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________________ भोज के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेगा। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्म-संयम की संभावनाएँ हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित होकर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते है कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म-नियंत्रण या संयम की सामर्थ्य है। इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत है, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियंत्रित किया जाय? जैविक आवेगों के अनियंत्रत का जीवन अधर्म का जीवन है । मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करें। यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धर्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियंत्रित करता रहे। मनुष्य का सामाजिक धर्म धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या हैं ? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है ? वह कौन सा तत्त्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है ? इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awareness), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्त्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं। इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना । पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है। सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) । वैसे तो समूह - जीवन पशओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की यह समूह - जीवन की शैली उनसे कुछ भिन्न है । पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन्हें उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है । मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व-बोध और कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु वह एक अन्ध मूलप्रवृत्ति है। पशु विवश होता है, उस अन्ध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतंत्र होती है। उसमें अपने दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शाय ने कहा भी है - Jain Education International 27 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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