।
अन्तरा न्यारा रहे ज्यों धाय खिलावे बाल।। - हम सब यह अच्छी तरह जानते है कि एक कर्तव्यनिष्ठ नर्स किसी बच्चे का लालन-पालन उसकी माँ की अपेक्षा ही बहुत अच्छी प्रकार से करती है, एक कर्तव्यनिष्ठ डाक्टर किसी व्यक्ति के जीवन को बचाने के लिए उसके पारिवारिकजनों की अपेक्षा अच्छी प्रकार से उस रोगी की परिचर्या करता है किन्तु नर्स और डॉक्टर दोनों ही क्रमश: बालक और रोगी की पीड़ा और मृत्यु से उतने विचलित नहीं होते जितने कि उनके पारिवारिकजन होते हैं। ऐसा क्यों होता है। इसका कारण स्पष्ट है कि पारिवारकिजनों से हमारे मन में एक ममत्वभाव होता है, एक अपनापन होता है, रागात्मकता होती है जबकि नर्स और डॉक्टर में निरपेक्षता का भाव होता है। वे जो कुछ भी करते हैं कर्तव्य बुद्धि से करते हैं। एक ही काम एक व्यक्ति कर्तव्यबुद्धि से करता है, एक ममत्व बुद्धि से, जो ममत्वबुद्धि से करता है वह विचलित होता है, दुःखी होता है किन्तु जो कर्तव्य बुद्धि से करता है वह निरपेक्ष बना रहता है, तटस्थ बना रहता हैं वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का मतलब है कि हम संसार में जो कुछ भी करें, जैसा भी जीयें वह सब कर्तव्यबुद्धि से करें और जीयें ममत्वबुद्धि ने नहीं जो सांसारिक उपलब्धियाँ हैं और जो सांसारिक पीड़ायें और दुःख हैं उनके प्रति हमारा निरपेक्षभाव रहे, हम उन्हें मात्र परिस्थितिजन्य समझें। सुख-दुःख, संयोग-वियोग, मान-अपमान, प्रशंसा और
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निन्दा ये सब सांसारिक जीवन के अनिवार्य तत्त्व हैं। कोई भी इनसे बच नहीं पाता ज्ञानी
और अज्ञानी दोनों के ही जीवन में सब तरह की परिस्थितियाँ आती है अन्तर यही है कि ज्ञानी उन्हें जीवन की यथार्थता मानकर समभाव से अर्थात अपने चित्त की समता को नहीं खोते हए उनका वेदन करता है जबकि अज्ञानी उनमें विचलित हो जाता है उनके कारण दु:खी होता है।
वस्तुत: सम्यग्ज्ञान का अर्थ है जीवन की अनुकूल एवं प्रतिकूल स्थितियों में अविचलित भाव से या समभाव से जीना। जब ज्ञान के द्वारा जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है, तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मन का समभाव सधता है। मन में निराकुलता जगे मन तनावों से मुक्त हो यही साधना के क्षेत्र में ज्ञान की उपयोगिता है।
सम्यक चारित्र का स्वरूप निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। मानसिक या चैत्तसिक जीवन में, समत्व की उपलब्धि चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुत: चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना को अवस्था में होने वाले सभी कार्य शद्ध ही माने गये हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त ही जाती है तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र का आधार है, राग, द्वेष, कषाय विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्मजाग्रत होता है तब उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता और तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। वस्तुतः जो ज्ञाता-द्रष्टा बनकर जीवन में जीना ही सम्यक् चरित्र है। यद्यपि व्यावहारिक से सम्यक चरित्र का अर्थ आत्मनियंत्रण या संयम है। पूर्व में मानव प्रकृति की चर्चा करते हए हमने इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था कि मनुष्य और पशु में यदि कोई अन्तर है तो वह यह कि मनुष्य में आत्मनियंत्रण या संयम की सामर्थ्य होती है जब कि पशु में उस सामर्थ्य का अभाव होता है। पशु एक विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता है उसका समस्त व्यवहार प्रकृति के नियमों के अनुसार संचालित होता है। भूखा होने पर वह खाद्य सामग्री को प्राप्त करता है और वह उसका उपभोग करता है किन्तु भूख के अभाव में वह उपलब्ध खाद्य सामग्री को छूता तक नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य ने प्रकृति से विमुख होकर जीवन जीने की एक शैली विकसित कर ली है। वह भूख
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से पीड़ित होकर एवं खाद्य सामग्री के उपलब्ध होने पर भी वह खाने से इन्कार कर सकता है और दूसरी ओर वह पेट भरा होने पर भी अपनी प्रिय खाद्य सामग्री के लिए व्याकुल हो सकता है वह उसका उपभोग कर सकता है। मनुष्य में एक ओर वासना की तीव्रता है तो दूसरी ओर संयम की क्षमता भी है। वस्तुत: यह संयम उसकी साधना का मूल तत्त्व है। यह संयम ही उसे पशुत्व से ऊपर उठाकर देवत्व तक पहुँचाता है जबकि संयम के अभाव में पशु से भी नीचे उतर जाता है एक दरिंदा या राक्षस बन जाता है।
संयम : जीवन का सम्यक् दृष्टिकोण
संभवत: किन्हीं विचारकों की यह मान्यता हो सकती है कि व्यक्ति अपनी जीवनयात्रा के संचालन में किन्हीं मर्यादाओं एवं आचार के नियमों से नहीं बाँधना चाहिये। लेकिन यदि हम विचारपूर्वक देखें तो यह तर्क युक्तिसंगत नहीं। इस तथ्य के समर्थन में प्रबलतम तर्क यह दिया जा सकता है कि 'मर्यादाओं के द्वारा हम व्यक्ति के जीवन को स्वाभाविकता नष्ट कर देते हैं और मर्यादाएँ या नियम कृत्रिम एवं आरोपित होते हैं। वे तो स्वयं एक प्रकार के बंधन हैं। इस प्रकार मनुष्य के लिए मर्यादाएँ (सीमा रेखायें) व्यर्थ हैं।'
