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दर्शन, सम्यक्-चारित्र और सम्यक्-तप क्रमश: अनन्त ज्ञान,अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति की उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्धि बन जाती है। आत्मा का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ज्ञान की साधना के द्वारा अनन्त ज्ञान को प्रकट कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष सम्यक्-दर्शन की साधना के द्वारा अनन्तदर्शन की उपलब्धि कर लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक पक्ष सम्यक्-चारित्र की साधना के द्वारा अनन्त सौख्य की उपलब्धि कर लेता है और आत्मा की क्रियाशक्ति सम्यक्-तप की साधना के द्वारा अनन्त शक्ति को उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो साधक चेतना का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना बन जाता है और उसी की पूर्णता साध्य होती है। साधना पथ और साध्य दोनों ही आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं।
आत्मा की विभावदशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में आसक्ति या रागभाव उसका बन्धन है, अपने इस रागभाव आसक्ति या ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वह साधना है और उस आसक्ति, ममत्व या रागभाव का टूट जाना ही मुक्ति है, यही आत्मा का परमात्मा बन जाना है। जैन साधकों ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी है१. बहिरात्मा , २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा।
सन्त आनन्दघन जी कहते हैं - त्रिविध सकल तनधर गत आतमा, बहिरातम अघ रूप सुज्ञानी।
बीजो अन्तर आतमा तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी।। विषय-भोगों में उलझा हुआ आत्मा बहिरात्मा है। संसार के विषय-भोगों में उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया है, जो विषय-विकार से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित है वह परमात्मा है।
आत्मा और परमात्मा आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कहा गया है . 'अप्पा सो परमप्पा'। आत्मा ही परमात्मा है। प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक चेतनसत्ता परमात्मा स्वरूप है।
मोह और ममता के कोहरे में हमारा वह परमात्म स्वरूप छुप गया है। जैसे बादलों के आवरण में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता है और अन्धकार घिर जाता है, उसी प्रकार
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