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________________ फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस श्रद्धा और भक्ति का अर्थ अन्धश्रद्धा या अन्धविश्वास नहीं है । वह मात्र विपदा के क्षणों में आत्म- संतोष के लिए है। कर्म सिद्धान्त या ईश्वर के प्रति समर्पण का यह अर्थ भी नहीं है कि हम जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ को छोड़कर भाग्यवादी और अकर्मण्य बन जायें। हमें स्पष्ट रूप से इस बात को विश्वास में रखना होगा कि हम अपने नियामक हैं । कर्तव्य को करना यह हमारा दायित्व है। जैनधर्म में आस्था और विश्वास का अर्थ कर्तव्य विमुख होना नहीं है। जिस प्रकार समुद्र में भटकते हुए जहाज के लिए स्वयं कुछ न करके भी प्रकाश स्तम्भ एक त्राणदाता होता है । उसी प्रकार दुःख के सागर में उतराते हम पामर प्राणियों के लिए वीतराग प्रभु हमारे लिए कुछ नहीं करता हुआ भी त्राणदाता होता है। वह एक प्रकाश - स्तम्भ है, मार्गदर्शक है, आदर्श है, जिसके आलोक में हम अपनी यात्रा कर सकते है । किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि यात्रा स्वयं हमें करना है। विष्णुपुराण में -- स्वधर्मकर्मविमुखः कृष्ण कृष्णेति वा दिन: । ते हरिद्वेषिणो मूढाः धर्मार्थ जन्म यद्धरेः ॥ जो लोग अपने कर्तव्य को छोड़ बैठते हैं और केवल कृष्ण-कृष्ण कहकर भगवान् का नाम जपते है वे वस्तुतः भगवान् के शत्रु और पापी है। क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान् ने भी जन्म लिया था। भक्ति में त्याग कर्म-फल का करना है, कर्म (कर्तव्य) का नहीं। बाइबिल में भी कहा गया है कि हर कोई जो ईशा - ईशा पुकारता है स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पायेगा अपितु वह पायेगा जो परमपिता के इच्छा के अनुसार काम करता हैं (बाइबिल जोन २.९ - ११) | महावीर ने कहा है कि 'एक मेरा नाम स्मरण करता है, दूसरा मेरी आज्ञाओं का पालन करता है । उनमें जो मेरी आज्ञाओं का पालन करता है, वही सच्चे रूप में मेरी उपासना करता हैं' । वस्तुतः श्रद्धा या भक्ति आवश्यक तो है किन्तु वह कर्तव्यविमुखता की सूचक नहीं है । जिस प्रकार अपने पथ पर यह दृढ़ आस्था रखकर कि यह मुझे गन्तव्य तक पहुँचायेगा, कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है । उसी प्रकार आस्था का सम्बल लेकर जो व्यक्ति जीवन में कर्तव्य करता है वही जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। सन्त आनन्दघन ने स्पष्ट रूप से कहा है Jain Education International सुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी छारपर लीपनो तेह जानो रे। जिस प्रकार राख पर लीपना निरर्थक होता है उसी प्रकार श्रद्धा के अभाव में धर्म क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं है। किन्तु आचरण के अभाव में श्रद्धा का भी मूल्य नहीं है। 44 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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