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________________ की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुण के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पव्वहये)। आचार्य समन्तभद्र लिखते है ‘सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेवं' हे प्रभु आपका अनुशासन सभी दु:खों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है। उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। जैन आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगर धर्म एवं राष्ट्र-धर्म भी उसकी समाजसापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजन-पूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए उसका योगदान महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत:जैन दर्शन ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उसने व्यक्ति को समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिय। वस्तुत: महावीर के युग तक समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था अत: उन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक जीवन को बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। सम्भवतः जैन दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है। उनमें प्रमुख है राग या आसक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता, तथा मोक्ष का प्रत्यय। ये ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं। अत: इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा आवश्यक है। सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और जब सामान्यता यह माना जाता है कि राग से आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर ले। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के प्रभाव मात्र से सम्बन्ध टूट जाते हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं बन पाते। सामाजिक जीवन और सामाजिक सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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