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________________ अथवा साक्षी भाव या दृष्टा भाव ही एक ऐसा तत्त्व है जिस पर धर्म की आधार-शिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद का सीधा और साफ अर्थ है आत्म चेतनता या आत्म-जागृति का अभाव। अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का दृष्टा है। मनुष्य की मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में रही हुई है कि वह सदैव अपने आचार और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना सजग होना चाहिये। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति यदि आप पूरी तरह से आत्म-चेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हैं। जिसे हम सम्यक् दर्शन कहते हैं, मेरी धारणा में उसका अर्थ यही आत्म-दर्शन या आत्म-जागृति अथवा दृष्टा एवं साक्षी भाव की स्थिति है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मदृष्टा होने का मतलब है खुद के अन्दर झांकना, अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता है वही आत्मदृष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं बन सकता है। भगवान बुद्ध ने इसी आत्म-चेतनता की स्मृति के रूप में पारिभाषित किया है। सम्यक् स्मृति बौद्ध धर्म के साधना मार्ग का एक महत्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाये रखो। धम्मपद में वे कहते हैं - अपमादो अमत पदं पमादो मच्चूनो पदं' अर्थात् अप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। स्मृतिवान होना सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की आवश्यक कसौटी है। आचारांग में भगवान महावीर ने एक बहुत ही सुन्दर बात कही है, वे कहते - 'सत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् जो सोया हुआ है, सजग या आत्मेतन नहीं है वह अमुनि है और जो सजग है, जागृत है आत्म-चेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, अपने अन्दर झाँक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी गन्दगी को देख सकता है। आत्मदृष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब यही है। हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, भावावेशों, विषय-विकारों राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों के प्रति सजग रहे, सावधान रहें, उन्हें देखते रहे। समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे ऐसे विचाकर हैं, जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता 'सेल्फ अवेयरनेस' ही एक ऐसी स्थिति है जिसे किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी माना जा सकता है। यद्यपि यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हिंसादि कर्म 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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