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को भी स्थान दिया गया है। यह मानता है कि भूत हमारे हाथ में नहीं था किन्तु अपने भविष्य के निर्माता तो हम स्वयं ही हैं। एक परानियमक के रूप में कर्म सिद्धान्त में जैनों की आस्था अटूट है और वही उन्हें दुःख और पीड़ा के क्षणों में समभाव और शान्ति का सम्बल प्रदान करती है। एक जैन कवि कहता है -
रे जीव साहस आदल्हे, मत थावो तुम दाहहहह
हुखदुःख यापद-सम्पदा, पसब करम अधीन।। कर्म नियम के प्रति यह अटूट आस्था ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी समता को विचलित होने से बचा सकता है। इसी बात को एक अन्य रूप में इस प्रकार कहा गया
है -
ज्ञानी देखी ज्ञान में निश्चय वर्ते सोय।
जो जो पदगल फरसना निश्चय फरसे सोय।। अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु ने जो अपने भावी के ज्ञान में जान लिया है वह भवितव्यता घटित होती ही है। ऐसी स्थिति में हमें सुख हो या दुःख अपने मन की समता को विचलित नहीं होने देना चाहिए।
आस्था चाहे वह परानियम के प्रति हो या पराशक्ति के प्रति, निश्चित ही वह दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में मनुष्य को एक शान्ति और शक्ति प्रदान करती है। जिन धर्मों में ईश्वर के प्रति आस्था या श्रद्धा को आवश्यक माना गया है वे सभी यही उपदेश देते हैं कि व्यर्थ की दुश्चिन्ताओं और तनावों से तभी बचा जा सकता है जब वह अपनी समस्त इच्छाओं और आकांक्षाओं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दे और अपने को उस देवी योजना का एक अंग मानकर अपना जीवन -व्यवहार चलाये। जिस प्रकार एक छोटा बालक अपने को अपने माता-पिता की शरण में समस्त भावी दुःख और चिन्ताओं से मुक्त अनुभव करता है और आनन्द से जीवन व्यतीत करता है उसी प्रकार एक सच्चा साधक ईश्वर कर्म नियम या प्रकृति की व्यवस्था - चाहे हम उसे कुछ भी कहें - पर अटल विश्वास रखकर अपने मन की शान्ति को बनाये रख सकता है। भक्ति और श्रद्धा का जो महत्त्व है वह इसीलिए कि उसके माध्यम से हम एक निश्चिन्त और शान्त जीवन जी सकते हैं। जीवन में जो कुछ अच्छा या बुरा घटित होता है, सम्पदा और विपदा आती है, उसे प्रभुः इच्छा या कर्म नियम की अटल व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर हम अपने मन की शान्ति को बनाये रख सकते हैं। मेरी दृष्टि में श्रद्धा और भक्ति की साधना के क्षेत्र में यही उपयोगिता है कि वह हमें आकांक्षाओं से, विक्षोभो से, तनावों से और अशान्त मनोदशाओं से मुक्त करके वह समता, समाधि और शान्ति प्रदान करती है।
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