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तात्पर्य यह है कि संयम से प्राप्त संतोष के द्वारा ही सच्चे सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
प्रगति का सच्चा स्वरूप न समझकर आज का मनुष्य जिस अर्थ के पीछे भागा जा रहा है, उसका अंतिम पड़ाव कहाँ है और उसकी प्राप्ति से उसे क्या फल प्राप्त होने वाला है? इस बात का ध्यान उसे नहीं है। हम बेतहाशा भागे जा रहे हैं, लेकिन न तो पथ का भान है और न लक्ष्य का ही, हमारी भागदौड़ वस्तुतः लक्ष्यविहीन है। ____जीवन में जिस सुख और शान्ति की प्राप्ति की अपेक्षा हमें है वह न तो इस लक्ष्यविहीन भौतिक दौड़ से प्राप्त हो सकती है, और न आवश्यकताओं को निर्बाध गति से बढ़ाने से। वास्तव में इन सबके द्वारा हम अपने अन्दर तनाव उत्पन्न कर रहे है। हम जिस सुख और शान्ति को प्राप्त करना चाहते है वह बाह्य पदार्थों में नहीं, हमारे अन्दर ही है। सुख एक आत्मिक तथ्य है। वह मुख्य रूप से आत्मगत (subjective) है लेकिन हम उसे वस्तुगत (objective) मानकर प्राप्त करना चाहते हैं। हमारी यही सबसे बड़ी भूल है।
धर्म साधना और समाज यदि हम निवर्तक जैन धर्म की सामाजिक एवं प्रासंगिकता की ओर दृष्टिपात करते है तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इसमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है।
उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है, वह यह कि जिस तरह भी आत्म-साक्षात्कार करें और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करें। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि जैन धर्म असामाजिक है या उसमें सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम होगा। उसमें भी सामाजिक भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। वह इतना तो अवश्य मानती है कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो किन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिश में ही होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य
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