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________________ है कि चेतना अनन्त है क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षमतायें सान्त एवं सीमित है। सीमा या अपूर्णता को जानने के लिए असीम एवं पूर्ण का बोध भी आवश्यक है। जब हमारी चेतना यह ज्ञान रखती है कि वह सान्त, सीमित एवं अपूर्ण है, तो उसका सीमित होने का यह ज्ञान ही स्वयं उसे इस सीमा के परे ले जाता है। इस प्रकार ब्रेडले स्व में निहित पूर्णता की चाह का संकेत करते हैं। आत्मा पूर्ण है अर्थात् अनन्त चतुष्टय से युक्त है यह बात जैन दर्शन के एक विद्यार्थी के लिए नई नहीं है। वस्तुत: जैन धर्म के अनुसार पूर्णता हमारी क्षमता है, योग्यता नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमे अपनी अपूर्णता का बोध होता है, यह अपूर्णता का बोध पूर्णता की चाह का संकेत अवश्य है, लेकिन पूर्णता की उपलब्धि नहीं। यह आत्मपूर्णता ही हमारा साध्य है। जैन दर्शन की दृष्टि से हमारी ज्ञान, भाव और संकल्प की शक्तियों का अनन्त ज्ञान अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति के रूप में विकसित हो जाना ही आत्मपूर्णता है। आत्मशक्तियों का अनावरण एवं उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति में ही आत्मपूर्णता है और यही नैतिक जीवन का साध्य है। इस प्रकार जैन धर्म का आत्मपूर्णता का साध्य मानवीय चेतना के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर ही आधारित है। साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध - जैन धर्म में साध्य और साधक में अभेद माना गया है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि परद्रव्य का परिहार और शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है। अध्यात्मतत्त्वालोक में मुनि न्यायविजयजी कहते हैं कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है। जहाँ तक आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार हैं, और उनकी ही जब अपने वशीभूत कर लेता है, मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन धर्म का साध्य अर्थात् मोक्ष और साधक दोनों ही आत्मा की दो अवस्थाएँ (पर्याय) हैं। दोनों में मौलिक अन्तर यही है कि आत्मा जब तक विषय और कषायों के वशीभूत होता है तब तक बन्धन में होता है और जब उन पर विजय लाभ कर लेता है तब वही मुक्त बन जाता है। आत्मा की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती है और विशुद्ध आत्म-तत्त्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति मानना एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। १. Ethical Studies, Chapter ll. २. समयसार टीका, ३०५। ३. योगशास्त्र, ४५। ४. अध्यात्मतत्त्वालोक, ४६। 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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