लेकिन यह मान्यता यथार्थ नहीं। यदि हम प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो हमें स्वयं ज्ञात होगा कि प्रकृति स्वयं नियमों से आबद्ध है। एक पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा का कथन है कि संसार में जो कुछ हो रहा है, नियमबद्ध हो रहा है। इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता जो कुछ होता है प्राकृतिक नियम के अधीन होता है । "
प्रकृति स्वयं उन तथ्यों को व्यक्त कर रही है जो इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि विकारमुक्त स्वभावदशा की प्राप्ति एवं आत्मविकास के लिए मर्यादाएं आवश्यक हैं। चेतन और अचेतन दोनों प्रकार से सृष्टियों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। सम्पूर्ण जगत् नियमों से शासित है। जिस समय जगत् में नियमों का अस्तित्व समाप्त होगा उसी समय जगत् का अस्तिव भी समाप्त हो जाएगा। अतः नियम या मर्यादाएं कृत्रिम या अस्वाभाविक नहीं, स्वाभाविक हैं।
नदी का अस्तित्व इसी में है कि वह अपने तटों की मर्यादा स्वीकार करें। यदि वह अपनी सीमा रेखा (तट) को स्वीकार नहीं करती है तो क्या वह अस्तित्व बनाये रख सकती है? क्या अपने लक्ष्य जलनिधि (समुद्र) को प्राप्त कर सकती है? किंवा जन-कल्याण में उपयोगी हो सकती है ? वास्तव में तटों की मर्यादा के बिना नदी, नदी
१. पश्चिमी दर्शन, पृ. १२१ ।
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ही नहीं रह सकती है। प्रकृति यदि अपने नियमों में आबद्ध नहीं रहे, वह मर्यादा भंग कर दे तो वर्तमान विश्व क्या अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है? प्रकृति का अस्तित्व स्वयं उसके नियमों पर है। डॉ. राधाकृष्णन् अपनी पुस्तक 'हिन्दूओं का जीवन दर्शन' में लिखते हैं कि “प्रकृति का मार्ग लोगों के मन में छाई भावना और संस्कार द्वारा नहीं वरन् शाश्वत नियमों द्वारा निर्धारित होता है....... विश्व पूर्ण रूप से नियमबद्ध है।
पशु जगत् के अपने नियम और मर्यादाएं हैं जिनके आधार पर वे अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न करते हैं। उनके आहार-विहार सभी नियमबद्ध हैं, वे निश्चित समय पर भोजन की खोज में निकल जाते एवं वापस लौट आते हैं। उनके जीवन कार्यों में एक व्यवस्थितता होती है। उनका जीवन नियमबद्ध है। लेकिन उपर्युक्त सभी तथ्यों के प्रति आपति यह की जा सकती है कि ये सभी नियम स्वाभाविक या प्राकृतिक हैं, जबकि मानवीय नैतिक नियम कृत्रिम या निर्मित होते हैं अतएव उनकी महत्ता प्राकृतिक नियमों की महत्ता के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती।
अब हम यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि मनुष्य के लिए निर्मित नैतिक नियम क्यों आवश्यक हैं। इस हेतु हमें सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक होगा कि सामान्य प्राणीवर्ग और मनुष्य में क्या अन्तर है, जिसके आधार पर उसके नैतिक मर्यादाएं (निर्मित नियम) पालन करने को कहा जा सकता है?
यह निर्विवाद सत्य है कि प्राणी वर्ग में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसमें सर्वाधिक चिन्तन की क्षमता है। उसका यह ज्ञान-गुण या विवेक क्षमता ही उसे पशुओं से पृथक कर उच्च स्थान प्रदान करती है। कहा भी है -
___ आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना: पशुभि समानाः।। उसे अपनी इस विवेकशक्ति के आधार पर ही इन तथ्यों पर विचार करना है कि मनुष्य के लिए शुभ क्या है, अशुभ क्या है? अथवा उसके लिये ज्ञेय, हेय और उपादेय तत्त्व क्या हैं?
मनुष्य का कार्य यही है कि वह अपने हिताहित का विचार करे। स्मृतिकार मनु भी यही कहते हैं - मननात् मनुष्यः।
जिसमें मनन करने की सामर्थ्य है वही मनुष्य है। जिस मनुष्य में अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं, जो सर्व कर्मों के प्रति अनजान है अर्थात् जो शुभ और अशुभ कर्मों के विभेद को नहीं जानता और समयोचित आचरण नहीं करता, वह मनुष्य पशु ही है -
१. राधाकृष्णन्, हिन्दुओं का जीवन दर्शन, पृ. ६८॥
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अबुधः सर्वकार्येषु, अज्ञात: सर्वकर्मसु।
समयाचारहीनस्तु, पशुरेव स बालिशः।। अब कुछ पाश्चात्य विचारकों के विचार इस सम्बन्ध में जानने का प्रयत्न करेंगे। ग्रीक आचार्य अरस्तू मनुष्य की परिभाषा एक बौद्धिक (विचारशील) प्राणी के रूप में करते है (Man is a rational animal) अरस्तू की परिभाषा भारतीय विचारकों के अनुकूल होने के साथ ही तार्किक और स्वाभाविक भी है।
इन सब तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि मनुष्य के चिन्तन का विषय क्या है? स्वाभाविक रूप से चिन्तन के तीन रूप ही हो सकते हैं - १. वह स्वयं क्या है? २. यह दृश्य जगत् क्या है और इसका सार-तत्त्व क्या है? ३. व्यक्ति और जगत् का क्या सम्बन्ध है या होना चाहिए?
