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________________ साथ तनाव लेकर उपस्थित होती है और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती हमारे अन्दर तनाव बना रहता है। संक्षेप में उनके कारण हम वास्तविक या स्थायी सुखलाभ नहीं कर सकते। जीवन में संयम द्वारा सन्तोष की प्राप्ति से ही वास्तविक सुख (Happiness) का आस्वादन हो सकता है। पतंजलि कहते है - संतोषादनुत्तमसुखलाभ: - सन्तोष से ही सर्वोत्तम सुखों की प्राप्ति होती है। वर्तमान युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं को असीमित रूप में बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति हेतु मारा-मारा फिरता है और सुख प्राप्ति की आशा करता है। यह तो मरूभूमि में प्यास बुझाने के समान है क्योंकि बढ़ती हुई सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी भी सम्भव नहीं। आचार्य गुणभद्र कहते हैं। आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्। तत्कियद् कियदायाति वृथावं विषयैषिता। __प्रत्येक प्राणी की आशा रूपी खाई इतनी विशाल है कि उसके सामने सम्पूर्ण विश्व भी अणु के तुल्य है। इस सम्पूर्ण विश्व की प्राप्ति पर भी किसी की इच्छा का कितना सूक्ष्म भाग पूरा हो सकेगा। अतः विषयों को चाह व्यर्थ है। इच्छाओं की वृद्धि में सुख नहीं वरन् उनके संयम और सन्तोष में ही सुख है। महाभारत में कहा गया है - स्व संतुष्टः स्वधर्मस्थो य: सर्वे सुखमेधते।। जो आत्मसन्तोषी और अपने धर्म में स्थित है वही सुख प्राप्त करता है। आज हमारी सभ्यता आध्यात्मिक से भौतिक हो गई है। धर्म और मोक्ष की उपासना को छोडकर आज का मनुष्य काम और अर्थ की उपासना में लगा है। काम को भी अर्थ के अधीन कर आज हमने अर्थमूलक सभ्यता का निर्माण कर लिया है, और इसीलिए आज का मनुष्य पैसे में सुख की खोज करता है। हमारा सभी वस्तुओं को मापने का पैमाना पैसा हो गया है लेकिन इन समस्त प्रयासों में मनुष्य के हाथ दु:ख, वैमनस्य और अशान्ति ही लगी है। पिछले दो महायुद्ध उपर्युक्त तथ्य के ज्वलंत प्रमाण है। वास्तव में सुख में मापदंड का यह आधार ही गलत है। कहा भी गया है कि जो निर्धन होते हुए भी संतोषी है, वह साम्राज्य का सुख प्राप्त करता है - अकिंचनोपि सन्तुष्टः साम्राज्यसुखमश्नुते। रहीम कवि ने कहा है - गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।। 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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