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वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो ! पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं !
जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - "परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।” एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें। दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचारांगसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि -
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“सवे सत्ता ण हंतव्वा,
एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए"
" अर्थात् भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत् होंगे, वे सभी एक ही सन्देश देते हैं कि किसी प्राणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसका घात नहीं करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं. पहुँचानी चाहिए, यही एकमात्र शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है।" इस धर्म की लोककल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है और यही धर्म का सार-तत्त्व है। कहा है
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यही है इबादत, यही है, दीनो इमाँ । कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसा ।
दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यहीं धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है
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परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।
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अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोक-मंगल की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है, वस्तुतः वह न धर्म है और न अहिंसा । अहिंसा केवल दूसरों को पीडा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें लोक-मंगल और लोककल्याण का अजस्र-स्त्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है,
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