पहले दो विषय तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित हैं और तीसरा नीतिशास्त्र से। मनुष्य के आचार नियम इसी आधार पर निश्चित किये जाते हैं। यदि मनुष्य के लिए नैतिक मर्यादाएँ ही मान्य न की जाएँ तो हमारा यह मानना कि मनुष्य विवेकशील प्राणी है, कोई अर्थ नहीं रखता और मनुष्य तथा पशु में कोई अन्तर भी नहीं रह जाता।
नैतिक नियम मानव जाति के सहस्रों वर्षों के चिन्तन और मनन के परिणाम हैं। उनको मानने से इनकार करने का अर्थ होगा कि मनुष्य जाति को उसकी ज्ञानक्षमता से विलग कर पशु जाति की श्रेणी में मिला देना।
स्वाभाविक नियम तो पशु जाति में भी होते हैं। उनके आचार और व्यवहार उन्हीं नियमों से शासित होते हैं। वे आहार की मात्रा, रक्षा के उपाय आदि का निश्चय इन स्वाभाविक नियमों के सहारे करते है लेकिन मनुष्य की विशिष्टता इसी में है कि वह स्वचिन्तन के आधार पर हिताहित का ध्यान रख ऐसी मर्यादाएँ निश्चित करें जिससे वह अपने परम साध्य को प्राप्त कर सकें।
काण्ट ने कहा है कि “अन्य पदार्थ नियम के अधीन चलते हैं। मनुष्य नियम के प्रत्यय के अधीन भी चल सकता है। अन्य शब्दों में, उसके लिए आदर्श बनाना और उन पर चलना संभव है।'२
मनुष्य अपने को पूर्ण रूप से प्रकृति पर आश्रित नहीं रखता है। वह प्रकृति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन नहीं करता। आज तक का मानव-जाति का इतिहास यह
१. सुभाषित संग्रह, पृ. ९१। २. पश्चिमी दर्शन, पृ. १६४।
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बताता है कि मनुष्य ने प्रकृति से शासित होने की अपेक्षा उन पर शासन करने का प्रयत्न किया है। फिर आचार के क्षेत्र में यह दावा कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों की पूर्ति हेतु मानवों द्वारा निर्मित नैतिक मर्यादाओं द्वारा शासित न कर स्वतंत्र परिचारण करने देना चाहिए। मनुष्य ने जीवन में कृत्रिमता को अधिक स्थान दिया है और इस हेतु उसके लिए अधिक निर्मित नैतिक मर्यादाओं की आवश्यकता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है 'Man is a social animal' यह मनुष्य के सम्बन्ध में दूसरा मुद्रालेख है यह व्यक्त करता है कि मनुष्य के स्वहित के दृष्टिकोण से बनाये गये आचार के नियम भी ऐसे होने चाहिए जो उसकी सामाजिकता को बनाए रखें। समाजिक व्यवस्था में व्याघात उत्पन्न करने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं है।
उपर्युक्त आधार पर मनुष्य की आचारविधि या नैतिक मर्यादाएँ दो प्रकार की हो सकती है, एक समाजगत और दूसरी आत्मगत। पाश्चात्य विचारक भी ऐसे ही दो विभाग करते है -
१. उपयोगितावादी सिद्धान्त २. अन्तरात्मक सिद्धान्त
लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि निरपेक्ष रूप से न तो समाजगत विधि ही अपनाई जा सकती है और न आत्मगत, दोनों का सापेक्षित महत्त्व है। यह एक अलग तथ्य है कि किसी परिस्थिति विशेष में साधक की योग्यता के आधार पर किसी एक को प्रमुखता दी जा सकती है और दूसरी गौण हो सकती है लेकिन एक ही अवहेलना करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
चाहे हम अपने लिए या समाज के लिए नैतिक मर्यादाओं का पालन करें, लेकिन उनकी अनिवार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। दृष्टिकोण चाहे जो हो, दोनों में संयम के लिए समान स्थान है। असयंम से जीवन बिगड़ता है, प्राणी दुःखी होता है। इस सम्बन्ध में श्री अगरचंद नाहटा का कथन है -
१. खाने में ही देखिए - संयम की बड़ी आवश्यकता रहती है। जो आया वही भक्ष्य, अभक्ष्य व अपरिमित खाता रहे तो ठीक से न पचने या स्वास्थ्य के विरोधी तत्त्वों के शरीर में प्रवेश के कारण रोगों की उत्पत्ति हो जाएगी। बीमार व्यक्ति यदि खाने का संयम न रखे, तो इच्छा में आए वह खा ले, तो तुरन्त रोग बढ़कर मृत्यु को प्राप्त हो सकता है।
२. भोगों में संयम - विषय सुख बड़े मधुर लगते हैं, पर यदि व्यक्ति इनमें संयम न रखे तो वीर्यनाश से शक्तिह्रास यावत् रोगोत्पत्ति से मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। सुन्दर स्त्रियों को देखकर मन ललचा जाता है, किन्तु पराई स्त्रियों से विषय-सुख
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की इच्छा करने पर समाजव्यवस्था से विशृङ्खलता पैदा हो जाएगी। मन की चंचलता की दौड़ में यदि अभोग्य बहन, बेटी, कुटुम्बिनी तक से विषयसुख की लालसा जागृत हो गई तो अनर्थ हो जाएगा।
३. बोलने में संयम न रखे तो कलह की व मनोमालिन्य की सृष्टि होती है। चाहे जैसा जो वाक्य मन में आया बोल दिया तो उसका परिणाम बड़ा दारुण होता है। अधिकांश झगड़े इसी कारण पैदा होते है। तूने मुझे ऐसा क्यों कहा? इस तरह बस बात ही बात में झगड़ा बढ़ जाता है।
४. वाद्ययंत्रों के वादन में, मोटर आदि के चलाने में हाथ का संयम रखना जरूरी होता है। थोड़ा-सा हाथ का संयम खत्म हुआ कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी। ताल व वाद्य पर कंट्रोल न रहा तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।
संयम के बिना जीवन नहीं चल सकता, संयम रूपी ब्रेक की हर काम में आवश्यकता होती है। जिस प्रकार मोटर, रेल, साइकिल आदि में ब्रेक न हो तो महान् दुर्घटना की सम्भावना रहती है उसी प्रकार जीवन में भी संयम न रहने पर अनेक दुर्घटनाएँ घटित हो सकती है।
सामाजिक जीवन में भी संयम के अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। सामाजिक जीवन में प्रविष्टि संयम के बिना संभव ही नहीं है। व्यक्ति जब तक अपने हितों को मर्यादित नहीं कर सकता और अपनी आकांक्षाओं को सामाजिक हित के लिए बलिदान नहीं कर सकता, वह सामाजिक जीवन के अयोग्य है।
समाज में शांति और समृद्धि तभी संभव है जब उसके सदस्य अपने हितों का नियंत्रण करना सीखें। सामाजिक जीवन में हमें अपने हितों के लिए एक सीमा-रेखा निश्चित करनी होती है। हम अपने हितसाधन की सीमा वहीं तक बढ़ा सकते हैं जहाँ एक दूसरे के हित की सीमा प्रारंभ होती है। समाज में व्यक्ति अपने स्वार्थ की सिद्धि तभी कर सकता है जब तक उससे दूसरे का अहित न हो। इस प्रकार सामाजिक जीवन में हमें संयम का पहला पाठक पढ़ना ही होता है। मात्र यहीं नहीं वरन् हमें अपने हितों के त्याग के लिए भी तैयार होना पड़ता है। हमें अपने साथियों के लिए अपनी आवश्यकताओं का बलिदान करना पड़ता है।
सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्त्व है - १. अनुशासन, २. सहयोग की भावना और ३. अपने हितों को बलिदान करने की क्षमता। क्या इन सबका आधार संयम नहीं है? वस्तुस्थिति यह है कि संयम के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही सम्भव नहीं।
__ संयम और मानवजीवन ऐसे घुलेमिले तथ्य हैं कि उनसे परे एक सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना संभव नहीं है। संयम का दूसरा रूप ही मर्यादित जीवन व्यवस्था है।
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मनुय के लिए अमर्यादित जीवनव्यवस्था संभव नहीं है। हम सभी ओर से मर्यादाओं से आबद्ध है, प्राकृतिक मर्यादाएँ, व्यक्तिगत मर्यादाएँ, पारिवारिक मर्यादाएँ, सामाजिक मर्यादाएँ, राष्ट्रीय मर्यादाएँ और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादाएँ इन सभी से मनुष्य बंध हुआ है और यदि वह इन सबको स्वीकार न करें तो वह उस दशा में पशु से भी हीन होगा। महान राजनैतिक विचारक रूसो ने ठीक ही कहा है
"Man was born free and every where he is in chains" ' 'मनुष्य का जन्म स्वतंत्र रूप में हुआ था लेकिन वह अपने को श्रद्धाओं में जकड़ा हुआ पाता है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मर्यादाओं का पालन आवश्यक और अनिवार्य है। सभी मर्यादाओं का पालन संयम नहीं कहला सकता। लेकिन यदि सभी मर्यादाएँ स्वेच्छा से स्वीकार कर ली जाती हैं तो उनके पीछे अव्यक्त रूप में संयम का भाव छिपा रहता है। वे ही मर्यादाएँ संयम कहलाने की अधिकारी है जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मविकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है ।
ऊपर हमने संयम की सामान्य आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार किया। अब हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि वर्तमान परिस्थितियों में संयम का स्थान क्या है ?
वर्तमान युग भौतिकवाद का युग है। आज के युग में संयम का स्थान नगण्य सा होता जा रहा है। हम मानवजाति के विकास हेतु जिन साधनों का प्रयोग कर रहे हैं उनका एक मात्र लक्ष्य है ‘आवश्यकताओं की असीमित वृद्धि और उनकी पूर्ति का निरन्तर प्रयास'। इस प्रकार वर्तमान युग में आवश्यकताओं की वृद्धि के मार्ग पर मानव अबाध गति से बढ़ रहा है और अर्थशास्त्री तथा वैज्ञानिक इसे प्रगति का पूर्ण अंग मानकर इस कार्य को गति प्रदान कर रहे हैं।
भौतिक आवश्यकताओं का जीवन में स्थान है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। हमारे यहाँ कहा गया है, 'भूखे भजन न होइ गोपाला' । भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य हैं, किन्तु उसकी भी एक सीमा है। कबीरदास ने इस तथ्य को अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है
-
कबीरा सरीर सराय है, भाडा देके बस ।
जब भठियारी खुश रहे, तब जीवन का रस ।।
इसमें कबीर के शब्दों की अभिव्यंजना को देखिये । सम्पूर्ण दोहें में भौतिक आवश्यकता को शरीर के लिए आवश्यक मानते हुये भी उन्होंने शरीर को सराय
१. Social Chapter 1.
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कहकर यह भाव व्यक्त कर दिया कि यह न तो अपना ही है और न आदर्श ही। वरन् यह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पड़ाव मात्र है। हमारी यात्रा का लक्ष्य तो है उस आध्यात्मिक आदर्श को प्राप्त करना, जो कि अपना है। लेकिन जिस प्रकार पथिक को अपनी यात्रा में बढ़ने के लिये बीच-बीच में सराय के मालिकों को किराया देकर विश्राम करना भी आवश्यक है, उसी प्रकार हमें जीवन में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी जरूरी होता है।
भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना कर आध्यात्मिक आदर्शों की बात नहीं की जा सकती। मनुष्य में पाशविक और दैवी वृत्तियों का संयोग है। यदि मनुष्य में निम्न वृत्तियों का अभाव हो जाता है तो वह मनुष्य से देव बन जाता है और इसी प्रकार यदि उसमें दैवी वृत्तियों का अभाव होता है तो वह पशु ही कहला सकता है। कहा भी है -
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्यु लोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जाति के सच्चे विकास हेतु भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन स्थापित करना होगा। यदि मानव जीवन के सम्पूर्ण पक्ष को भौतिकता के आवरण में दबाने का प्रयत्न किया गया तो निश्चित रूप से मानवजाति अपने अंतिम प्रयाण की तैयारी करेगी। वर्तमान भौतिकवाद ने मनुष्य को जिस स्थान पर खड़ा कर दिया है, विनाश का अंधकूप उससे अधिक दूर नहीं है। भौतिक आवश्यकताएँ ही जीवन का सर्वस्व नहीं। हमारे पास पेट के साथ मस्तिष्क भी है। ईसा ने कहा है Man shall not live by bread alone (ch-4th,ver-4, सेण्ट मैथ्यू)। रोटी पेट की क्षुधा को शांत कर सकती है लेकिन हमारे मानस के लिये कुछ और भी चाहिए जो हमारी आत्मा की, हमारे मानस की क्षुधा को मिटा सके।
दूसरे, किसी एक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ना प्रगति का सच्चा मार्ग नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किसी स्थान पर कहा है -
स्वरों को निरन्तर बढ़ाते जाने पर हमें केवल चीख के अतिरिक्त कुछ मिलने वाला नहीं है। तात्पर्य यह है कि यदि हम आवश्यकताओं की वृद्धि की ओर निरन्तर बढ़ते रहे तो अन्त में हमें दुःख और अशांति के सिवाय कुछ मिलने वाला नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी यूरोप यात्रा में मिलान (इटली) के भाषण में इस एकांगी वैज्ञानिक भौतिक प्रगति की आलोचना करते हुए कहा था
"For man to come near to one another and yet to continue to ignore the claims of humanity is a sure process of suicide." ?
