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________________ कहकर यह भाव व्यक्त कर दिया कि यह न तो अपना ही है और न आदर्श ही। वरन् यह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पड़ाव मात्र है। हमारी यात्रा का लक्ष्य तो है उस आध्यात्मिक आदर्श को प्राप्त करना, जो कि अपना है। लेकिन जिस प्रकार पथिक को अपनी यात्रा में बढ़ने के लिये बीच-बीच में सराय के मालिकों को किराया देकर विश्राम करना भी आवश्यक है, उसी प्रकार हमें जीवन में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी जरूरी होता है। भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना कर आध्यात्मिक आदर्शों की बात नहीं की जा सकती। मनुष्य में पाशविक और दैवी वृत्तियों का संयोग है। यदि मनुष्य में निम्न वृत्तियों का अभाव हो जाता है तो वह मनुष्य से देव बन जाता है और इसी प्रकार यदि उसमें दैवी वृत्तियों का अभाव होता है तो वह पशु ही कहला सकता है। कहा भी है - येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मृत्यु लोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जाति के सच्चे विकास हेतु भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रवृत्तियों में संतुलन स्थापित करना होगा। यदि मानव जीवन के सम्पूर्ण पक्ष को भौतिकता के आवरण में दबाने का प्रयत्न किया गया तो निश्चित रूप से मानवजाति अपने अंतिम प्रयाण की तैयारी करेगी। वर्तमान भौतिकवाद ने मनुष्य को जिस स्थान पर खड़ा कर दिया है, विनाश का अंधकूप उससे अधिक दूर नहीं है। भौतिक आवश्यकताएँ ही जीवन का सर्वस्व नहीं। हमारे पास पेट के साथ मस्तिष्क भी है। ईसा ने कहा है Man shall not live by bread alone (ch-4th,ver-4, सेण्ट मैथ्यू)। रोटी पेट की क्षुधा को शांत कर सकती है लेकिन हमारे मानस के लिये कुछ और भी चाहिए जो हमारी आत्मा की, हमारे मानस की क्षुधा को मिटा सके। दूसरे, किसी एक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ना प्रगति का सच्चा मार्ग नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किसी स्थान पर कहा है - स्वरों को निरन्तर बढ़ाते जाने पर हमें केवल चीख के अतिरिक्त कुछ मिलने वाला नहीं है। तात्पर्य यह है कि यदि हम आवश्यकताओं की वृद्धि की ओर निरन्तर बढ़ते रहे तो अन्त में हमें दुःख और अशांति के सिवाय कुछ मिलने वाला नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी यूरोप यात्रा में मिलान (इटली) के भाषण में इस एकांगी वैज्ञानिक भौतिक प्रगति की आलोचना करते हुए कहा था "For man to come near to one another and yet to continue to ignore the claims of humanity is a sure process of suicide." ? १. The Voice of Humanity. 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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