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महात्मा बुद्ध ने भी आवश्यकताओं की अपरिमित वृद्धि (तृष्ण) के फल को दुःखद बतलाते हुए कहा है -
यमेषा सहते जाल्मा, तृष्णा लोके विषात्मिका । शोकास्तस्य प्रवधन्ते, अभिरूढमिव वीरणम्।।
यह विषैली नीच तृष्ण जिसे घेर लेती है उसके दुःख उसी प्रकार बढ़ते जैसे वीरण घास बढ़ती जाती है। दूसरे संस्कृत कवि ने कहा है
तृष्णा न जीर्ण वयमेव जीर्णा, भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः । ।
अर्थात् तृष्णा का अन्त नहीं आता है, तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती है । हम ही वृद्ध हो जाते है । भोग के भोगने की कामना समाप्त नहीं होती वरन् आयु ही समाप्त हो जाती है।
जैन ग्रन्थकारों ने भी तृष्णा को अनन्त माना है इच्छा हु आगाससमा अणंतिया’- अर्थात इच्छा आकाश के समान अनन्त है। यही नहीं वरन् आचारांग सूत्र में कहा गया है -
कामा दुरतिक्कमा, जीवियं दुप्पडिवृहगं, ३
काम कामी खलु अयं पुरिसे से सोयइ जूरइ तिप्पई परितिप्पई ।।
काम (कामनाओं) का पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता। कामेच्छुक मनुष्य शोक किया करता है। संताप और परिताप उठाया करता है। जब तक मानव जीवन में आसक्ति (कामना) रहेगी, तब तक मानवीय दुःख लगे ही रहेंगे । सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है.
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चित्तमन्मचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि, अन्नं वा अणुजाणाई एवं दुक्खाण मुच्चई ।
जब तक मनुष्य सजीव (स्त्री) और निर्जीव ( धन-सम्पत्ति आदि) पदार्थों में आसक्ति रखता है, तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता है।
शास्त्र ही नहीं वरन् हमारे अर्थशास्त्री भी इस तथ्य को स्वीकार करते है कि हमारी इच्छाएँ अनन्त होती है, उनकी सन्तुष्टि भी स्थाई नहीं होती । इच्छाएँ अपनी सन्तुष्टि के साथ ही नवीन इच्छाओं को जन्म देती है, जैसे बंगला बनने पर फर्नीचर की इच्छा। इस प्रकार इच्छाओं या तृष्णा का यह चक्र समाप्त नहीं होता । प्रत्येक इच्छा अपने
१. धम्मपद - तृष्णवर्ग २ |
२. आचारांग २ / ९२।
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३. उत्तराध्ययन ९/४८ ।
४.
सूत्रकृतांग १/१/३|
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