१. The Voice of Humanity.
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तात्पर्य यह है कि मनुष्य वैज्ञानिक प्रगति के कारण एक दूसरे के निकट आ गया है। लेकिन ऐसी स्थिति में मानवीय गुणों का विकास न करते हुए मानवता के दावों को दबाना मनुष्य जाति के लिए आत्महत्या का पथ तैयार करना है।
___ भारतीय विचारकों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि भौतिका या प्रेय के मार्ग पर व्यक्ति हमेशा बढ़ना चाहता है क्योंकि पूर्व संस्कार इसमें सहयोगी होते रहते है। जैन दर्शन के अनुसार जीव को भोग मार्ग पर चलने की आदत अनेक जन्मों से पड़ी हुई है। अतएव विद्वानों को हमेशा संयम के मार्ग पर, त्याग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देनी चाहिए।
वास्तव में हम गलत दिशा में बढ़ रहे है। भोग का मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है, वह ढलान या उतार की दिशा है, उसमें प्राणी स्वाभाविक रूप से गति करता रहता है जबकि त्याग का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, वह चढ़ाई का रास्ता है, उसके लिए प्रयत्न अपेक्षित है। यदि हमें जीवन में सामञ्जस्य स्थापित करना है तो जो भोग का या प्रवृत्ति का मार्ग है, उससे निवृत्ति करनी होगी और जो निवृत्ति का या त्याग का मार्ग है उसमें प्रवृत्ति करनी होगी। जैनशास्त्रों में इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया गया है
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणा । अर्थात् असंयम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए। सच्चा संतुलन भी इसी प्रकार स्थापित किया जा सकता है। नि:संदेह भौतिक आवश्यकताओं का मूल्य है लेकिन उनका मूल्य अध्यात्म से अधिक आँकना गलत है। वास्तव में भौतिक आवश्यकताओं को अध्यात्म की साधना में सहायक के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए। कबीरदासजी भी कहते हैं -
कबीरा छुघा कूकरी, करत भजन में भंग।
या को टुकड़ों डारि के, भजन करो निसंग।। यही नहीं, वरन् भौतिक इच्छाओं की पूर्ति सीमित रूप में ही की जानी चाहिए। वे कहते है -
सांई इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाय।। लेकिन यदि हम भौतिक आवश्यकताओं की ओर निर्बाध गति से बढ़ें तो हमें दुःख ही हाथ लगेगा।
१. उत्तराध्ययन, ३१.२।
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महात्मा बुद्ध ने भी आवश्यकताओं की अपरिमित वृद्धि (तृष्ण) के फल को दुःखद बतलाते हुए कहा है -
यमेषा सहते जाल्मा, तृष्णा लोके विषात्मिका । शोकास्तस्य प्रवधन्ते, अभिरूढमिव वीरणम्।।
यह विषैली नीच तृष्ण जिसे घेर लेती है उसके दुःख उसी प्रकार बढ़ते जैसे वीरण घास बढ़ती जाती है। दूसरे संस्कृत कवि ने कहा है
तृष्णा न जीर्ण वयमेव जीर्णा, भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः । ।
अर्थात् तृष्णा का अन्त नहीं आता है, तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती है । हम ही वृद्ध हो जाते है । भोग के भोगने की कामना समाप्त नहीं होती वरन् आयु ही समाप्त हो जाती है।
जैन ग्रन्थकारों ने भी तृष्णा को अनन्त माना है इच्छा हु आगाससमा अणंतिया’- अर्थात इच्छा आकाश के समान अनन्त है। यही नहीं वरन् आचारांग सूत्र में कहा गया है -
कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिवृहगं, ३
काम कामी खलु अयं पुरिसे से सोयइ जूरइ तिप्पई परितिप्पई ।।
काम (कामनाओं) का पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता। कामेच्छुक मनुष्य शोक किया करता है। संताप और परिताप उठाया करता है। जब तक मानव जीवन में आसक्ति (कामना) रहेगी, तब तक मानवीय दुःख लगे ही रहेंगे । सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है.
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चित्तमन्मचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि, अन्नं वा अणुजाणाई एवं दुक्खाण मुच्चई ।
जब तक मनुष्य सजीव (स्त्री) और निर्जीव ( धन-सम्पत्ति आदि) पदार्थों में आसक्ति रखता है, तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता है।
शास्त्र ही नहीं वरन् हमारे अर्थशास्त्री भी इस तथ्य को स्वीकार करते है कि हमारी इच्छाएँ अनन्त होती है, उनकी सन्तुष्टि भी स्थाई नहीं होती । इच्छाएँ अपनी सन्तुष्टि के साथ ही नवीन इच्छाओं को जन्म देती है, जैसे बंगला बनने पर फर्नीचर की इच्छा। इस प्रकार इच्छाओं या तृष्णा का यह चक्र समाप्त नहीं होता । प्रत्येक इच्छा अपने
१. धम्मपद - तृष्णवर्ग २ |
२. आचारांग २ / ९२।
-
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३. उत्तराध्ययन ९/४८ ।
४.
