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________________ जैन धर्म में साध्य और साधक दोनों में अन्तर इस बात को लेकर है कि आत्मा की विभाव दशा ही साधक की अवस्था है और आत्मा की स्वभाव दशा ही सिद्धावस्था है। जैन साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं, वह तो साधक का अपना ही निजरूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर ही है। साधक को उसे पाना भी नहीं है क्योंकि पाया तो वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो। धर्म साधना का साध्य बाह्य उपलब्धि नहीं, आन्तरिक उपलब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपना ही अनावरण है, अपने आपको उघाड़ना है, अपने निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित है, साधक को केवल उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है। जैसे बीज वृक्ष के रूप में विकसित होता है वैसे ही मुक्तावस्था में आत्मा के निज गुण पूर्णरूप में प्रकटित हो जाते हैं। साधक आत्मा के ज्ञान, भाव (अनुभूति) और संकल्प के तत्त्व ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं। वह आत्मा जो कषाय और राग-द्वेष से युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, वही आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमरमनिजी के शब्दों में जैन साधना के स्व में स्व को उपलब्ध करना है, निज में निज की शोध करना है, अनन्त में पूर्णरूपेण रममाण होना है-आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन विचारणा में तात्त्विक दृष्टि से साध्य और साधक दोनों एक ही है यद्यपि पर्यायार्थिक दृष्टि या व्यवहारनय से उनमें भेद माना गया है। आत्मा की स्वभाव पर्याय या स्वभाव दशा साध्य है और आत्मा की विभावपर्याय की अवस्था ही साधक है और विभाव से स्वभाव की ओर आना यही साधना है। साधना पथ और साध्य - जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी प्रकार साधना मार्ग और साध्य में भी अभेद है। जीवात्मा अपने ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है, उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित होने पर साधना पथ बन जाते हैं, वहाँ जब अपनी पूर्णता को प्रकट कर लेते हैं तो हम सिद्ध बन जाते है। जैन धर्म के अनुसार सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-तप यह साधना पथ है और जब सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-चारित्र और सम्यक्-तप यह साधना पथ हैं और जब सम्यक्-ज्ञान, सम्यक् 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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