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________________ करते रहे। यद्यपि निवृत्तिप्रधान जैनधर्म में जो सामाजिक सन्दर्भ उपस्थित है, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। उसमें मूलत: सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से इसमें समाज-रचना एवं सामाजिक दायित्वों के पालन की अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गय है। जैन दर्शन के पंच महाव्रतों का सम्बन्ध अनिवार्यतता हमारे सामाजिक जीवन से ही है। प्रश्न व्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करूण के लिये है। पांचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही है। प्रश्न व्याकरण (१/१/२१-२२) हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार, संग्रह (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बन्धित हैं। हिंसा का अर्थ है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरूध यौन सम्बन्ध स्थापित करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या सन्दर्भ रह जाता है? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएँ जैन दर्शन ने दी हैं वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि के लिए ही है। जैन साधना पद्धति की मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैं - सत्वेषु मैत्री गुणोषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम्। मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ सदाममात्मा विदधातु देव।। - सामयिक पाठ हे प्रभु! हमारे मनों में प्राणियें के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्थ भाव विद्यमान रहे। इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हो, इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है। जैन धर्म ने व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है। तीर्थंकर 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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