सूत्रकृतांग १/१/३|
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साथ तनाव लेकर उपस्थित होती है और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती हमारे अन्दर तनाव बना रहता है। संक्षेप में उनके कारण हम वास्तविक या स्थायी सुखलाभ नहीं कर सकते। जीवन में संयम द्वारा सन्तोष की प्राप्ति से ही वास्तविक सुख (Happiness) का आस्वादन हो सकता है। पतंजलि कहते है - संतोषादनुत्तमसुखलाभ: - सन्तोष से ही सर्वोत्तम सुखों की प्राप्ति होती है।
वर्तमान युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं को असीमित रूप में बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति हेतु मारा-मारा फिरता है और सुख प्राप्ति की आशा करता है। यह तो मरूभूमि में प्यास बुझाने के समान है क्योंकि बढ़ती हुई सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी भी सम्भव नहीं। आचार्य गुणभद्र कहते हैं।
आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्।
तत्कियद् कियदायाति वृथावं विषयैषिता। __प्रत्येक प्राणी की आशा रूपी खाई इतनी विशाल है कि उसके सामने सम्पूर्ण विश्व भी अणु के तुल्य है। इस सम्पूर्ण विश्व की प्राप्ति पर भी किसी की इच्छा का कितना सूक्ष्म भाग पूरा हो सकेगा। अतः विषयों को चाह व्यर्थ है। इच्छाओं की वृद्धि में सुख नहीं वरन् उनके संयम और सन्तोष में ही सुख है। महाभारत में कहा गया है -
स्व संतुष्टः स्वधर्मस्थो य: सर्वे सुखमेधते।। जो आत्मसन्तोषी और अपने धर्म में स्थित है वही सुख प्राप्त करता है।
आज हमारी सभ्यता आध्यात्मिक से भौतिक हो गई है। धर्म और मोक्ष की उपासना को छोडकर आज का मनुष्य काम और अर्थ की उपासना में लगा है। काम को भी अर्थ के अधीन कर आज हमने अर्थमूलक सभ्यता का निर्माण कर लिया है,
और इसीलिए आज का मनुष्य पैसे में सुख की खोज करता है। हमारा सभी वस्तुओं को मापने का पैमाना पैसा हो गया है लेकिन इन समस्त प्रयासों में मनुष्य के हाथ दु:ख, वैमनस्य और अशान्ति ही लगी है। पिछले दो महायुद्ध उपर्युक्त तथ्य के ज्वलंत प्रमाण है।
वास्तव में सुख में मापदंड का यह आधार ही गलत है। कहा भी गया है कि जो निर्धन होते हुए भी संतोषी है, वह साम्राज्य का सुख प्राप्त करता है -
अकिंचनोपि सन्तुष्टः साम्राज्यसुखमश्नुते। रहीम कवि ने कहा है -
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
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तात्पर्य यह है कि संयम से प्राप्त संतोष के द्वारा ही सच्चे सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
प्रगति का सच्चा स्वरूप न समझकर आज का मनुष्य जिस अर्थ के पीछे भागा जा रहा है, उसका अंतिम पड़ाव कहाँ है और उसकी प्राप्ति से उसे क्या फल प्राप्त होने वाला है? इस बात का ध्यान उसे नहीं है। हम बेतहाशा भागे जा रहे हैं, लेकिन न तो पथ का भान है और न लक्ष्य का ही, हमारी भागदौड़ वस्तुतः लक्ष्यविहीन है। ____जीवन में जिस सुख और शान्ति की प्राप्ति की अपेक्षा हमें है वह न तो इस लक्ष्यविहीन भौतिक दौड़ से प्राप्त हो सकती है, और न आवश्यकताओं को निर्बाध गति से बढ़ाने से। वास्तव में इन सबके द्वारा हम अपने अन्दर तनाव उत्पन्न कर रहे है। हम जिस सुख और शान्ति को प्राप्त करना चाहते है वह बाह्य पदार्थों में नहीं, हमारे अन्दर ही है। सुख एक आत्मिक तथ्य है। वह मुख्य रूप से आत्मगत (subjective) है लेकिन हम उसे वस्तुगत (objective) मानकर प्राप्त करना चाहते हैं। हमारी यही सबसे बड़ी भूल है।
धर्म साधना और समाज यदि हम निवर्तक जैन धर्म की सामाजिक एवं प्रासंगिकता की ओर दृष्टिपात करते है तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इसमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है।
उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है, वह यह कि जिस तरह भी आत्म-साक्षात्कार करें और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करें। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि जैन धर्म असामाजिक है या उसमें सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम होगा। उसमें भी सामाजिक भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। वह इतना तो अवश्य मानती है कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो किन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिश में ही होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य
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करते रहे। यद्यपि निवृत्तिप्रधान जैनधर्म में जो सामाजिक सन्दर्भ उपस्थित है, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। उसमें मूलत: सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से इसमें समाज-रचना एवं सामाजिक दायित्वों के पालन की अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गय है। जैन दर्शन के पंच महाव्रतों का सम्बन्ध अनिवार्यतता हमारे सामाजिक जीवन से ही है। प्रश्न व्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करूण के लिये है। पांचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही है। प्रश्न व्याकरण (१/१/२१-२२) हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार, संग्रह (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बन्धित हैं। हिंसा का अर्थ है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरूध यौन सम्बन्ध स्थापित करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या सन्दर्भ रह जाता है? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएँ जैन दर्शन ने दी हैं वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि के लिए ही है।
जैन साधना पद्धति की मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैं -
सत्वेषु मैत्री गुणोषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम्। मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ सदाममात्मा विदधातु देव।।
- सामयिक पाठ हे प्रभु! हमारे मनों में प्राणियें के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्थ भाव विद्यमान रहे। इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हो, इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है। जैन धर्म ने व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है। तीर्थंकर
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की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुण के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पव्वहये)। आचार्य समन्तभद्र लिखते है ‘सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेवं' हे प्रभु आपका अनुशासन सभी दु:खों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है। उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। जैन आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगर धर्म एवं राष्ट्र-धर्म भी उसकी समाजसापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजन-पूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए उसका योगदान महत्त्वपूर्ण है।
वस्तुत:जैन दर्शन ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उसने व्यक्ति को समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिय। वस्तुत: महावीर के युग तक समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था अत: उन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक जीवन को बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया।
सम्भवतः जैन दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है। उनमें प्रमुख है राग या आसक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता, तथा मोक्ष का प्रत्यय। ये ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं। अत: इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा आवश्यक है।
सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और जब सामान्यता यह माना जाता है कि राग से आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर ले। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के प्रभाव मात्र से सम्बन्ध टूट जाते हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं बन पाते। सामाजिक जीवन और सामाजिक सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार
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पर खड़े होते हैं तो इन सम्बन्धों के द्वारा टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं
उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव । सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत्कि ममाने परिग्रहेण ।। आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते । यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं न शक्यते ॥
संसार के सभी दुःख और भय एवं तज्जन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं। जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है। जैसे अग्नि का परित्याग किये बिना तजन्य दाह से बचना असम्भव है। राग हमें समाजिक जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है। राग के कारण ममत्व भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं और इसके परिणाम स्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, सम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं। ये ही आज की विषमता के मूल कारण हैं। जैन दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता है वह सब पर नहीं हो सकता है। अतः राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति को छोड़े बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती । सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते है । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किये बिना अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का 'ममत्व' चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्मृत हो, हमें स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वहित की
- बोधिचर्यवतार ८ / १३४-१३५
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वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। जिस प्रकार परिवार या जाति का ममत्व हमारी राष्ट्रीय एकता में बाधक है । उसी प्रकार राष्ट्रीयता का ममत्व हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा में बाधक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति जब तक राग या आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सदभाव सम्भव नहीं हो सकता, समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है अतः वीतराग या अनासक्ति दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव जाति में सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है। जैन दर्शन में राग के साथ-साथ मान (अहंकार) के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिय गया है। अहंकार भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं और इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती है यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख है। आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्व विकसित होते हैं। इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, युद्ध एवं हत्याएँ होती है और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार जन्म देती हैं। अतः यह कहना उचित ही होगा कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करनें एवं सामाजिक समत्व की स्थापना में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है, और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है । वस्तुतः आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा लोकहित भी फलित नहीं होता है। आसक्ति या कर्म-फल की अपेक्षा के साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य नहीं होता है। जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज - कल्याण अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ करता है वह केवल अपने वेतन के लिए करता है। इस प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त व्यक्ति चाहे बाहर से लोकहित
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का कर्ता दिखाई दे किन्तु वह सच्चे अर्थ में लोकहित का कर्ता नहीं है। अत: जैन दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर उठकर, लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है। अत: भारतीय दर्शन में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल दिया है वह समाजिकता का विरोधी नहीं है।
सामान्यतया जैन दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो जाता है? संन्यास के संकल्प में वह समता (सामायिक) को स्वीकार करता है और ममता का परित्याग करता है किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान, परिवार आदि के प्रति ममता का परित्याग समाज का परित्याग है? वस्तुत: समस्त एषणओं का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यासी का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं बनाता हैं, अपितु समाजकल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित नि:स्वार्थता एवं वीतरागता की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है।
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता है। भगवान् बुद्ध का यह आदेश 'चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय, लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं (विनयपिटक, महावग्ग) संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य बताता है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है जो आदर्श समाज-रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे।
राग-द्वेष सामाजिक जीवन के लिए बाधक हैं। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है। मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है जो लोग मोक्ष को एक मरणेत्तर अवस्था मानते हैं वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ
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हैं| आचार्य शंकर लिखते हैं
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देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलो: । अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः ॥
- विवेकचूड़ामणि ५५९
वस्तुतः मुक्ति का अर्थ है राग-द्वेष, तृष्ण, कषाय आदि विकारों से मुक्ति। मरणेत्तर मोक्ष या विदेह - मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है, साध्य तो है वीतरागता । जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति या वीतरागता का अनिवार्य परिणाम है। अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो वीतरागता ही है। जीवन मुक्ति या वीतराग दशा के प्रत्यक्ष की सामाजिक सार्थकत से हम इन्कार भी नहीं कर सकते क्योंकि जीवनमुक्त तीर्थंकर एक ऐसा व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिये प्रस्तुत रहता है । जैन दर्शन में तीर्थंकर, बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई है और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की समाजिक उपादेयता भी है। वह लोकमंगल और मानव-कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है क्योंकि जनजन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिये प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है। बौद्ध दर्शन में भी बोधिसत्व का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है।
बोधिसत्व और तीर्थंकर सदैव ही दीन और दुःखीजनों को दुःख से मुक्त कराने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है। इस सम्बन्ध में विनाबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है (आत्मज्ञान और दिन पृष्ठ ७१ ) इस प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है 'मैं' अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिये हमें अपने आप को समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है । मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जो कि अपने व्यकितत्व को समष्टि
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में, समाज में विलीन कर दे। इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं। अतः मुक्ति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपायदेय भी है। दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेश से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयत और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है।
