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तात्पर्य यह है कि मनुष्य वैज्ञानिक प्रगति के कारण एक दूसरे के निकट आ गया है। लेकिन ऐसी स्थिति में मानवीय गुणों का विकास न करते हुए मानवता के दावों को दबाना मनुष्य जाति के लिए आत्महत्या का पथ तैयार करना है।
___ भारतीय विचारकों ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि भौतिका या प्रेय के मार्ग पर व्यक्ति हमेशा बढ़ना चाहता है क्योंकि पूर्व संस्कार इसमें सहयोगी होते रहते है। जैन दर्शन के अनुसार जीव को भोग मार्ग पर चलने की आदत अनेक जन्मों से पड़ी हुई है। अतएव विद्वानों को हमेशा संयम के मार्ग पर, त्याग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देनी चाहिए।
वास्तव में हम गलत दिशा में बढ़ रहे है। भोग का मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है, वह ढलान या उतार की दिशा है, उसमें प्राणी स्वाभाविक रूप से गति करता रहता है जबकि त्याग का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, वह चढ़ाई का रास्ता है, उसके लिए प्रयत्न अपेक्षित है। यदि हमें जीवन में सामञ्जस्य स्थापित करना है तो जो भोग का या प्रवृत्ति का मार्ग है, उससे निवृत्ति करनी होगी और जो निवृत्ति का या त्याग का मार्ग है उसमें प्रवृत्ति करनी होगी। जैनशास्त्रों में इस तथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया गया है
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणा । अर्थात् असंयम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए। सच्चा संतुलन भी इसी प्रकार स्थापित किया जा सकता है। नि:संदेह भौतिक आवश्यकताओं का मूल्य है लेकिन उनका मूल्य अध्यात्म से अधिक आँकना गलत है। वास्तव में भौतिक आवश्यकताओं को अध्यात्म की साधना में सहायक के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए। कबीरदासजी भी कहते हैं -
कबीरा छुघा कूकरी, करत भजन में भंग।
या को टुकड़ों डारि के, भजन करो निसंग।। यही नहीं, वरन् भौतिक इच्छाओं की पूर्ति सीमित रूप में ही की जानी चाहिए। वे कहते है -
सांई इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाय।। लेकिन यदि हम भौतिक आवश्यकताओं की ओर निर्बाध गति से बढ़ें तो हमें दुःख ही हाथ लगेगा।
१. उत्तराध्ययन, ३१.२।
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