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साधना का मनोविज्ञान
धर्म साधना का लक्ष्य साध्य की उपलब्धि या सिद्धि है। वह हमें यह बताती है कि हमें क्या होना है। किन्तु हमें क्या होना है, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या है ? हमारी क्षमतायें एवं सम्भावनायें क्या हैं? ऐसा साध्य या आदर्श, जिसे उपलब्ध करने की क्षमतायें हममें न हो, जिसका प्राप्त करना हमारे लिए सम्भव नहीं हो, एक छलना ही होगा। जैन दर्शन ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को अधिक गम्भीरता से समझा है और अपनी साधना-पद्धति को ठोस मनोवैज्ञानिक नींव पर खड़ा किया है।
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हमारा निज स्वरूप - जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? और आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है ? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उतर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है । महावीर ने कहा था 'आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है । " " वस्तुतः जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँवहाँ समत्व संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में जीवन गतिशील सन्तुलन है । र स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के सन्तुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस सन्तुलन को बनाने का प्रयास करता है । यह सन्तुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समयोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्ण है । समायोजन और सन्तुलन के प्रयास (प्रोसेस आफ एडजस्टमेन्ट) ही जीवन है और उसका अभाव मृत्यु है। · मृत्यु और कुछ नहीं, मात्र शारीरिक स्तर पर सन्तुलन बनाने की इस प्रक्रिया का असफल होकर टूट जाना है।' अध्यात्मशास्त्र के अनुसार जीवन न तो जन्म है और न मृत्यु | जन्म उसका किसी शरीर में प्रारंभ बिन्दु है तो मृत्यु उस शरीर में उसके अभाव की उद्घोणा करने वाला तथ्य। जीवन इन दोनों से ऊपर है, जन्म और मृत्यु तो एक शरीर में उसके आगमन
१. आयाए सामाइए आय समाइस्स अट्ठे। भगवतीसूत्र।
२. जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि पृ. २५९ ।
३. फर्स्ट प्रिन्सपल्स - स्पेन्स्ट, पृ. ६६ ।
४. Five Types of Ethical Theories, p. 16
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