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अन्त में हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोकमंगल के लिये प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है। सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।।
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मानवता की, प्रेम की, सहजता, सरलता, अनुशासन, स्पष्टवादिता, सौम्यता, संयमता, परोपकारिता, धर्म की गहनता, वाणी में मधुरता, चेहरे पर तेज, संस्कारों की खूशबू से मर्यादित जीवन-यात्रा के मुसाफिर
श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर
माशा कानागाणा बरगाजीप सांगावताना
जन्म : 3 अक्टूबर, 1918 • स्वर्गवास : 14 फरवरी, 2007
दुनिया की नज़रों में जीना हमको सीखाया आपने सिखाया हँसना अब रोने को न कहना
Jain Education international
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धन्य हुई वह पारिवारिक सद्गृहस्थी रूपी बगिया, जिसमें जन्म लिया एक ऐसे फूल ने जिसकी खूशबू से समस्त मानव जगत् महक उठा। धन्य हुई उस माँ की रत्नकुक्षी, जिससे इस गुलाब का जन्म हुआ। धन्य हुए वे पिता, जिन्होंने जन्म दिया ऐसे गुलाब को जिसने पूरे जैन जगत् में अपने गुणों की खूशबू बिखेर दी। जी हाँ, जयपुर की गलियों में पले-बढ़े श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर का जन्म 3 अक्टूबर, 1918 को पिता श्री फूलचन्द झाड़चूर के घर, माता श्रीमती बसन्तीदेवी की रत्नकुक्षी से हुआ। बचपन दिल्ली के मालीवाड़ा में बीता। तत्पश्चात् जोहरी बाजार के सोन्थलीवालों का रास्ता स्थित मकान में बीता। यहीं से आपने अपना जवाहरात का व्यवसाय किया
और उसे बुलन्दियों को छुआ। आपका विवाह जैन जगत् के प्रतिष्ठित एवं सुविख्यात श्री राजरूप टाँक की सुपुत्री शान्तिदेवी के साथ हुआ था। आपकी गृहस्थी में सात पुत्र क्रमश: श्री नेमिचन्द जी, रिखबचन्द जी, शीतलचन्द जी, रमेशचन्द जी, सुनीलकुमार जी, श्रीचन्द जी एवं विनयचन्द जी तथा एक बहन एवं चार पुत्रियाँ और आठ पौत्र व एक पौत्री है, सभी सत्संस्कारित।
आप सहजता, सरलता की प्रतिमूर्ति के रूप में विख्यात थे। आपके चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी गयी। क्रोध की कोई लकीर कभी आपके चेहरे पर नहीं देखी गयी। आप आधुनिक विचारधारा के धनी थे। मीडिया, खासतौर पर सामाजिक, धार्मिक मीडिया के प्रबल पक्षधर थे। आप कई समाचार-पत्रों के संरक्षकथे, जो इस बात का परिचायक है कि आप धार्मिक अखबारों को कितना अधिक प्रोत्साहन देते थे। यही परम्परा आजभी आपके परिवार में कायम है। आपके सुपुत्र श्री नेमिचन्द जी स्वयं गुडमॉर्निंग इण्डिया के संस्था संरक्षक हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती है कि आपका परिवार धार्मिक अखबारों के प्रोत्साहन के प्रति कितना सजग है।
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धार्मिक क्षेत्र में भी आपने अपना लोहा मनवाया । अनेकानेक धार्मिक कार्यक्रमों में आपकी उपस्थिति ही उस कार्यक्रम की सफलता की मोहर लगाती थी। आप कई संस्थाओं से जुड़े रहे, जिनमें ज्वेलर्स एसोसिएशन, कुशल संस्था, श्रीमाल सभा आदि प्रमुख हैं। यही नहीं आप धार्मिक कार्य में व्यस्त रहते और दूसरों को भी धार्मिक राह पर चलने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मानव सेवा, जीव दया को आप प्राथमिकता देते थे । आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते थे । बकौल शीतल जैन (झाड़चूर) नाराज नहीं होना यानी गुस्सा नहीं करना आपकी सबसे बड़ी खासियत थी । आपमें मिलनसारिता एवं स्पष्टवादिता के अलावा भी कई गुण थे। आपने अनेक धार्मिक यात्राएँ कीं ।
व्यवसायिक क्षेत्र में भी आपने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए, जिनमें 31 / 33, खाराकुआँ, मुम्बई -2 में सबसे पहले आपने अपना ऑफिस सन् 1947 में खोला एवं वहाँ पर आपने आढ़त का कार्य चालू किया। आज आपके सुपुत्रगण आपके व्यवसायिक साम्राज्य को आगे बढ़ाने में अग्रणी रहे हैं। अमेरिका, जापान, बैंकाक जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी जवाहरात के कार्यालय खोले । जयपुर में विदेशी ग्राहकों को लाने का श्रेय भी आपको ही है।
आप न केवल धार्मिक, सामाजिक बल्कि साहित्य के प्रति भी खासी रुचि रखते थे । आपने साहित्य के प्रति अपनी रुचि को निखारते हुए 'रत्नमाला' नामक पुस्तक का भी सम्पादन किया, जो कि पूर्व में दोहों के रूप में लिखित थी, लेकिन आपने उसका सुन्दर सरलीकरण एवं अनुवाद कर पुन: सम्पादित किया, जो जवाहरात के क्षेत्र में आने वाले नये लोगों को
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खासा सम्बल देती है। आप शास्त्रों के अच्छे खासे ज्ञाता थे। चिकित्सा के भी आप अच्छे जानकर थे, खासतौर पर आयुर्वेदिक चिकित्सा का आपको अच्छा खासा ज्ञान था। स्पष्टवादिता आपकी विशेषता थी।
सुसंस्कारों के प्रतीक, धर्म और ज्ञान के प्रतीक, सादगी और सरलता के प्रतीक, सामाजिक एकता और समरसता के प्रतीक सबको प्यार, सबसे प्रेम करने वाले श्री गुलाबचन्द जी झाड़चूर का स्वर्गवास भी प्रेम दिवस यानी वेलेंटाइन-डे पर हुआ। आपका निधन सम्पूर्ण जैन समाज का ही नहीं, बल्कि मानव जाति की अपूरणीय क्षति है। आपके परिवारजन ने संकट और दुःख की घड़ी में भी अपना आत्मबल और आपा नहीं खोया और दुःखद स्थिति होने के बावजूद आपके परिजनों ने आपके नेत्रदान किए, जिससे आपकी आँखों की रोशनी से दो अन्धेरी ज़िन्दगियों में रोशनी कर गयीं।
आप अपने नाम के ही अनुरूप सामाजिक एकता और प्रेम की खुशबू से समाज को महकाते रहे। आप चले गये, लेकिन संस्कारों का बीजारोपण कर गए, जो आपके परिवार में निरन्तर वृद्धि की ओर अग्रसर रहेगा। आपके बताये मार्ग पर चलकर आपके सिद्धान्तों पर खरा उतरने का प्रयास करना ही आपको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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डॉ. सागरमल जैन
जन्म
जन्म स्थान
अकादमिक उपलब्धियाँ : प्रवक्ता म.प्र. शास. शिक्षा सेवा
सहायक प्राध्यापक
प्राध्यापक (प्रोफेसर)
निदेशक,
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी लेखन
सम्पादन
प्रधान सम्पादक
पुरस्कार :
प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार
स्वामी प्रणवानन्द पुरस्कार डिप्टीमल पुरस्कार आचार्य हस्तीमल स्मृति सम्मान सदस्य : अकादमिक समिति
सम्प्रति
विदेश भ्रमण
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1.
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दि. 22.02.1932
शाजापुर (म.प्र.) साहित्यरत्न : 1954
एम.ए. (दर्शन शास्त्र) : 1963
पी-एच.डी. : 1969
1964-67
1968-85
1985-89
1979-97
30 पुस्तकें, 60 लघु पुस्तिकाएँ
150 पुस्तकें
जैन विद्या विश्वकोष (पार्श्वनाथ विद्यापीठ की
महत्वाकांक्षी परियोजना)
'श्रमण' त्रैमासिक शोध पत्रिका
1986, 1998
1987
1992
1994
'विद्वत परिषद्, भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल; जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं
■ मानद निदेशक, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर ।
• संस्थापक, प्रबंध न्यासी एवं निदेशक
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
■ सचिव, प्रबन्ध समिति, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। शिकागो, राले, ह्यूस्टन, न्यू जर्सी, उत्तरी करोलीना, वाशिंगटन, सेनफ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फिनीक्स, सेंट लुईस, पिट्सबर्ग, टोरण्टो, न्यूयार्क, कनाडा और यू. के.
Page #80
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________________ प्राच्य विद्यापीठ: एक परिचय डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 से संचालित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुन: प्रतिष्ठित करना है। इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म आदि के लगभग 10,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है / इसके अतिरिक्त 700 हस्त लिखित पाण्डुलिपियाँ है। यहाँ 40 पत्र-पत्रिकाएँ भी नियमित आती है। इस परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिए अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तम व्यवस्था है। शोधकार्यों के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है। इसे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा शोध संस्थान के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। For PrPrinted at Akrati OffsethJJAIN Ph. 0734-25617200,98276772780ral